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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 88 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 88/ मन्त्र 6
    ऋषिः - मूर्धन्वानाङ्गिरसो वामदेव्यो वा देवता - सूर्यवैश्वानरौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    मू॒र्धा भु॒वो भ॑वति॒ नक्त॑म॒ग्निस्तत॒: सूर्यो॑ जायते प्रा॒तरु॒द्यन् । मा॒यामू॒ तु य॒ज्ञिया॑नामे॒तामपो॒ यत्तूर्णि॒श्चर॑ति प्रजा॒नन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मू॒र्धा । भु॒वः । भ॒व॒ति॒ । नक्त॑म् । अ॒ग्निः । ततः॑ । सूर्यः॑ । जा॒य॒ते॒ । प्रा॒तः । उ॒त्ऽयन् । मा॒याम् । ऊँ॒ इति॑ । तु । य॒ज्ञिया॑नाम् । ए॒ताम् । अपः॑ । यत् । तूर्णिः॑ । चर॑ति । प्र॒ऽजा॒नन् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मूर्धा भुवो भवति नक्तमग्निस्तत: सूर्यो जायते प्रातरुद्यन् । मायामू तु यज्ञियानामेतामपो यत्तूर्णिश्चरति प्रजानन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मूर्धा । भुवः । भवति । नक्तम् । अग्निः । ततः । सूर्यः । जायते । प्रातः । उत्ऽयन् । मायाम् । ऊँ इति । तु । यज्ञियानाम् । एताम् । अपः । यत् । तूर्णिः । चरति । प्रऽजानन् ॥ १०.८८.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 88; मन्त्र » 6
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (नक्तम्) रात्रि में (अग्निः) वैश्वानर अग्नि (भुवः-मूर्धा भवति) सब भूतों का मूर्धा की भाँति ज्ञानदर्शनसूचक होता है। अग्निरूप से (ततः-प्रातः-उद्यन्-सूर्यः-जायते) पुनः वही वैश्वानर अग्नि प्रातःकाल उदय होता हुआ सूर्य नाम से प्रसिद्ध होता है (यज्ञियानाम्) यज्ञसम्पादी दिव्यपदार्थों के मध्य में तो (उ तु-एतां मायाम्) इस प्रज्ञा को ज्ञान-प्रज्ञान की सूचना को मानते हैं, जनसाधारण याज्ञिक (प्रजानन्-तूर्णिः) प्रज्ज्वलित हुआ शीघ्र (अपः-चरति) प्रकाशित कर्म को पूरा करता है ॥६॥

    भावार्थ

    वैश्वानर अग्नि दिन-रात सब स्थानों पर कार्य करता है। भिन्न नाम रूपों से रात्रि में अग्नि बनकर, दिन में सूर्य बनकर, वेदि में यज्ञाग्नि होकर याज्ञिकों को ज्ञान का निमित्त बनता है ॥६॥

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    विषय

    'सब क्रियाओं के प्रवर्तक' प्रभु

    पदार्थ

    [१] (भुवः मूर्धा) = इस उत्पन्न जगत् का शिरोमणि (अग्निः) = अग्रेणी प्रभु (नक्तम्) = [न अक्तम्=न व्यक्तम्] अव्यक्त है, इन बाह्य इन्द्रियों का वह विषय नहीं बनता । [२] यह (प्रातः उद्यन्) = प्रातः उदय होता हुआ (सूर्य:) = सूर्य (ततः जायते) = उसी से होता है । उस प्रभु की ज्योति से ही सूर्यादि सब पिण्ड ज्योतिर्मय होते हैं 'तस्य भासा सर्वमिदं विभाति' । [३] वे प्रभु 'सूर्यादि को ही ज्योति प्राप्त कराते हों' ऐसी बात नहीं, सब बुद्धिमान् व्यक्तियों को बुद्धि के देनेवाले भी वे ही हैं। वह (तूर्णि:) = त्वरा से सब कार्यों को करनेवाले, (प्रजानन्) = प्रकृष्ट ज्ञानवाले प्रभु ही (यज्ञियानाम्) = प्रभु से संगतिकरण में उत्तम पुरुषों [यज संगतिकरण] की (एताम्) = इस मायाम् प्रज्ञा को (उ तु) = निश्चय से ही (चरति) = करते हैं, अर्थात् अपने सम्पर्क में आनेवाले यज्ञिय पुरुषों को प्रभु ही प्रज्ञा प्राप्त कराते हैं। [४] 'ज्ञानियों को ज्ञान ही प्रभु दे रहे हों' सो बात नहीं, अन्य सब (यत्) = जो (अपः) = कार्य हैं, उनको भी प्रभु ही (चरति) = करते हैं । वैश्वानर अग्नि के रूप में प्राणियों के शरीर में स्थित होकर भोजन का पाचन भी तो वे ही करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ-वे अव्यक्त प्रभु संसार के संचालक हैं। वे ही सूर्य को उदित करते हैं, उपासकों को प्रज्ञा प्राप्त कराते हैं, अन्य सब ब्रह्माण्ड में होनेवाली क्रियाओं को वे ही करते हैं।

