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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 14
    ऋषिः - अथर्वा देवता - कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः छन्दः - चतुष्पदातिजगती सूक्तम् - विराट् सूक्त
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    अ॒ग्नीषोमा॑वदधु॒र्या तु॒रीयासी॑द्य॒ज्ञस्य॑ प॒क्षावृष॑यः क॒ल्पय॑न्तः। गा॑य॒त्रीं त्रि॒ष्टुभं॒ जग॑तीमनु॒ष्टुभं॑ बृहद॒र्कीं यज॑मानाय॒ स्वरा॒भर॑न्तीम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नीषोमौ॑ । अ॒द॒धु॒: । या । तु॒रीया॑ । आसी॑त् । य॒ज्ञस्य॑ । प॒क्षौ । ऋष॑य: । क॒ल्पय॑न्त: । गा॒य॒त्रीम् । त्रि॒ऽस्तुभ॑म् । जग॑तीम् । अ॒नु॒ऽस्तुभ॑म् । बृ॒ह॒त्ऽअ॒र्कीम् । यज॑मानाय । स्व᳡: । आ॒ऽभर॑न्तीम्॥९.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्नीषोमावदधुर्या तुरीयासीद्यज्ञस्य पक्षावृषयः कल्पयन्तः। गायत्रीं त्रिष्टुभं जगतीमनुष्टुभं बृहदर्कीं यजमानाय स्वराभरन्तीम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नीषोमौ । अदधु: । या । तुरीया । आसीत् । यज्ञस्य । पक्षौ । ऋषय: । कल्पयन्त: । गायत्रीम् । त्रिऽस्तुभम् । जगतीम् । अनुऽस्तुभम् । बृहत्ऽअर्कीम् । यजमानाय । स्व: । आऽभरन्तीम्॥९.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 9; मन्त्र » 14
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    ब्रह्म विद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (यज्ञस्य) यज्ञ [रसों के संयोग-वियोग] के (पक्षौ) ग्रहण करनेवाले (अग्नीषोमौ) सूर्य और चन्द्रमा [के समान] (ऋषयः) ऋषि लोगों ने, (या) जो [वेदवाणी] (तुरीया) वेगवती वा ब्रह्म की [जो सत्व, रज और तम तीन गुणों से परे चौथा है] (आसीत्) थी, (यजमानाय) यजमान के लिये (स्वः) मोक्ष सुख (आभरन्तीम्) भर देनेवाली [उस] (गायत्रीम्) गाने योग्य, (त्रिष्टुभम्) [कर्म, उपासना और ज्ञान इन] तीन से पूजी गयी, (जगतीम्) प्राप्तियोग्य, (बृहदर्कीम्) बड़े सत्कारवाली (अनुष्टुभम्) निरन्तर स्तुतियोग्य [विराट् वा वेदवाणी] को (कल्पयन्तः) समर्थन करते हुए (अदधुः) धारण किया है ॥१४॥

    भावार्थ

    जिस प्रकार ऋषि महात्माओं ने यथावत् नियम पर चलकर वेदवाणी को ग्रहण किया है, उसी प्रकार सब मनुष्य वेदवाणी को स्वीकार कर के मोक्षपद प्राप्त करें ॥१४॥

