ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 96/ मन्त्र 6
ऋषिः - तिरश्चीरद्युतानो वा मरुतः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तमु॑ ष्टवाम॒ य इ॒मा ज॒जान॒ विश्वा॑ जा॒तान्यव॑राण्यस्मात् । इन्द्रे॑ण मि॒त्रं दि॑धिषेम गी॒र्भिरुपो॒ नमो॑भिर्वृष॒भं वि॑शेम ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । ऊँ॒ इति॑ । स्त॒वा॒म॒ । यः । इ॒मा । ज॒जान॑ । विश्वा॑ । जा॒तानि॑ । अव॑राणि । अ॒स्मा॒त् । इन्द्रे॑ण । मि॒त्रम् । दि॒धि॒षे॒म॒ । गीः॒ऽभिः । उपो॒ इति॑ । नमः॑ऽभिः । वृ॒ष॒भम् । वि॒शे॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तमु ष्टवाम य इमा जजान विश्वा जातान्यवराण्यस्मात् । इन्द्रेण मित्रं दिधिषेम गीर्भिरुपो नमोभिर्वृषभं विशेम ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । ऊँ इति । स्तवाम । यः । इमा । जजान । विश्वा । जातानि । अवराणि । अस्मात् । इन्द्रेण । मित्रम् । दिधिषेम । गीःऽभिः । उपो इति । नमःऽभिः । वृषभम् । विशेम ॥ ८.९६.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 96; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 33; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 33; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
We worship him that brought all these forms of existence into being after him. Let us win friendship with Indra, and with hymns of adoration presented with homage and humility, abide in his presence at the closest.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर, जीव व प्रकृती अनादि व अनंत आहेत; परंतु जीव व प्रकृतीचा उद्भव, मनुष्य इत्यादी जीवांचे व जड पदार्थांच्या रूपाचे उद्भावन परमेश्वरच करतो. यामुळे सर्वात प्राचीन परमेश्वरच आहे. तोच आमच्या स्तुतीचे प्रयोजन आहे. ॥६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
सारे साधक संकल्प लें कि हम (तम् उ) उस ही की वन्दना करेंगे (यः) जिसने (इमाः) इन सकल पदार्थों को (सृजा) है, क्योंकि (विश्वाः) सारे (जातानि) प्रकटित पदार्थ (अस्मात्) इससे (अवराणि) अर्वाचीन हैं--उक्त (इन्द्रेण) परमैश्वर्यवान् परमात्मा की (मित्रम्) मित्रता (दिधिषेम) धारण किये रहना चाहें। (उ) और (गीर्भिः) वचनों के द्वारा (मनोभिः) विनीत भावों से (वृषभम्) उस सर्वश्रेष्ठ के (उप विशेम) समीप आसन ग्रहण करने योग्य हो सकें--उस प्रभु की सायुज्यता पा सकें॥६॥
भावार्थ
प्रभु, जीव तथा प्रकृति अनादि तथा अनन्त हैं। परन्तु जीव एवं प्रकृति का उद्भव, मानवादि जीवों व जड़ पदार्थों के रूप में उद्भावन, प्रभु ही करते हैं। अतएव प्राचीनतम प्रभु ही हैं; हमें उसी की स्तुति करनी चाहिये॥६॥
विषय
राजा के वैभव के कर्त्तव्यों के साथ साथ जगत्उत्पादक परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
(तम् उ स्तवाम) उसी की स्तुति करें ( यः इमा ) जो इन ( अस्मात् ) उससे ( अवराणि ) पीछे (विश्वा जातानि) उत्पन्न, समस्त पदार्थों को जजान उत्पन्न करता है हम लोग ( इन्द्रेण ) उस ऐश्वर्यवान् प्रभु के साथ ( मित्रं दिधिषेम ) मित्र भाव रक्खें। ( नमोभिः गीर्भिः ) नमस्कार युक्त विनीत वचनों से हम उस ( वृषभं ) सब सुखों के देने वाले को ( उपो विशेम ) प्राप्त होवें, उसकी उपासना करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
तिरश्चीर्द्युतानो वा मरुत ऋषिः। देवताः—१-१४, १६-२१ इन्द्रः। १४ मरुतः। १५ इन्द्राबृहस्पती॥ छन्द:—१, २, ५, १३, १४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६, ७, १०, ११, १६ विराट् त्रिष्टुप्। ८, ९, १२ त्रिष्टुप्। १, ५, १८, १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, १७ पंक्तिः। २० निचृत् पंक्तिः। २१ विराट् पंक्तिः॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
गीर्भिः- नमोभिः
पदार्थ
[१] (तं स्तवाम) = उस प्रभु का ही स्तवन करते हैं, (यः) = जो (इमा जजान) = इन सब लोकों को प्रादुर्भूत करते हैं। (विश्वा) = सब (जातानि) = प्रादुर्भूत हुए हुए लोक-लोकान्तर (अस्मात् अवराणि) = इस प्रभु से अवरकाल में होनेवाले हैं। 'हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे'। [२] इन्द्रेण उस प्रभु के साथ ही (गीर्भिः) = इन ज्ञान की वाणियों के द्वारा (मित्रं दिधिषेम) = मैत्री को धारण करें। (उ) = और (नमोभिः) = नमस्कारों के द्वारा (वृषभम्) = उस शक्तिशाली प्रभु को (उपविशेम) = समीपता से प्राप्त हों, प्रभु के समीप उपविष्ट हों।
भावार्थ
भावार्थ- ज्ञान की वाणियों द्वारा उस प्रभु की मित्रता को प्राप्त करें, नमस्कार द्वारा प्रभु के समीप उपविष्ट हों।
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