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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 96 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 96/ मन्त्र 5
    ऋषिः - तिरश्चीरद्युतानो वा मरुतः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ यद्वज्रं॑ बा॒ह्वोरि॑न्द्र॒ धत्से॑ मद॒च्युत॒मह॑ये॒ हन्त॒वा उ॑ । प्र पर्व॑ता॒ अन॑वन्त॒ प्र गाव॒: प्र ब्र॒ह्माणो॑ अभि॒नक्ष॑न्त॒ इन्द्र॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । यत् । वज्र॑म् । बा॒ह्वोः । इ॒न्द्र॒ । धत्से॑ । म॒द॒ऽच्युत॑म् । अह॑ये । हन्त॒वै । ऊँ॒ इति॑ । प्र । पर्व॑ताः । अन॑वन्त । प्र । गावः॑ । प्र । ब्र॒ह्माणः॑ । अ॒भि॒ऽनक्ष॑न्तः । इन्द्र॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ यद्वज्रं बाह्वोरिन्द्र धत्से मदच्युतमहये हन्तवा उ । प्र पर्वता अनवन्त प्र गाव: प्र ब्रह्माणो अभिनक्षन्त इन्द्रम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । यत् । वज्रम् । बाह्वोः । इन्द्र । धत्से । मदऽच्युतम् । अहये । हन्तवै । ऊँ इति । प्र । पर्वताः । अनवन्त । प्र । गावः । प्र । ब्रह्माणः । अभिऽनक्षन्तः । इन्द्रम् ॥ ८.९६.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 96; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 32; मन्त्र » 5
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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, when you hold the pride shattering thunderbolt in hands for the destruction of evil forces, mountains bend, earths adore, and divines sing hymns of praise to celebrate your glory.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जेव्हा ऐश्वर्यसाधक वीर्य आपल्या शरीरातच धारण करतो व त्याची कर्मेन्द्रिये सतेज होतात, तो आपल्या शत्रू असलेल्या दुर्भावनांना जिंकून घेतो व त्याला शारीरिक, मानसिक, सांसारिक व आध्यात्मिक सर्व प्रकारचे बल प्राप्त होते. ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) शक्तियुक्त मानव! (यत्) जब तू (अहये हन्तवा) हिंसक भावनाओं को नष्ट करने के लिये (मदच्युतम्) उन हन्ताओं का मद चूर करने वाले (वज्रम्) बल-वीर्य को (धत्से) धारण कर लेता है तब (पर्वताः) पर्वत अर्थात् पर्वतों सरीखे अगम्य स्थानों पर स्थित [शत्रुभूत दुर्भाव] (इन्द्रम्) तुझ इन्द्र की शरण में (प्र अनवन्त) आ जाते हैं [नव्=गतौ] (गावः) गौएँ अर्थात् इसी भूमि-स्थल पर स्थित [शत्रुभूत दुर्भाव] (प्र अनवन्त) तेरी शरण में आ जाते हैं और (ब्रह्माणः) सभी प्रकार के बल [बलं वै ब्रह्मा तैत्ति० ब्रा० ३-८-५-२] (अधि) तेरी ओर (नक्षन्त) चल पड़ते हैं॥५॥

    भावार्थ

    जब ऐश्वर्य की साधना करने वाला कार्य को शरीर में खपा लेता है तथा उसकी कर्मेन्द्रियाँ तेजस्वी हो जाती हैं, तो वह अपने दुर्भावों पर विजयी हो जाता है और उसे शारीरिक, मानसिक, सांसारिक एवं आध्यात्मिक सभी प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं॥५॥

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    विषय

    राजा के वैभव के कर्त्तव्यों के साथ साथ जगत्उत्पादक परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    ( यद् ) जब हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवान् शत्रुहन् ! तू (बाह्वोः) बाहुओं में ( अहये ) अभिमुख आये शत्रु को ( हन्तवा ) नाश करने के लिये ( मदच्युतं वज्रं ) शत्रुओं के मद को दूर करने वाले प्रजा के ( मदअच्युतं ) हर्ष प्रापक बल वीर्य को ( धत्से ) धारण करता है तब (पर्वताः) मेघवत् पालन शक्ति से युक्त शासक जन, और ( गावः ) भूमिवासी समस्त प्रजाएं ( प्र अनवन्त ) खूब हर्ष ध्वनि करते हैं। और ( अभिनक्षन्तः ब्रह्माणः) प्राप्त होते हुए विद्वान् जन (इन्द्रम् प्र अनवन्त ) ऐश्वर्यवान् शत्रुहन्ता की स्तुति करते हैं। इति द्वात्रिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    तिरश्चीर्द्युतानो वा मरुत ऋषिः। देवताः—१-१४, १६-२१ इन्द्रः। १४ मरुतः। १५ इन्द्राबृहस्पती॥ छन्द:—१, २, ५, १३, १४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६, ७, १०, ११, १६ विराट् त्रिष्टुप्। ८, ९, १२ त्रिष्टुप्। १, ५, १८, १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, १७ पंक्तिः। २० निचृत् पंक्तिः। २१ विराट् पंक्तिः॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'मदच्युत वज्र'

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = प्रभु-विद्रावक जितेन्द्रिय पुरुष ! (यद्) = जब तू (बाह्वोः) = अपनी भुजाओं में (मदच्युतम्) = शत्रुओं के मद को च्युत करनेवाले (वज्रम्) = वज्र को (आधत्से) = धारण करता है, तो (उ) = निश्चय से (अहवे हन्तवै) = यह वज्र वासनारूप अहि के विनाश के लिये होता है। उस समय (पर्वताः) = अविद्या पर्वत (प्र अनवन्त) = [नवते - To go] प्रकर्षेण हिल जाते हैं। क्रियाशीलता ही वज्र है । यही अविद्या पर्वत का विनाश करती है। [२] इस अविद्या पर्वत के भेदन के होने पर (इन्द्रम्) = इस जितेन्द्रिय पुरुष को (गावः) = सब इन्द्रियाँ (प्र अभिनक्षन्त) = खूब ही अभिमुख्येन प्राप्त होती हैं। और (ब्रह्माणः) = इस इन्द्र को ज्ञानी पुरुष प्राप्त होते हैं। इन ज्ञानियों के सम्पर्क में इसका ज्ञान खूब ही बढ़ता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- क्रियाशीलता से वासना विनष्ट होती है। इस से अज्ञान के पर्वत का विदारण होता तब इन्द्रियाँ स्वस्थ होती हैं। और ज्ञान की वृद्धि होती हैं।

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