अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 19
ऋषिः - अथर्वा
देवता - कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - विराट् सूक्त
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स॒प्त छन्दां॑सि चतुरुत्त॒राण्य॒न्यो अ॒न्यस्मि॒न्नध्यार्पि॑तानि। क॒थं स्तोमाः॒ प्रति॑ तिष्ठन्ति॒ तेषु॒ तानि॒ स्तोमे॑षु क॒थमार्पि॑तानि ॥
स्वर सहित पद पाठस॒प्त । छन्दां॑सि । च॒तु॒:ऽउ॒त्त॒राणि॑ । अ॒न्य: । अ॒न्यस्मि॑न् । अधि॑ । आर्पि॑तानि । क॒थम् । स्तोमा॑: । प्रति॑ । ति॒ष्ठ॒न्ति॒ । तेषु॑ । तानि॑ । स्तोमे॑षु । क॒थम् । आर्पि॑तानि ॥९.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
सप्त छन्दांसि चतुरुत्तराण्यन्यो अन्यस्मिन्नध्यार्पितानि। कथं स्तोमाः प्रति तिष्ठन्ति तेषु तानि स्तोमेषु कथमार्पितानि ॥
स्वर रहित पद पाठसप्त । छन्दांसि । चतु:ऽउत्तराणि । अन्य: । अन्यस्मिन् । अधि । आर्पितानि । कथम् । स्तोमा: । प्रति । तिष्ठन्ति । तेषु । तानि । स्तोमेषु । कथम् । आर्पितानि ॥९.१९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पदार्थ
(चतुरुत्तराणि) [धर्म अर्थ काम मोक्ष] चतुर्वर्ग से अधिक उत्तम किये गये (सप्त) सात (छन्दांसि) ढकने [मस्तक के सात छिद्र] (अन्यः अन्यस्मिन्) एक दूसरे में (अधि) यथावत् (आर्पितानि) यथावत् जड़े हुए हैं। (कथम्) कैसे (स्तोमाः) स्तुतियोग्य गुण (तेषु) उन [मस्तक के गोलकों] में (प्रति तिष्ठन्ति) दृढ़ता से स्थित हैं, (तानि) वे [मस्तक के छिद्र] (स्तोमेषु) स्तुतियोग्य गुणों में (कथम्) कैसे (आर्पितानि) ठीक-ठीक जमे हुए हैं ॥१९॥
भावार्थ
मस्तक के सात गोलक दो कान, दो नथने, दो आँखें, और एक मुख के द्वारा धर्म अर्थ काम मोक्ष की प्राप्ति से मनुष्य उत्तम सुख भोगते हैं, यह दृढ़ ईश्वरनियम है ॥१९॥
टिप्पणी
१९−(सप्त) (छन्दांसि) म० १७। शीर्षण्यानि छिद्राणि (चतुरुत्तराणि) उत्-तरप्। चतुर्वर्गेण धर्मार्थकाममोक्षरूपपुरुषार्थेन (अन्योऽन्यस्मिन्) परस्परम् (अधि) अधिकारे (आर्पितानि) सम्यक् निवेशितानि। संलग्नानि (कथम्) केन प्रकारेण (प्रति) निश्चयेन (तिष्ठन्ति) (तेषु) छन्दःसु (तानि) छन्दांसि (स्तोमेषु) स्तुत्यगुणेषु ॥
विषय
अन्तःकरण व बहिरिन्द्रियों
पदार्थ
१. 'प्राणा छन्दांसि' कौ०११.८ तथा 'प्राणा वै स्तोमाः' शत० ८.४.१.३ के अनुसार प्राणों को वैदिक साहित्य में 'छन्दस् व स्तोम' कहा गया है। ये कान आदि सप्त ऋषि मनुष्य को छादित [सुरक्षित] करने के व प्रभुस्तवन के साधन बनते हैं। (सप्त छन्दांसि) = सात छन्द "शीर्षण्य प्राण' तो शरीर में हैं ही, (चतुः उत्तराणि) = 'मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार' इनसे ऊपर हैं। ये बहिरिन्द्रिय हैं, तो वे अन्तरिन्द्रिय। वस्तुत: ये (अन्यः अन्यस्मिन् अधि आर्पितानि) = एक-दूसरे में अर्पित हैं-एक-दूसरे से मिलकर ही ये कार्य करते हैं। २. प्रभु ने शरीर में यह भी एक अद्भुत व्यवस्था की है कि (कथम्) = किस अद्भुत प्रकार से (स्तोमा:) = प्राण (तेषु) = उन 'मन, बुद्धि' आदि में (प्रतितिष्ठन्ति) = प्रतिष्ठित हैं और तानि वे 'मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार' भी (कथम्) = कैसे (स्तोमेषु) = उन प्राणों पर (आर्पितानि) = सर्वथा आश्रित हैं।
भावार्थ
प्रभु ने शरीर में कान आदि सात स्तोमों व छन्दों को स्थापित किया है तथा मन, बुद्धि आदि रूप अन्त:करण चतुष्टय की स्थापना की है। ये शरीर में अन्योन्याश्रित-से हैं। एक दूसरे से मिलकर ही ये अपना कार्य कर पाते हैं। यदि अन्तःकरण के बिना बहिरिन्द्रियों का कार्य नहीं चलता तो बहिरिन्द्रियों के बिना अन्त:करण भी व्यर्थ-सा हो जाता है।
भाषार्थ