    टिप्पणी

    १४−(अग्नीषोमौ) सूर्यचन्द्रौ यथा (अदधुः) धारितवन्तः (या) अनुष्टुप् वाक् (तुरीया) घच्छौ च। पा० ४।४।११७। तुर−छः, तत्र भव इत्यर्थे। तुरे वेगे भवा। वेगवती। यद्वा चतुरश्छयतावाद्यक्षरलोपश्च। वा० पा० ५।२।५१। चतुर्-छ, चलोपः। सत्त्वरजस्तमोगुणत्रयपरं तुरीयं चतुर्थं ब्रह्म। अर्शआदिभ्योऽच्। पा० ५।२।१२७। तुरीय-अच्, टाप्। ब्रह्मसम्बन्धिनी (आसीत्) (यज्ञस्य) रसानां संयोगवियोगस्य (पक्षौ) ग्रहीतारौ (ऋषयः) मुनयः (कल्पयन्तः) कृपू सामर्थ्ये-णिचि-शतृ। समर्थयन्तः (गायत्रीम्) अ० ३।३।२। अभिनक्षियजिवधिपतिभ्योऽत्रन्। उ० ३।१०५। गै गाने-अत्रन्, ङीप्। गायत्री गायतेः स्तुतिकर्मणः-निरु० ७।१२। गानयोग्याम् (त्रिष्टुभम्) अ० ६।४८।३। त्रि+ष्टुभ पूजायाम्-क्विप्। स्तोभतिरर्चतिकर्मा-निघ० ३।१४। त्रिष्टुप् स्तोभत्युत्तरपदा, का तु त्रिता स्यात् तीर्णतमं छन्दस्त्रिवृद्वज्रस्तस्य स्तोभतीति वा, यत् त्रिरस्तोभत् तत् त्रिष्टुभस्त्रिष्टुप्त्वमिति विज्ञायते-निरु० ७।१२। त्रिभिः कर्मोपासनाज्ञानैः पूजिता (जगतीम्) वर्तमाने पृषद्बृहन्महज्जगच्छतृवच्च। उ० २।८४। गम्लृ गतौ-अति, ङीप्। जगती गोनाम-निघ० २।११। जगती गततमं छन्दो जलचरगतिर्वा जलगल्यमानोऽसृजदिति च ब्राह्मणम्-निघ० ७।१३। गम्यमानाम्। प्राप्तव्याम् (अनुष्टुभम्) अनु+ष्टुभ्-क्विप्। स्तोभतिरर्चतिकर्मा-निघ० ३।१४। अनुष्टुबनुष्टोभनात्-निरु० ७।१२। वाचम्-निघ० १।११। निरन्तरस्तुत्यां विराजं वेदवाचां वा (बृहदर्कीम्) बहुपूजावतीम् (यजमानाय) याजकाय (स्वः) मोक्षसुखम् (आभरन्ताम्) समन्तात् पोषयन्तीम् ॥

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    विषय

    तुरीया स्थिति

    पदार्थ

    १. जीवन एक यज्ञ है। इस यज्ञ की उत्तमता के लिए 'अग्नि और सोम' दोनों ही तत्त्व आवश्यक हैं। केवल अग्नितत्त्व जीवन को जलाता है। केवल सोमतत्व जीवन को एकदम ठण्डा कर देता है। दोनों का मिश्रण ही जीवन को रसमय व नौरोग बनाता है [आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म] और तभी ब्रह्म की भी प्राप्ति होती है। इसलिए (ऋषय:) = ऋषि लोग (अग्निषोमौ) = अग्नि और सोमतत्त्वों को यज्ञस्य पक्षी-जीवन यज्ञ के दो पक्षों के रूप में (कल्पयन्तः) = बनाते हुए उस स्थिति को (अदधुः) = धारण करते हैं, (या तुरीया आसीत्) = जो चतुर्थी है। 'जागरित, स्वप्न व सुषुप्ति' से ऊपर उठकर समाधि की स्थिति 'तुरीया' है। अग्नि व सोम का सम्मिश्रण ऋषियों को इस स्थिति में पहुँचने के योग्य बनाता है। २. यह वह स्थिति है जो (गायत्रीम) = [गया: प्राणा: तान्तत्रे] प्राणशक्ति का रक्षण करनेवाली है, (त्रिष्टुभम्) = [त्रिष्टुभ] काम, क्रोध व लोभ के आक्रमण को रोक [stop] देनेवाली है, (जगतीम्) = लोकहित में प्रवृत्त करनेवाली है, (अनुष्टुभम्) = प्रतिदिन प्रभुस्तवन की वृत्तिवाली है, (बृहद् अकीम्) = प्रभु की महती पूजा है, तथा (यजमानाय) = अपने साथ 'अग्नि व सोम' का सङ्गतिकरण करनेवाले यजमान के लिए [यज् सङ्गतिकरणे]( स्व: आभरन्तीम्) = प्रकाश व सुख को प्राप्त करानेवाली है।

    भावार्थ

    हमें जीवन में 'अग्नि व सोम' [विद्या व श्रद्धा, शक्ति व शान्ति, उग्रता व शीतलता] दोनों तत्वों का समन्वय करते हुए समाधि की स्थिति में पहुँचने का प्रयत्न करना चाहिए। यह स्थिति ही हमें प्रकाश व सुख प्राप्त कराएगी।

