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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 96 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 96/ मन्त्र 11
    ऋषिः - तिरश्चीरद्युतानो वा मरुतः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒क्थवा॑हसे वि॒भ्वे॑ मनी॒षां द्रुणा॒ न पा॒रमी॑रया न॒दीना॑म् । नि स्पृ॑श धि॒या त॒न्वि॑ श्रु॒तस्य॒ जुष्ट॑तरस्य कु॒विद॒ङ्ग वेद॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒क्थऽवा॑हसे । वि॒ऽभ्वे॑ । म॒नी॒षाम् । द्रुणा॑ । न । पा॒रम् । ई॒र॒य॒ । न॒दीना॑म् । नि । स्पृ॒श॒ । धि॒या । त॒न्वि॑ । श्रु॒तस्य॑ । जुष्ट॑ऽतरस्य । कु॒वित् । अ॒ङ्ग । वेद॑त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उक्थवाहसे विभ्वे मनीषां द्रुणा न पारमीरया नदीनाम् । नि स्पृश धिया तन्वि श्रुतस्य जुष्टतरस्य कुविदङ्ग वेदत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उक्थऽवाहसे । विऽभ्वे । मनीषाम् । द्रुणा । न । पारम् । ईरय । नदीनाम् । नि । स्पृश । धिया । तन्वि । श्रुतस्य । जुष्टऽतरस्य । कुवित् । अङ्ग । वेदत् ॥ ८.९६.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 96; मन्त्र » 11
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 34; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O man, direct and send up your thoughts and prayers over to the great omnipotent Indra who loves the devotee’s songs of adoration. Send up the adorations as we cross over the rivers by boat. And with your vision, intelligence and action feel the touch of the dear divine lord of universal presence and glory in the very core of your heart. Would not the lord dear as breath of life not oblige and bless?

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसाचे मन मननाद्वारेच नियंत्रित होते व शुभगुणांचे वाहक बनते व त्याला ज्ञान धारणावती बुद्धीद्वारे प्राप्त होते. याप्रकारे त्याला पुष्कळशा गोष्टी प्राप्त होतात. ॥११॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे साधक! (उक्थवाहसे) उत्थापक गुण-वाहक तथा (विभ्वे) आत्मनियंत्रित बनने के लिये (मनीषाम्) मनन बुद्धि को (ईरय) प्रेरित कर (नदीनां पारम्) नदियों के पार (द्रुणा न) जैसे काष्ठनिर्मित नौका आदि द्वारा जाते हैं। (तन्वि=आत्मनि) आत्मा में (जुष्टतरस्य) नितान्त प्रिय (श्रुतस्य) ज्ञान को (धिया) धारणावती बुद्धि से (नि स्पृश) पूर्णतया संयुक्त कर अथवा पा। हे (अंग) प्रिय साधक! (कुवित्) इस भाँति बहुत कुछ (वेदत्) उपलब्ध कर॥११॥

    भावार्थ

    मानव का मन मनन से ही नियंत्रित तथा शुभ गुणों का वाहक बन पाता है। उसे ज्ञान धारणावती बुद्धि से ही मिलता है। इस भाँति उसे 'बहुत' मिलता है। ११॥

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    विषय

    राजा के वैभव के कर्त्तव्यों के साथ साथ जगत्उत्पादक परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    ( उक्थ-वाहसे विभ्वे) उत्तम स्तुति-वचनों को स्वीकार करने वाले विभु, महान् उस परमेश्वर के लिये ( मनीषां ) अपने चित्त, बुद्धि को प्रेरित कर। हे प्रभो ! तू ( द्रुणा न नदीनाम् ) नदियों के पार नौका के समान हमें ( पारम् ईरय ) पार ले चल। हे विद्वन् ! ( जुष्टतरस्य श्रुतस्य ) अति सेवनीय श्रवण योग्य ज्ञान को ( तन्वि ) अपने पुत्र में धनवत् ( निस्पृश ) प्रदान कर। वह प्रभु ( अङ्ग ) हे मनुष्य ! ( कुवित् वेदत् ) बहुत कुछ प्रदान करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    तिरश्चीर्द्युतानो वा मरुत ऋषिः। देवताः—१-१४, १६-२१ इन्द्रः। १४ मरुतः। १५ इन्द्राबृहस्पती॥ छन्द:—१, २, ५, १३, १४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६, ७, १०, ११, १६ विराट् त्रिष्टुप्। ८, ९, १२ त्रिष्टुप्। १, ५, १८, १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, १७ पंक्तिः। २० निचृत् पंक्तिः। २१ विराट् पंक्तिः॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    द्रुणा न पारमीरया नदीनाम्

    पदार्थ

    [१] (उक्थवाहसे) = स्तोत्रों के द्वारा धारण किये जानेवाले (विभ्वे) = उस महान् व शत्रुओं का अभिभव करनेवाले प्रभु के लिये (मनीषाम्) = बुद्धि को (ईरय) = प्रेरित कर । तद्बुद्धि बन । प्रभु की महिमा का ही चिन्तन करनेवाला हो। उस प्रभु का चिन्तन कर जो तुझे (नदीनां पारं द्रुणा न) = नदियों के पार नाव के द्वारा ले जाने के समान ही भवसागर से पार ले जाते हैं। [२] प्रभु की उपासना के द्वारा (तन्वि) = अपने में धिया बुद्धि के द्वारा (जुष्टतरस्य) = अतिशयेन सेवनीय (श्रुतस्य) = शास्त्रज्ञान का (निस्पृश) = स्पर्श कर खूब ही स्वाध्याय के द्वारा ज्ञान का वर्धन करनेवाला बन। वे प्रभु (अंग) = शीघ्र ही (कुवित्) = खूब (वेदत्) = धन को प्राप्त कराते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम स्तवन व स्वाध्याय में प्रवृत्त हों। प्रभु हमें भवसागर से पार ले जानेवाले होंगे।

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