ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 96/ मन्त्र 16
ऋषिः - तिरश्चीरद्युतानो वा मरुतः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
त्वं ह॒ त्यत्स॒प्तभ्यो॒ जाय॑मानोऽश॒त्रुभ्यो॑ अभव॒: शत्रु॑रिन्द्र । गू॒ळ्हे द्यावा॑पृथि॒वी अन्व॑विन्दो विभु॒मद्भ्यो॒ भुव॑नेभ्यो॒ रणं॑ धाः ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । ह॒ । त्यत् । स॒प्तऽभ्यः॑ । जाय॑मानः । अ॒श॒त्रुऽभ्यः॑ । अ॒भ॒वः॒ । शत्रुः॑ । इ॒न्द्र॒ । गू॒ळ्हे । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । अनु॑ । अ॒वि॒न्दः॒ । वि॒भ्म॒त्ऽभ्यः॑ । भुव॑नेभ्यः । रण॑म् । धाः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं ह त्यत्सप्तभ्यो जायमानोऽशत्रुभ्यो अभव: शत्रुरिन्द्र । गूळ्हे द्यावापृथिवी अन्वविन्दो विभुमद्भ्यो भुवनेभ्यो रणं धाः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । ह । त्यत् । सप्तऽभ्यः । जायमानः । अशत्रुऽभ्यः । अभवः । शत्रुः । इन्द्र । गूळ्हे । द्यावापृथिवी इति । अनु । अविन्दः । विभ्मत्ऽभ्यः । भुवनेभ्यः । रणम् । धाः ॥ ८.९६.१६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 96; मन्त्र » 16
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 35; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 35; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Thus does Indra become a victorious enemy for the seven unrivalled unholy tendencies of sense and mind and emerges a brilliant unrivalled hero. Thus does he find the real joyous heaven and earth otherwise, for him, covered in deep darkness. Thus do you, O soul, bear and bring happiness to the regions of life vested in dignity and excellence.
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा साधक जीवात्म्याच्या शक्ती सप्त प्राणाच्या संयमात प्रकट होतात तेव्हा साधक दोन्ही लोकांत स्थित पदार्थांचे ज्ञान प्राप्त करून घेतो व जेथे जेथे शक्तिवानांचा निवास आहे तेथून त्याला प्रसन्नता प्राप्त होते. ॥१६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (इन्द्र) जीवात्मा! (त्वं ह) तू निश्चय ही (अशत्रुभ्यः) मित्र भूत (सप्तभ्यः) सात प्राणों से (जायमानः) प्रकटित हो (त्यत्) उस समर्थ (अभवत्) रूप में आता है। पुनश्च (गूळहे) रहस्यात्मक (द्यावापृथिवी) द्युलोक तथा पृथिवी लोकस्थ सभी पदार्थों को (अनु, अविन्दः) अनुक्रम से सम्पादित कर लेता है। (विभुमद्भ्यः) शक्तिशाली (भुवनेभ्यः) निवास स्थानों से (रणम्) रमण को (धाः) पाता है॥१६॥
भावार्थ
जिस समय साधक जीवात्मा की शक्तियाँ सप्त प्राणों के संयम से प्रकट होती हैं, तो साधक दोनों लोकों में स्थित पदार्थों का ज्ञान पा लेता है और जहाँ-जहाँ शक्तिशाली निवास करते हैं, वहाँ से उसे प्रसन्नता मिलती है।॥१६॥
विषय
राजा के वैभव के कर्त्तव्यों के साथ साथ जगत्उत्पादक परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ( त्यत् त्वं ) वह तू ( जायमानः ) प्रकट होकर ही ( अशत्रुभ्यः सप्तभ्यः) शत्रुरहित स्वयं विचरने वालों का ( शत्रुः अभवः ) नाश करने में समर्थ हो। ( गूढे द्यावापृथिवी ) संवृत, सुरक्षित, आकाश पृथिवीवत् शासक-शास्य दोनों को ( अनु अविन्दः) अपने अनुकूल करके वश कर। और ( विभुमद्भ्यः भुवनेभ्यः ) बड़े ऐश्वर्य से युक्त देशों को प्राप्त करने के लिये (रणं धाः) रण कर। (२) अध्यात्म में इन्द्र आत्मा, सप्त प्राणों का शासन करने वाला विभाजक है, वह सुगुप्त द्यौ पृथिवी, प्रभु प्रकृति का ज्ञान करे, और महान् सुखमय लोकों का ( रणं ) सुख भी प्राप्त करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
तिरश्चीर्द्युतानो वा मरुत ऋषिः। देवताः—१-१४, १६-२१ इन्द्रः। १४ मरुतः। १५ इन्द्राबृहस्पती॥ छन्द:—१, २, ५, १३, १४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६, ७, १०, ११, १६ विराट् त्रिष्टुप्। ८, ९, १२ त्रिष्टुप्। १, ५, १८, १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, १७ पंक्तिः। २० निचृत् पंक्तिः। २१ विराट् पंक्तिः॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
काम आदि सात शत्रुओं का शातन
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष (त्वम्) = तू (ह) = निश्चय से (त्यत्) = उस कर्म को करता है कि (जायमानः) = विकास को प्राप्त होता हुआ तू (अशत्रुभ्यः) = जिनका शातन [समाप्ति] बड़ा कठिन है उन (सप्तभ्यः) = 'काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर व अविद्या' नामक सात शत्रुओं के लिये (शत्रुः अभवः) = शातन करनेवाला होता है। [२] इन शत्रुओं का शातन करके (गूढे द्यावापृथिवी) = शत्रुओं से आवृत हुए हुए मस्तिष्क व शरीर को तू फिर से (अन्वविन्दः) = प्राप्त करता है। काम- लोभ आदि ने इनको आवृत-सा कर लिया था। काम आदि के विनाश से हम इन्हें फिर प्राप्त करनेवाले होते हैं। इनको काम आदि के आवरण से रहित करके (विभुमद्भ्यः) = महत्त्वयुक्त (भुवनेभ्यः) = लोकों के लिये, शरीर के सब अंगों के लिये, (रणं धाः) = रमणीयता को तू धारण करता है ।
भावार्थ
भावार्थ- 'काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर व अविद्या' ये हमारे प्रबल शत्रु हैं। इनका शातन करके ही हम मस्तिष्क व शरीर को स्वस्थ कर पाते हैं और सब अंगों के लिये रमणीयता को धारण करनेवाले होते हैं।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal