ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 88/ मन्त्र 3
ऋषिः - मूर्धन्वानाङ्गिरसो वामदेव्यो वा
देवता - सूर्यवैश्वानरौ
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
दे॒वेभि॒र्न्वि॑षि॒तो य॒ज्ञिये॑भिर॒ग्निं स्तो॑षाण्य॒जरं॑ बृ॒हन्त॑म् । यो भा॒नुना॑ पृथि॒वीं द्यामु॒तेमामा॑त॒तान॒ रोद॑सी अ॒न्तरि॑क्षम् ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वेभिः॑ । नु । इ॒षि॒तः । य॒ज्ञिये॑भिः । अ॒ग्निम् । स्तो॒षा॒णि॒ । अ॒जर॑म् । बृ॒हन्त॑म् । यः । भा॒नुना॑ । पृ॒थि॒वीम् । द्याम् । उ॒त । इ॒माम् । आ॒त॒तान॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । अ॒न्तरि॑क्षम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवेभिर्न्विषितो यज्ञियेभिरग्निं स्तोषाण्यजरं बृहन्तम् । यो भानुना पृथिवीं द्यामुतेमामाततान रोदसी अन्तरिक्षम् ॥
स्वर रहित पद पाठदेवेभिः । नु । इषितः । यज्ञियेभिः । अग्निम् । स्तोषाणि । अजरम् । बृहन्तम् । यः । भानुना । पृथिवीम् । द्याम् । उत । इमाम् । आततान । रोदसी इति । अन्तरिक्षम् ॥ १०.८८.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 88; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यज्ञियेभिः-देवेभिः) पूजनीय विद्वानों द्वारा (नु-इषितः) शीघ्रप्रेरित उपदिष्ट (अजरं बृहन्तम्) जरारहित महान् (अग्निम्) अग्रणायक परमात्मा की (स्तोषामि) स्तुति करता हूँ (रोदसी) द्यावापृथिवी के मध्य में वर्तमान (अन्तरिक्षम्-आततान) अन्तरिक्ष को तानता है, रचता है ॥३॥
भावार्थ
पूजनीय विद्वानों से शिक्षा पाकर महान् परमात्मा की स्तुति करनी चाहिए। जिसने द्युलोक, पृथिवीलोक तथा दोनों के मध्य में अन्तरिक्ष को उत्पन्न किया है ॥३॥
विषय
प्रभु का उपासक
पदार्थ
[१] गत मन्त्र के अनुसार उत्पन्न हुई हुई इस सुन्दर सृष्टि में देववृत्ति का पुरुष चाहता है कि (यज्ञियेभिः) = आदर के योग्य [ यज-पूजा] (देवेभिः) = ' मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव, अतिथि देवो भव' उत्तम माता, पिता, आचार्य व अतिथि आदि देवों से (नु) = निश्चयपूर्वक (इषितः) = प्रेरणा को प्राप्त हुआ हुआ मैं (अग्निम्) = इस अग्रेणी प्रभु को (स्तोषाणि) = स्तुति करनेवाला बनूँ जो अग्नि (अजरम्) = कभी जीर्ण होनेवाला नहीं, (बृहन्तम्) = जो सदा वर्धमान है । [२] उस प्रभु का मैं स्तवन करूँ (यः) = जो (भानुना) = अपनी ज्ञानदीप्ति से, अपने तप से 'यस्य (ज्ञानमयं तपः पृथिवीम्) = इस विस्तृत अन्तरिक्षलोक को (द्याम्) = प्रकाशमय द्युलोक को (उत) = और (इमाम्) = इस पृथिवी को (आततान) = विस्तृत करते हैं । उस प्रभु का मैं स्तवन करूँ जो (रोदसी) = इन द्यावापृथिवी को तथा (अन्तरिक्षम्) = इनके बीच में स्थित इस अन्तरिक्षलोक को (भानुना) दीप्ति = से (आततान) = व्याप्त करता है। यहाँ अर्थ में 'भानुना' और 'आततान' शब्दों की पुनरावृत्ति करनी होती है। प्रभु इन लोकों को अपने तप व ज्ञान से बनाते हैं और इन्हें प्रकाश से परिपूर्ण कर देते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ-देवताओं से उत्तम प्रेरणाओं को प्राप्त करते हुए हम सृष्टि निर्माता प्रभु के उपासक बनें।
विषय
महान् व्यापक अग्नि, प्रभु का वर्णन।
भावार्थ
उसी महान् अग्नि का पुनः वर्णन करते हैं। मैं (यज्ञियेभिः) यज्ञ, देवपूजन और सत्संगति करने योग्य विद्वानों से (इषितः) प्रेरित होकर उस (अजरम्) अविनाशी, (बृहन्तम् अग्निम् स्तोषाणि) महान् अग्नि की स्तुति करूं (यः) जो (भानुना) अपने तेज से (पृथिवीम् उत द्याम्) इस पृथिवी और महान् आकाश को और (रोदसी अन्तरिक्षम्) पृथिवी, आकाश के बीच के अन्तरिक्ष को भी (आततान) विस्तृत करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः मूर्धन्वानाङ्गिरसो वामदेव्यो वा॥ देवता—सूर्यवैश्वानरो॥ छन्दः—१–४, ७, १५, १९ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ८ त्रिष्टुप्। ६, ९–१४, १६, १७ निचृत् त्रिष्टुप्। १८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यज्ञियेभिः-देवेभिः) पूजनार्हैः “यज्ञियस्य पूजनीयस्य” [ऋ० ३।३२।७ दयानन्दः] विद्वद्भिः (नु-हर्षितः) क्षिप्रं प्रेरित उपदिष्टः (अजरं बृहन्तम्-अग्निं स्तोषामि) जरारहितमनश्वरं महान्तमग्रणायकं परमात्मानं स्तौमि (यः भानुना) यः स्वतेजसा (इमां पृथिवीं द्याम्) एतां पृथिवीं द्युलोकं च (उत) अपि तु (रोदसी-अन्तरिक्षम्-आततान) रोदस्योर्द्यावापृथिव्योर्मध्ये वर्तमानमन्तरिक्षमपि चातनोति रचयति ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Inspired by Devas and lighting the fire of yajnas, I adore and exalt Agni, lord unaging and eternal, infinite, who, by his self-refulgence, pervades this earth and heaven and expands both heaven and earth and the middle regions of the skies.
मराठी (1)
भावार्थ
पूजनीय विद्वानांकडून शिक्षण प्राप्त करून महान परमात्म्याची स्तुती केली पाहिजे. ज्याने द्युलोक, पृथ्वीलोक व दोन्हींच्या मध्ये अंतरिक्ष उत्पन्न केलेले आहे. ॥३॥
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