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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 88 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 88/ मन्त्र 4
    ऋषिः - मूर्धन्वानाङ्गिरसो वामदेव्यो वा देवता - सूर्यवैश्वानरौ छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यो होतासी॑त्प्रथ॒मो दे॒वजु॑ष्टो॒ यं स॒माञ्ज॒न्नाज्ये॑ना वृणा॒नाः । स प॑त॒त्री॑त्व॒रं स्था जग॒द्यच्छ्वा॒त्रम॒ग्निर॑कृणोज्जा॒तवे॑दाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । होता॑ । आसी॑त् । प्र॒थ॒मः । दे॒वऽजु॑ष्टः । यम् । स॒म्ऽआञ्ज॑न् । आज्ये॑न । वृ॒णा॒नाः । सः । प॒त॒त्रि । इ॒त्व॒रम् । स्थाः । जग॑त् । यत् । श्वा॒त्रम् । अ॒ग्निः । अ॒कृ॒णो॒त् । जा॒तऽवे॑दाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो होतासीत्प्रथमो देवजुष्टो यं समाञ्जन्नाज्येना वृणानाः । स पतत्रीत्वरं स्था जगद्यच्छ्वात्रमग्निरकृणोज्जातवेदाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । होता । आसीत् । प्रथमः । देवऽजुष्टः । यम् । सम्ऽआञ्जन् । आज्येन । वृणानाः । सः । पतत्रि । इत्वरम् । स्थाः । जगत् । यत् । श्वात्रम् । अग्निः । अकृणोत् । जातऽवेदाः ॥ १०.८८.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 88; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यः-जातवेदः) जो जातप्रज्ञान-सर्वज्ञ विश्वनायक परमात्मा (प्रथमः-होता) सृष्टियज्ञ का प्रथम प्रसारक है (देवजुष्टः) मुमुक्षुओं द्वारा सेवित स्तुतियोग्य है (यम्-आज्येन) जिसको स्वात्म समर्पण से­-ध्यानयज्ञ से (आवृणानाः) स्वीकार करते हुए-अपनाते हुए (समाञ्जन्) सम्यक् साक्षात् करते हैं, (सः) वह (पतति-इत्वरं स्थाः-जगत्) पक्षी को, सरीसृप को, वृक्षादि को, मनुष्यादि जङ्गम को, (यत्-श्वात्रम्) जो सब है, तुरन्त (सः-अग्निः-अकृणोत्) वह परमात्मा उत्पन्न करता है ॥४॥

    भावार्थ

    परमात्मा वृक्षादि जड़ तथा मनुष्य पशु पक्षी जङ्गम सृष्टि का उत्पन्न करनेवाला है, मुमुक्षु जन उसे ध्यानयज्ञ द्वारा अपने में साक्षात् करते हैं ॥४॥

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    विषय

    प्रथम-होता

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के अनुसार देवों से प्रेरणा को प्राप्त करके मैं उस प्रभु का उपासन करता हूँ (यः) = जो (प्रथमः होता) = सर्वमहान् होता (आसीत्) = हैं । उस प्रभु ने ही इस सृष्टि यज्ञ को विस्तृत किया है। इस सृष्टियज्ञ को करके वे प्रभु ही हमें सब पदार्थों व उन्नति के लिये आवश्यक साधनों के देनेवाले हैं। ये प्रभु (देवजुष्टः) = देवों से प्रीतिपूर्वक उपासित होते हैं । [२] प्रभु वे हैं (यम्) = जिनको (आवृणाना:) = वरण करते हुए लोग (आज्येन) = ज्ञान की दीप्ति से (समाञ्जन्) = अपने को सम्यक् अलंकृत करते हैं । 'आज्य घृत व दीप्ति' ये पर्यायवाची शब्द हैं। अञ्ज् धातु कान्तिवाचक = है, उससे बना 'आज्य' शब्द यहाँ ज्ञान की कान्ति व दीप्ति का संकेत कर रहा है। ज्ञान के द्वारा ही प्रभु प्राप्य हैं, सूक्ष्म बुद्धि से ही प्रभु दर्शन होता है । [३] (स) = वह (जातवेदाः) = सर्वज्ञ (अग्निः) = अग्रेणी प्रभु ही (अकृणोत्) = इस सारे संसार को बनाते हैं, (यत्) = जो (पतत्रि) = उड़नेवाला है, अर्थात् पक्षी, (इत्वरम्) = जो ज़मीन पर गतिवाला है, अर्थात् सर्प आदि, (स्था:) = जो स्थावर है, अर्थात् वृक्ष आदि और जो (जगत्) = जंगम मनुष्य आदि प्राणी हैं इन सबको वे प्रभु बनाते हैं । [४] (श्वात्रम्) = [शीघ्रम् सा० ] प्रभु इस सम्पूर्ण संसार को शीघ्र ही बना डालते हैं [in no time ] । समय तो उसको लगता है जिसके ज्ञान व जिसकी शक्ति में कुछ अल्पता हो । श्वात्रं शब्द का अर्थ 'श्विगतौ' से यह भी है यह सारा संसार बड़ी तीव्रगति में है, यहाँ कुछ भी स्थिर नहीं । यह संसार है, जगत् है [सृ गतौ, गम् गतौ] जरान है [ ओहाङ् गतौ], world [वर्ल्ड] हैं, यहाँ सब कुछ whirling motion [ह्वर्लिङ मोशन] में है, चक्राकार गति में है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु ने इस गतिमय संसार को बनाया है, हम ज्ञान की ज्योति को बढ़ाकर इस प्रभु का ही वरण करें।

