ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 88/ मन्त्र 9
ऋषिः - मूर्धन्वानाङ्गिरसो वामदेव्यो वा
देवता - सूर्यवैश्वानरौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यं दे॒वासोऽज॑नयन्ता॒ग्निं यस्मि॒न्नाजु॑हवु॒र्भुव॑नानि॒ विश्वा॑ । सो अ॒र्चिषा॑ पृथि॒वीं द्यामु॒तेमामृ॑जू॒यमा॑नो अतपन्महि॒त्वा ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । दे॒वासः॑ । अज॑नयन्त । अ॒ग्निम् । यस्मि॑न् । आ । अजु॑हवुः । भुव॑नानि । विश्वा॑ । सः । अ॒र्चिषा॑ । पृ॒थि॒वीम् । द्याम् । उ॒त । इ॒माम् । ऋ॒जु॒ऽयमा॑नः । अ॒त॒प॒त् । म॒हि॒ऽत्वा ॥
स्वर रहित मन्त्र
यं देवासोऽजनयन्ताग्निं यस्मिन्नाजुहवुर्भुवनानि विश्वा । सो अर्चिषा पृथिवीं द्यामुतेमामृजूयमानो अतपन्महित्वा ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । देवासः । अजनयन्त । अग्निम् । यस्मिन् । आ । अजुहवुः । भुवनानि । विश्वा । सः । अर्चिषा । पृथिवीम् । द्याम् । उत । इमाम् । ऋजुऽयमानः । अतपत् । महिऽत्वा ॥ १०.८८.९
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 88; मन्त्र » 9
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(देवासः) मुमुक्षुजन (यम्-अग्निम्) जिस वैश्वानर अग्नि परमात्मा को अपने आत्मा में (अजनयन्त) प्रादुर्भूत करते हैं (यस्मिन्) जिसके आश्रय (विश्वा-भुवनानि) सारे भाव-कामनाओं को समर्पित करते हैं (सः-अर्चिषा) वह अपने तेज से (द्यां पृथिवीम्-उत-इमाम्) द्युलोक पृथिवी-फैले हुए अन्तरिक्ष को उत्पन्न करता है (महित्वा-ऋजूयमानः) महत्त्व से सरलभाव से प्रकाशित करता है-उत्पन्न करता है ॥९॥
विषय
'निर्माता व प्रकाशक' प्रभु
पदार्थ
[१] (देवासः) = देववृत्ति के पुरुष (यं अग्निम्) = जिस अग्रेणी प्रभु को (अजनयन्त) = अपने हृदयों में आविर्भूत करते हैं, दिव्यवृत्ति को बनाकर जिस प्रभु का हृदय - मन्दिर में दर्शन करते हैं । (यस्मिन्) = जिस प्रभु प्राप्ति के निमित्त (विश्वा भुवनानि) = सब लोक (आजुहवुः) = सर्वथा हवि का सेवन करते हैं, हवि सेवन के द्वारा ही प्रभु का अर्चन होता है और यह अर्चक ही प्रभु का दर्शन कर पाता है । [२] (सः) = वे प्रभु ही (अर्चिषा) = अपनी ज्ञानदीप्ति से (ऋजूयमानः) = सरलता से सब कार्यों को करते हुए (पृथिवीम्) = अन्तरिक्ष को (द्याम्) = द्युलोक को (उत) = और (इमाम्) = इस पृथिवी को (महित्वा) = अपनी महिमा से (अतपत्) = दीप्त करते हैं । प्रभु ही इन सब लोक-लोकान्तरों को बनाते हैं, वे ही इन्हें प्रकाश प्राप्त कराते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु का दर्शन देवों को होता है। ये देव सदा हवि का सेवन करते हैं । ये प्रभु ही सब लोकों को बनाते व प्रकाशित करते हैं।
विषय
महान् सर्वाश्रय अग्नि का वर्णन।
भावार्थ
(यम् अग्निम्) जिस अनि को (देवाः भजनयन्त) देवगण रश्मियां वा प्राणगण प्रकट करते हैं, (यस्मिन्) जिसके आश्रय में (विश्वानि भुवनानि) समस्त भुवन, लोक वा प्राणगण (आजुहवुः) आहुति करते हैं। (सः) वह (अर्चिषा) अपनी कान्ति वा तेजोमय (ऋजूयमानः) अति तृप्त होता हुआ, (इमाम द्याम् पृथिवीम्) इस द्य और पृथिवी रूप देह में शिर और समस्त देह को भी (महित्वा अतपत्) अपने महान् सामर्थ्य से तपाता, गरम रखता है। ज्वाला से।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः मूर्धन्वानाङ्गिरसो वामदेव्यो वा॥ देवता—सूर्यवैश्वानरो॥ छन्दः—१–४, ७, १५, १९ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ८ त्रिष्टुप्। ६, ९–१४, १६, १७ निचृत् त्रिष्टुप्। १८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(देवासः) मुमुक्षवः (यम्-अग्निम्-अजनयन्त) यं वैश्वानरमग्निं परमात्मानं स्वात्मनि प्रादुर्भावयन्ति (यस्मिन्) यदाश्रये (विश्वा भुवनानि) सर्वान् भावान् कामान् समर्पयन्ति (सः-अर्चिषा) स तेजसा (द्याम्-पृथिवीम्-उत-इमाम्) द्युलोकमन्तरिक्षम् “पृथिवी-अन्तरिक्षनाम” [निघ० १।३] अपि चेमां पृथिवीं च (महित्वा-ऋजूयमानः) समहत्त्वेन सरलगमनः सहजस्वभावस्तपति-प्रकाशयति ॥९॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni which all the divine powers of the universe create and serve, into which all worlds of the universe offer their oblations at the cosmic yajna of evolution and devolution, that Agni, radiant and natural ordainer, lights and energises this earth and heaven with its glory and self refulgence.
मराठी (1)
भावार्थ
मुमुक्षूजन या वैश्वानर अग्नी परमात्म्याला आपल्या आत्म्यात प्रादुर्भूत करतात. संपूर्ण भावना व कामनांना समर्पित करतात. तो आपल्या तेजाने द्युलोक, पृथ्वी, अंतरिक उत्पन्न करतो. ॥९॥
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