यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 25
ऋषिः - विश्वदेव ऋषिः
देवता - वस्वादयो लिङ्गोक्ता देवताः
छन्दः - स्वराट् संकृतिः
स्वरः - ऋषभः
2
वसू॑नां भा॒गोऽसि रु॒द्राणा॒माधि॑पत्यं॒ चतु॑ष्पात् स्पृ॒तं च॑तुर्वि॒ꣳश स्तोम॑ऽ आ॒दि॒त्यानां॑ भा॒गोऽसि म॒रुता॒माधि॑पत्यं॒ गर्भा॑ स्पृ॒ताः पं॑चवि॒ꣳश स्तोमो॑ऽदि॑त्यै भा॒गोऽसि॒ पू॒ष्णऽ आधि॑पत्य॒मोज॑ स्पृ॒तं त्रि॑ण॒व स्तोमो॑ दे॒वस्य॑ सवि॒तुर्भा॒गोऽसि॒ बृह॒स्पते॒राधि॑पत्यꣳ स॒मीची॒र्दिश॑ स्पृ॒ताश्च॑तुष्टो॒म स्तोमः॑॥२५॥
स्वर सहित पद पाठवसू॑नाम्। भा॒गः। अ॒सि॒। रु॒द्राणा॑म्। आधि॑पत्य॒मित्याधि॑ऽपत्यम्। चतु॑ष्पात्। चतुः॑पा॒दिति॒ चतुः॑ऽपात्। स्पृ॒तम्। च॒तु॒र्वि॒ꣳश इति॑ चतुःऽवि॒ꣳशः। स्तोमः॑। आ॒दि॒त्याना॑म्। भा॒गः। अ॒सि॒। म॒रुता॑म्। आधि॑पत्य॒मित्याधि॑ऽपत्यम्। गर्भाः॑। स्पृ॒ताः। प॒ञ्च॒वि॒ꣳश इति॑ पञ्चऽवि॒ꣳशः। स्तोमः॑। अदि॑त्यै। भा॒गः। अ॒सि॒। पू॒ष्णः। आधि॑पत्य॒मित्याधि॑ऽपत्यम्। ओजः॑। स्पृ॒तम्। त्रि॒ण॒वः। त्रि॒न॒व इति॑ त्रिऽन॒वः। स्तोमः॑। दे॒वस्य॑। स॒वि॒तुः। भा॒गः। अ॒सि॒। बृह॒स्पतेः॑। आधि॑पत्य॒मित्याधि॑ऽपत्यम्। स॒मीचीः॑। दिशः॑। स्पृ॒ताः। च॒तु॒ष्टो॒मः। च॒तु॒स्तो॒म इति॑ चतुःऽस्तो॒मः। स्तोमः॑ ॥२५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वसूनाम्भागो सि रुद्राणामाधिपत्यञ्चतुष्पात्स्पृतञ्चतुर्विँश स्तोमऽआदित्यानाम्भागोसि मरुतामाधिपत्यङ्गर्भा स्पृताः पञ्चविँश स्तोमोदित्यै भागोसि पूष्णऽआधिपत्यमोज स्पृतन्त्रिणव स्तोमो देवस्य सवितुर्भागोसि बृहस्पतेराधिपत्यँ समीचीर्दिश स्पृताश्चतुष्टोम स्तोमो यवानाम्भागः ॥
स्वर रहित पद पाठ
वसूनाम्। भागः। असि। रुद्राणाम्। आधिपत्यमित्याधिऽपत्यम्। चतुष्पात्। चतुःपादिति चतुःऽपात्। स्पृतम्। चतुर्विꣳश इति चतुःऽविꣳशः। स्तोमः। आदित्यानाम्। भागः। असि। मरुताम्। आधिपत्यमित्याधिऽपत्यम्। गर्भाः। स्पृताः। पञ्चविꣳश इति पञ्चऽविꣳशः। स्तोमः। अदित्यै। भागः। असि। पूष्णः। आधिपत्यमित्याधिऽपत्यम्। ओजः। स्पृतम्। त्रिणवः। त्रिनव इति त्रिऽनवः। स्तोमः। देवस्य। सवितुः। भागः। असि। बृहस्पतेः। आधिपत्यमित्याधिऽपत्यम्। समीचीः। दिशः। स्पृताः। चतुष्टोमः। चतुस्तोम इति चतुःऽस्तोमः। स्तोमः॥२५॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे विद्वन्! यस्त्वं वसूनां भागोऽसि, स त्वं रुद्राणामाधिपत्यं गच्छ। यश्चतुर्विंशस्तोम आदित्यानां भागोऽसि, स त्वं चतुष्पात्स्पृतं कुरु, मरुतामाधिपत्यं गच्छ। यस्त्वं पञ्चविंशस्तोमोऽदित्यै भागोऽसि, स त्वं पूष्ण ओजः स्पृतमाधिपत्यं प्राप्नुहि। यस्त्वं त्रिणवः स्तोमो देवस्य सवितुर्भागोऽसि, स त्वं बृहस्पतेराधिपत्यं याहि। यस्त्वं चतुष्टोमोऽसि, स त्वं गर्भाः स्पृता या जानन्ति ताः समीचीः स्पृता दिशो विजानीहि॥२५॥
पदार्थः
(वसूनाम्) अग्न्यादीनामादिमानां विदुषां वा (भागः) (असि) (रुद्राणाम्) प्राणादीनां मध्यमानां विदुषां वा (आधिपत्यम्) (चतुष्पात्) गवादिकम् (स्पृतम्) सेवितम् (चतुर्विंशः) चतुर्विंशतिधा (स्तोमः) स्तोता (आदित्यानाम्) मासानामुत्तमानां विदुषां वा (भागः) (असि) (मरुताम्) मनुष्याणां पशूनां वा। मरुत इति पदनामसु पठितम्। (निघं॰५।५) (आधिपत्यम्) (गर्भाः) गर्भ इव विद्याशुभगुणौरावृताः (स्पृताः) प्रीतिमन्तः (पञ्चविंशः) पञ्चविंशतिप्रकारः (स्तोमः) स्तोतव्यः (अदित्यै) प्रकाशस्य (भागः) (असि) (पूष्णः) पुष्टिकर्त्र्या भूमेः। पूषेति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं॰१।१) (आधिपत्यम्) (ओजः) बलम् (स्पृतम्) सेवितम् (त्रिणवः) सप्तविंशतिधा (स्तोमः) स्तोतव्यः (देवस्य) सुखप्रदस्य (सवितुः) जनकस्य (भागः) (असि) (बृहस्पतेः) बृहत्या वेदवाचः पालकस्य (आधिपत्यम्) (समीचीः) याः सम्यगच्यन्ते (दिशः) (स्पृताः) (चतुष्टोमः) चतुर्भिर्वेदैः स्तूयते चतुःस्तोम (स्तोमः) स्तोता। [अयं मन्त्रः शत॰८.४.२.७-१० व्याख्यातः]॥२५॥
भावार्थः
ये सुशीलत्वादिगुणन् गृह्णन्ति ते विद्वत्प्रियाः सन्तः सर्वाधिष्ठातृत्वं प्राप्नुवन्ति। येऽधिपतयो भवेयुस्ते नृषु पितृवद्वर्त्तन्ताम्॥२५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर भी पूर्वोक्त विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे विद्वान्! जो तू (वसूनाम्) अग्नि आदि आठ वा प्रथम कक्षा के विद्वानों का (भागः) सेवने योग्य (असि) है, सो (रुद्राणाम्) दश प्राण आदि ग्यारहवां जीव वा मध्यकक्षा के विद्वानों के (आधिपत्यम्) अधिकार को प्राप्त हो, जो (चतुर्विंशः) चौबीस प्रकार का (स्तोमः) स्तुतिकर्त्ता (आदित्यानाम्) बारह महीनों वा उत्तम कक्षा के विद्वानों के (भागः) सेवने योग्य (असि) है, सो तू (चतुष्पात्) गौ आदि पशुओं का (स्पृतम्) सेवन कर (मरुताम्) मनुष्य वा पशुओं के (आधिपत्यम्) अधिष्ठाता हो, जो तू (पञ्चविंशः) पच्चीस प्रकार का (स्तोमः) स्तुति के योग्य (अदित्यै) अखण्डित आकाश का (भागः) विभाग के तुल्य (असि) है, सो तू (पूष्णः) पुष्टिकारक पृथिवी से (स्पृतम्) सेवने योग्य (ओजः) बल को प्राप्त हो के (आधिपत्यम्) अधिकार को (प्राप्नुहि) प्राप्त हो, जो तू (त्रिणवः) सत्ताईस प्रकार का (स्तोमः) स्तुति के योग्य (देवस्य) सुखदाता (सवितुः) पिता का (भागः) विभाग (असि) है, सो तू (बृहस्पतेः) बड़ी वेदरूपी वाणी के पालक ईश्वर के दिये हुए (आधिपत्यम्) अधिकार को प्राप्त हो, जो तू (चतुष्टोमः) चार वेदों से कहने योग्य स्तुतिकर्त्ता है, सो तू (गर्भाः) गर्भ के तुल्य विद्या और शुभ गुणों से आच्छादित (स्पृताः) प्रीतिमान् सज्जन लोग जिन को जानते हैं, उन (समीचीः) सम्यक् प्राप्ति के साधन (स्पृताः) प्रीति का विषय (दिशः) पूर्व दिशाओं को जान॥२५॥
