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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 96 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 96/ मन्त्र 1
    ऋषिः - तिरश्चीरद्युतानो वा मरुतः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒स्मा उ॒षास॒ आति॑रन्त॒ याम॒मिन्द्रा॑य॒ नक्त॒मूर्म्या॑: सु॒वाच॑: । अ॒स्मा आपो॑ मा॒तर॑: स॒प्त त॑स्थु॒र्नृभ्य॒स्तरा॑य॒ सिन्ध॑वः सुपा॒राः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्मै । उ॒षसः॑ । आ । अ॒ति॒र॒न्त॒ । याम॑म् । इन्द्रा॑य । नक्त॑म् । ऊर्म्याः॑ । सु॒ऽवाचः॑ । अ॒स्मै । आपः॑ । मा॒तरः॑ । स॒प्त । त॒स्थुः॒ । नृऽभ्यः॑ । तरा॑य । सिन्ध॑वः । सु॒ऽपा॒राः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्मा उषास आतिरन्त याममिन्द्राय नक्तमूर्म्या: सुवाच: । अस्मा आपो मातर: सप्त तस्थुर्नृभ्यस्तराय सिन्धवः सुपाराः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्मै । उषसः । आ । अतिरन्त । यामम् । इन्द्राय । नक्तम् । ऊर्म्याः । सुऽवाचः । अस्मै । आपः । मातरः । सप्त । तस्थुः । नृऽभ्यः । तराय । सिन्धवः । सुऽपाराः ॥ ८.९६.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 96; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 32; मन्त्र » 1
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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    For Indra, this lord supreme ruler and ordainer of the universe, the dawns advance their course, for Indra, the last hours of the night are sanctified with voices of adoration, for this same lord, seven motherly dynamics of nature, i.e., five elements, mind and pranic energies, keep to their tasks in nature’s law, and for him the rivers and seas ebb and flow for human navigation.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ऐश्वर्याची साधना करणाऱ्या पुरुषार्थी माणसाला प्रात:काळापासून जागरण व उद्बोधनाची प्रेरणा मिळते व रात्र ही आपल्या अंतिम वेळी पाठ केलेल्या सूक्तीद्वारे शुभ कर्माची प्रेरणा देते. ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अस्मा इन्द्राय) ऐश्वर्य इच्छुक पुरुषार्थी व्यक्ति के लिये (उषासः) प्रबोधदायिनी शक्तियाँ (यामम्) अपने विचरण की अवधि को (आतिरन्त) बढ़ाती हैं; (नक्तम्) रात्रि में (ऊर्म्याः) रात्रियाँ (सुवाचः) उत्तम वाणियों से युक्त होती हैं। (अस्मा) इसके हेतु (आपः) सबकी आधार (सप्त) सात (मातरः) निर्माणकर्ता तत्त्व [१ पृथिवी. २. अग्नि, सूर्य, ४. वायु, ५. विद्युत्, ६. उदक एवं ७. आकाश] (तस्थुः) विद्यमान रहते हैं; (सिन्धवः) शीघ्र गतिशील तथा दुस्तर महासागर, नदी आदि के समान फुर्तीले दुर्जन शत्रुभूत दुर्भावनायें (सुपाराः) सुख से पार उतरने--जीतने योग्य हो जाते हैं॥१॥३.

    भावार्थ

    ऐश्वर्य साधक पुरुषार्थी को प्रातःकाल से जागरण एवं उद्बोधन की प्रेरणा प्राप्त होती है; तथा रात्रि भी अपने अन्तिम समय में पाठ की गई सूक्तियों के द्वारा शुभ कर्म की प्रेरणादायक होती हैं॥१॥

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    विषय

    राजा के वैभव के कर्त्तव्यों के साथ साथ जगत्उत्पादक परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    (अस्मै ) इस ( इन्द्राय ) सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष के लिये ( उषासः ) नाना कामनायुक्त प्रजाएं ( यामम् आतिरन्त ) नियम व्य वस्था वा मर्यादा का पालन करती हैं और वे ही (ऊर्म्याः) उत्साहित और उत्कण्ठित होकर (नक्तम् ) रात्रिकाल में (सुवाच:) उत्तम वाणियां बोलती हैं। ( अस्मै ) अथवा इस के शासन में रहकर कमनीय कन्याएं (यामं) विवाह करती और (नक्तं सुवाचः आतिरन्त) रात्रि में वे अपने पतियों के प्रति उत्तम वाणी बोलती हैं। ( अस्मै ) इसी के प्रेम में ( मातरः) माताओं के समान ( सप्त आपः ) सर्पणशील, शरण में प्राप्त प्रजाएं ( तस्थुः ) सदा आज्ञा पालनार्थं खड़ी रहती हैं और इसी के शासन में ( सिन्धवः ) बड़े २ महानद ( नृभ्यः तराय ) मनुष्यों के पार उतारने के लिये ( सुपाराः ) सुखपूर्वक पार जाने योग्य होते हैं। राजा के राज्य की महिमा देखो महाभारत शान्ति पर्व में भीष्म का उपदेश। सूर्यवत् प्रभु के शासन में उषा रात्रि आदि सब नियमित रूप में आती जाती हैं। नदियां चलती और महानद भी अलंध्य नहीं रहते।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    तिरश्चीर्द्युतानो वा मरुत ऋषिः। देवताः—१-१४, १६-२१ इन्द्रः। १४ मरुतः। १५ इन्द्राबृहस्पती॥ छन्द:—१, २, ५, १३, १४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६, ७, १०, ११, १६ विराट् त्रिष्टुप्। ८, ९, १२ त्रिष्टुप्। १, ५, १८, १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, १७ पंक्तिः। २० निचृत् पंक्तिः। २१ विराट् पंक्तिः॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'इन्द्र' का जीवन

    पदार्थ

    [१] (अस्मै इन्द्राय) = इस 'जितेन्द्रिय पुरुष' के लिये (उषासः) = उषायें (यामं आतिरन्त) = नियमन की भावना को बढ़ाती हैं। यह उषा में प्रबुद्ध होकर प्रभु स्मरण में मन को एकाग्र करने का प्रयत्न करता है। । तथा (ऊर्म्या:) = [ऊर्म्या = Light] रातें (नक्तम्) = अपर रात्रिकाल में (सुवाचः) = शोभन वाणियों-वाली होती हैं। उस समय प्रबुद्ध होकर ये जितेन्द्रिय पुरुष वेदाध्ययन व शास्त्र श्रवण चिन्तनादि कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। [२] (अस्मा) = इसके लिये (आप:) = शरीरस्थ रेतःकण (मातर:) = जीवन का निर्माण करनेवाले व (सप्त) = सर्पणशील होकर अंग-प्रत्यंग में रुधिर के साथ गतिवाले होकर (तस्थुः) = स्थित होते हैं। और (सिन्धवः) = ज्ञान की नदियाँ (सुपाराः) = शोभनतया पार ले जानेवाली व (नृभ्यः तराय) = लोगों के लिये तैरने के लिये होती हैं, लोगों को विषयों से पार ले जाती हैं। यह लोगों में ज्ञान का प्रसार करता हुआ उन्हें विषय-वासनाओं से दूर ले है।

    भावार्थ

    भावार्थ - इन्द्र, एक जितेन्द्रिय पुरुष - [क] प्रातः जागकर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करता है, [ख] अपररात्रिकाल में वेदवाणियों द्वारा स्तोत्रों का उच्चारण करता है, [ग] रेतःकणों को शरीर में सुरक्षित करता है, [घ] लोगों में ज्ञान का प्रसार करता है।

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