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यजुर्वेद अध्याय - 14

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  • यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 10
    ऋषिः - विश्वदेव ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - निचृदष्टिः स्वरः - मध्यमः
    3

    अ॒न॒ड्वान् वयः॑ प॒ङ्क्तिश्छन्दो॑ धे॒नुर्वयो॒ जग॑ती॒ छन्द॒स्त्र्यवि॒र्वय॑स्त्रि॒ष्टुप् छन्दो॑ दित्य॒वाड् वयो॑ वि॒राट् छन्दः॒ पञ्चा॑वि॒र्वयो॑ गाय॒त्री छन्द॑स्त्रिव॒त्सो वय॑ऽउ॒ष्णिक् छन्द॑स्तुर्य्य॒वाड् वयो॑ऽनु॒ष्टुप् छन्दः॑॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न॒ड्वान्। वयः॑। प॒ङ्क्तिः। छन्दः॑। धे॒नुः। वयः॑। जग॑ती। छन्दः॑। त्र्यवि॒रिति॑ त्रि॒ऽअविः॑। वयः॑। त्रि॒ष्टुप्। त्रि॒स्तुबिति॑ त्रि॒ऽस्तुप्। छन्दः॑। दि॒त्य॒वाडिति॑ दित्य॒ऽवाट्। वयः॑। वि॒राडिति॑ वि॒ऽराट्। छन्दः॑। पञ्चा॑वि॒रिति॒ पञ्च॑ऽअविः। वयः॑। गा॒य॒त्री। छन्दः॑। त्रि॒व॒त्स इति॑ त्रिऽव॒त्सः। वयः॑। उ॒ष्णिक्। छन्दः॑। तु॒र्य॒वाडिति॑ तुर्य॒ऽवाट्। वयः॑। अ॒नु॒ष्टुप्। अ॒नु॒स्तुबित्यनु॒ऽस्तुप्। छन्दः॑ ॥१० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनड्वान्वयः पङ्क्तिश्छन्दो धेनुर्वयो जगती छन्दस्त्र्यविर्वयस्त्रिष्टुप्छन्दो दित्यवाड्वयो विराट्छन्द पञ्चाविर्वयो गायत्री च्छन्दस्त्रिवत्सो वयऽउष्णिक्छन्दस्तुर्यवाड्वयोनुष्टुप्छन्दो लोकन्ताऽइन्द्रम्। गलितमन्त्रा---- लोकम्पृण च्छिद्रम्पृणाथो सीद धु्रवा त्वम् । इन्द्राग्नी त्वा बृहस्पतिरस्मिन्योनावसीषदन्॥ ताऽअस्य सूददोहसः सोमँ श्रीणन्ति पृश्नयः । जन्मन्देवानाँविशस्त्रिष्वा रोचने दिवः ॥ इन्द्रँविश्वाऽअवीवृधन्त्समुद्रव्यचसङ्गिरः । रथीतमँ रथीनाँवाजानाँ सत्पतिम्पतिम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अनड्वान्। वयः। पङ्क्तिः। छन्दः। धेनुः। वयः। जगती। छन्दः। त्र्यविरिति त्रिऽअविः। वयः। त्रिष्टुप्। त्रिस्तुबिति त्रिऽस्तुप्। छन्दः। दित्यवाडिति दित्यऽवाट्। वयः। विराडिति विऽराट्। छन्दः। पञ्चाविरिति पञ्चऽअविः। वयः। गायत्री। छन्दः। त्रिवत्स इति त्रिऽवत्सः। वयः। उष्णिक्। छन्दः। तुर्यवाडिति तुर्यऽवाट्। वयः। अनुष्टुप्। अनुस्तुबित्यनुऽस्तुप्। छन्दः॥१०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 14; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे स्त्रि पुरुष वा! अनड्वानिव त्वं पङ्क्तिश्छन्दो वय एरय, धेनुरिव त्वं जगती छन्दो वय एरय, त्र्यविरिव त्वं त्रिष्टुप् छन्दो वय एरय, दित्यवाडिव त्वं विराट् छन्दो वय एरय, पञ्चाविरिव त्वं गायत्री छन्दो वय एरय, त्रिवत्स इव त्वमुष्णिक् छन्दो वय एरय, तुर्य्यवाडिव त्वमनुष्टुप् छन्दो वय एरय॥१०॥

