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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 96 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 96/ मन्त्र 4
    ऋषिः - तिरश्चीरद्युतानो वा मरुतः देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    मन्ये॑ त्वा य॒ज्ञियं॑ य॒ज्ञिया॑नां॒ मन्ये॑ त्वा॒ च्यव॑न॒मच्यु॑तानाम् । मन्ये॑ त्वा॒ सत्व॑नामिन्द्र के॒तुं मन्ये॑ त्वा वृष॒भं च॑र्षणी॒नाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मन्ये॑ । त्वा॒ । य॒ज्ञिय॑म् । य॒ज्ञिया॑नाम् । मन्ये॑ । त्वा॒ । च्यव॑नम् । अच्यु॑तानाम् । मन्ये॑ । त्वा॒ । सत्व॑नाम् । इ॒न्द्र॒ । के॒तुम् । मन्ये॑ । त्वा॒ । वृ॒ष॒भम् । च॒र्ष॒णी॒नाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मन्ये त्वा यज्ञियं यज्ञियानां मन्ये त्वा च्यवनमच्युतानाम् । मन्ये त्वा सत्वनामिन्द्र केतुं मन्ये त्वा वृषभं चर्षणीनाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मन्ये । त्वा । यज्ञियम् । यज्ञियानाम् । मन्ये । त्वा । च्यवनम् । अच्युतानाम् । मन्ये । त्वा । सत्वनाम् । इन्द्र । केतुम् । मन्ये । त्वा । वृषभम् । चर्षणीनाम् ॥ ८.९६.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 96; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 32; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, hero of invincible power, plan and action, I honour as the most revered of the powers worthy of love and homage in yajna. Of the unmoved and immovables, I honour you as the greatest mover and the moving at the highest velocity. Of the real, the true, the eternal, I honour you as the first and highest. And of the dynamic visionaries, I honour you as the highest visionary, most dynamic in power and generosity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो माणूस अत्यंत संयमी असतो. त्याची संगती सामान्य लोक धरू इच्छितात. तो आपल्या दृढमूल झालेल्या दुर्भावनांनाही उपटून फेकून देतो व विवेकशील पुरुषार्थी माणसांमध्ये त्याला सर्वोत्तम पद प्राप्त होते. ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्य इच्छुक पुरुषार्थी साधक! मैं (त्वा) तुझे (यज्ञियानाम्) सत्संगति योग्यों में अधिक (यज्ञियम्) संगति योग्य (मन्ये) समझता हूँ। मैं (त्वा) तुझे (अच्युतानाम्) स्थिर--अडिग समझे जाने वाले दुर्भावों को भी (च्यवनम्) डिगाने वाला (मन्ये) समझता हूँ। मैं (त्वा) तुझे (सत्वनाम्) बलिष्ठों का (केतुम्) प्रमुख मानता हूँ और (त्वा) तुझे (चर्षणीनाम्) विवेकशील एवं पुरुषार्थी मनुष्यों में (वृषभम्) सर्वश्रेष्ठ समझता हूँ॥४॥

    भावार्थ

    जो मानव संयम का अभ्यासी होता है, सामान्य जन उसकी संगति चाहते हैं, वह अपनी दुर्भावनाओं को भी उखाड़ फेंकता है तथा विवेकशील पुरुषार्थी जनों में उसको सर्वोत्तम पद प्राप्त होता है।॥४॥

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    विषय

    राजा के वैभव के कर्त्तव्यों के साथ साथ जगत्उत्पादक परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! मैं ( त्वा ) तुझे (यज्ञियानां यज्ञियं मन्ये ) दानियों में दानी, पूज्यों में पूज्य, सत्संग योग्यों में सर्वश्रेष्ठ करके जानता हूं। और ( अच्युतानां च्यवनम् ) स्वयं गतिरहित जड़ पदार्थो को चलाने वाला जानता हूं। ( सत्वनां केतुं मन्ये ) बलशालियों में ध्वजा के समान वा सत्वयुक्त चित्त वाले जीवों में ज्ञानप्रद, और ( चर्षणीनां वृषभं त्वा मन्ये ) मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ मैं तुझे जानता हूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    तिरश्चीर्द्युतानो वा मरुत ऋषिः। देवताः—१-१४, १६-२१ इन्द्रः। १४ मरुतः। १५ इन्द्राबृहस्पती॥ छन्द:—१, २, ५, १३, १४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६, ७, १०, ११, १६ विराट् त्रिष्टुप्। ८, ९, १२ त्रिष्टुप्। १, ५, १८, १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, १७ पंक्तिः। २० निचृत् पंक्तिः। २१ विराट् पंक्तिः॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'यज्ञिय, च्यवन, केतु, वृषभ'

    पदार्थ

    [१] हे मैं प्रभो ! (त्वा) = आपको (यज्ञियानां यज्ञियम्) = पूजनीयों में पूजनीय (मन्ये) = मानता हूँ। 'माता, पिता, आचार्य व अतिथि' पूज्य हैं। उन सब के भी पूज्य प्रभु हैं। प्रभु पूजनीयों के भी पूजनीय हैं। हे प्रभो ! मैं (त्वा) = आपको (अच्युतानाम्) = अतिप्रबल शत्रुओं के भी (च्यवनम्) = च्युत करनेवाला, नष्ट करनेवाला (मन्ये) = जानता हूँ। [२] (त्वा) = आपको मैं हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (सत्वनाम्) = स्तुतियों व हवियों द्वारा सम्भजन करनेवालों का (केतुं मन्ये) = रोगापनयन द्वारा उत्तम निवास को करनेवाला जानता हूँ । (त्वा) = आपको (चर्षणीनाम्) = श्रमशील मनुष्यों का (वृषभम्) = सुखों का वर्षण करनेवाला (मन्ये) = मानता हूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु पूज्य हैं, शत्रु संहारक हैं। भक्तों के जीवन को उत्तम बनानेवाले हैं, श्रमशील व्यक्तियों को सुखी करनेवाले हैं।

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