ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 88/ मन्त्र 15
ऋषिः - मूर्धन्वानाङ्गिरसो वामदेव्यो वा
देवता - सूर्यवैश्वानरौ
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
द्वे स्रु॒ती अ॑शृणवं पितॄ॒णाम॒हं दे॒वाना॑मु॒त मर्त्या॑नाम् । ताभ्या॑मि॒दं विश्व॒मेज॒त्समे॑ति॒ यद॑न्त॒रा पि॒तरं॑ मा॒तरं॑ च ॥
स्वर सहित पद पाठद्वे इति॑ । स्रु॒ती इति॑ । अ॒शृ॒ण॒व॒म् । पि॒तॄ॒णाम् । अ॒हम् । दे॒वाना॑म् । उ॒त । मर्त्या॑नाम् । ताभ्या॑म् । इ॒दम् । विश्व॑म् । एज॑त् । सम् । ए॒ति॒ । यत् । अ॒न्त॒रा । पि॒तर॑म् । मा॒तर॑म् । च॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
द्वे स्रुती अशृणवं पितॄणामहं देवानामुत मर्त्यानाम् । ताभ्यामिदं विश्वमेजत्समेति यदन्तरा पितरं मातरं च ॥
स्वर रहित पद पाठद्वे इति । स्रुती इति । अशृणवम् । पितॄणाम् । अहम् । देवानाम् । उत । मर्त्यानाम् । ताभ्याम् । इदम् । विश्वम् । एजत् । सम् । एति । यत् । अन्तरा । पितरम् । मातरम् । च ॥ १०.८८.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 88; मन्त्र » 15
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(मर्त्यानां पितॄणाम्) मरणधर्मी जीवों के मध्य में सन्तानपालक जनों से (उत) तथा (देवानाम्) मुमुक्षुओं जीवन्मुक्तों के (द्वे स्रुती) दो मार्ग पितृयाण तथा देवयान (अशृणवम्) मैं जिज्ञासु सुनता हूँ, (ताभ्याम्) उन से (एजत्-विश्वः सम् एति) गति करता हुआ-कर्म करता हुआ सब जीवमात्र जाता है (पितरं मातरम्-अन्तरा च यत्) पिता और माता के मध्य में जो जन्म धारण करता है, उसके ये दो मार्ग हैं ॥१५॥
भावार्थ
संसार में जो माता-पिता के द्वारा जन्म धारण करते हैं, उनमें से संतानोत्पादक सांसारिक मरणधर्मी जनों का पितृयाण तथा मुमुक्षु जीवन्मुक्तों का देवयानमार्ग है ॥१५॥
विषय
दो मार्ग [देवों का, मर्त्यो का]
पदार्थ
[१] (अहम्) = मैं (पितॄणाम्) = [पा रक्षणे] धर्म का रक्षण करनेवालों के (द्वे स्रुती) = दो मार्गों को (अशृणवम्) = सुनता हूँ, एक मार्ग तो (देवानाम्) = देवों का है, (उत) = और दूसरा मार्ग (मर्त्यानाम्) = मनुष्यों का है। शास्त्रविहित कर्मों को सामान्य मनुष्य विविध कामनाओं से प्रेरित होकर करते हैं। वेदों के अर्थवाद उन्हें उन उन यज्ञों के प्रति रुचिवाला बनाते हैं। इन सकाम कर्मों को करते हुए वे स्वर्ग को अवश्य प्राप्त करते हैं। परन्तु 'ते तं मुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति' वे सकाम कर्मों में रत पुरुष विशाल स्वर्गलोक का उपभोग करके फिर से मर्त्यलोक में प्रवेश करते हैं । इस प्रकार ये नाना कामनाओं से आन्दोलित होनेवाले मर्त्य 'गतागतं कामकामा त्वमन्ते'- आने और जाने के चक्र में फँसे रहते हैं । [२] इन सामान्य मनुष्यों से भिन्न वे देववृत्ति के पुरुष हैं, जो ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त करके, इन सांसारिक कामनाओं में न उलझते हुए अपने नियत कर्मों को कर्त्तव्य भावना से करते हैं। अपने कर्त्तव्य पर ही बल देते हैं, फल पर नहीं। ये देववृत्ति के पुरुष ब्रह्मलोक को प्राप्त करनेवाले होते हैं । [३] इस प्रकार (इदं विश्वम्) = यह सब (यत्) = जो (पितरं मातरं च अन्तरा) = द्युलोक व पृथ्वीलोक के मध्य में होनेवाले मनुष्य हैं, भिन्न-भिन्न लोकों में जन्म लेनेवाले मनुष्य हैं, वे सबके सब (एजत्) = गति करते हुए (ताभ्याम्) = उन दो मार्गों से ही (स्येति) = गति करते हैं। एक सकाम कर्म मार्ग है, दूसरा निष्काम कर्म मार्ग। निचली श्रेणी के धर्मात्माओं का मार्ग सकाम है, उपरलों का निष्काम ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रयत्न करें कि मर्त्यो के 'सकाम कर्म मार्ग' से ऊपर उठकर देवों के निष्काम कर्म मार्ग से गतिवाले हों ।