    पदार्थः

    (अनड्वान्) वृषभः (वयः) बलम् (पङ्क्तिः) (छन्दः) (धेनुः) दुग्धप्रदा (वयः) कामनाम् (जगती) जगदुपकारकम् (छन्दः) आह्लादनम् (त्र्यविः) त्रयोऽव्यादयो यस्मात्तम् (वयः) प्रजननम् (त्रिष्टुप्) त्रीणि कर्मोपासनाज्ञानानि स्तुवन्ति यया सा (छन्दः) (दित्यवाट्) दितिभिः खण्डनैर्निर्वृत्तान् यवादीन् वहति (वयः) प्रापणम् (विराट्) (छन्दः) आनन्दकरम् (पञ्चाविः) पञ्चेन्द्रियाण्यवन्ति येन सः (वयः) विज्ञानम् (गायत्री) (छन्दः) (त्रिवत्सः) त्रयः कर्मोपासनाज्ञानानि वत्सा इव यस्य सः (वयः) पराक्रमम् (उष्णिक्) यद् दुःखानि दहति तम् (छन्दः) (तुर्यवाट्) तुर्यान् चतुरो वेदान् वहति येन सः (वयः) (अनुष्टुप्) अनुस्तौति यया सा (छन्दः) सुखसाधकम्। अत्र पूर्ववत् मन्त्रत्रयप्रतीकानि लोकन्ता इन्द्रमिति लिखितानि निवारितानि। [अयं मन्त्रः शत॰८.२.४.९-१५ व्याख्यातः]॥१०॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषवाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। एरयपदानुवृत्तिश्च। यथाऽनडुहादीनां रक्षणेन कृषीवला अन्नादीन्युत्पाद्य सर्वान् सुखयन्ति, तथैव विद्वांसः स्त्रीपुरुषा विद्यां प्रचार्य्य सर्वानानन्दयन्ति॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे स्त्रि वा पुरुष! (अनड्वान्) गौ और बैल के समान बलवान् हो के तू (पङ्क्तिः) प्रकट (छन्दः) स्वतन्त्र (वयः) बल की प्रेरणा कर (धेनुः) दूध देने हारी गौ के समान तू (जगती) जगत् के उपकारक (छन्दः) आनन्द की (वयः) कामना को बढ़ा (त्र्यविः) तीन भेड़, बकरी और गौ के अध्यक्ष के तुल्य वृद्धियुक्त होके तू (त्रिष्टुप्) कर्म्म, उपासना और ज्ञान की स्तुति के हेतु (छन्दः) स्वतन्त्र (वयः) उत्पत्ति को बढ़ा (दित्यवाड्) पृथिवी खोदने से उत्पन्न हुए जौ आदि को प्राप्त कराने हारी क्रिया के तुल्य तू (विराट्) विविध प्रकाशयुक्त (छन्दः) आनन्दकारक (वयः) प्राप्ति को बढ़ा (पञ्चाविः) पञ्च इन्द्रियों की रक्षा के हेतु ओषधि के समान तू (गायत्री) गायत्री (छन्दः) मन्त्र के (वयः) विज्ञान को बढ़ा (त्रिवत्सः) कर्म, उपासना और ज्ञान को चाहने हारे के तुल्य तू (उष्णिक्) दुःखों के नाशक (छन्दः) स्वतन्त्र (वयः) पराक्रम को बढ़ा और (तुर्य्यवाट्) चारों वेदों की प्राप्ति कराने हारे पुरुष के समान तू (अनुष्टुप्) अनुकूल स्तुति का निमित्त (छन्दः) सुखसाधक (वयः) इच्छा को प्रतिदिन बढ़ाया कर॥१०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे खेती करने हारे लोग बैल आदि साधनों की रक्षा से अन्नादि पदार्थों को उत्पन्न करके सब को सुख देते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग विद्या का प्रचार करके सब प्राणियों को आनन्द देते हैं॥१०॥

