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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 88 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 88/ मन्त्र 17
    ऋषिः - मूर्धन्वानाङ्गिरसो वामदेव्यो वा देवता - सूर्यवैश्वानरौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यत्रा॒ वदे॑ते॒ अव॑र॒: पर॑श्च यज्ञ॒न्यो॑: कत॒रो नौ॒ वि वे॑द । आ शे॑कु॒रित्स॑ध॒मादं॒ सखा॑यो॒ नक्ष॑न्त य॒ज्ञं क इ॒दं वि वो॑चत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्र॑ । वदे॑ते॒ इति॑ । अव॑रः । परः॑ । च॒ । य॒ज्ञ॒ऽन्योः॑ । क॒त॒रः । नौ॒ । वि । वे॒द॒ । आ । शे॒कुः॒ । इत् । स॒ध॒ऽमाद॑म् । सखा॑यः । नक्ष॑न्त । य॒ज्ञम् । कः । इ॒दम् । वि । वो॒च॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्रा वदेते अवर: परश्च यज्ञन्यो: कतरो नौ वि वेद । आ शेकुरित्सधमादं सखायो नक्षन्त यज्ञं क इदं वि वोचत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्र । वदेते इति । अवरः । परः । च । यज्ञऽन्योः । कतरः । नौ । वि । वेद । आ । शेकुः । इत् । सधऽमादम् । सखायः । नक्षन्त । यज्ञम् । कः । इदम् । वि । वोचत् ॥ १०.८८.१७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 88; मन्त्र » 17
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यज्ञन्योः) यज्ञ के नायकों में एक होमयज्ञ का नायक तथा दूसरा अध्यात्मयज्ञ का नायक, इन दोनों में (यत्र) जिस प्रसङ्ग में (वदेते) विवाद करते हैं (अपरः-च परः-च) होमयाजी और आत्मयाजी (नौ) हम दोनों में (कतरः-विवेद) कौनसा विशेषरूप से जानता है, प्राप्त करता है (आशेकुः-इत्) भलीभाँति इस रहस्य को जान सकते हैं (सखायः) समान धर्मापन्न विद्वान् जन (सधमादं नक्षन्त) ये किसके साथ हर्ष को प्राप्त करते हैं (कः) कोई विशेषरूप से यज्ञ को जानता है, यज्ञ में तो पार्थिव अग्नि ही अभीष्ट है, नहीं तो मध्य स्थानवाला वायु तो हव्य को ऊपर ले जाता ही है ॥१७॥

    भावार्थ

    होमयाजी और आत्मयाजी दोनों के मार्ग पृथक् हैं, जो होमयज्ञ और आत्मयज्ञ को करके लाभ उठाते हैं तथा होमयज्ञ के हव्य को पृथिवी का अग्नि सूक्ष्म करता है। मध्यमस्थान का वायु होमे हुए सूक्ष्म को फैलाता है ॥१७॥

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    विषय

    प्रभु द्वारा यज्ञ की प्रेरणा

    पदार्थ

    आचार्य व शिष्य मिलकर यज्ञ करते हैं तो उस समय (यत्रा) = जब (अवर:) = वह ज्ञान के दृष्टिकोण से अवर शिष्य (परः च) = और ज्ञान के दृष्टिकोण से यह आचार्य परस्पर (वदेते) = बातचीत करते हैं कि (यज्ञन्योः) = यज्ञ का प्रणयन करनेवाले नौ हम दोनों को (कतर:) = कौन (विवेद) = इस यज्ञ को प्राप्त कराता है। यज्ञ का ज्ञान देनेवाला कौन है ? [२] उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि (कः) = वे आनन्दमय प्रभु (इदं विवोचत्) = यह कहते हैं कि (यज्ञं नक्षन्तः) = यज्ञ को प्राप्त होते हुए (सखायः) = मेरे सखा जीव (इत्) = निश्चय से (सधमादम्) = मेरे साथ स्थिति के आनन्द को (आशेकुः) = प्राप्त करने में समर्थ होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु यज्ञ की प्रेरणा देते हैं इस यज्ञ से ही प्रभु प्राप्ति का आनन्द उपलब्ध होता है ।

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    विषय

    विवादास्पद प्रभु के सम्बन्ध में उसके साक्षात् ज्ञाता ही बतला सकते हैं।

    भावार्थ

    (यत्र) जिस परम, आत्मा के विषय में (वि वदेते) वादी और प्रतिवादी विवाद करते हैं कि वह (अवरः) इस लोक में भी विद्यमान और (परः च) इस लोक से परे है, (नौ) दो पक्षों को स्थापन करने वालों हम दोनों में से (कतरः) कौनसा वादी है जो उन (यज्ञन्योः) महान् यज्ञ का संचालन करने वाले तत्वों के विषय में (विवेद) विशेष रूप से जानता है। (सखायः) समस्त रूप से आख्यान-प्रवचन करने वाले मित्रवत् आचार्य, विद्वान् जन (यज्ञम् नक्षन्त) जो उस सर्वपूज्य प्रभु तक बुद्धि द्वारा पहुंचते, उसकी साधना और साक्षात् करते हैं वे ही (सधमादम्) सहयोग से आनन्दकारी उस प्रभु को (आ शेकुः) प्राप्त कर सकते और बतला सकते, उस तक पहुंचते हैं। (इदम्) इस तत्त्व को (कः वि वोचत्) अन्य कौन विशेष रूप से बतला सकता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः मूर्धन्वानाङ्गिरसो वामदेव्यो वा॥ देवता—सूर्यवैश्वानरो॥ छन्दः—१–४, ७, १५, १९ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ८ त्रिष्टुप्। ६, ९–१४, १६, १७ निचृत् त्रिष्टुप्। १८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यज्ञन्योः) यज्ञस्य नेत्रोः-नायकयोः-एकस्तु होमयज्ञस्य नायकोऽपरोऽध्यात्मयज्ञस्य नायकस्तद् द्वयोः (यत्र) यस्मिन् प्रसङ्गे (वदेते) विवदेते विवादं कुरुतः (अवरः-च परः-च) होमयाजी तथाध्यात्मयाजी च (नौ) आवयोः (कतरः-विवेद) विशिष्टतया को यज्ञं वेत्ति-इति (आशेकुः-इत्) समन्तात् खलु शक्नुवन्ति तद्रहस्यं (सखायः) समानख्यानास्तद्धर्मापन्ना विद्वांसः (सधमादं नक्षन्त) ये केन सह मादनं प्राप्नुवन्ति (कः) कश्चन यज्ञं यजनीयं विशिष्टतया वेत्ति जानाति, इत्याध्यात्मिकोऽर्थः, यज्ञकरणे तु खल्ववरः पार्थिवोऽग्निरेवाभीष्टः, न परो मध्यस्थानो वायुस्तु हव्यं नयत्येव ॥१७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Where both terrestrial agni and supraterrestrial agni, both high priests of yajna, communicate and commingle then, for us, which one of these excels and proclaims the distinction? When yajakas do perform the yajna and serve and celebrate Agni together on the vedi, who would speak to us of the distinction?

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    होमयाजी व आत्मयाजी दोघांचे मार्ग पृथक आहेत. जे होमयज्ञ व आत्मयज्ञ करतात त्यांना त्याचा लाभ होतो. होमयज्ञाचे हव्य पृथ्वीचा अग्नी सूक्ष्म करतो. मध्यम स्थानाचा वायू होम केलेल्या सूक्ष्म हव्याला पसरवितो. ॥१७॥

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