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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 88 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 88/ मन्त्र 8
    ऋषिः - मूर्धन्वानाङ्गिरसो वामदेव्यो वा देवता - सूर्यवैश्वानरौ छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सू॒क्त॒वा॒कं प्र॑थ॒ममादिद॒ग्निमादिद्ध॒विर॑जनयन्त दे॒वाः । स ए॑षां य॒ज्ञो अ॑भवत्तनू॒पास्तं द्यौर्वे॑द॒ तं पृ॑थि॒वी तमाप॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सू॒क्त॒ऽवा॒कम् । प्र॒थ॒मम् । आत् । इत् । अ॒ग्निम् । आत् । इत् । ह॒विः । अ॒ज॒न॒य॒न्त॒ । दे॒वाः । सः । ए॒षा॒म् । य॒ज्ञः । अ॒भ॒व॒त् । त॒नू॒ऽपाः । तम् । द्यौः । वे॒द॒ । तम् । पृ॒थि॒वी । तम् । आपः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सूक्तवाकं प्रथममादिदग्निमादिद्धविरजनयन्त देवाः । स एषां यज्ञो अभवत्तनूपास्तं द्यौर्वेद तं पृथिवी तमाप: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सूक्तऽवाकम् । प्रथमम् । आत् । इत् । अग्निम् । आत् । इत् । हविः । अजनयन्त । देवाः । सः । एषाम् । यज्ञः । अभवत् । तनूऽपाः । तम् । द्यौः । वेद । तम् । पृथिवी । तम् । आपः ॥ १०.८८.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 88; मन्त्र » 8
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (देवाः) विद्वान् जन  (प्रथमम्) प्रथम (सूक्तवाकम्) मन्त्रसंस्थान को बोलते हैं (आत्-इत्) अनन्तर ही अग्नि को ज्वलित करते हैं (आत्-इत्) अनन्तर ही (हविः-अजनयन्त) हव्य वस्तु को सम्पादन करते हैं या होमते हैं ॥८॥

    भावार्थ

    विद्वानों को प्रथम मन्त्रसमूह बोलना चाहिए। पुनः अग्न्याधान करना, फिर होमने योग्य वस्तु अग्नि में छोड़ते हैं ॥८॥

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    विषय

    'यज्ञ' शरीर का रक्षक है

    पदार्थ

    [१] (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (प्रथमम्) = सबसे पहले (सूक्तवाकम्) = मधुर शब्दों के प्रयोग को अजनयन्त अपने में प्रकट करते हैं, सदा मधुर शब्दों को ही बोलते हैं। [२] (आत् इत्) = अब इसके बाद (अग्निं अजनयन्त) = अग्निहोत्र के लिए अग्नि को समिद्ध करते हैं । (आत् इत्) = और अब यज्ञ करके यज्ञशेष के रूप में (हविः) = दानपूर्वक अदन को (अजनयन्त) = अपने में विकसित करते हैं। इस प्रकार इस हवि के सेवन से ये प्रभु का उपासन करते हैं 'कस्मै देवाय हविषा विधेम ' । [३] (एषाम्) = इन देववृत्तिवाले पुरुषों का (स यज्ञः) = वह यज्ञ (तनूपाः अभवत्) = इनके शरीरों का रक्षण करनेवाला होता है। यज्ञ से इनके शरीर नीरोग बने रहते हैं। यज्ञ से वायुशुद्धि होकर नीरोगता प्राप्त होती ही है और यज्ञशेष का सेवन स्वयं अपने में अमृत होता है । यज्ञशेष के सेवन की वृत्ति से मनुष्य कभी अतिमुक्त नहीं होता। [४] (तम्) = उस यज्ञ को इन्हें (द्यौः) = द्युलोक वेद प्राप्त कराता है (तम्) = उस यज्ञ को (पृथिवी) = पृथिवी प्राप्त कराती है और (तम्) = उस यज्ञ को (आपः) = अन्तरिक्षलोक प्राप्त कराता है । अध्यात्म में (द्यौः) = मस्तिष्क है, पृथिवी शरीर है तथा (अन्तरिक्ष) = हृदय व मन है । एवं इनका मस्तिष्क, इनका शरीर व इनका हृदय इन्हें इस यज्ञ में रुचिवाला करता है। ये ज्ञान, शक्ति व संकल्प से यज्ञ में प्रवृत्त हो जाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - मधुर शब्दों के प्रयोग, यज्ञ के करने व हवि के सेवन की वृत्ति से देव प्रभु का दर्शन करते हैं। ये ज्ञान, शक्ति व संकल्प पूर्वक यज्ञों को करते हैं और यह यज्ञ इनको नीरोग बनाता है ।