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    विषय

    प्राणादि के पालन की प्रार्थना।

    भावार्थ

    १३. ( अनड्वान् वय: पंक्ति: छन्दः ) अनड्वान् वय है और पंक्ति छन्द है । अर्थात् शकट वहन करने में समर्थ बैल के समान बलवान् पुरुष अपने वीर्य को परिपक्क रक्खे और गृहस्थ के भार को उठाये । १४. ( धेनुर्वयः जगती छन्दः) 'धेनु' वय है 'जगती' छन्द है । अर्थात् जो जीव दुधार गौ के समान दूसरों का पालन व पोषण करने में समर्थ हैं वे जगत् को पालन करें । १५. (त्र्यविः वयः त्रिष्टुप् छन्दः ) 'त्र्यवि' वय है और त्रिष्टुप् छन्द । अर्थात् तीनों वेदों की रक्षा करने में समर्थ पुरुष कर्म उपासना और ज्ञान तीनों से स्तुति करे । १६- (दिव्यवाड् वयः विराट् छन्दः) 'दिव्यवाड्' वय है और 'विराट' छन्द है । आदित्य के समान तेज को धारण करने वाला पुरुष विविध ऐश्वयों और ज्ञानों से स्वयं प्रकाशित हो और अन्यों को प्रकाशित करें । १७. ( पञ्चाविर्वयो गायत्री छन्दः ) 'पञ्चावि' वय है, 'गायत्री' छन्द है । अर्थात् जो पुरुष पाचों प्राण पाचों इन्द्रियों पर वश करने में समर्थ हैं वह पुरुष अपने प्राणों की रक्षा करने में सफल हो । १८. ( त्रिवत्स: वयः उष्णिक् छन्दः ) 'त्रिवत्स' वय है और 'उष्णिक' छन्द है अर्थात् कर्म, उपासना और ज्ञान में, या वेदत्रयी में ही निवास करने वाला अथवा तृतीयाश्रमी पुरुष अपने समस्त पापों का दाह करने में सफल हो । १९. ( तुर्यवाट् वय: अनुष्टुप् छन्दः ) 'तुर्यवाट्' वय है और 'अनुष्टुप् ' छन्द है । अर्थात् तुर्य अर्थात् तुरीय चतुर्थ आश्रयवासी पुरुष का होकर पुरुष ( अनुष्टुप् ) निरन्तर परमेश्वर की स्तुति करे । ( लोकं० ता० इन्द्रम्० ) ये १२ वें अध्याय के ५४, ५५, ५६ इन तीन मन्त्रों की प्रतीक मात्र प्रायः रक्खी मिलती है। प्रकारान्तर से प्रजापति, मयन्द, अधिपति, परमेष्ठी, विवल, विशाल, तन्द्र, अनाधृष्ट, छदि, बृहती, ककुप्, सतोबृहती, पंक्ति, जगती, त्रिष्टुप् विराट्, गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप् ये १९ छन्द हैं ये भी प्रजापति के ही १९ स्वरूप हैं । और मूर्धा, क्षत्र, विष्टम्भ, विश्वकर्मा ये चार वर्णभेद से प्रजापति के नाम हैं । वस्त, वृष्णि सिंह और व्याघ्र ये चार पशु नाम हैं। पुरुष पांचवां । पष्टवाट्, उक्षा, ऋषभ, अनड्वान् ये ४ पुमान् गौ के स्वरूप हैं । धेनु ,गौ का रूप है। त्र्यवि, दिव्यवाट् पञ्चावि,नाम हैं । परन्तु श्लेष से त्रिवस तुर्यवाट् ये अवस्था भेद से बछड़े के नाम हैं ।परन्तु श्लेष से मनुष्यों की ये ( छन्द: ) प्रवृत्ति और प्रगति भेद से १९ प्रकार किये हैं जिनको १९ पदों या अवस्थाओं में १९ प्रकार के मानवगण करते हैं यह वेद में बतलाया। दूसरे प्रजापति आदि १९ छन्दों के मूर्धा आदि १९ नाम या स्वरूप भी समझने चाहियें। १९ प्रकार के 'वयस्' और १९ प्रकार के 'छन्द' दोनों ही प्रजापति के स्वरूप हैं । एक एक छन्द से क्रम से प्रजापति अर्थात् प्रजा के पालन करने वाला पुरुष एक २ 'वयस्' अर्थात् विशेष २ पद, अधिकार प्राप्त करता है । अर्थात् विशेष २ पद को प्राप्त कर पुरुष विशेष २ कर्म करें । शत० ८ । २ । ३ । १०-१४ ॥

    टिप्पणी

    ३ अनड्वान् ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    लिंगोक्ताः प्रजापत्यादयो देवता: । स्वराड् ब्राह्मी बृहती । मध्यमः ।