विषय
आत्मा के लिये जगत् में दो मार्ग देवमार्ग और मर्त्य मार्ग। उनकी उपनिषदादि प्रोक्त देव मार्ग और पितृमार्ग से तुलना।
भावार्थ
(अहम्) मैं (द्वे स्रुती) दो मार्ग (अशृणवम्) श्रवण करता हूँ, गुरुजनों से उन दोनों मार्गों का उपदेश प्राप्त करता हूँ। एक (देवानाम्) देवों का मार्ग (उत) और दूसरा (मर्त्यानाम्) मर्त्य, अर्थात् मरणधर्मा प्राणियों का। एक मार्ग तो मोक्ष का है जिसमें प्रयाण करते हुए जीव फिर जन्म-मरण के चक्र में नहीं आता। दूसरा मार्ग मरणधर्मा प्राणियों का है जिसमें जीव आता और शरीरों को पुनः २ धारण करता है। (ताभ्याम्) उन दोनों मार्गों से (इदं) यह समस्त (विश्वम् एजत्) विश्व अर्थात् देह में प्रवेश करने वाला जीव जगत् गति करता है। (यत्) जिस मार्ग से वह (पितरं मातरं च अन्तरा) पिता और माता इन दोनों के बीच पुत्र रूप से मैथुन-धर्म से (एति) उत्पन्न होता है।
टिप्पणी
शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते। एकया यात्यनावृत्तिमन्यया वर्तते पुनः॥ नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन। गीता अ० ८। २६, २७ ॥ इसका विस्तृत वर्णन प्रश्न और छान्दोग्य उपनिषदों में किया गया है। इति द्वादशो वर्गः॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः मूर्धन्वानाङ्गिरसो वामदेव्यो वा॥ देवता—सूर्यवैश्वानरो॥ छन्दः—१–४, ७, १५, १९ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ८ त्रिष्टुप्। ६, ९–१४, १६, १७ निचृत् त्रिष्टुप्। १८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(मर्त्यानां पितॄणाम्-उत देवानाम्) मरणधर्मणां मध्ये वर्तमानानां पितॄणां सन्तानपालकानां तथा च विदुषां मुमुक्षूणां जीवन्मुक्तानां (द्वे स्रुती अशृणवम्) अहं जिज्ञासुः द्वौ मार्गौ पितृयाणो देवयानश्च शृणोमि (ताभ्याम्) मार्गाभ्यां (एजत्-विश्वं सम् एति) गतिं कुर्वन्-कर्म कुर्वन् सर्वमपि जीवजातं गच्छति (पितरं मातरम्-अन्तरा च यत्) पितुश्च मातुश्च मध्ये यो जायते जन्म धारयति तस्य द्वौ मार्गौ स्तः ॥१५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
I hear there are two paths of life in existence: Pitryana, the path of average mortals to earthly bliss, and Devayana, the path of divine souls to divine bliss. By these does the world of vibrant life travel transmigrating from birth by father and mother to death and attains whatever is between earth and heaven.
मराठी (1)
भावार्थ
जगात माता-पिता यांच्याद्वारे जन्म प्राप्त होतो. त्याचे दोन मार्ग आहेत. १) संतान उत्पन्न करणाऱ्या सांसारिक मरणधर्मी जनांचा पितॄयाण मार्ग आहे, तर २) मुमुक्षू जीवन्मुक्तांचा देवयान मार्ग आहे. ॥१५॥
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