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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 88 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 88/ मन्त्र 5
    ऋषिः - मूर्धन्वानाङ्गिरसो वामदेव्यो वा देवता - सूर्यवैश्वानरौ छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यज्जा॑तवेदो॒ भुव॑नस्य मू॒र्धन्नति॑ष्ठो अग्ने स॒ह रो॑च॒नेन॑ । तं त्वा॑हेम म॒तिभि॑र्गी॒र्भिरु॒क्थैः स य॒ज्ञियो॑ अभवो रोदसि॒प्राः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । भुव॑नस्य । मू॒र्धन् । अति॑ष्ठः । अ॒ग्ने॒ । स॒ह । रो॒च॒नेन॑ । तम् । त्वा॒ । अ॒हे॒म॒ । म॒तिऽभिः॑ । गीः॒ऽभिः । उ॒क्थैः । सः । य॒ज्ञियः॑ । अ॒भ॒वः॒ । रो॒द॒सि॒ऽप्राः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यज्जातवेदो भुवनस्य मूर्धन्नतिष्ठो अग्ने सह रोचनेन । तं त्वाहेम मतिभिर्गीर्भिरुक्थैः स यज्ञियो अभवो रोदसिप्राः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । जातऽवेदः । भुवनस्य । मूर्धन् । अतिष्ठः । अग्ने । सह । रोचनेन । तम् । त्वा । अहेम । मतिऽभिः । गीःऽभिः । उक्थैः । सः । यज्ञियः । अभवः । रोदसिऽप्राः ॥ १०.८८.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 88; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (जातवेदः-अग्ने) हे जातप्रज्ञान-सर्वत्र नायक परमात्मन् ! (यत्) जिससे तू (रोचनेन सह) स्वकीय ज्ञानप्रकाश के साथ (भुवनस्य) प्राणिमात्र के (मूर्धन्) मूर्धा पर शिरोधार्य शासक हुआ (अतिष्ठः) स्थित है, (तं त्वा) उस तुझ को (मतिभिः-गीर्भिः) मननीय क्रियाओं से तथा स्तुतियों से (उक्थैः) प्रशंसावचनों से (अहेम) हम प्राप्त करें, (सः) वह तू (रोदसिप्राः) द्यावापृथिवीमय जगत् को अपनी व्याप्ति से पूरण करनेवाला संगमनीय है ॥५॥

    भावार्थ

    परमात्मा समस्त संसार में व्याप्त है तथा प्राणिमात्र के ऊपर शासन करता है, उसे मननप्रकारों स्तुति प्रशंसाओं द्वारा प्राप्त किया जाता है ॥५॥

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    विषय

    मनन, स्वाध्याय व स्तवन

    पदार्थ

    [१] हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ ! (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (यत्) = जो आप (रोचनेन सह) = ज्ञान की दीसि के साथ (भुवनस्य मूर्धन्) = इस ब्रह्माण्ड के शिखर पर (अतिष्ठः) = स्थित होते हैं । अर्थात् सारे ब्रह्माण्ड के शिरोमणि हैं, इसके शासक हैं और सभी को ज्ञान दे रहे हैं। (तं त्वा) = उन आपको (मतिभिः) = मननों के द्वारा, (गीभिः) = ज्ञान की वाणियों के द्वारा (उक्थैः) = स्तोत्रों के द्वारा, अर्थात् हृदय में चिन्तन, मस्तिष्क में ज्ञान व वाणी में स्तुतिवचनों के धारण के द्वारा (अहेम) = प्राप्त होती हैं । प्रभु ब्रह्माण्ड में सर्वश्रेष्ठ हैं, उनको प्राप्त करने के लिये मनन [मतिभिः] स्वाध्याय [ गीर्भिः] तथा स्तवन [उक्थैः] आवश्यक है । [२] (स) = वे आप (यज्ञियः) = पूजा के योग्य (अभवः) = हैं । (रोदसिप्राः) = द्यावापृथिवी का पूरण करनेवाले हैं। सारे ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं, कण-कण में आपकी सत्ता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- संसार के संचालक प्रभु की प्राप्ति 'मनन, स्वाध्याय व स्तवन' से होती है । वे प्रभु ही पूजा के योग्य हैं, सर्वत्र व्याप्त हैं ।

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    विषय

    व्यापक सर्वोपरि पूज्य महान् अग्नि की स्तुति।

    भावार्थ

    हे (जातवेदः) समस्त उत्पन्न जगत् को व्यापने और जानने वाले ! (अग्ने) हे स्वप्रकाश ! सर्वप्रथम ! प्रभो ! (यत्) जब वा जो तू (रोचनेन) प्रकाश के समान (भुवनस्य मूर्धन्) समस्त उत्पन्न जगत् के शिर पर सूर्यवत् (अतिष्ठः) स्थिर, सर्वोपरि मूर्धन्य है। (तं त्वा) उस तुझ को हम (मतिभिः) बुद्धियों से, मननकारी चित्तों से, (गीर्भिः) वेदवाणियों से (उक्थैः) विद्वानों के व्याख्या वचनों से (अहेम) हम प्राप्त हों, तेरा ज्ञान करें। (सः) वह तू (यज्ञियः) यज्ञों से पूजा योग्य और (रोदसि-प्राः अभवः) आकाश और भूमि सब को पूर्ण करने वाला, सर्वव्यापक (अभवः) है। इति दशमो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः मूर्धन्वानाङ्गिरसो वामदेव्यो वा॥ देवता—सूर्यवैश्वानरो॥ छन्दः—१–४, ७, १५, १९ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ८ त्रिष्टुप्। ६, ९–१४, १६, १७ निचृत् त्रिष्टुप्। १८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (जातवेदः-अग्ने) हे जातप्रज्ञान-सर्वज्ञ नायक परमात्मन् ! (यत्) यतस्त्वम् ! (रोचनेन सह) स्वकीयज्ञानप्रकाशेन सह (भुवनस्य मूर्धन्-अतिष्ठ)  प्राणिमात्रस्य मूर्धनि शिरोधार्यः शासकः सन् तिष्ठसि (तं त्वा) तं त्वां (मतिभिः-गीर्भिः) मननक्रियाभिः स्तुतिभिः (उक्थैः-अहेम) प्रशंसावचनैश्च प्राप्नुयाम “हि गतौ” [स्वादि०] (सः) स त्वं (रोदसि प्राः) द्यावापृथिवीमयस्य विश्वस्य पूरयिता सङ्गमनीयो भव ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Jataveda, Agni, who abide and shine on top of the world with the sun, with our thoughts, words and holy songs we adore and worship you. You are adorable, worthy of worship, pervasive all over heaven and earth.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा संपूर्ण संसारात व्याप्त आहे व प्राणिमात्रावर शासन करतो. त्याला मनन, स्तुती, प्रशंसेने प्राप्त केले जाते. ॥५॥

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