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    विषय

    लोकं ता इन्द्रम्

    पदार्थ

    १३. गत मन्त्र में १२ संख्या हो चुकी है, अतः १३ से यहाँ प्रारम्भ करते हैं कि (अनड्वान् वयः) = यदि जीवन को गृहस्थ की गाड़ी के वहन के योग्य बनाना है तो (पङ्क्तिः छन्द:) = पाँच ज्ञानेन्द्रियों, पाँच कर्मेन्द्रियों व पाँच प्राणों को वशीभूत करने की कामना करना । इस गृहस्थ में पाँच यज्ञों को विधिपूर्वक करने का संकल्प रखना। इन यज्ञों के अभाव में गृहस्थ-शकट उत्तमता से नहीं चलता। १४. (धेनुः वयः) = यदि तुम्हारा जीवन 'धेनु' का बना है - दुधारू गौ के समान तुम्हारे पास ऐश्वर्यरूप दुग्ध की कमी नहीं तो (जगती छन्द:) = लोकहित करने की कामना करना । १५. (त्र्यविः वयः) = ' धर्म, अर्थ व काम' तीनों का रक्षण [त्रि+ अव] करनेवाला जीवन बनाना है तो (त्रिष्टुप् छन्दः) = ' काम, क्रोध व लोभ' तीनों को रोकने की तुम्हारी कामना हो। इन तीन शत्रुओं को रोककर ही तुम तीनों पुरुषार्थों को सिद्ध कर सकते हो। कामात्मतारूप काम शत्रु है अन्यथा यह पुरुषार्थ है। 'अर्थलोभ ' शत्रु है, लोभ न होने पर 'अर्थ' पुरुषार्थ है। 'विचारशून्य क्रोध' शत्रु है- - परन्तु विचारसहित मन्यु 'धर्म' । मनुष्य 'त्रिष्टुप्' से ही त्र्यवि बनता है। 'काम, क्रोध व लोभ' को रोककर ही 'धर्मार्थकाम' की साधना होती है। १६. (दित्यवाट् वयः) = [दिते: कर्म दित्यम् = खण्डनम्] यदि तूने जीवन को दित्य-शत्रु-खण्डन का वहन करनेवाला बनाना है तो तू (विराट् छन्दः) = विशेषरूप से चमकनेवाला बनने की इच्छा कर। शत्रु-खण्डन करके ही तू चमक पाएगा, अन्यथा कामादि तेरी दीप्ति को समाप्त कर देंगे। १७. (पञ्चाविः वयः) = यदि पाँचों यमों व पाँचों नियमों की रक्षा करनेवाला तेरा जीवन है तभी तू (गायत्री छन्दः) = प्राण-रक्षण की इच्छा करना। [गया: प्राणा:, त्र = रक्षा] । यम-नियम के पालन के बिना प्राण-रक्षण सम्भव नहीं। उनके पालन के अभाव में प्राण-रक्षण की आवश्यकता भी नहीं। १८. (त्रिवत्सो वय:) = ' ज्ञान, कर्म व है। उपासना' तीनों की साधना के लिए (उष्णिक् छन्दः) = [उत् स्निह्यति] तूने उत्कृष्ट स्नेह करने की कामना करनी। तेरा स्नेह सदा उत्कर्षवाला हो, तुझमें हीनाकर्षण न हो। १९. (तुर्यवाट् वय:) = [तुर्यं वहति] चतुर्थ अवस्था, अर्थात् संन्यास का वहन करनेवाला तेरा जीवन बने तो (अनुष्टुप् छन्दः) = अनुक्षण तेरी कामना प्रभु के स्तवन की ही हो। प्रतिक्षण प्रभु स्तवन ही तुझे इस तुरीयावस्था में दृढ़ रक्खेगा और तू सच्चा संन्यासी बन पाएगा।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रस्तुतः मन्त्र के सात नियम अवश्य ध्यान में रखने चाहिएँ, जिससे हम उनके पालन में प्रवृत्त हो पाएँ ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेष व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. ज्या प्रमाणे शेतकरी, बैल इत्यादी साधनांचे रक्षण करून अन्न वगैरे पदार्थ उत्पन्न करून सर्वांना सुख देतात त्याप्रमाणे विद्वान लोक विद्येचा प्रसार करून सर्व प्राण्यांना आनंद देतात.

