ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 88/ मन्त्र 16
ऋषिः - मूर्धन्वानाङ्गिरसो वामदेव्यो वा
देवता - सूर्यवैश्वानरौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
द्वे स॑मी॒ची बि॑भृत॒श्चर॑न्तं शीर्ष॒तो जा॒तं मन॑सा॒ विमृ॑ष्टम् । स प्र॒त्यङ्विश्वा॒ भुव॑नानि तस्था॒वप्र॑युच्छन्त॒रणि॒र्भ्राज॑मानः ॥
स्वर सहित पद पाठद्वे इति॑ । स॒मी॒ची इति॑ सम्ऽई॒ची । बि॒भृ॒तः॒ । चर॑न्तम् । शी॒र्ष॒तः । जा॒तम् । मन॑सा । विऽमृ॑ष्टम् । सः । प्र॒त्यङ् । विश्वा॑ । भुव॑नानि । त॒स्थौ॒ । अप्र॑ऽयुच्छन् । त॒रणिः॑ । भ्राज॑मानः ॥
स्वर रहित मन्त्र
द्वे समीची बिभृतश्चरन्तं शीर्षतो जातं मनसा विमृष्टम् । स प्रत्यङ्विश्वा भुवनानि तस्थावप्रयुच्छन्तरणिर्भ्राजमानः ॥
स्वर रहित पद पाठद्वे इति । समीची इति सम्ऽईची । बिभृतः । चरन्तम् । शीर्षतः । जातम् । मनसा । विऽमृष्टम् । सः । प्रत्यङ् । विश्वा । भुवनानि । तस्थौ । अप्रऽयुच्छन् । तरणिः । भ्राजमानः ॥ १०.८८.१६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 88; मन्त्र » 16
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(मनसा विमृष्टम्) मन में विमर्शनीय-विचारणीय (जातम्) जनक (चरन्तम्) सर्वत्र विचरण करते हुए विभुगति करते हुए परमात्मा को (द्वे समीची) दो साम्मुख्य से वर्तमान द्युलोक पृथिवीलोक (शीर्षतः-बिभ्रतः) शिरोरूप से धारण करते हैं (सः) वह (तरणिः) दुःख से तारक (भ्राजमानः) प्रकाशमान (विश्वा भुवनानि) सारे भूतों के प्रति (अप्रयुच्छन्) प्रमाद न करता हुआ-निरन्तर (प्रत्यङ् तस्थौ) अन्दर रहता है ॥१६॥
भावार्थ
परमात्मा जो इस द्यावापृथिवीमय जगत् का शासन करता है, सबका उत्पन्नकर्ता सब में व्यापक निरन्तर रहनेवाला दुःख से तारनेवाला ज्ञानदाता है ॥१६॥
विषय
शीर्षतो जातं, मनसा विमृष्टम्
पदार्थ
[१] गत मन्त्र में वर्णित 'पितरं मातरं च' = द्युलोक व पृथ्वीलोक (द्वे) = दोनों (समीची) = [सं अञ्च्] मिलकर उत्तम गतिवाले हैं। ये दोनों लोक एक दूसरे की पूर्ति करते हैं । पृथ्वीलोक का पानी वाष्पीभूत होकर द्युलोक को भरता है और द्युलोक से वृष्टि होकर पृथ्वीलोक का पूरण होता है । इस प्रकार ये दोनों सम्यक् उत्तम गतिवाले होते हुए (बिभृतः) = उस प्रभु को धारण करते हैं । जो प्रभु (चरन्तम्) = निरन्तर क्रियाशील हैं, (शीर्षतः जातम्) = मस्तिष्क से जिनका प्रादुर्भाव होता है, सूक्ष्म बुद्धि से ही तो प्रभु का दर्शन होता है ' बुद्धि' युक्ति के द्वारा इस संसार रूप कार्य के कर्त्ता के रूप में प्रभु को देखती है। वे प्रभु (मनसा विमृष्टम्) = मन से विमृष्ट होते हैं 'मनीषिणो मनसा पृच्छतेदु' । इस द्युलोक व पृथ्वीलोक के अन्तर्गत एक-एक वस्तु में उस प्रभु की महिमा दृष्टिगोचर होती है । [२] (स) = वे प्रभु (विश्वा भुवनानि) = सब लोगों के (प्रत्यड्) = [imher imterior] अन्दर तस्थौ स्थित हैं । पृथ्वी आदि सब लोकों के अन्दर भी वे उनकी गतियों का नियमन करते हुए स्थित हैं। [३] सब प्राणियों के हृदय में स्थित हुए हुए वे प्रभु (अप्रयुच्छन्) = कभी भी प्रमाद नहीं करते। हृदयस्थरूपेण वे प्रभु