ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 96/ मन्त्र 7
ऋषिः - तिरश्चीरद्युतानो वा मरुतः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
वृ॒त्रस्य॑ त्वा श्व॒सथा॒दीष॑माणा॒ विश्वे॑ दे॒वा अ॑जहु॒र्ये सखा॑यः । म॒रुद्भि॑रिन्द्र स॒ख्यं ते॑ अ॒स्त्वथे॒मा विश्वा॒: पृत॑ना जयासि ॥
स्वर सहित पद पाठवृ॒त्रस्य॑ । त्वा॒ । श्व॒सथा॑त् । ईष॑माणाः । विश्वे॑ । दे॒वाः । अ॒ज॒हुः॒ । ये । सखा॑यः । म॒रुत्ऽभिः॑ । इ॒न्द्र॒ । स॒ख्यम् । ते॒ । अ॒स्तु॒ । अथ॑ । इ॒माः । विश्वाः॑ । पृत॑नाः । ज॒या॒सि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वृत्रस्य त्वा श्वसथादीषमाणा विश्वे देवा अजहुर्ये सखायः । मरुद्भिरिन्द्र सख्यं ते अस्त्वथेमा विश्वा: पृतना जयासि ॥
स्वर रहित पद पाठवृत्रस्य । त्वा । श्वसथात् । ईषमाणाः । विश्वे । देवाः । अजहुः । ये । सखायः । मरुत्ऽभिः । इन्द्र । सख्यम् । ते । अस्तु । अथ । इमाः । विश्वाः । पृतनाः । जयासि ॥ ८.९६.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 96; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 33; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 33; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O soul of man, when at the frightful breath of evil forces of thought and the external world all your noble faculties who are your friends forsake you out of fear and insecurity, at that time, Indra, O soul, of innate power and self-confidence, hold on, be friends with the Maruts, vital pranic powers, and surely you would win in all the battles against evil.
मराठी (1)
भावार्थ
दिव्यगुण जीवात्म्याचे वास्तविक मित्र आहेत; परंतु मनात उद्भूत दुर्भावाच्या श्वासमात्रानेच जीवाला सोडून पळतात. जर माणसाने आपल्या प्राणशक्तींना आपला मित्र बनविले तर मनात दुर्भावना उत्पन्न होत नाहीत व तो दिव्यगुण धारण करण्यास समर्थ होतो. ॥७॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्य साधक मेरे आत्मा! (वृत्रस्य) [तेरी विजय यात्रा में] विघ्नभूत आवरक शक्ति के (श्वसथात्) असन्तोष सूचनामात्र से ही (ईषमाणाः) पलायन करते हुए (विश्वे देवाः) सभी दिव्यगुण, (ये सखायः) जो तेरे सखा हैं वे (त्वा अजहुः) तुझे छोड़ जाते हैं। इसलिये (मरुद्भिः) मरुतों--विभिन्न प्राण-अपान आदि शक्तियों से (ते सख्यम्) तेरी मैत्री (अस्तु) हो; (अथ) परिणामतः (इमाः विश्वाः पृतनाः) इन सभी [शत्रुभूत दुर्भावनाओं की] सेनाओं पर (जयासि) तू विजय पा लेगा॥७॥
भावार्थ
यों तो दिव्यगुण जीवात्मा के सखा हैं, परन्तु वे मन में उद्भूत दुर्भावों के श्वासमात्र से ही जीव का साथ छोड़ जाते हैं। यदि मानव अपनी प्राणशक्ति को अपना सखा बना ले तो उसके मन में दुर्भावनाएं उद्भव न होंगी और वह दिव्यगुण धारण करने में समर्थ होगा॥७॥
विषय
राजा के वैभव के कर्त्तव्यों के साथ साथ जगत्उत्पादक परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
जैसे (वृत्रस्य श्वसथात् ईषमाणाः विश्वे देवाः सखायः अजहुः) बढ़ते शत्रु के श्वासमात्र से भी भय खाते हुए सब मित्र मनुष्य भी राजा को छोड़ देते हैं उसी प्रकार हे प्रभो ! ( विश्वे देवाः ) समस्त जीवगण, ( सखायः ) तेरे मित्र समान आख्या वाले आत्मा होकर भी (वृत्रस्य ) आवरणकारी देह के ( श्वसथात् ईषमाणाः ) श्वास-प्रश्वास द्वारा गति करते हुए ( त्वा अजहुः ) तुझे भूल जाते हैं हे ( इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (ते मरुद्भिः सख्यम् अस्तु ) जीवगण से तेरा सदा सख्य, मित्रभाव रहे। ( अथ ) और तू ( इमा विश्वाः पृतनाः जयासि ) इन सब प्रजाओं को अपने वश कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
तिरश्चीर्द्युतानो वा मरुत ऋषिः। देवताः—१-१४, १६-२१ इन्द्रः। १४ मरुतः। १५ इन्द्राबृहस्पती॥ छन्द:—१, २, ५, १३, १४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६, ७, १०, ११, १६ विराट् त्रिष्टुप्। ८, ९, १२ त्रिष्टुप्। १, ५, १८, १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, १७ पंक्तिः। २० निचृत् पंक्तिः। २१ विराट् पंक्तिः॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
प्राणसाधना-वृत्रविनाश-देव मित्रता
पदार्थ
[१] शरीर में जब ज्ञान की आवरणभूत वासना का प्रवेश होता है तो (वृत्रस्य) = इस कामदेव के (श्वसथात्) = श्वास से (ईषमाणाः) = सब ओर भागते हुए (विश्वे देवा:) = सब दिव्य भाव, ये (सखायः) = जो अब तक तेरे मित्र थे वे (त्वा अजहुः) = तुझे छोड़ जाते हैं। वासना के साथ दिव्य गुणों का वास नहीं। [२] हे इन्द्रजितेन्द्रिय पुरुष (मरुद्भिः) = प्राणों के साथ (ते) = तेरा (सख्यम्) = मित्रभाव अस्तु हो । तू प्राणसाधना करनेवाला बन। (अथ) = अब (इमाः विश्वाः पृतना:) = इन शरीर - राष्ट्र में घुस आनेवाली वासनात्मक शत्रु सेनाओं को जयासि तू जीत लेता है। प्राणसाधना वासनाविलय का हेतु बनती है।
भावार्थ
भावार्थ- वासना ही दिव्य गुणों की शत्रु है। हम प्राणसाधना द्वारा वासना का विनाश करें और दिव्य गुणों की मित्रता को प्राप्त करें।
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