ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 88/ मन्त्र 18
ऋषिः - मूर्धन्वानाङ्गिरसो वामदेव्यो वा
देवता - सूर्यवैश्वानरौ
छन्दः - स्वराडार्चीत्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
कत्य॒ग्नय॒: कति॒ सूर्या॑स॒: कत्यु॒षास॒: कत्यु॑ स्वि॒दाप॑: । नोप॒स्पिजं॑ वः पितरो वदामि पृ॒च्छामि॑ वः कवयो वि॒द्मने॒ कम् ॥
स्वर सहित पद पाठकति॑ । अ॒ग्नयः॑ । कति॑ । सूर्या॑सः । कति॑ । उ॒षसः॑ । कति॑ । ऊँ॒ इति॑ । स्वि॒त् । आपः॑ । न । उ॒प॒ऽस्पिज॑म् । वः॒ । पि॒त॒रः॒ । व॒दा॒मि॒ । पृ॒च्छामि॑ । वः॒ । क॒व॒यः॒ । वि॒द्मने॑ । कम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
कत्यग्नय: कति सूर्यास: कत्युषास: कत्यु स्विदाप: । नोपस्पिजं वः पितरो वदामि पृच्छामि वः कवयो विद्मने कम् ॥
स्वर रहित पद पाठकति । अग्नयः । कति । सूर्यासः । कति । उषसः । कति । ऊँ इति । स्वित् । आपः । न । उपऽस्पिजम् । वः । पितरः । वदामि । पृच्छामि । वः । कवयः । विद्मने । कम् ॥ १०.८८.१८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 88; मन्त्र » 18
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अग्नयः कति) अग्नियाँ कितनी ही हैं-बहुत हैं (सूर्याः कति) सूर्य कितने ही हैं-बहुत हैं (उषासः कति) उषाएँ कितनी ही हैं-बहुत हैं (आपः-उ कति स्वित्) जल कितने हैं (पितरः) हे पालक विद्वानों ! (नः) तुम्हें (उपस्पिजं न वदामि) उपालम्भरूप या स्वज्ञानप्रदर्शनार्थ नहीं पूछता हूँ, किन्तु (कवयः-वः-विद्मने कं पृच्छामि) विद्वानों ! आपसे ज्ञानप्राप्ति के लिये पूछता हूँ ॥१८॥
भावार्थ
अपने से बड़े विद्वानों से जिज्ञासापूर्वक पूछना चाहिए, अन्यथा स्वज्ञानप्रदर्शनार्थ नहीं, कि अग्नि या सूर्य जल कितने हैं ॥१८॥
विषय
सृष्टि विषयक प्रश्न
पदार्थ
[१] गत मन्त्र में यज्ञ की प्रेरणा का उल्लेख था । उस यज्ञ के साथ सम्बद्ध अग्नि आदि के विषय में शिष्य आचार्य से प्रश्न करता है कि (कति अग्नयः) = अग्नियाँ कितनी हैं ? इसी प्रकार (सूर्यासः कति) = सूर्य कितने हैं ? क्या यही एक सूर्य है या इसी प्रकार अन्य भी सूर्य हैं ? (उषासः कति) = उषाकाल कितने हैं ? (उ) = और (आपः) = अन्तरिक्ष लोक व जल कितने हैं ? [२] ये सारे प्रश्न ब्रह्माण्ड की रचना से सम्बद्ध हैं। इन प्रश्नों का ठीक-ठीक उत्तर देना कठिन ही है। 'को अद्धावेद, क इह प्रवोचत्, कुत आजाता कुत इयं विसृष्टि: 'यह विविध सृष्टि कैसे हो गई ! कौन इसे साक्षात् जानता है और कौन इसका प्रतिपादन कर सकता है ? ये सब प्रश्न तो मनुष्य के ज्ञान से परे की चीजें हैं। सो विद्यार्थी कहता है कि हे (पितरः) = ज्ञान देनेवाले आचार्यो ! मैं (वः) = आपके प्रति (उपस्पिजम्) = स्पर्धायुक्त होकर (न वदामि) = इन प्रश्नों को नहीं कह रहा हूँ। मैं तो हे (कवयः) = क्रान्तदर्शी तत्त्वज्ञानी आचार्यो! विद्मने ज्ञान प्राप्ति के लिये ही (वः पृच्छामि) = आपसे इस प्रकार के प्रश्न कर रहा हूँ। जिससे इन प्रश्नों के तत्त्वज्ञान से (कम्) = सुख का विस्तार हो सके। [३] हमें परस्पर इसी प्रकार के प्रश्नोत्तरों से ज्ञान को बढ़ाकर जीवन को सुखी बनाना चाहिए। प्रस्तुत प्रश्न का उत्तर इससे पूर्व ८ । ५८ । २ में इस प्रकार उपलब्ध होता है- 'एक एवाग्निर्बहुधा समिद्ध एकः सूर्यो विश्वमनु प्रभूतः । एकैवेषाः सर्वमिदं वियात्येकं