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    विषय

    पुढील मंत्रातही तोच विषय प्रतिपादित आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे स्त्री वा हे पुरुष, तू (अनड्वान्) गाय आणि बैलाप्रमाणे बलवान होऊन (पंक्ति) प्रकटपणे (इतरांनाही) छन्द:) त्यांची स्वत:ची (वय:) बलवृद्धी करण्यासाठी प्रेरणा कर (धेनु:) दुध देणार्‍या गायीप्रमाणे (जगती) जनावर उपकार करणार्‍या (छन्द:) आनंदाची (वय:) कामना कर (जगात आनंदभाव वाढेल, असे कर) (त्र्यवि:) मेंढी, शेळी आणि गाय या तीन पशूंचे पालन करणार्‍या मालकाप्रमाणे तूही वर्धमान हो (पशुपालन करून श्रीमान हो) (त्रिष्टुप्) कर्म, उपासना आणि ज्ञान या तीन्हीमध्ये नैपुण्यप्राप्त करण्यासाठी (छन्द:) स्वतंत्रपणे तू (वय:) आपली उन्नती साध्य कर (दिसवाड्) पृथ्वी खोदून (नांगरून) जे जव आदी धान्य उत्पन्न होते, ती (पेरणी, नागरणी आदी) क्रिया करून (विराट्) विविध लाभ देणारे आणि (छन्द:) आनंददायी (वय:) उत्पन्न वाढव (शेतीतून भरपूर धान्य उगव) (पंचावि:) पाच इंद्रियांच्या रक्षणासाठी (उपचारासाठी) जसे औषधी, उपकारक ठरते, त्याप्रमाणे (गायत्री) गायत्री (छन्द:) मंत्राच्या (वय:) विशेष ज्ञान तू प्राप्त कर (गायत्री मंत्राच्या अर्थांचे मनन-चिंतन करून आपले कल्याण करून घे) (त्रिवत्स:) कर्म, उपासना आणि ज्ञान यांच्या सिद्धीसाठी यत्न करणार्‍याप्रमाणे तू देखील (उष्णिक्) दु:खनाशक आणि (छन्द:) निर्भय असा पराक्रम वाढव आणि (तुर्य्यवाट) चार वेदांचे ज्ञाता मनुष्याप्रमाणे तू (अनुष्टुपू) अनुकूलता प्राप्त करण्यासाठी (छन्द:) सुखसाधक (वय:) इच्छा प्रतिदिनी वाढवीत रहा (चार वेदांमधील ज्ञानाचे महत्त्व ओळखण्यासाठी वेदाध्ययन कामना जागृत ठेव.) ॥10॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात श्लेष आणि वाचकलुप्तोपमा हे दोन अलंकार आहेत. (‘छन्द:‘ ‘वय:’ या शब्दात श्लेष आहे) ज्याप्रमाणे कृषकगण बैल आदी पशूंचे रक्षण-पालन करून अन्न-धान्य प्राप्त करतात आणि त्याद्वारे सर्वांना आनंदित करतात, तद्वत विद्वज्जनांनी ही विद्येचा प्रचार-प्रसार करून सर्वांना आनंदित करावे. ॥10॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Like the bull that conveys the cart, the physically developed person should ripen his semen and undertake duties of a house-holder. The souls that like the milch-cow nourish others, are fit to rear the world. The master of the three Vedas should praise God through action, contemplation and knowledge. The person brilliant like the sun, should through eminence and knowledge illumine himself and others. He who controls his five organs, can control his five breaths. He, who is engrossed in action, contemplation and knowledge, is fit to eradicate his sins. He who knows all the four Vedas, constantly prays to God.

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    Meaning

    Like the bull, be a man of strength, open, free and productive. Like the cow, be generous and create joy and fulfilment all-round. Like the trinity of life-support and the cow, sheep and goat, be generous, a man of knowledge, action and worship, and be blest with progeny. Like the carrier of harvested grain, be a man of plenty and joy unbounded. Like a master controller of the five senses, sing ecstatic songs of yajna and have the joy of scientific knowledge. Like a holy man of knowledge, action and worship, find the blessings of strength with freedom from suffering. Like a visionary of the four Vedas and master of the four states of consciousness, be blest with knowledge, worship and divine communion.

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    Translation

    The bullock is a category; pankti the metre. (1) The milch-cow is a category, jagati the metre. (2) The eighteen months old calf is a category; tristup the metre. (3) Two years old steer is a category; virat the metre. (4) Thirty months old cow is a category; gayatri the metre. (5) Three years old steer is a category; usnik the metre. (6) Four years old ox is a category; anustup the metre. (7) Repeat here the verses beginning with the words Lokam (XII. 54), (8) Ta (XII. 55), (9) and Indram (XII. 56). (10)

