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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 96 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 96/ मन्त्र 19
    ऋषिः - तिरश्चीरद्युतानो वा मरुतः देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स सु॒क्रतू॒ रणि॑ता॒ यः सु॒तेष्वनु॑त्तमन्यु॒र्यो अहे॑व रे॒वान् । य एक॒ इन्नर्यपां॑सि॒ कर्ता॒ स वृ॑त्र॒हा प्रतीद॒न्यमा॑हुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । सु॒ऽक्रतुः॑ । रणि॑ता । यः । सु॒तेषु॑ । अनु॑त्तऽमन्युः । यः । अहा॑ऽइव । रे॒वान् । यः । एकः॑ । इत् । नरि॑ । अपां॑सि । कर्ता॑ । सः । वृ॒त्र॒ऽहा । प्रति॑ । इत् । अ॒न्यम् । आ॒हुः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स सुक्रतू रणिता यः सुतेष्वनुत्तमन्युर्यो अहेव रेवान् । य एक इन्नर्यपांसि कर्ता स वृत्रहा प्रतीदन्यमाहुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । सुऽक्रतुः । रणिता । यः । सुतेषु । अनुत्तऽमन्युः । यः । अहाऽइव । रेवान् । यः । एकः । इत् । नरि । अपांसि । कर्ता । सः । वृत्रऽहा । प्रति । इत् । अन्यम् । आहुः ॥ ८.९६.१९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 96; मन्त्र » 19
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 35; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    You are the hero of noble action, happy celebrant of life and divinity in yajnic gatherings of knowledge, enlightenment and advanced action. Unsurpassed is your passion for action, and your splendour and generosity is like the light of day.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो साधक सुकर्मा असेल. शौकाने साहसपूर्वक पदार्थज्ञान प्राप्त करत असेल व पौरुष कर्मात दृढ असेल तर तो निश्चयाने आपल्या सर्व शत्रूंवर विजय प्राप्त करतो. ॥१९॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सः) वह इन्द्र (सुक्रतुः) शुभ संकल्प व कर्म कर्ता है (यः) जो (सुतेषु) पदार्थबोध रूप सारग्रहण के कार्यों में (रणिता) रमण करता है और (अनुत्तमन्युः) [नञ्+उन्दी क्लेदने+क्त] अजेय साहसी तथा (यः) जो (अहा इव) दिवसों के तुल्य चमकता (रेवान्) ऐश्वर्यवान् है। (यः) जो (एक इत्) एकाकी ही (नर्यपांसि) पौरुषयुक्त कर्मों का (कर्ता) कर्ता है; (सः) वह (वृत्रहा) विघ्ननाशक है; उसी इन्द्र को (इत्) ही (अन्यम्) सब दूसरों का--शत्रुओं का (प्रति) विरोधी (आहुः) कहते हैं॥१९॥

    भावार्थ

    जो साधक सुकर्म करने वाला हो, रुचि सहित साहसपूर्वक पदार्थ ज्ञान प्राप्त करे और पौरुष के कर्मों में ढील न दे, वह निश्चय ही अपने सभी शत्रुओं पर विजय पाता है॥१९॥

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    विषय

    राजा के वैभव के कर्त्तव्यों के साथ साथ जगत्उत्पादक परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    ( सः सुक्रतुः ) वह उत्तम ज्ञान और कर्म सामर्थ्यवान् है। ( यः ) जो ( सुतेषु ) उत्पन्न पदार्थों और ऐश्वर्यादि अभिषेक कर्मों में ( रणिता ) रमने हारा और रणकुशल है। ( यः ) जो ( अहा इव रेवान् ) दिन वा सूर्य के समान तेज और बल से युक्त, धनाधिपति, और ( अनुत्त-मन्युः ) अप्रतिहत, अपराजित बल वाला, ( यः एक इत् ) जो अकेला ही ( नरि अपांसि कर्त्ता ) नायक पद पर रह कर भी नाना कर्मों को करने हारा है ( सः ) वह ( वृत्रहा ) शत्रु और विघ्नों का नाशक पुरुष हो, उस को ही ( अन्यं प्रति इत् आहुः ) शत्रु के प्रति प्रबल करके जानते और कहते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    तिरश्चीर्द्युतानो वा मरुत ऋषिः। देवताः—१-१४, १६-२१ इन्द्रः। १४ मरुतः। १५ इन्द्राबृहस्पती॥ छन्द:—१, २, ५, १३, १४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६, ७, १०, ११, १६ विराट् त्रिष्टुप्। ८, ९, १२ त्रिष्टुप्। १, ५, १८, १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, १७ पंक्तिः। २० निचृत् पंक्तिः। २१ विराट् पंक्तिः॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    सुक्रतुः - अनुत्तमन्युः

    पदार्थ

    [१] (सः) = वह प्रभु (सुक्रतुः) = शोभन प्रज्ञान व शक्तिवाले हैं। (यः) = जो (सुतेषु) = सब उत्पन्न पदार्थों में रमण करनेवाले हैं। [२] वे प्रभु (अनुत्तमन्युः) = अनष्ट ज्ञानवाले हैं, (य:) = जो (अहा इव) = सूर्य से दीप्त दिवसों के समान (रेवान्) = प्रकाश की सम्पत्तिवाले हैं। प्रभु प्रकाशमय ही हैं। [२] (यः) = जो (एक: इत्) = अद्वितीय ही, बिना किसी अन्य की सहायता के ही (नरि) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले मनुष्यों में (अपांसि) = लोक हितकारी कर्मों को कर्ता करनेवाले हैं। (सः) = वे प्रभु ही (वृत्रहा) = वासना का विनाश करते हैं। इस प्रभु को (इत्) = ही (अन्यं प्रति आहुः) = सब शत्रुओं का सामना करनेवाला कहते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- शोभन शक्ति व प्रज्ञानवाले हैं। वे सर्वत्र व्याप्त हैं। नर पुरुषों में प्रभु ही सब उत्तम कर्मों को करनेवाले हैं। प्रभु ही शत्रुओं का अभिभव करते हैं।

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