     

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    भाषार्थ

    (यज्ञस्य) यज्ञ के (पक्षौ) दो पार्श्वों की (कल्पयन्तः) कल्पना करते हुए (ऋषयः) ऋषियों ने (अग्नीषोमौ) अग्नि और सोम की (अदधुः) परिपुष्टि की और (या) जो (तुरीया) तुरीया अर्थात् ब्राह्मीशक्ति (आसीत्) थी [उस की भी परिपुष्ट की]। तथा (यजमानाय स्वः आभरन्तीम्) यज्ञकर्ता के लिये सुख पहुंचाने वाली (गायत्रीम्, त्रिष्टुभम्, जगतीम्, अनुष्टुभम्, बृद्धर्कीम्) गायत्री आदि छन्दों की भी परिपुष्टि की। बृहदर्की= परमेश्वर की स्तुति करने वाली महती ऋक्।

    टिप्पणी

    [अग्निः = यज्ञियाग्नि। सोमः = सोमोषधिप्रधान ओषधियां। ऋषियों ने इन दो को यज्ञ के दो पार्श्वरूप निश्चित किया। मन्त्र में यज्ञ को पुरुष रूप में कल्पित किया है। जैसे अस्मदादि पुरुषों के शरीर दो पार्श्वों वाले हैं, दाएं और बाएं पार्श्वों वाले हैं, वैसे यज्ञ-पुरुष के भी दो पार्श्व हैं अग्नि और सोमादि हव्यपदार्थ। इन दो पार्श्वों के मेल से यज्ञपुरुष बनता है। तथा जैसे हमारे शरीरों की आत्माएं हैं, जीवात्माएं, वैसे यज्ञपुरुष की आत्मा है तुरीया ब्राह्मीशक्ति। जैसे विना जीवात्माओं के शरीर निष्प्राण होते हैं, वैसे विना तुरीयोद्देश्यक किया यज्ञ भी निष्प्राण सा होता है। जो यज्ञ तुरीया की उपासना या प्रसन्नता के उद्देश्य से नहीं किया जाता वह यज्ञ मृतशरीरवत् निष्फल है। इसी प्रकार "इस भावना पूर्वक यज्ञ करना चाहिये" कि यज्ञ करते समय गायत्री आदि छन्दों वाले उच्चारित मन्त्र सुखप्रदाता हैं, अतः इनका उच्चारण श्रद्धापूर्वक होना चाहिये। बृहदर्कीम् = बृहत् अर्थात् बृहती छन्द वाली अर्की अर्थात् परमेश्वरीय या तुरीया की पूजा करने वाली ऋचा। "अर्कीम्" का सम्बन्ध गायत्रीम् आदि प्रत्येक के साथ अभीष्ट है। गायत्री आदि को भी समझना चाहिये कि यह प्रत्येक सुखप्रदान करने वाली हैं। अर्की= अर्कः मन्त्रः भवति, यदनेनार्चन्ति = (निरुक्त ५।११।४)। इस प्रकार यज्ञ-पुरुष का स्वरूप ४ तत्त्वों से रचित होता है (१) अग्नि; (२) सोमादि हव्यपदार्थ; (३) यज्ञ में पूजनीया तुरीया; (४) गायत्री आदि छन्दोमय मन्त्र। तुरीया ओ३म् के अ, उ, म् ३ मात्राओं द्वारा जगत् व्यापी ब्राह्मीशक्ति का वर्णन होता है और तुरीया ब्राह्मी शक्ति “अमात्रा" है, स्वरूपस्था प्रपञ्चोपशमरूपा, शिव और अद्वैतरूपा है, जिस की कामना द्वारा जगत् की उत्पत्ति होती है (माण्डूक्योपनिषद् खण्ड १२)।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Virat Brahma

    Meaning

    The sages conceive and enact the yajna and thereby support the cosmic yajna. Two are the complementary parts of yajna: Agni, the fire, and Soma, the havi, the food of fire. Further, the Rshis worship the Turiya, transcendent state of cosmic yajna beyond the world of Prakrti, which abides with the Divine Spirit. They also receive, recite and worship the mantric versions of the divine Word, Gayatri, Trishtubh, Jagati, Anushtubh, and Vrhadarki, universal worshipful form of the Word, all bearing the message of bliss for the yajamana.

