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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 96 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 96/ मन्त्र 15
    ऋषिः - तिरश्चीरद्युतानो वा मरुतः देवता - इन्द्राबृहस्पती छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अध॑ द्र॒प्सो अं॑शु॒मत्या॑ उ॒पस्थेऽधा॑रयत्त॒न्वं॑ तित्विषा॒णः । विशो॒ अदे॑वीर॒भ्या॒३॒॑चर॑न्ती॒र्बृह॒स्पति॑ना यु॒जेन्द्र॑: ससाहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अध॑ । द्र॒प्सः । अं॒शु॒ऽमत्याः॑ । उ॒पऽस्थे॑ । अधा॑रयत् । त॒न्व॑म् । ति॒त्वि॒षा॒णः । विशः॑ । अदे॑वीः । अ॒भि । आ॒ऽचर॑न्तीः । बृह॒स्पति॑ना । यु॒जा । इन्द्रः॑ । स॒स॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थेऽधारयत्तन्वं तित्विषाणः । विशो अदेवीरभ्या३चरन्तीर्बृहस्पतिना युजेन्द्र: ससाहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अध । द्रप्सः । अंशुऽमत्याः । उपऽस्थे । अधारयत् । तन्वम् । तित्विषाणः । विशः । अदेवीः । अभि । आऽचरन्तीः । बृहस्पतिना । युजा । इन्द्रः । ससहे ॥ ८.९६.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 96; मन्त्र » 15
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 34; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    When the dark passion is cleansed out, then pure vitality, lustrous and sparkling, sustains itself in the lap of creative life aflow. Indra, exuberant soul purified and tempered, in cooperation with wide ranging pranic energies, challenge and fight out the unholy tendencies of carnal mind ranging around.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    गर्वोत्पादक वीर्याला शरीरात स्थान न देता हर्षोत्पादक वीर्याला स्थान दिले पाहिजे. तेच आमची वास्तविक उन्नती करते. प्राण अपान वायू केवळ आमच्या शरीराची शुद्धी करत नाहीत तर ते आमच्या दुर्भावनांचा नाश करतात. ॥१५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अध) अनन्तर (तित्विषाणः) दीप्तिमान (द्रप्सः) शुद्ध वीर्य (अंशुमत्याः) शुद्धवीर्यवती जीवन नदी की (उपस्थे) गोदी में (तन्वम्) अपने आप (अधारयत्) रहने लगा। (इन्द्रः) ऐश्वर्येच्छुक जीवात्मा ने (बृहस्पतिना) पावक वायु [वायुः] प्राण, अपान आदि मरुद्गण से (युजा) सहयोग किये हुए ने (अभि, आचरन्तीः) सामना करने को आती--विरोधिनी (अदेवीः) दिव्यता रहित (विशः) प्रजाओं--भावनाओं को (ससाहे) परास्त किया॥१५॥

    भावार्थ

    गर्व पैदा करने वाले वीर्य को शरीर में स्थान न दे हर्ष उत्पन्न करने वाले वीर्य को स्थान दो; वही हमें सच्ची उन्नति देता है। प्राण-अपान आदि वायु केवल शरीर की युति ही नहीं करते अपितु हमारी दुर्भावनाएं भी दूर भगाते हैं॥१५॥

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    विषय

    राजा के वैभव के कर्त्तव्यों के साथ साथ जगत्उत्पादक परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    ( द्रप्सः ) वेग से जाने वाला शत्रु ( अंशुमत्याः उपस्थे ) समृद्ध प्रजा के समीप, ( तित्विषाणः ) अति तेजस्वी होकर ( तन्वं अधारयत् ) विस्तृत शक्ति को धारण करता है, उस समय ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् शत्रुहन्ता राजा ( युजा बृहस्पतिना ) सहायक, बड़ी सेना के पालक सेनापति के सहाय से, (अदेवी:) अकरप्रद, (अभि आचरन्तीः) विपरीत आक्रमण करने वाली ( विशः ) प्रजाओं को (ससहे) पराजित करे। इति चतुत्रिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    तिरश्चीर्द्युतानो वा मरुत ऋषिः। देवताः—१-१४, १६-२१ इन्द्रः। १४ मरुतः। १५ इन्द्राबृहस्पती॥ छन्द:—१, २, ५, १३, १४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६, ७, १०, ११, १६ विराट् त्रिष्टुप्। ८, ९, १२ त्रिष्टुप्। १, ५, १८, १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, १७ पंक्तिः। २० निचृत् पंक्तिः। २१ विराट् पंक्तिः॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    स्वाध्याय व प्रभु मैत्री

    पदार्थ

    [१] (अध) = अब (द्रप्सः) = परमात्मा का छोटा रूप यह जीव (अंशमत्याः) = प्रकाश की किरणोंवाली ज्ञान नदी के (उपस्थे) = समीप (अधारयत्) = अपने को धारण करता है। इस प्रकार यह अपने (तन्वम्) = शरीर को (तित्विषाणः) = दीप्त करनेवाला होता है। 'शरीर में तेज, मस्तिष्क में ज्ञान' इस प्रकार यह चमक उठता है। [२] यह तित्विषाण (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष (अदेवी:) = आसुरी (अभ्याचरन्तीः) = आक्रमण करती हुई (विशः) = प्रजाओं को काम-क्रोध आदि आसुरभावों को (बृहस्पतिना युजा) = ज्ञान के स्वामी प्रभु को साथी के रूप में पाकर ससाहे अभिभूत करनेवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ-स्वाध्याय व प्रभु की मित्रता हमें वासनाओं के आक्रमण से बचाती हैं। प्रभु की मित्रता से हम सब शत्रुओं का पराभव कर पाते हैं।

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