हमें सदा प्रेरणा देते रहते हैं । (तरणिः) = वे ही हमें वासनाओं से तरा हैं, प्रभु से शक्ति को प्राप्त करके ही वासनाओं को जीत पाते हैं । भ्(राजमानः) = वे प्रभु दीप्त हैं, ज्ञान से दीप्त वे प्रभु अपने उपासकों के लिये भी इस दीप्ति को प्राप्त कराते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - द्युलोक व पृथ्वीलोक में सर्वत्र प्रभु की महिमा दृष्टिगोचर होती है । बुद्धि से प्रभु का दर्शन होता है, मन से ही प्रभु का विमर्श होता है सब प्राणियों के अन्दर स्थित हुए-हुए वे प्रभु सभी का नियमन कर रहे हैं ।
विषय
माता पिता के बीच बालक के तुल्य भूमि आकाश के बीच व्यापक प्रभु का वर्णन।
भावार्थ
(समीची द्वे) परस्पर संगत होकर स्त्री पुरुष जिस प्रकार बालक को (बिभृतः) गर्भ में धारण करते हैं और वे दोनों (शीर्षतः जातम्) शिर के बल उत्पन्न हुए और (मनसा विमृष्टम्) मनोभावना द्वारा विशेष रूप से चिन्तित, (चरन्तम्) विचरते बालक को (समीची बिभृतः) मिलकर माता पिता दोनों पालन-पोषण करते हैं। उसी प्रकार (समीची) उत्तम रीति से सुसंगत आकाश और पृथिवी दोनों उस (चरन्तम्) व्यापक महान् आत्मा को (बिभृतः) धारण करते हैं जो (शीर्षतः जातम्) शिरोभाग में (जातम्) प्रकट होता (मनसा विमृष्टम्) मनन, चिन्तन द्वारा विशेष रूप से विवेचन करने योग्य है। (सः) वह (प्रत्यङ्) प्रत्येक पदार्थ में प्रकाशित होने वाला, प्रत्यग् आत्मतत्त्व, ब्रह्मतत्त्व (तरणिः) सब को सब प्रकार के दुःखों से तारने वाला, (भ्राजमानः) सर्वत्र प्रकाशमान देदीप्यमान (अप्रयुच्छन्) प्रमाद रहित होकर (विश्वा भुवना) समस्त लोकों को (तस्थौ) अधिष्ठाता रूप से विराजता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः मूर्धन्वानाङ्गिरसो वामदेव्यो वा॥ देवता—सूर्यवैश्वानरो॥ छन्दः—१–४, ७, १५, १९ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ८ त्रिष्टुप्। ६, ९–१४, १६, १७ निचृत् त्रिष्टुप्। १८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(मनसा विमृष्टम्) मनसा विमर्शनीयं विचारणीयं मननीयम् “मृश आमर्शने” [तुदा०] ‘औणादिकः क्तः प्रत्ययः’ (जातम्) जनकं जगत्कर्तारं परमात्मानं (चरन्तम्) सर्वत्र विचरन्तं विभुगतिं कुर्वाणम् (द्वे समीची शीर्षतः-बिभ्रतः) उभे सङ्गम्यमाने द्यावापृथिव्यौ शिरोरूपतो धारयति (सः) परमात्मा (तरणिः-भ्राजमानः) दुःखात् तारकः प्रकाशमानः (विश्वा भुवनानि) सर्वाणि भूतानि (अप्रयुच्छन्) अप्रमाद्यन् (प्रत्यङ् तस्थौ) सर्वान्तरे तिष्ठति ॥१६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Two, earth and heaven, together bear Agni born on top, vibrant and radiating from the highest heaven, and that abides immanent and pervasive all over the worlds of existence, unremissive, radiant and divinely self-refulgent.
मराठी (1)
भावार्थ
जो परमात्मा या द्यावापृथिवीमय जगाचे शासन करतो. तो सर्वांचा उत्पन्नकर्ता असून, सर्वांत व्यापक, निरंतर निकट असणारा, दु:खातून तारून नेणारा, ज्ञानदाता आहे. ॥१६॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal