ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 88/ मन्त्र 14
ऋषिः - मूर्धन्वानाङ्गिरसो वामदेव्यो वा
देवता - सूर्यवैश्वानरौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
वै॒श्वा॒न॒रं वि॒श्वहा॑ दीदि॒वांसं॒ मन्त्रै॑र॒ग्निं क॒विमच्छा॑ वदामः । यो म॑हि॒म्ना प॑रिब॒भूवो॒र्वी उ॒तावस्ता॑दु॒त दे॒वः प॒रस्ता॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठवै॒श्वा॒न॒रम् । वि॒श्वहा॑ । दी॒दि॒ऽवांस॑म् । मन्त्रैः॑ । अ॒ग्निम् । क॒विम् । अच्छ॑ । व॒दा॒मः॒ । यः । म॒हि॒म्ना । प॒रि॒ऽब॒भूव॑ । उ॒र्वी इति॑ । उ॒त । अ॒वस्ता॑त् । उ॒त । दे॒वः । प॒रस्ता॑त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
वैश्वानरं विश्वहा दीदिवांसं मन्त्रैरग्निं कविमच्छा वदामः । यो महिम्ना परिबभूवोर्वी उतावस्तादुत देवः परस्तात् ॥
स्वर रहित पद पाठवैश्वानरम् । विश्वहा । दीदिऽवांसम् । मन्त्रैः । अग्निम् । कविम् । अच्छ । वदामः । यः । महिम्ना । परिऽबभूव । उर्वी इति । उत । अवस्तात् । उत । देवः । परस्तात् ॥ १०.८८.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 88; मन्त्र » 14
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(कविं दीदिवांसम्) सर्वज्ञ देदीप्यमान (वैश्वानरम्-अग्निम्) विश्वनायक परमात्मा को (विश्वहा) सर्वदा (मन्त्रैः-अच्छा वदामः) मन्त्रों से अच्छा बोलें-स्तुति में लावें (यः-देवः-महिम्ना) जो परमात्मदेव अपने महत्त्व से (उर्वी-परिबभूव) द्यावापृथिवीमय जगत् को स्वाधीन किये हुए है (उत) और (अवस्तात्) सांसारिक बद्ध जीवमात्र को (उत) तथा (परस्तात्) मोक्षगत मुक्तात्मगण को भी स्वाधीन किये हुए है ॥१४॥
भावार्थ
परमात्मा द्यावापृथिवी जगत् को स्वाधीन रखता है, सांसारिक बन्धन में पड़े जीवगण को तथा मोक्ष में मुक्तात्माओं को अपने आधीन रखता है, वह सदा स्तुति करने योग्य है ॥१४॥
विषय
समीप से समीप, दूर से दूर
पदार्थ
[१] हम (वैश्वानरम्) = सब मनुष्यों के हित करनेवाले, (विश्वहा दीदिवांसम्) = सदा ज्ञान से दीप्त, (अग्निम्) = अग्रेणी, (कविम्) = क्रान्तदर्शी सर्वज्ञ प्रभु को अच्छा लक्ष्य करके (मन्त्रैः) = मन्त्रों के द्वारा वदामः स्तुतिवचनों का उच्चारण करते हैं, इस प्रकार प्रभु का स्तवन करते हुए हम भी सब मनुष्यों के हित में प्रवृत्त होते हैं [वैश्वानर], ज्ञान से दीप्त बनने का प्रयत्न करते हैं [विश्वहा दीदिवांसम्], आगे बढ़ने के लिये यत्नशील होती हैं [अग्नि], तत्त्वज्ञान को प्राप्त करते हैं [कवि], [२] उस प्रभु का हम स्तवन करते हैं (यः) = जो (महिम्ना) = अपनी महिमा से (उर्वी) = इन विशाल द्युलोक व पृथिवीलोक को (परिबभूव) = to surround] आच्छादित किये हुए हैं, [to teke core of] इन लोकों का रक्षण करते हैं और [to govern] इनका शासन करते हैं। वे (देवः) = प्रकाशमय प्रभु (उत अवस्तात्) = क्या तो समीप, (उत परस्तात्) = और क्या दूर, सर्वत्र विद्यमान हैं ' तद्दूरे तद्वन्तिके' 'दूरात् सुदूरे तदिहान्तिके च' ।
भावार्थ
भावार्थ- हम उन प्रभु का ही स्तवन करते हैं, जिन्होंने इन विशाल द्युलोक व पृथिवीलोक को आच्छादित किया हुआ है।
विषय
सर्वोपरि शासक महान् प्रभु की स्तुति।
भावार्थ
(यः) जो प्रभु (महिम्ना) अपने महान् सामर्थ्य से (उर्वी परि बभूव) दोनों महान् लोकों को ढांपता, उनपर शासन करता है, जो (अवस्तात्) उनके नीचे उनका आश्रय रूप से है, (उत) और जो (देवः) सर्वप्रकाशक (परस्तात्) उनसे पर श्रेष्ठ, दूर तक भी व्यापक है, उस (वैश्वानरम्) समस्त मनुष्यों के हितकारी, सब के सञ्चालक (विश्वहा दीदिवांसम्) सब दिनों चमकने वाले (अग्निम्) सूर्य वा अग्नि के तुल्य स्वयं प्रकाश (कविम्) क्रान्तदर्शी, प्रभु को लक्ष्य करके हम (मन्त्रैः) मन्त्रों, नाना प्रकार के मनन संकल्पों से (अच्छ वदामः) साक्षात् स्तुति करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः मूर्धन्वानाङ्गिरसो वामदेव्यो वा॥ देवता—सूर्यवैश्वानरो॥ छन्दः—१–४, ७, १५, १९ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ८ त्रिष्टुप्। ६, ९–१४, १६, १७ निचृत् त्रिष्टुप्। १८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(कविं दीदिवांसं वैश्वानरम्-अग्निम्) सर्वज्ञं देदीप्यमानं विश्वनायकं परमात्मानं (विश्वहा) सर्वदा (मन्त्रैः-अच्छा वदामः) मन्त्रस्तवनैः सम्यग्वर्णयामः (यः-देवः-महिम्ना) यः परमात्मदेवः स्वमहत्त्वेन (उर्वी परिबभूव) द्यावापृथिवीमयं जगत् परिभवति (उत) अपि च (अवस्तात्) सांसारिकं बद्धं जीवमात्रम् (उत) अपि च (परस्तात्) मोक्षगतं मुक्तात्मगणं च परिभवति ॥१४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
With Vedic mantras we invoke and adore Agni, Vaishvanara, light divine ever shining bright, the very eye of omniscience which, with its might and grandeur, enlightens and overwhelms both heaven and earth, the ultimate light and bliss above and below, the end and the foundation both.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर द्युलोक व पृथ्वीलोक यांना स्वाधीन ठेवतो. सांसारिक बंधनात पडलेल्या जीवांना व मोक्षातील मुक्तात्म्यांना आपल्या अधीन ठेवतो. तो सदैव स्तुती करण्यायोग्य आहे. ॥१४॥
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