ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 96/ मन्त्र 20
ऋषिः - तिरश्चीरद्युतानो वा मरुतः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
स वृ॑त्र॒हेन्द्र॑श्चर्षणी॒धृत्तं सु॑ष्टु॒त्या हव्यं॑ हुवेम । स प्रा॑वि॒ता म॒घवा॑ नोऽधिव॒क्ता स वाज॑स्य श्रव॒स्य॑स्य दा॒ता ॥
स्वर सहित पद पाठसः । वृ॒त्र॒ऽहा । इन्द्रः॑ । च॒र्ष॒णि॒ऽधृत् । तम् । सु॒ऽस्तु॒त्या । हव्य॑म् । हु॒वे॒म॒ । सः । प्र॒ऽअ॒वि॒ता । म॒घऽवा॑ । नः॒ । अ॒धि॒ऽव॒क्ता । सः । वाज॑स्य । श्र॒व॒स्य॑स्य । दा॒ता ॥
स्वर रहित मन्त्र
स वृत्रहेन्द्रश्चर्षणीधृत्तं सुष्टुत्या हव्यं हुवेम । स प्राविता मघवा नोऽधिवक्ता स वाजस्य श्रवस्यस्य दाता ॥
स्वर रहित पद पाठसः । वृत्रऽहा । इन्द्रः । चर्षणिऽधृत् । तम् । सुऽस्तुत्या । हव्यम् । हुवेम । सः । प्रऽअविता । मघऽवा । नः । अधिऽवक्ता । सः । वाजस्य । श्रवस्यस्य । दाता ॥ ८.९६.२०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 96; मन्त्र » 20
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 35; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 35; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
With words of welcome and adoration, we invoke, invite and serve the brilliant leader, destroyer of want, ignorance and suffering, and sustainer of the people, He is our protector, trustee of the nation’s wealth, power and honour, defender of our honour and dignity in world forums and giver of honour, prosperity and excellence. He is the power and person adorable.
मराठी (1)
भावार्थ
ऐश्वर्याचा साधक जेव्हा दुसऱ्यांचे मार्गदर्शन करविण्याच्या स्थितीत पोचेल तर निश्चयाने तो दुसऱ्याचा मार्गदर्शक बनेल. ॥२०॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
अन्य सभी साधक पूर्ववर्णित ऐश्वर्येच्छुक के विषय में कहते हैं— (सः) वह (इन्द्रः) इन्द्र (वृत्रहा) विघ्ननाशक है; (चर्षणीधृत्) विवेकशील मानवों को धारण करता है; (तं हव्यम्) उस स्तुत्य पुरुष को हम (सुष्टुत्या) शुभ गुणवर्णन से (हुवेम) संतुष्ट करें। (सः) वह (नः) हमारा (प्र, अविता) प्रकृष्ट प्रिय; अधिवक्ता उपदेष्टा हो और (सः) वह अपने मार्गदर्शन से (श्रवस्यस्य) यश का तथा (वाजस्य) सुखप्रद ऐश्वर्य का (दाता) देने वाला हो॥२०॥
भावार्थ
ऐश्वर्येच्छुक साधकगण जब दूसरों का मार्गदर्शन कराने की स्थिति में हो जाय तो निश्चय ही वह दूसरों का मार्गदर्शन करे॥२०॥
विषय
राजा के वैभव के कर्त्तव्यों के साथ साथ जगत्उत्पादक परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
( सः वृत्रहा ) वह दुष्टनाशक पुरुष ही ( चर्षणीधृत् ) मनुष्यों को धारण करता है। ( तं हव्यम् ) उस स्तुत्य पुरुष को हम ( सु-स्तुत्या ) उत्तम गुण स्तवन द्वारा ( हुवेम ) प्राप्त करें। ( सः ) वह ( मघवा ) ऐश्वर्यवान् ( नः प्राविता ) हमारा उत्तम रक्षक हो और (सः) वह (नः अधिवक्ता ) हमारा अध्यक्ष, शासक और ( सः वाजस्य ध्रुवस्यस्य दाता) कीर्त्ति, अन्नादिप्रद, ऐश्वर्य बल, और ज्ञान का दाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
तिरश्चीर्द्युतानो वा मरुत ऋषिः। देवताः—१-१४, १६-२१ इन्द्रः। १४ मरुतः। १५ इन्द्राबृहस्पती॥ छन्द:—१, २, ५, १३, १४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६, ७, १०, ११, १६ विराट् त्रिष्टुप्। ८, ९, १२ त्रिष्टुप्। १, ५, १८, १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, १७ पंक्तिः। २० निचृत् पंक्तिः। २१ विराट् पंक्तिः॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
श्रवस्यस्य वाजस्य दाता
पदार्थ
[१] (सः) = वह (वृत्रहा) = वासना का विनाश करनेवाला (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (चर्षणीधृत्) = श्रमशील मनुष्यों का धारण करनेवाला है। (हव्यम्) = पुकारने योग्य (तम्) = उस प्रभु को हम (सुष्टुत्या) = उत्तम स्तुति से (हुवेम) = पुकारते हैं। प्रभु का सम्यक् स्तवन करते हैं। [२] (सः) = वे (मघवा) = ऐश्वर्यशाली प्रभु (नः प्राविता) = हमारे उत्तम रक्षक हैं। (अधिवक्ता) = अध्यक्षरूपेण प्रेरणा को देनेवाले हैं। (सः) = वे प्रभु ही (श्रवस्यस्य) = यश की प्राप्ति के हेतुभूत (वाजस्य) = बल के दाता देनेवाले हैं। प्रभु हमें यह शक्ति प्राप्त कराते हैं, जिससे हम रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त हुए हुए यशस्वी बनते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु वासना के विनाश के द्वारा हमारा धारण करनेवाले हैं। वे हमें निरन्तर प्रेरणा देते हैं। वे यशस्वी बल प्राप्त कराते हैं।
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