वा इदं वि बभूव सर्वम्' । वस्तुतः एक ही अग्नि है जो नाना प्रकार से समिद्ध होती है। एक ही सूर्य है, जो सम्पूर्ण विश्व में प्रभाववाला हो रहा है । एक ही उषा इस सारे जगत् को दीप्त करती है। निश्चय से एक परमात्मा ही इस सब में व्याप्त हो रहा है। एक ही अग्नि स्थानभेद व कार्यभेद से मिलकर नामोंवाली हो जाती है। एक ही सूर्य महीनों के भेद से व सौर लोकों के भेद से भिन्न-भिन्न नामवाला होता है। उषा भी एक ही होती हुई भिन्न-भिन्न रूपों में प्रतीत होती है। [४] इस प्रकार के प्रश्नों को विद्यार्थी जिज्ञासा के भाव से करता है और ज्ञान प्राप्त करके प्रभु की महिमा के स्मरण से प्रभु के अधिक समीप होता हुआ अपने जीवन को पवित्र व आनन्दमय बना पाता है।
भावार्थ
भावार्थ - अग्नि, सूर्य, उषा आदि का ज्ञान प्राप्त करके हम प्रभु के अधिक समीप प्राप्त हों । इस प्रकार अपने जीवनों को पवित्र व सुखी बना पायें।
विषय
अग्नियों, और उषाओं और सूर्यों के सम्बन्ध में प्रश्न और समाधान।
भावार्थ
(कति अग्नयः) अग्नि कितने हैं, कितने प्रकार के हैं, कौन २ से पदार्थ और कौन २ से जन ‘अग्नि’ कहाने योग्य हैं, इसी प्रकार (कति सूर्यासः) सूर्य कितने हैं, (उषासः कति) उषाएं कितनी हैं, (कति उ स्वित् आपः) और कितने प्रकार के ‘आपः’ हैं। हे (पितरः) पालक गुरुजनो ! मैं (वः उपस्पिजम्) आप लोगों के प्रति स्पर्धा हीन विचार से यह प्रश्न (न वदामि) आप से नहीं कहता हूं। प्रत्युत (विद्मने) ज्ञान प्राप्त करने के लिये ही मैं हे (कवयः) क्रान्तदर्शी विद्वान् बुद्धिमान् जनों ! (वः पृच्छामि) आप लोगों से यह प्रश्न (पृच्छामि) पूछ रहा हूँ।
टिप्पणी
इस प्रश्न का उत्तर बालखिल्य सूक्त (ऋ० ८। ५८। २॥) में दिया है,— एक एवाग्निर्बहुधा समिद्ध एकः सूर्यो विश्वमनुप्रभूतः। एकैवोषाः सर्वमिदं विभात्येकं वा इदं वि बभूव सर्वम्॥ इति॥ ‘उपस्पिजं’ इत्यस्य पदपाठे ‘उप-स्फिजम्’ इति रूपम्। स्फिक् शब्दो जंधैकदेशवचनः। उपस्फिजम् जंघायाः समीपम्। उपस्फिजः तत्-सदृशो वेगवान् सत्-ज्ञानमार्गे विद्यास्पर्धालुरिति भावः॥ उपस्फिजमिति स्पर्धायुक्तं वचनमुच्यते इति सायणः॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः मूर्धन्वानाङ्गिरसो वामदेव्यो वा॥ देवता—सूर्यवैश्वानरो॥ छन्दः—१–४, ७, १५, १९ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ८ त्रिष्टुप्। ६, ९–१४, १६, १७ निचृत् त्रिष्टुप्। १८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अग्नयः कति) अग्नयः कति सन्ति (सूर्याः कति) सूर्याः कति सन्ति (उषासः कति) उषसः कति सन्ति (आप उ कति स्वित्) आपोऽपि कति सन्ति (पितरः-वः-उपस्पिजं न वदामि) हे पालकाः ! युष्मान् उपालम्भनरूपं स्वज्ञानबलप्रदर्शनार्थं वा न वदामि (कवयः-वः-विद्मने पृच्छामि) हे विद्वांसो युष्मान् ज्ञानाय पृच्छामि ॥१८॥
इंग्लिश (1)
Meaning
How many are the fires? How many the suns? How many the dawns? How many the waters? O enlightened sages, I say this not out of curiosity, I ask you this in all seriousness for the sake of knowledge.
मराठी (1)
भावार्थ
आपल्यापेक्षा मोठ्या विद्वानांना जिज्ञासापूर्वक विचारले पाहिजे स्वज्ञान प्रदर्शनासाठी नाही. अग्नी किंवा सूर्य जल किती प्रकारचे आहेत? ॥१८॥
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