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    Translation

    She, that was the fourth, was adopted by the fire-divine (Agni) and the divine bless (Soma); the seers fashioned her as the two wings of the sacrifice - the Gayatri, the Tristubh, the Jagati, the Anustup and Brhaadarki, bringing bliss to sacrificer.

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    Translation

    The men of penetrative geneus making the sun and moon the two important aspects of yajna retain in their knowledge the Vedic speech which is the fourth of the three material proper- ties and is in the forms of Gavatri, Tristubh, Jagati, Anustuhh and Brihadarki (Brihati) which bears knowledge and light for yajmana the performer of yajna.

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    Translation

    The sages consider God and soul as two flanks of the Yajna of life. They realise the fourth highest power of God, which guards our vital breaths is worshipped through action, contemplation and knowledge, is ever active and wise, ever worthy of veneration, highly adorable, and the bestower of salvation to the worshipper.

    Footnote

    Fourth: Beyond. Satva, Rajas, Tanias or beyond the stages of Jagrit (wakeful) Swapana (sleep) Sushupti (Deep slumber). For detailed explanation consult Mandukya Upanishad.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १४−(अग्नीषोमौ) सूर्यचन्द्रौ यथा (अदधुः) धारितवन्तः (या) अनुष्टुप् वाक् (तुरीया) घच्छौ च। पा० ४।४।११७। तुर−छः, तत्र भव इत्यर्थे। तुरे वेगे भवा। वेगवती। यद्वा चतुरश्छयतावाद्यक्षरलोपश्च। वा० पा० ५।२।५१। चतुर्-छ, चलोपः। सत्त्वरजस्तमोगुणत्रयपरं तुरीयं चतुर्थं ब्रह्म। अर्शआदिभ्योऽच्। पा० ५।२।१२७। तुरीय-अच्, टाप्। ब्रह्मसम्बन्धिनी (आसीत्) (यज्ञस्य) रसानां संयोगवियोगस्य (पक्षौ) ग्रहीतारौ (ऋषयः) मुनयः (कल्पयन्तः) कृपू सामर्थ्ये-णिचि-शतृ। समर्थयन्तः (गायत्रीम्) अ० ३।३।२। अभिनक्षियजिवधिपतिभ्योऽत्रन्। उ० ३।१०५। गै गाने-अत्रन्, ङीप्। गायत्री गायतेः स्तुतिकर्मणः-निरु० ७।१२। गानयोग्याम् (त्रिष्टुभम्) अ० ६।४८।३। त्रि+ष्टुभ पूजायाम्-क्विप्। स्तोभतिरर्चतिकर्मा-निघ० ३।१४। त्रिष्टुप् स्तोभत्युत्तरपदा, का तु त्रिता स्यात् तीर्णतमं छन्दस्त्रिवृद्वज्रस्तस्य स्तोभतीति वा, यत् त्रिरस्तोभत् तत् त्रिष्टुभस्त्रिष्टुप्त्वमिति विज्ञायते-निरु० ७।१२। त्रिभिः कर्मोपासनाज्ञानैः पूजिता (जगतीम्) वर्तमाने पृषद्बृहन्महज्जगच्छतृवच्च। उ० २।८४। गम्लृ गतौ-अति, ङीप्। जगती गोनाम-निघ० २।११। जगती गततमं छन्दो जलचरगतिर्वा जलगल्यमानोऽसृजदिति च ब्राह्मणम्-निघ० ७।१३। गम्यमानाम्। प्राप्तव्याम् (अनुष्टुभम्) अनु+ष्टुभ्-क्विप्। स्तोभतिरर्चतिकर्मा-निघ० ३।१४। अनुष्टुबनुष्टोभनात्-निरु० ७।१२। वाचम्-निघ० १।११। निरन्तरस्तुत्यां विराजं वेदवाचां वा (बृहदर्कीम्) बहुपूजावतीम् (यजमानाय) याजकाय (स्वः) मोक्षसुखम् (आभरन्ताम्) समन्तात् पोषयन्तीम् ॥

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