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    विषय

    सर्वमूलाश्रय अव्यक्त व्यापक प्रभु का वर्णन।

    भावार्थ

    वह (अग्निः) प्रकट करने वाला, तेजोमय, जगत् का उत्पादक ही (नक्तम् भवति) ‘नक्त’ अर्थात् ‘अव्यक्त’ है। वह ही (भुवः) इस उत्पन्न जगत् का (मूर्धा भवति) मूर्धा, मस्तिष्क के समान सबका मूल आश्रय, प्रवर्तक और मूर्त्त जगत् को अपने में धारण करने वाला है। (ततः) उसी से (सूर्यः जायते) सूर्य उत्पन्न होता है जो कि (प्रातः उत् यन्) प्रातःकाल में, सृष्टि के आदि में उदित होता है। और (यत्) जो वह (तूर्णिः) अति वेगवान् होकर (प्रजानन्) सब कुछ जानता हुआ ही (अपः चरति) समस्त कर्म करता है, जगत् को बनाता है, और (अपः) प्रकृति के समस्त परमाणुओं में व्यापता है, इसको ही (यज्ञियानां मायाम् अहेम) हम यज्ञ करने वाले विश्वस्रष्टाओं की माया अर्थात् जगत् निर्माण करने वाला शक्ति वा बुद्धि रूप से जानते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः मूर्धन्वानाङ्गिरसो वामदेव्यो वा॥ देवता—सूर्यवैश्वानरो॥ छन्दः—१–४, ७, १५, १९ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ८ त्रिष्टुप्। ६, ९–१४, १६, १७ निचृत् त्रिष्टुप्। १८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (नक्तम्) रात्रौ (अग्निः-भुवः-मूर्धा-भवति) वैश्वानरोऽग्निः सर्वेषां भूतानां मूर्धा-मूर्धवज्ज्ञानदर्शनसूचको भवति खल्वग्निरूपेण (ततः प्रातः-उद्यन्-सूर्यः-जायते) स एव वैश्वानरोऽग्निः प्रातः प्रकटीभवन् सूर्यनामतः प्रसिद्धो भवति (यज्ञियानाम्-उ तु-एतां मायाम्) यज्ञसम्पादिनां दिव्यपदार्थानां मध्ये तु खलु इमां प्रज्ञां प्रज्ञानसूचनां मन्यन्ते याज्ञिकाः (प्रजानन् तूर्णिः-अपः-चरति) प्रज्वलयन् प्रकाशयन् कर्म क्षिप्रं चरति-पारयति। निरुक्तानुरूपोऽर्थः ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni as Vaishvanara is awake and vibrates as the prime reality and spirit of existence at night when the whole world sleeps. Then in the morning, rising with the dawn, it shines as the sun. It is but the wondrous work of the highest of adorables, cosmic Maya, that it thus moves and vibrates at the fastest, knowing and watching all actions and movements of the world of moving and non-moving objects.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वैश्वानर अग्नी दिवसरात्र सर्व स्थानी कार्य करतो. निरनिराळ्या रूपाने रात्री अग्नी बनून, दिवसा सूर्य बनून, वेदीत यज्ञाग्नी बनून याज्ञिकांना ज्ञानाचे निमित्त बनतो. ॥६॥

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