    Notes

    In this karidika the names of the metres are conspicu- ous, 5o we have interpreted these as proper nouns. It is for the readers to make some meaning out of it. Anadvan, बलीवर्द: bullock. Dhenuh, नवप्रसूता सवत्सा गौ:, newly delivered cow with a calf. Tryavih,षण्मासात्मको कालोऽवि: a period of six months is called तिस्रोऽवय: यस्य स: त्र्यवि: eighteen months old calf. Dityavat, दितिं धान्यं वहति, one that carries grain. Mahidhara presents another explanation,दितिं खण्डनमर्हति, fit for slaughter. यद्वा द्विवर्ष: पशु: two years old steer. Pancavih, two and a half years old, Trivatsah, त्रिवत्सर:, three years old, Turyavat, four years old animal. What is the importance of associating these animals with these metres is not clear, even with explanations of the Satapatha.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে স্ত্রী বা পুরুষ ! (অনড্বান) গাভি ও বৃষভের সমান বলবান হইয়া তুমি (পঙ্ক্তি) প্রকট (ছন্দঃ) স্বতন্ত্র (বয়ঃ) বলের প্রেরণা কর (ধেনুঃ) দুগ্ধ দায়িনী গাভির সমান তুমি (জগতী) জগতের উপকারক (ছন্দঃ) আনন্দের (বয়ঃ) কামনাকে বৃদ্ধি কর (ত্র্যবিঃ) তিন মেষ, ছাগও গাভির অধ্যক্ষের তুল্য বুদ্ধি যুক্ত হইয়া তুমি (ত্রিষ্টুপ্) কর্ম্ম, উপাসনা ও জ্ঞানের স্তুতি হেতু (ছন্দঃ) স্বতন্ত্র (বয়ঃ) উৎপত্তিকে বৃদ্ধি কর (দিত্যবাড্) পৃথিবী খোদাই থেকে উৎপন্ন যবাদিকে প্রাপ্তকারী ক্রিয়ার তুল্য তুমি (বিরাট্) বিবিধ প্রকাশযুক্ত (ছন্দঃ) আনন্দকারক (বয়ঃ) প্রাপ্তিকে বৃদ্ধি কর (পঞ্চাবিঃ) পঞ্চ ইন্দ্রিয়গুলির রক্ষা হেতু ওষধির সমান তুমি (গায়ত্রী) গায়ত্রী (ছন্দঃ) মন্ত্রের (বয়ঃ) বিজ্ঞানকে বৃদ্ধি কর (ত্রিবৎসঃ) কর্ম, উপাসনা ও জ্ঞান কামনাকারীর তুল্য তুমি (উষ্ণিক্) দুঃখনাশক (ছন্দঃ) স্বতন্ত্র (বয়ঃ) পরাক্রমকে বৃদ্ধি কর এবং (তুর্য়্যবাট্) চারি বেদের প্রাপ্তিকারী পুরুষের সমান তুমি (অনুষ্টুপ্) অনুকূল স্তুতির নিমিত্ত (ছন্দঃ) সুখসাধক (বয়ঃ) ইচ্ছাকে প্রতিদিন বৃদ্ধি কর ॥ ১০ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে শ্লেষ ও বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে যেমন কৃষকগণ বলদাদি সাধনের রক্ষা দ্বারা অন্নাদি পদার্থগুলি উৎপন্ন করিয়া সকলকে সুখ প্রদান করে সেইরূপ বিদ্বান্গণ বিদ্যার প্রচার করিয়া সমস্ত প্রাণিদিগকে আনন্দ প্রদান করে ॥ ১০ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒ন॒ড্বান্ বয়ঃ॑ প॒ঙ্ক্তিশ্ছন্দো॑ ধে॒নুর্বয়ো॒ জগ॑তী॒ ছন্দ॒স্ত্র্যবি॒র্বয়॑স্ত্রি॒ষ্টুপ্ ছন্দো॑ দিত্য॒বাড্ বয়ো॑ বি॒রাট্ ছন্দঃ॒ পঞ্চা॑বি॒র্বয়ো॑ গায়॒ত্রী ছন্দ॑স্ত্রিব॒ৎসো বয়॑ऽউ॒ষ্ণিক্ ছন্দ॑স্তুর্য়্য॒বাড্ বয়ো॑ऽনু॒ষ্টুপ্ ছন্দঃ॑ ॥ ১০ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অনড্বানিত্যস্য বিশ্বদেব ঋষিঃ । বিদ্বাংসো দেবতাঃ । নিচৃদষ্টিশ্ছন্দঃ ।
    মধ্যমঃ স্বরঃ ॥

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