ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 96/ मन्त्र 13
ऋषिः - तिरश्चीरद्युतानो वा मरुतः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अव॑ द्र॒प्सो अं॑शु॒मती॑मतिष्ठदिया॒नः कृ॒ष्णो द॒शभि॑: स॒हस्रै॑: । आव॒त्तमिन्द्र॒: शच्या॒ धम॑न्त॒मप॒ स्नेहि॑तीर्नृ॒मणा॑ अधत्त ॥
स्वर सहित पद पाठअव॑ । द्र॒प्सः । अं॒शु॒ऽमती॑म् । अ॒ति॒ष्ठ॒त् । इ॒या॒नः । कृ॒ष्णः । द॒शऽभिः॑ । स॒हस्रैः॑ । आव॑त् । तम् । इन्द्रः॑ । शच्या॑ । धम॑न्तम् । अप॑ । स्नेहि॑तीः । नृ॒ऽमनाः॑ । अ॒ध॒त्त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभि: सहस्रै: । आवत्तमिन्द्र: शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥
स्वर रहित पद पाठअव । द्रप्सः । अंशुऽमतीम् । अतिष्ठत् । इयानः । कृष्णः । दशऽभिः । सहस्रैः । आवत् । तम् । इन्द्रः । शच्या । धमन्तम् । अप । स्नेहितीः । नृऽमनाः । अधत्त ॥ ८.९६.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 96; मन्त्र » 13
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 34; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 34; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
The dark passion of pride with its ten thousand assistants and associates comes, occupies the affections and suppresses the emotive and creative streams of life, but Indra, noble leader of men, the soul, with its great thought and action, takes this bully over, controls its violence and covers it with sweetness and love.
मराठी (1)
भावार्थ
‘द्रप्स’ किंवा थेंब थेंब शरीरात राहणारे शुक्र-वीर्याचे एक रूप श्वेत वाढविणारे व आनंददायक आहे व दुसरे ‘कृष्ण’ गर्वित (अभिमानी) करणारे रूप आहे. साधक आपल्या कर्मठतेने आपल्या वीर्याला कृष्ण बनू देत नाही. या प्रकारे मित्रभावनांचे रक्षण करतो. ॥१३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(कृष्णः) हानिकारक (द्रप्सः) दर्पकारी वीर्य (दशभिः सहस्रैः) अपने दस सहस्र अर्थात् असंख्य सहायकों--दुर्भावों सहित (इयानः) आकर (अंशुमतीम्) [अशूङ् व्याप्तौ से अष्टं अर्थात् व्याप्त; जो व्याप्त हो कल्याणकारी हो अर्थात् शुभवीर्य] शुभ वीर्यवती जीवन नदी पर (अव अतिष्ठत्) अधिकार करके बैठे (धमन्तम्) गर्वोद्धत करते हुए (तम्) उस दूषित वीर्य को (इन्द्रः) उत्कृष्ट ऐश्वर्य का इच्छुक जीव (शच्या) अपनी श्रेष्ठ कर्मशक्ति से (आवत्) अपने स्वामित्व में ले; (नृमणाः) कर्म के नेतृत्व की शक्तियों का प्रिय (स्नेहितीः) मित्र भावनाओं को (अप, अधत्त) ढक कर धारे॥१३॥
भावार्थ
'द्रप्स' या बूंद-बूंद कर शरीर में खपने वाले शुक्र--वीर्य का एक रूप श्वेत-वृद्धि कारक एवं हर्षदायक है, तो दूसरा 'कृष्ण' गर्वित करने वाला है। साधक अपनी कर्मठता से स्व वीर्य को कृष्ण नहीं होने देता और इस भाँति मित्र भावनाओं की रक्षा करता है॥१३॥
विषय
राजा के वैभव के कर्त्तव्यों के साथ साथ जगत्उत्पादक परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
( द्रप्सः ) वेग से प्रयाण करने में समर्थ, ( कृष्णः ) प्रजा को कर्षण करने वाला, ( दशभिः सहस्रैः ) दस सहस्र सैन्यों सहित ( अंशुमतीम् ) अन्न वाली भूमि पर ( अतिष्ठत् ) स्थिर हो तो भी ( शच्या धमन्तम् ) अपनी शक्ति से प्रजा को पीड़ित करने वाले दुष्ट शत्रु को ( इन्द्रः ) ऐश्वर्य युक्त उत्तम राजा ( शच्या आवत् ) अपनी शक्ति से आक्रमण करे और वध करे और ( नृमणाः ) मनुष्यों के हित में चित्त देकर वह ( स्नेहितीः ) हिंसक सेनाओं को ( अप अधत्त ) दूर करे। अध्यात्म में ( सहस्रैः दशभिः ) बलवान् दश प्राणों से युक्त होकर ( कृष्णः ) कर्त्ता जीव ( द्रप्सः ) देह से देहान्तर में जाने वाला होकर ( अंशुमतीम् ) सूक्ष्म प्राणों से युक्त लिंग देह को धारण करता हुआ वह ( इयानः ) देह से देहान्तर में जाता है। और ( शच्या धमन्तम् तम् इन्द्रः आवत् ) वाणी से प्रार्थना करने वाले जीव की परमेश्वर रक्षा करता है। उस की ( स्नेहिती: ) नाशकारिणी दुर्वासनाओं वा मोहमयी दुष्ट वृत्तियों को वह ( अप अधत्त ) दूर कर देता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
तिरश्चीर्द्युतानो वा मरुत ऋषिः। देवताः—१-१४, १६-२१ इन्द्रः। १४ मरुतः। १५ इन्द्राबृहस्पती॥ छन्द:—१, २, ५, १३, १४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६, ७, १०, ११, १६ विराट् त्रिष्टुप्। ८, ९, १२ त्रिष्टुप्। १, ५, १८, १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, १७ पंक्तिः। २० निचृत् पंक्तिः। २१ विराट् पंक्तिः॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
अंशुमतीं अवातिष्ठत् [द्रप्सः, कृष्णः]
पदार्थ
[१] (द्रप्स:) = [drop, a spark] प्रभु का अंश रूप [miniature ] यह जीव (दशभिः) = दस (सहस्त्रैः) = [सहस्= बल] बलवान् प्राणों के साथ (इयानः) = गति करता हुआ (कृषअम:) = सब दोषों को कृश करनेवाला होता है और (अंशुमतीम्) = प्रकाश की किरणोंवाली ज्ञान नदी के समीप (अवतिष्ठत्) = नम्रता से स्थित होता है। [२] (शच्या) = शक्ति व प्रज्ञान से (धमन्तम्) = [ To cast, throw away] शत्रुओं को परे फेंकते हुए (तम्) = उस कृष्णा को (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (आवत्) = रक्षित करते हैं। (नृमणाः) = [नृषु मनो यस्य] कर्मनेता मनुष्यों में प्रेमवाले वे प्रभु (स्नेहिती:) = सबका हिंसन करनेवाली वासनाओं को (अप अधत्त) = सुदूर स्थापित करनेवाले होते हैं, वासनाओं के प्रभु विनाशक हैं।
भावार्थ
भावार्थ-जीव जब अंशुमती [ज्ञान की किरणोंवाली] सरस्वती का उपासक बनता है, तो प्रभु उसका रक्षण करते हैं और उसकी वासनाओं को विनष्ट करते हैं।
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