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    विषय

    यज्ञाग्निवत् देहाग्नि में वैश्वानर यज्ञ

    भावार्थ

    (देवाः) नाना कामनावान् जीवगण (प्रथमं सूक्तवाकम् अजनयन्त) सब से प्रथम सूक्तवाक, उत्तम वचन को प्रकट करते हैं। (आत् इत्) और अनन्तर (अग्निम् अजनयन्त) अग्नि को उत्पन्न करते हैं, और उसके पश्चात् (हविः अजनयन्त) अन्न को उत्पन्न करते हैं। (सः) वह (एषां) इन जीवगण का (तनूपाः यज्ञः अभवत्) देह की रक्षा करने वाला यज्ञ ही होता है। (तं द्यौः वेद) उसको द्यौः अर्थात् सर्वोपरि मस्तक जानता है। (तं पृथिवी) उसको यह पृथिवीमय देह अनुभव करता है। (तम् आपः) उसको ये प्राणगण जानते हैं। अथवा उस यज्ञ को द्यौ, सूर्य, पृथिवी और आपः, जल (वेद) प्राप्त कराते हैं। (२) इसी प्रकार यज्ञ में प्रथम (इदं द्यावा पृथिवी ऋ०१।१८५।११॥) मन्त्र का पाठ होता है फिर अग्नि को मथ कर उत्पन्न किया जाता है और फिर आहुति योग्य हवि बनाता है। यह यज्ञ उस यज्ञ का अनुकरण है। जगत् में, भी प्रथम भोग्य पदार्थ की कामना उत्पन्न होती है, जो प्रिय सूक्तवाक है, फिर अग्नि अर्थात् बुभुक्षा तीव्र होती है, तब उसके शमन के लिये अन्न की साधना करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः मूर्धन्वानाङ्गिरसो वामदेव्यो वा॥ देवता—सूर्यवैश्वानरो॥ छन्दः—१–४, ७, १५, १९ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ८ त्रिष्टुप्। ६, ९–१४, १६, १७ निचृत् त्रिष्टुप्। १८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (देवाः प्रथमं सूक्तवाकम्) विद्वांसः प्रथमं मन्त्रसंस्थानमाचरन्ति (आत्-इत्) अनन्तरम् (अग्निम्) अग्निं ज्वालयन्ति-आदधति वा (आत्-इत्) अनन्तरमेव (हविः-अजनयन्त) हव्यं सम्पादयन्ति-जुह्वति (एषां सः-यज्ञः) एतेषां स यज्ञः (तनूपाः-अभवत्) शरीररक्षको भवति (तं द्यौः-वेद) तं यज्ञं द्यौर्द्युलोकः प्राप्नोति (तं पृथिवी) तं यज्ञं पृथिवी च प्राप्नोति (तम्-आपः) तं यज्ञमन्तरिक्षं च प्राप्नोति ॥८॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The devas, noble yajakas, first chant the divine Word, then they light the fire and then they prepare and offer the havi. That Agni is the adorable lord of them all, guardian and promoter of health and age. That the heaven receives, that the earth receives, and that the waters receive, and that all of them realise, the pervasive power and energiser.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वानांनी प्रथम मंत्रसमूहाचा उच्चार केला पाहिजे. नंतर अग्न्याधान करून होम करण्यायोग्य वस्तू अग्नीत सोडाव्यात. ॥८॥

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