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    विषय

    जगत्-सर्जक, संहारक जातवेदा अग्नि।

    भावार्थ

    (यः) जो (प्रथमः) सब से प्रथम (देव-जुष्टः) सब विद्वानों से सेवित (होता आसीत्) समस्त जगत् को अपने भीतर लेने हारा है (यम्) जिसको (वृणानाः) वरण करने वाले भक्त जन (आज्येन सम् आञ्जन्) घृत से अग्नि के तुल्य प्रेम, भक्ति और सर्व प्रकाशक ज्ञानयुक्त वचन-विलास से अच्छी प्रकार प्रकट करते हैं (सः) वह ही (पतत्रि) उड़ने वाले, (इत्वरम्) गमनशील जंगम संसार को और (स्थाः जगत्) स्थावर जगत् को और (श्वात्रम् जगत्) वेग से जाने वाले सूर्यादि लोकसमूह को (अकृणोत्) बनाता है। वही (अग्निः) अग्निवत् सर्वप्रणेता और (जात-वेदाः) समस्त पदार्थों में व्यापक है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः मूर्धन्वानाङ्गिरसो वामदेव्यो वा॥ देवता—सूर्यवैश्वानरो॥ छन्दः—१–४, ७, १५, १९ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ८ त्रिष्टुप्। ६, ९–१४, १६, १७ निचृत् त्रिष्टुप्। १८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यः-जातवेदाः) यो जातप्रज्ञानः सर्वज्ञो वैश्वानरो विश्वनायकः परमात्मा (प्रथमः-होता) सृष्टियज्ञस्य प्रथमो होता प्रसारयितास्ति (देवजुष्टः) देवैर्मुमुक्षुभिः सेवितः स्तवनीयः (यम्-आज्येन) यं च मुमुक्षवः स्वात्मसमर्पणेनाध्यात्मयज्ञेन “यज्ञो वाऽऽज्यः” [को० १३।७] “यज्ञो वा यजमानस्यात्मा” [को० ४।१४] (आवृणानाः) स्वीकुर्वाणाः (सम् आञ्जन्) सम्यक् साक्षात् कुर्वन्ति (सः-पतति-इत्वरम्-स्थाः-जगत्) स पक्षिणं सरीसृपं स्थावरं वृक्षादिकं जङ्गमं मनुष्यादिकं च (यत्-श्वात्रम्) यत् सर्वं सद्यः (सः-अग्निः-अकृणोत्) स परमात्मा करोति-उत्पादयति ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I adore and exalt Agni who is the first, original and efficient cause of the cosmic yajna, loved and celebrated by the devas, whom the best of men with cherished love and choice sprinkle and serve with sacred ghrta, who creates, shapes and rules the world of flying, moving, non-moving and revolving objects and living beings. That is Agni, Jataveda, self-refulgent and omniscient.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा, वृक्ष इत्यादी जड व मनुष्य, पशू, पक्षी इत्यादी जंगम सृष्टी उत्पन्न करणारा आहे. मुमुक्षू जन त्याला ध्यान यज्ञाद्वारे स्वत:मध्ये साक्षात करतात. ॥४॥

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