ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 96/ मन्त्र 18
ऋषिः - तिरश्चीरद्युतानो वा मरुतः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
त्वं ह॒ त्यद्वृ॑षभ चर्षणी॒नां घ॒नो वृ॒त्राणां॑ तवि॒षो ब॑भूथ । त्वं सिन्धूँ॑रसृजस्तस्तभा॒नान्त्वम॒पो अ॑जयो दा॒सप॑त्नीः ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । ह॒ । त्यत् । वृ॒ष॒भ॒ । च॒र्ष॒णी॒नाम् । घ॒नः । वृ॒त्राणा॑म् । त॒वि॒षः । ब॒भू॒थ॒ । त्वम् । सिन्धू॑न् । अ॒सृ॒जः॒ । त॒स्त॒भा॒नान् । त्वम् । अ॒पः । अ॒ज॒यः॒ । दा॒सऽप॑त्नीः ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं ह त्यद्वृषभ चर्षणीनां घनो वृत्राणां तविषो बभूथ । त्वं सिन्धूँरसृजस्तस्तभानान्त्वमपो अजयो दासपत्नीः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । ह । त्यत् । वृषभ । चर्षणीनाम् । घनः । वृत्राणाम् । तविषः । बभूथ । त्वम् । सिन्धून् । असृजः । तस्तभानान् । त्वम् । अपः । अजयः । दासऽपत्नीः ॥ ८.९६.१८
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 96; मन्त्र » 18
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 35; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 35; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, you are the power on top, virile and generous leader of the dynamic human community, destroyer of darkness, evil and exploitation, and a blazing brilliant hero. You release the streams of waters and social energies restrained by forces of repression and suppression, and you free and win over the floods of human potential and action locked up under the force of tyranny.
मराठी (1)
भावार्थ
जीवनप्रवाहामध्ये अडथळे येतात. विवेकशील व कर्मठ व्यक्ती आपल्या सामर्थ्याद्वारे त्या अडथळ्यांना नष्ट करून छिन्नभिन्न करून प्रवाह पुन्हा चालू करतो व त्याची कर्मशक्ती पुन्हा आपल्या मार्गावर अग्रेसर होते. ॥१८॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(त्वं ह त्यत्) निश्चय ही तू वह (चर्षणीनाम्) विवेकशील तथा कर्तृत्वशक्तिसम्पन्न मनुष्यों में, हे (वृषभ) बलवान् एवं श्रेष्ठ साधक! (तविषः) बलवान् तथा (वृत्राणाम्) विघ्नों का, (घनः) नाशक (बभूव) विद्यमान था। (त्वम्) तूने (तस्तभानान्) रोक लेने वाले आशयों को (सिन्धून्) स्रवणशील (असृजः) बनाया और इस भाँति दासपत्नी [दसु उपक्षये] नष्ट करने वाले के द्वारा स्व अधिकार में रक्षित (अपः) कर्मशक्तियों को (अजयः) तू विजय कर लाया॥१८॥
भावार्थ
जीवन-प्रवाह में बाधाएं भी आती ही हैं। विवेकशील तथा कर्मठ व्यक्ति शुभ सामर्थ्य से उन्हें छिन्न-भिन्न कर प्रवाह को पुनः प्रसरणशील बनाता है और उसकी कर्मशक्ति फिर अपने मार्ग पर अग्रसर होने लग जाती है॥१८॥
विषय
राजा के वैभव के कर्त्तव्यों के साथ साथ जगत्उत्पादक परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
हे ऐश्वर्यवन् ! हे ( चर्षणीनां वृषभ ) प्रजा वा लोकद्रष्टाओं के बीच में सर्वश्रेष्ठ ! ( त्वं ह ) तू अवश्य ( तविषः ) बलवान् होकर ( वृत्राणां ) दुष्टों और विघ्नों का ( घनः ) दण्ड देने और नाश करने चाला ( अभवः ) हो। और ( त्वं ) तू ( तस्तभानान् ) शत्रु का नाश करने वाले ( सिन्धून ) वेग से जाने वाले वीरों और तट आदि के नाशक महानदों को भी ( असृजः ) सञ्चालित कर। और ( त्वम् ) तू ( दास-पत्नी: ) प्रजा के नाशक शत्रु के आधिपत्य में विद्यमान (अपः ) भूमियों सेनाओं और प्रजाओं को भी ( अजयः ) जीत।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
तिरश्चीर्द्युतानो वा मरुत ऋषिः। देवताः—१-१४, १६-२१ इन्द्रः। १४ मरुतः। १५ इन्द्राबृहस्पती॥ छन्द:—१, २, ५, १३, १४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६, ७, १०, ११, १६ विराट् त्रिष्टुप्। ८, ९, १२ त्रिष्टुप्। १, ५, १८, १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, १७ पंक्तिः। २० निचृत् पंक्तिः। २१ विराट् पंक्तिः॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
वृत्राणां घनः
पदार्थ
[१] हे (वृषभ) = सुखों के वर्षक प्रभो ! (त्वम्) = आप ही (ह) = निश्चय से (त्यत्) = उस कर्म को करते हैं कि (तविषः) = शक्तिशाली आप (चर्षणीनाम्) = श्रमशील मनुष्यों के (वृत्राणाम्) = वासनारूप शत्रुओं के (घन:) = विनाश करनेवाले बभूथ होते हो। [२] इन वासनाओं को नष्ट करके (त्वम्) = आप (तस्तभानान्) = इन वासनाओं द्वारा रुद्ध किये गये (सिन्धून्) = ज्ञानप्रवाहों को (असृन:) = उत्पन्न करते हो। और (दासपत्नी:) = विनाशक काम जिनका पति बन गया था, उन (अपः) = शरीरस्थ रेतःकणों को (त्वं अजय:) = आप विजयी करते हो।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु हमारे ज्ञान के आवरणभूत शत्रुओं का विनाश करते हैं और ज्ञानप्रवाहों को सृष्ट करते हुए शरीर में रेतःकणों का रक्षण करते हैं।
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