ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 96/ मन्त्र 3
ऋषिः - तिरश्चीरद्युतानो वा मरुतः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इन्द्र॑स्य॒ वज्र॑ आय॒सो निमि॑श्ल॒ इन्द्र॑स्य बा॒ह्वोर्भूयि॑ष्ठ॒मोज॑: । शी॒र्षन्निन्द्र॑स्य॒ क्रत॑वो निरे॒क आ॒सन्नेष॑न्त॒ श्रुत्या॑ उपा॒के ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑स्य । वज्रः॑ । आ॒य॒सः । निऽमि॑श्लः । इन्द्र॑स्य । बा॒ह्वोः । भूयि॑ष्ठम् । ओजः॑ । शी॒र्षन् । इन्द्र॑स्य । क्रत॑वः । नि॒रे॒के । आ॒सन् । आ । ई॒ष॒न्त॒ । श्रुत्यै॑ । उ॒पा॒के ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रस्य वज्र आयसो निमिश्ल इन्द्रस्य बाह्वोर्भूयिष्ठमोज: । शीर्षन्निन्द्रस्य क्रतवो निरेक आसन्नेषन्त श्रुत्या उपाके ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रस्य । वज्रः । आयसः । निऽमिश्लः । इन्द्रस्य । बाह्वोः । भूयिष्ठम् । ओजः । शीर्षन् । इन्द्रस्य । क्रतवः । निरेके । आसन् । आ । ईषन्त । श्रुत्यै । उपाके ॥ ८.९६.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 96; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 32; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 32; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
The thunder bolt of Indra is made of unbreakable steel, sharpened and integrated with his body system, in his arms there is tremendous force and lustre, in his head are definite thoughts, plans and actions of high degree, and in his tongue is speech which people are anxious to hear at the closest.$(These two mantras are highly mystical, comprehensively allegorical also. They describe the divine process of evolution. We may interpret the astra as the missile of the Big Bang of the divine will which formally splits integrated Prakrti into seven stages of mahan, ahankara and the five elements, i.e., akasha, vayu, agni, apah and prthivi over three modes of satva, rajas and tamas of each. The vajra, again is the will continuously operative as Rtam, the law of the dynamics of nature. At the human level, the same dynamic works as living energy of prana in the biological system and converts food into seven ascending stages of rasa, rakta, mansa, meda, majja, asthi and virya which, properly cultivated and preserved, shines as ojas, lustre of the personality.)
मराठी (1)
भावार्थ
ऐश्वर्याच्या इच्छुक साधकाला इतक्या संयमाने जीवन व्यतीत केले पाहिजे, की त्याचे वीर्य त्याच्या शरीरातच राहून त्याचे हातपाय इत्यादी कर्मेन्द्रिये तेजस्वी बनली पाहिजेत. त्याची संकल्पशक्ती बलवान बनली पाहिजे व त्याची प्रेरणाशक्ती प्रबल झाली पाहिजे. ॥३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्द्रस्य) ऐश्वर्य इच्छुक पुरुषार्थी व्यक्ति का (वज्रः) वीर्य--शुक्र (आयसः) लौह निर्मित-सा कठोर एवं (निमिश्लः) शरीर में भली-भाँति मिश्रित होता है; इन्द्र की (बाह्वोः) बाहुओं में (भूयिष्ठम्) बहुत (ओजः) तेज होता है। (इन्द्रस्य) इस इन्द्र के (शीर्षन्) मस्तिष्क में (निरेके) संशयरहित (क्रतवः) संकल्प होते हैं; (आसन्) मुखोपलक्षित वाणी में (उपाके) समीप से (श्रुत्यै) सुनने-सुनाने के लिये प्रेरणा (आ+ईषन्त) आती हैं अथवा (एषन्त) दौड़कर आती हैं॥३॥
भावार्थ
ऐश्वर्य-इच्छुक साधक को नितान्त संयम सहित जीवन यापन करना चाहिए कि उसका वीर्य उसके शरीर में विलीन हो कर उसकी हाथ-पैर आदि कर्मेन्द्रियों को तेजस्वी बनाये। उसकी संकल्प शक्ति बलशाली हो और उसकी प्रेरणा शक्ति प्रबल हो॥३॥
विषय
राजा के वैभव के कर्त्तव्यों के साथ साथ जगत्उत्पादक परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
जिस प्रकार राजा या सेनापति का ( आयसः वज्रः ) लोह का खड्ग होता है और ( निमिश्लः ) खूब कठोर होता है उसी प्रकार ( इन्द्रस्य ) उस महान् ऐश्वर्यवान् प्रभु का ( वज्रः ) बल ( आयसः ) सर्वत्र ब्रह्माण्डों में यत्न अर्थात् सूर्यादि को भ्रमण कराने में समर्थ (निमिश्लः) और खूब सम्बद्ध होता है, और ( इन्द्रस्य ) उस ऐश्वर्यवान् प्रभु के (बाह्वोः) बाहुओं में उसके शासन में भी (भूयिष्ठम् ओजः) बड़ा भारी बल पराक्रम है। ( इन्द्रस्य ) उस ऐश्वर्यवान् प्रभु के ( शीर्षन् ) शिर में भी ( क्रतवः ) अनेक ज्ञान ( निरेके ) सब से बढ़कर विद्यमान हैं। और ( आसन् ) मुख में विद्यमान वाणियों को भी सुनने के लिये ( उपाके ) अति समीप बहुत से जन ( ईषन्त ) प्राप्त होते हैं । इसी प्रकार राजा की बाहुओं में खड्ग रूप, बल, शिरःस्थानीय अनेक विद्वानू जन और मुख में श्रवणीय आज्ञाएं हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
तिरश्चीर्द्युतानो वा मरुत ऋषिः। देवताः—१-१४, १६-२१ इन्द्रः। १४ मरुतः। १५ इन्द्राबृहस्पती॥ छन्द:—१, २, ५, १३, १४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६, ७, १०, ११, १६ विराट् त्रिष्टुप्। ८, ९, १२ त्रिष्टुप्। १, ५, १८, १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, १७ पंक्तिः। २० निचृत् पंक्तिः। २१ विराट् पंक्तिः॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
भूयिष्ठं ओजः
पदार्थ
[१] (इन्द्रस्य) = एक जितेन्द्रिय पुरुष का (वज्रः आयसः) = क्रियाशीलतारूप वज्र लोहे का बना होता है, अर्थात् यह क्रिया करता हुआ थकता नहीं। यह वज्र (निमिश्लः) = उसके साथ अतिशयेन सम्बद्ध होता है। यह कभी क्रियाशील न हो, ऐसा नहीं होता। इसीलिए (इन्द्रस्य) = बाह्वो:- इस जितेन्द्रिय पुरुष की भुजाओं में (भूयिष्ठं ओजः) = खूब ही बल होता है। क्रियाशीलता में ही शक्ति का रहस्य है। [२] इस (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष के (शीर्षन्) = मस्तिष्क में (ऋतवः) = ज्ञान होते हैं, जो (निरेके) = सब मलों के विरेचन के निमित्त बनते हैं। (आसन्) = इसके मुख में (श्रुत्या) = स्तोतात्मक श्रुति वाक्य (एषन्त) = गतिवाले होते हैं जो (उपाके) = इसे प्रभु का अन्तिकतम करनेवाले होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - एक जितेन्द्रिय पुरुष 'सतत क्रियाशीलता के द्वारा शक्तिशाली' बनता है। इसके मस्तिष्क में ज्ञान होता है, मुख में श्रुतिवाक्य । ज्ञान इसे पवित्र करता है, श्रुति वाक्य प्रभु के समीप प्राप्त कराते हैं।
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