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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 88 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 88/ मन्त्र 13
    ऋषिः - मूर्धन्वानाङ्गिरसो वामदेव्यो वा देवता - सूर्यवैश्वानरौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    वै॒श्वा॒न॒रं क॒वयो॑ य॒ज्ञिया॑सो॒ऽग्निं दे॒वा अ॑जनयन्नजु॒र्यम् । नक्ष॑त्रं प्र॒त्नममि॑नच्चरि॒ष्णु य॒क्षस्याध्य॑क्षं तवि॒षं बृ॒हन्त॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वै॒श्वा॒न॒रम् । क॒वयः॑ । य॒ज्ञियाः॑ । अ॒ग्निम् । दे॒वाः । अ॒ज॒न॒य॒न् । अ॒जु॒र्यम् । नक्ष॑त्रम् । प्र॒त्नम् । अमि॑नत् । च॒रि॒ष्णु । य॒क्षस्य॑ । अधि॑ऽअक्षम् । त॒वि॒षम् । बृ॒हन्त॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वैश्वानरं कवयो यज्ञियासोऽग्निं देवा अजनयन्नजुर्यम् । नक्षत्रं प्रत्नममिनच्चरिष्णु यक्षस्याध्यक्षं तविषं बृहन्तम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वैश्वानरम् । कवयः । यज्ञियाः । अग्निम् । देवाः । अजनयन् । अजुर्यम् । नक्षत्रम् । प्रत्नम् । अमिनत् । चरिष्णु । यक्षस्य । अधिऽअक्षम् । तविषम् । बृहन्तम् ॥ १०.८८.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 88; मन्त्र » 13
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (कवयः) मेधावी (यज्ञियासः) अध्यात्मयज्ञसम्पादक (देवाः) मुमुक्षु जन-विद्वान् (अजुर्यम्) जरारहित-अविनाशी (वैश्वानरम्) विश्वनायक (अग्निम्) परमात्मा को (अजनयन्) अपने आत्मा में प्रादुर्भूत करते हैं, (यक्षस्य) पूजनीय (नक्षत्रम्) व्यापक (प्रत्नम्) पुरातन-शाश्वत (चरिष्णु) सर्वत्र चरणशील (अध्यक्षम्) सबके स्वामी (तविषम्) बलवान् (बृहन्तम्) महान्-अनन्त को  (अमिनत्) प्राप्त करते हैं ॥१३॥

    भावार्थ

    मुमुक्षु विद्वानों को अपने आत्मा में पूजनीय परमात्मा का साक्षात् करना चाहिए तथा उस स्वामी को प्राप्त करना चाहिए ॥१३॥

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    विषय

    'कवि यज्ञिय-देव'

    पदार्थ

    [१] (कवयः) = कान्तदर्शी तत्त्वज्ञानी, (यज्ञियासः) = यज्ञादि उत्तम कर्मों को करनेवाले, (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष उस (अग्निम्) = अग्रेणी प्रभु को (अजनयन्) = अपने में प्रादुर्भूत करते हैं, हृदय देश में उसके दर्शन करते हैं । उस प्रभु का दर्शन करते हैं जो (वैश्वानरम्) = सब नरों का हित करनेवाले हैं। (अजुर्यम्) = कभी जीर्ण होनेवाले नहीं अजर व अमर हैं। (नक्षत्रम्) = [नक्ष् to go, to corre near] गतिशील हैं व सबको समीपता से प्राप्त हैं, सर्वव्यापक हैं । (प्रत्नम्) = सनातन हैं, (अमिनत्) = न हिंसा करनेवाले व न हिंसित होनेवाले हैं । (चरिष्णु) = प्रलयकाल के समय सबको चर जानेवाले, अपने में निगीर्ण कर लेनेवाले हैं । [२] (यक्षस्य) = आत्मा को इन्द्रियों के साथ जोड़नेवाले इस मन के अध्यक्ष हैं। मन संसार की किसी भी वस्तु में स्थिर नहीं हो पाता, परन्तु यदि कभी इस परमात्मा की ओर आता है तो इस प्रकार इसमें उलझता है कि अपनी तीव्र गति से चलता हुआ भी इसके ओर छोर को नहीं पा पाता और उससे फिर निकल नहीं पाता ऐसी स्थिति में ही इसका विषयों में भटकना रुकता है। (तविषम्) = ये प्रभु महान् हैं, (बृहन्तम्) = वर्धमान हैं । प्रभु अपनी विशालता से सारे ब्रह्माण्ड को व्याप्त किया हुआ है और वे प्रभु सब गुणों से बढ़े हुए हैं, वस्तुतः सब गुणों की चरमसीमा हैं, सब गुण उनमें निरतिशयरूप में हैं। इस प्रभु का ही देव हृदय में साक्षात्कार करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम कवि यज्ञिय व देव बनकर प्रभु का दर्शन करें।

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    विषय

    चेतन आत्मा का यज्ञाग्निवत् प्रतिपादन।

    भावार्थ

    (वैश्वानरम्) समस्त मनुष्यों में विद्यमान (अग्निम्) ज्ञानवान् चेतनायुक्त ‘अग्नि’ को (यज्ञियासः) यज्ञ के उपासक (देवाः) ज्ञान के प्रकाशक (कवयः) विद्वान् लोग (अतनयन्) यज्ञाग्नि के तुल्य ही प्रकट करते हैं। वह (अजुर्यम्) कभी नाश न होने वाला, (नक्षत्रम्) सर्वव्यापक, (प्रत्नम्) अति पुरातन, (चरिष्णु) नाना कर्मों का फल भोगने वाला (यज्ञस्य अध्यक्षम्) इस यज्ञ रूप महान् संसार वा देह-प्रपञ्चका अध्यक्ष, शासक (बहन्तं तविषम्) महान् बलवान् है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः मूर्धन्वानाङ्गिरसो वामदेव्यो वा॥ देवता—सूर्यवैश्वानरो॥ छन्दः—१–४, ७, १५, १९ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ८ त्रिष्टुप्। ६, ९–१४, १६, १७ निचृत् त्रिष्टुप्। १८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (कवयः) मेधाविनः “कविः-मेधाविनाम” [निघ० ३।१५] (यज्ञियाः) अध्यात्मयज्ञसम्पादिनः (देवाः) मुमुक्षवो विद्वांसः (अजुर्यं वैश्वानरम्-अग्निम्) जरारहितमनश्वरं विश्वनायकं परमात्मानं (अजनयन्) स्वात्मनि प्रादुर्भावयन्ति (यक्षस्य) यक्षं पूजनीयम् ‘व्यत्ययेन षष्ठी’ (नक्षत्रं प्रत्नम्) व्यापकम् “नक्षति व्याप्नोतिकर्मा” [निघ० २।१८] पुरातनं शाश्वतं (चरिष्णु) चरिष्णुं सर्वत्र चरणशीलं (अध्यक्षं तविषं बृहन्तम्) सर्वस्य स्वामिनं बलवन्तं महान्तम् (अमिनत्) अमिनन् ‘व्यत्ययेनैकवचनम्’, आत्मानं प्राप्नुवन्ति ॥१३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Wise and visionary Devas, adorable divine powers, create the unaging Vaishvanara Agni, the ancient star unalterable and inviolable, moving as the ruling star of space, blazing and expansive.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मुमुक्षू विद्वानांनी आपल्या आत्म्यात पूजनीय परमेश्वराचा साक्षात केला पाहिजे व त्या महान स्वामीला प्राप्त केले पाहिजे. ॥१३॥

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