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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 96 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 96/ मन्त्र 14
    ऋषिः - तिरश्चीरद्युतानो वा मरुतः देवता - इन्द्रः, मरुतः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    द्र॒प्सम॑पश्यं॒ विषु॑णे॒ चर॑न्तमुपह्व॒रे न॒द्यो॑ अंशु॒मत्या॑: । नभो॒ न कृ॒ष्णम॑वतस्थि॒वांस॒मिष्या॑मि वो वृषणो॒ युध्य॑ता॒जौ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्र॒प्सम् । अ॒प॒श्य॒म् । विषु॑णे । चर॑न्तम् । उ॒प॒ऽह्व॒रे । न॒द्यः॑ । अं॒शु॒ऽमत्याः॑ । नभः॑ । न । कृ॒ष्णम् । अ॒व॒त॒स्थि॒ऽवांस॑म् । इष्या॑मि । वः॒ । वृ॒ष॒णः॒ । युध्य॑त । आ॒जौ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्रप्समपश्यं विषुणे चरन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्या: । नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृषणो युध्यताजौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्रप्सम् । अपश्यम् । विषुणे । चरन्तम् । उपऽह्वरे । नद्यः । अंशुऽमत्याः । नभः । न । कृष्णम् । अवतस्थिऽवांसम् । इष्यामि । वः । वृषणः । युध्यत । आजौ ॥ ८.९६.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 96; मन्त्र » 14
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 34; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I have seen the dark devil of passion and pride roaming around widely and variously on the banks of the vibrant stream of life. O mighty energies of prana and divine potential, I wish you fight in the battle and, like unfailing agents of cleansing of dirt, throw out the dark evil standing out and working boldly as well as surreptitiously.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ऐश्वर्य साधक जेव्हा हा अनुभव घेतो, की त्याच्या शरीराच्या मर्मस्थानी दूषित वीर्याचा प्रभाव पडत आहे तेव्हा त्याने संकल्पपूर्वक आपल्या सर्व शक्तीद्वारे कायापालट करण्याचा प्रयत्न करावा.॥१४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    उक्त (द्रप्सम्) दूषित वीर्य को मैंने (अंशुमत्याः नद्यः) शब्द करती जीवन नदी के (विषुणे) शरीर में व्याप्त (उपह्वरे) टेढ़े-मेढ़े मार्ग पर (चरन्तम्) विचरते हुए को (अपश्यम्) अनुभव किया है। (इष्यामि) मैं चाहता हूँ कि (वृषणः वः) मेरी बलवान् प्राण शक्तियो! तुम (नभः न) हिंसक के तुल्य विद्यमान (आजौ) संघर्ष स्थल पर जमकर स्थित हुए इस (कृष्णम्) पापात्मा दूषित वीर्य से (युध्यत) संघर्ष करो॥१४॥

    भावार्थ

    ऐश्वर्य की साधना करने वाला जब यह अनुभव करे कि उसके शरीर के मर्मस्थलों तक में दूषित वीर्य प्रभाव जमा रहा है, तो वह संकल्प सहित अपनी सारी शक्तियों से उसकी कायापलट का प्रयास करे॥१४॥

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    विषय

    राजा के वैभव के कर्त्तव्यों के साथ साथ जगत्उत्पादक परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    सेनापति सैन्यगण से कहे—मैं (अंशुमत्याः नद्यः) कर देने वाली, समृद्ध प्रजा के ( उप-ह्वरे ) समीप में ( विषुणे चरन्तं ) विस्तृत मैदान में विचरते ( द्रप्सम् ) द्रुतगामी शत्रु को ( अपश्यम् ) देखता हूं, और इसी प्रकार ( अवतस्थिवांसम् ) आसन पर बैठे हुए ( कृष्णम् ) प्रजा के पीड़क जन को ( नभः ) आकाश में मेघवत् व्यापक जानता हूं। हे ( वृषण ) बलवान् पुरुषो ! मैं (इष्यामि) चाहता हूं कि ( वः ) आप लोग ( आजौ युध्यत ) संग्राम में शत्रु से युद्ध करो, मारो। अध्यात्म में पूर्वोक्त अंशुमती नदी लिङ्ग-देह उसके भीतर 'द्रप्स' अर्थात् द्रुत वेग से जाने वाला जीवात्मा ( विषुणे चरन्तम् ) सब तरफ जाने में समर्थ होता है। जब वह स्थिर होता है तब ( नभः न कृष्णम् ) आकाशवत् वा वायुवत् निष्प्रभ वा आदित्यवत् तेजः स्वरूप होता है। हे (वृषणः) बलशाली साधक जनो ! आप लोग ( आजौ ) उस को प्राप्त करने के लिये ( युध्यत ) बाधक कारणों से अवश्य संग्राम करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    तिरश्चीर्द्युतानो वा मरुत ऋषिः। देवताः—१-१४, १६-२१ इन्द्रः। १४ मरुतः। १५ इन्द्राबृहस्पती॥ छन्द:—१, २, ५, १३, १४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६, ७, १०, ११, १६ विराट् त्रिष्टुप्। ८, ९, १२ त्रिष्टुप्। १, ५, १८, १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, १७ पंक्तिः। २० निचृत् पंक्तिः। २१ विराट् पंक्तिः॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    नभः न

    पदार्थ

    [१] (द्रप्सम्) = उस प्रभु के छोटे रूप जीव को (विषुणे) = उस चारों ओर गति [ व्याप्ति] वाले प्रभु में (पश्यम्) = मैं देखता हूँ। प्रभु की गोद में जीव को स्थित अनुभव करता हूँ। यह (अंशुमत्याः नद्यः) = प्रकाश की किरणोंवाली ज्ञान नदी [सरस्वती] के (उपह्वरे) = अत्यन्त गूढ़ स्थान में (चरन्तम्) = गति कर रहा है। [२] (नभः न) = आदित्य के समान (अवतस्थिवांसम्) = स्थित (कृष्णाम्) = वासनाओं के क्षीण करनेवाले को (इष्यामि) = चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि मैं वासनारूप वृत्र को विनष्ट करके सूर्य की तरह चमकूँ। हे (वृषणः) = शक्तिशाली मरुतो [ प्राणो ] ! (वः) = तुम (आजौ) = संग्राम में (युध्यत) = इन वासनारूप शत्रुओं के साथ युद्ध करो। इन्हें पराजित करके ही तो मैं चमक सकूँगा।

    भावार्थ

    भावार्थ- जीव उस व्यापक प्रभु में स्थित अपने को देखे । सदा ज्ञान के अन्दर विचरने का प्रयत्न करे। प्राणसाधना द्वारा वासनाओं का विनाश करके सूर्य की तरह चमके ।

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