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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 88 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 88/ मन्त्र 7
    ऋषिः - मूर्धन्वानाङ्गिरसो वामदेव्यो वा देवता - सूर्यवैश्वानरौ छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    दृ॒शेन्यो॒ यो म॑हि॒ना समि॒द्धोऽरो॑चत दि॒वियो॑निर्वि॒भावा॑ । तस्मि॑न्न॒ग्नौ सू॑क्तवा॒केन॑ दे॒वा ह॒विर्विश्व॒ आजु॑हवुस्तनू॒पाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दृ॒शेन्यः॑ । यः । म॒हि॒ना । स॒म्ऽइ॒द्धः । अरो॑चत । दि॒विऽयो॑निः । वि॒भाऽवा॑ । तस्मि॑न् । अ॒ग्नौ । सू॒क्त॒ऽवा॒केन॑ । दे॒वाः । ह॒विः । विश्वे॑ । आ । अ॒जु॒ह॒वुः॒ । त॒नू॒ऽपाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दृशेन्यो यो महिना समिद्धोऽरोचत दिवियोनिर्विभावा । तस्मिन्नग्नौ सूक्तवाकेन देवा हविर्विश्व आजुहवुस्तनूपाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दृशेन्यः । यः । महिना । सम्ऽइद्धः । अरोचत । दिविऽयोनिः । विभाऽवा । तस्मिन् । अग्नौ । सूक्तऽवाकेन । देवाः । हविः । विश्वे । आ । अजुहवुः । तनूऽपाः ॥ १०.८८.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 88; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (दिवियोनिः) आकाश में आश्रय सूर्य है जिसका, ऐसा अग्नि (समिद्धः) प्रज्ज्वलित हुआ (यः-महिम्ना दृशेन्यः) जो अपने महत्त्व से दर्शनीय है (विभावा-अरोचत) प्रकट दीप्तिवाला प्रकाशमान हो जाता है (तस्मिन्-अग्नौ) उस यज्ञाग्नि में (तनूपाः-विश्वेदेवाः) शरीररक्षक सब विद्वान् (सूक्तवाकेन) वचनसंस्था-मन्त्रक्रमिकता से (हविः-आजुहवुः) घृतादिक भली-भाँति होमते हैं ॥७॥

    भावार्थ

    पृथिवीस्थ अग्नि सदा आकाश के सूर्य को उन्मुख हो प्रज्ज्वलित होती है, उसे वेदि में घृतादि होम्य वस्तु देनी चाहिए अपने शरीर की रक्षा करने के लिये ॥७॥

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    विषय

    मधुर शब्द तथा यज्ञशेष का सेवन

    पदार्थ

    [१] वे प्रभु (दृशेन्य:) = दर्शनीय हैं, सुन्दर ही सुन्दर होने से दर्शन के योग्य तो हैं ही, इसलिए भी वे दर्शन के योग्य हैं कि उनके दर्शन होने पर ही यह 'जन्म-मरण-चक्र' समाप्त होता है । वे प्रभु दर्शनीय हैं (यः) = जो (महिना समिद्धः) = अपनी महिमा से दीप्त हैं, उस प्रभु की महिमा प्रत्येक पदार्थ में प्रकट हो रही है । वे (दिवियोनिः) = सदा ज्ञान में निवास करनेवाले (विभावा) = विशिष्ट दीप्तिवाले प्रभु अरोचत सदा देदीप्यमान हैं, सहस्रों सूर्यों की दीप्ति भी प्रभु की दीप्ति को उपमित नहीं कर सकती। [२] (तस्मिन् अग्नौ) = उस प्रभु की प्राप्ति के निमित्त (विश्वे) = सब (तनूपाः) = अपने शरीरों का रक्षण करनेवाले (देवाः) = देववृत्ति के पुरुष (सूक्तवाकेन) = मधुर शब्दों के उच्चारण के साथ (हविः) = यज्ञशेष को (आजुहवुः) = अपने में आहुत करते हैं । अर्थात् प्रभु की प्राप्ति के लिये आवश्यक है कि - [क] शरीर को स्वस्थ रखा जाए, [ख] वृत्ति को दिव्य बनाया जाए, [ग] मधुर ही शब्दों का प्रयोग हो और (घ) हम सदा त्यागपूर्वक अदन की वृत्तिवाले बनें। इस हवि के सेवन से ही तो प्रभु का सच्चा उपासन होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - मानव जीवन का उद्देश्य यही है कि प्रभु का दर्शन करके मोक्ष प्राप्त किया जाए। मोक्ष प्राप्ति के लिये साधन ये हैं- [क] शरीर को नीरोग रखना, [ख] दैवी सम्पत्ति का अर्जन, [ग] मधुर शब्दों का ही उच्चारण और [घ] हवि का स्वीकार = त्यागपूर्वक अदन । ऋ

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    विषय

    सर्वान्नग्राही वैश्वानर अग्नि का वर्णन।

    भावार्थ

    (यः दृशेन्यः) जो दर्शनीय, सब के दर्शन करने योग्य, (महिना सम्-इद्धः) अपने महत्व या सामर्थ्य से प्रदीप्त, स्वयं प्रकाशित, (दिवि-योनिः) प्रकाश, पार्थिव शरीर और सूर्य वा तेजस्तत्व में आश्रित (वि-भावा) विशेष रूप से कान्तियुक्त होकर (अरोचत) सब को प्रिय मालूम होता है (तस्मिन् अग्नौ) उस अग्नि में (विश्वे देवाः) समस्त मनुष्य वा नाना कामनाशील, (तनू-पाः) देह की रक्षा करने वाले जीवगण (सूक्त-वाकेन) सुखपूर्वक कहने योग्य वचनों सहित (हविः आ जुहुवुः) अन्न की आहुति करते हैं। वह अग्नि वैश्वानर है जो सबके उदर में स्थित है जिस में सब जीव प्रेमपूर्वक अन्न प्रदान करते हैं।

    टिप्पणी

    भोजन करना अन्नाहुति है देखो मनु— सायं प्रातर्द्विजातीनामशनं स्मृतिनोदितम्। नान्तरा भोजनं कुर्यादग्निहोत्रसमो विधिः॥ (मनु० आ० २। श्लो० ५२ परि०)॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः मूर्धन्वानाङ्गिरसो वामदेव्यो वा॥ देवता—सूर्यवैश्वानरो॥ छन्दः—१–४, ७, १५, १९ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ८ त्रिष्टुप्। ६, ९–१४, १६, १७ निचृत् त्रिष्टुप्। १८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (दिवियोनिः) आकाशे योनिराश्रयः सूर्यो यस्य तथा भूतोऽग्निः (समिद्धः) प्रज्वलितः (यः-महिम्ना दृशेन्यः) यः स्वमहत्त्वेन दर्शनीयो भवति (विभावा-अरोचत) विभावान् प्रकाशते (तस्मिन्-अग्नौ) तस्मिन् यज्ञाग्नौ (तनूपाः-विश्वेदेवाः) शरीररक्षकाः सर्वे विद्वांसः (सूक्तवाकेन) वचनसंस्थया “संस्थाः सूक्तवाक्” [श० ११।२।७।२८] मन्त्रक्रमेण (हविः-आजुहवुः) घृतादिकं समन्तात् प्रयच्छन्ति ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Wondrous in form, Agni, who, refulgent with its own grandeur, shines in heaven as the light most gracious is the divinity into whom, in sacred fire form, all devas, divinities of nature and humanity, guardians of our health and body, offer yajnic oblations of havi with the chant of Vedic mantras.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    पृथ्वीतील अग्नी सदैव आकाशातील सूर्याकडे उन्मुख होऊन प्रज्वलित होतो. आपल्या शरीराचे रक्षण करण्यासाठी त्या अग्नीला वेदीत घृत इत्यादी होम्य वस्तू दिल्या पाहिजेत. ॥७॥

    टिप्पणी

    तस्मिन्नग्नौ सूक्तवाकेन देवा हविर्विश्व आजुहवुस्तनूपा: ॥७॥

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