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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 96 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 96/ मन्त्र 9
    ऋषिः - तिरश्चीरद्युतानो वा मरुतः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ति॒ग्ममायु॑धं म॒रुता॒मनी॑कं॒ कस्त॑ इन्द्र॒ प्रति॒ वज्रं॑ दधर्ष । अ॒ना॒यु॒धासो॒ असु॑रा अदे॒वाश्च॒क्रेण॒ ताँ अप॑ वप ऋजीषिन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ति॒ग्मम् । आयु॑धम् । म॒रुता॑म् । अनी॑कम् । कः । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । प्रति॑ । वज्र॑म् । द॒ध॒र्ष॒ । अ॒ना॒यु॒धासः॑ । असु॑राः । अ॒दे॒वाः । च॒क्रेण॑ । तान् । अप॑ । व॒प॒ । ऋ॒जी॒षि॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तिग्ममायुधं मरुतामनीकं कस्त इन्द्र प्रति वज्रं दधर्ष । अनायुधासो असुरा अदेवाश्चक्रेण ताँ अप वप ऋजीषिन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तिग्मम् । आयुधम् । मरुताम् । अनीकम् । कः । ते । इन्द्र । प्रति । वज्रम् । दधर्ष । अनायुधासः । असुराः । अदेवाः । चक्रेण । तान् । अप । वप । ऋजीषिन् ॥ ८.९६.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 96; मन्त्र » 9
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 33; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, O soul, the powers of the Maruts, pranas, is really your fiery thunderbolt. Who holds a weapon counter to thunder? The evil forces are, in fact, without any force and weapon. Nor do they have anything positive and divine about them. Rise, move and shoot your wheel of concentrated force and strike them down.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    बलवान ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियांच्या तीक्ष्ण आयुध साधनांनी संपन्न जीवात्मा निश्चयपूर्वक भाग्यवान आहे. कारण स्वार्थ, हिंसा इत्यादी दुर्भाव तर स्वत: मरणप्राय व निस्तेज आहेत. हे जाणून आम्ही आपल्या आत्म्याला उत्साहित करावे व उरल्यासुरल्या सोमरसाचा उपभोग करूनही जीवात्मा दुर्भावनांना शीघ्र नष्ट करू शकतो. ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्य साधक मेरे आत्मा! (मरुताम्) प्राणशक्तियों की (अनीकम्) शक्ति ही [अन्-–प्राणने+ईकन्--जीवन साधन] (ते) तेरा (तिग्मम्) पैना (आयुधम्) युद्ध साधन (वज्रम्) वज्र है। (कः प्रति वज्रम्) कौन है जो उसके विरोधी वज्र को (दधर्ष) धारण करता हो? (असुराः) स्वार्थ आदि दुष्प्रवृत्तियाँ रूप असुर तो (अनायुधासः) युद्ध--संघर्ष के साधनों से रहित हैं; [निर्वीर्य] वे (अदेवाः) तेजस्विता से भी वंचित हैं। (ऋजीषिन्) अवशिष्ट का सेवन करनेवाले फिर भी बलशाली इन्द्र! उन्हें तू (अप वप) छिन्न-भिन्न कर॥९॥

    भावार्थ

    बलवान् एवं ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियादि पैने आयुध-साधन सम्पन्न जीवात्मा निश्चित रूप से ही भाग्यवान् है; क्योंकि स्वार्थ, हिंसा आदि दुर्भाव स्वतः ही मृत एवं निस्तेज हैं। यह समझकर हम स्व आत्मा को उत्साहित करें कि अवशिष्ट सोमरस का उपभोग कर तू भी दुर्भावनाएं शीघ्र नष्ट कर सकता है॥९॥

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    विषय

    राजा के वैभव के कर्त्तव्यों के साथ साथ जगत्उत्पादक परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( तिग्मम् आयुधम् ) शत्रु पर प्रहार करने के तीक्ष्ण साधन, ( मरुताम् अनीकम् ) वीर पुरुषों की सेना रूप ( ते वज्रं ) तेरे महान् बलको (कः प्रति दधर्ष) कौन पराजित कर सकता है। ( असुराः ) बड़े बलशाली लोग भी ( अनायुधासः ) आयुधों से रहित और ( अदेवाः ) अतेजस्वी हों, ( तान् ) उन को हे ( ऋजीषिन् ) शत्रुभर्जक सेनाओं के स्वामिन् ! तू (अप वप) दूर ही खण्डित कर डाल।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    तिरश्चीर्द्युतानो वा मरुत ऋषिः। देवताः—१-१४, १६-२१ इन्द्रः। १४ मरुतः। १५ इन्द्राबृहस्पती॥ छन्द:—१, २, ५, १३, १४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६, ७, १०, ११, १६ विराट् त्रिष्टुप्। ८, ९, १२ त्रिष्टुप्। १, ५, १८, १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, १७ पंक्तिः। २० निचृत् पंक्तिः। २१ विराट् पंक्तिः॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्राणसाधना- क्रियाशीलता-प्रभु उपासना

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! यह (मरुतां अनीकम्) = प्राणों का सैन्य (तिग्मायुधम्) = बड़े तीव्र अस्त्रवाला है। प्राणसाधना के होने पर शत्रु इस साधक का घर्षण नहीं कर सकते। हे प्रभो ! (क:) = कौन (वे) = आपके (वज्रं प्रति दधर्ष) = क्रियाशीलता रूप वज्र का धर्षण कर सकता है? मनुष्य प्राणसाधना करे और क्रियाशील बना रहे तो कोई भी काम-क्रोध आदि शत्रु इसे सता नहीं पाते। [२] (अदेवा:) = दिव्य भावनाओं से रहित ये (असुराः) = आसुरभाव (अनायुधासः) - प्राणसाधना व क्रियाशीलता के सामने आयुधशून्य हो जाते हैं। हे (ऋजीषिन्) = ऋजुता की [सरलता की ] प्रेरणा देनेवाले प्रभो! आप (चक्रेण) = इस दैनिक कार्यचक्र के द्वारा, दिनचर्या में लगे रहने के द्वारा (अप वप) = छिन्न कर डालिये। प्रभु की उपासना के साथ हम दैनिक कर्त्तव्यों में तत्पर रहें तो काम-क्रोध- लोभ आदि शत्रु सुदूर विनष्ट हो जायेंगे।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना, क्रियाशीलता व प्रभु उपासना ही वे शस्त्र हैं जिनसे काम-क्रोध आदि शत्रुओं का संहार हो जाता है।

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