(सप्त छन्दांसि) सात छन्द हैं (चतुः उत्तराणि) जिन में उत्तरोत्तर के छन्दों में चार-चार अक्षर बढ़ते हैं, (अन्यः) उत्तरोत्तर छन्द (अन्यस्मिन् अधि) पूर्व-पूर्व के छन्द में (आर्पितानि) अर्पित होते हैं, आश्रित होते हैं। (कथम्) किस प्रकार (स्तोमाः१) मन्त्रों के गेय स्वरूप (तेषु) उन छन्दों [छन्दोयुक्त मन्त्रों] में (प्रति तिष्ठन्ति) स्थित होते हैं, (तानि) और वे छन्द [छन्दोयुक्त मन्त्र] (स्तोमेषु) मन्त्रों के गेयस्वरूपों में (कथम्) किस प्रकार (आर्पितानि) अर्पित होते हैं, आश्रित होते हैं।
टिप्पणी
[७ छन्द हैं गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप्, जगती। गायत्री छन्द में २४ अक्षर होते हैं, और उत्तरोत्तर छन्दों में चार-चार अक्षरों की वृद्धि द्वारा अन्तिम छन्द “जगती" में ४८ अक्षर हो जाते हैं। इस प्रकार उत्तरोत्तर छन्द अपने से पूर्व-पूर्व के छन्द में आश्रित होता है क्योंकि पूर्व-पूर्व छन्द में चार अक्षरों की वृद्धि से ही उत्तरोत्तर छन्द बनता है। मन्त्रों में स्तोम अर्थात् मन्त्रों के गेयस्वरूपों की स्थिति होती है। मन्त्रों के "गेयस्वरूप” मन्त्रों की आवृत्तियों द्वारा निष्पन्न होते हैं, जिन पर कि सामगान किये जाते हैं। जैसे कि त्रिवृत्-स्तोम में गायत्री छन्द के तीन मन्त्र होते हैं, और प्रथम तथा तृतीय मन्त्र को तीन-तीन वार आवृत्त करना होता है, दोहराना होता है। कहा भी है "त्रिः प्रथमामन्वाह त्रिरुत्तमाम्" (ऋचम्)। इस प्रकार मन्त्रों या ऋचाओं में "स्तोम" समवेत होते हैं, और स्तोमों में मन्त्र या ऋचाएं समवेत होती हैं२]। [१. यजु० १४।२३ में नाना स्तोमों का कथन हुआ है। "यथा" त्रिवृत्, पञ्चदशः, सप्तदशः, एकविंशः, अष्टादशः, नवदशः, सविंशः, द्वाविंशः, त्रयोविंशः, चतुर्विंश:, पंचविंशः, त्रिणवः, एकत्रिंशः, त्रयस्त्रिंश: चतुस्त्रिंशः, षट्त्रिंशः, अष्टाचत्वारिंशः, चतुष्टोमः। परन्तु इन का आधिदैविक रूपों में भी शतपथ में कथन हुआ है। परन्तु मन्त्र (१९) में आधिदैविक व्याख्या अभिमत नहीं। २. स्तोमों के गान में, मन्त्र में, मध्य में, "स्तोम" भी होते हैं, जोकि "आलाप" रूप होते हैं।]
इंग्लिश (4)
Subject
Virat Brahma
Meaning
Seven are the chhandas, poetic compositions, of Veda mantras, successively increasing by four syllables each. Every previous chhanda is subsumed in the number of the syllables of the next higher one. How do the songs of celebration interfuse with the mantra structures? How are the chhandas interfused with the music of the celebrative songs? (In Yajurveda 14, 23 various stomas are mentioned as Trivrt, Panchadasha, Saptadasha, Ekavinsha, etc.)
Translation
Seven are the metres, one set upon the other, (each) increasing by four syllables (the previous one). How the stomas (praise-songs) have been adjusted in them ? How have they been adjusted to the stomas ?
Translation
The seven vedic metres are founded upon each other by the process of increasing four syllables. How are the adorations supported on them and how are they imposed on adorations.
Translation
Seven apertures in the head are interlinked with the four higher sentiments. How do these seven depend upon the four, and how the four depend upon the seven.
Footnote
Seven- apertures: Two eyes, two nostrils, two ears, mouth. Four sentiments: Pharma, Arth, Kama, Moksha. These forces are linked with each other. Through the right use of the seven apertures, one attains to these higher sentiments.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१९−(सप्त) (छन्दांसि) म० १७। शीर्षण्यानि छिद्राणि (चतुरुत्तराणि) उत्-तरप्। चतुर्वर्गेण धर्मार्थकाममोक्षरूपपुरुषार्थेन (अन्योऽन्यस्मिन्) परस्परम् (अधि) अधिकारे (आर्पितानि) सम्यक् निवेशितानि। संलग्नानि (कथम्) केन प्रकारेण (प्रति) निश्चयेन (तिष्ठन्ति) (तेषु) छन्दःसु (तानि) छन्दांसि (स्तोमेषु) स्तुत्यगुणेषु ॥
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