भावार्थ
जो सुन्दर स्वभाव आदि गुणों का ग्रहण करते हैं, वे विद्वानों के प्यारे होके सब के अधिष्ठाता होते हैं और जो सब के ऊपर अधिकारी हों, वे मनुष्यों में पिता के समान वर्त्तें॥२५॥
विषय
राष्ट्र की नाना समृद्धियों के स्वरूप ।
भावार्थ
५. ( वसूनां भागः असि ) हे पशु सम्पत्ते ! तू राष्ट्र में बसने वालों का सेवन करने योग्य पदार्थ है । तुझ पर ( रुद्राणाम् आधिपत्यम् ) तेरे रोधन करने वाले रूद्र, गोपाल लोगों का स्वामित्व है । इस प्रकार ( चतुप्पात् स्पृतम्) चौपायों की रक्षा हो । ( चतुर्विंश: स्तोमः ) इसमें २४ अधिकारीगण नियुक्त हो । ६. ( आदित्यानां भागः असि ) हे गर्भगत जीवो ! तुम आदित्यों या तेजस्वी पुरुषों के भाग हो। तुम पर ( मरुताम् आधिपत्यम् ) शरीरवर्त्ती प्राणों का स्वामित्व है। इस प्रकार प्रजाओं के गर्भ सुरक्षित होते हैं । ( पचविंशः स्तोमः ) उसमें २५ अधिकारीगण हैं । ७. हे ओज ! ( आदित्यै भागः असि ) तू अखण्ड राजशक्ति का भाग है । तुझ पर ( पूणः अधिपत्यम् ) राष्ट्र को पुष्ट करने वाले पुरुष का स्वामित्व है। इस पर राष्ट्र का ( ओजःस्पृतम् ) ओज, तेज सुरक्षित हो । ( त्रिनवः स्तोमः ) इसमें २७ अधिकारी गण हैं । ८. ( देवस्य सवितुः भागः असि ) हे समस्त दिशाओं के सर्व प्रेरक, देव ! तू राजा का भाग हो। तुम पर (बृहस्पतेराधिपत्यम् ) तुझ पर महान् राष्ट्र के पालक का स्वामित्व है। इस प्रकार ( समीची: दिशः )) समान रूप से फैली दिशाएं (स्पृता: ) सुरक्षित होती हैं । ( चतुस्तोमः स्तोमः ) इसमें ४ मुख्य अधिकारी होते हैं ॥ २५ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
स्वराट् संकृतिः । गान्धारः ।
विषय
चतुष्पात्+गर्भ+ओजस् + समीचीर्दिश
पदार्थ
१. तू (वसूनाम्) = वसुओं की (भागः) = उपासना करनेवाला है, निवास के लिए आवश्यक सब देवों का सेवन करनेवाला है और तुझे (रुद्राणाम्) = रुद्रों का (आधिपत्यम्) = स्वामित्व प्राप्त होता है। दस प्राण और आत्मा का स्वास्थ्य तुझे प्राप्त होता है। इस स्वास्थ्य को प्राप्त करके (चतुष्पात् स्पृतम्) = तूने 'स्वाध्याय+ यज्ञ + तप + दान' रूप चतुष्पात् धर्म से प्रेम किया है, इसका रक्षण किया है। इस धर्म को जीने का प्रयत्न किया है और (चतुर्विंशः) = चौबीस - के चौबीस गुणों की प्राप्ति ही (स्तोमः) = तेरा प्रभु-स्तवन हो गया है। २. (आदित्यानाम्) = तू आदित्यों का भागः=उपासक हुआ है। आदित्यों की आदानवृत्ति को धारण करके तूने दिव्य गुणों का आदान किया है और इससे (मरुतामाधिपत्यम्) = तुझे मरुतों का आधिपत्य प्राप्त हुआ है। [मरुतः-ऋत्विजः० २।१८ - नि० ] ऋत्विजों का तू अधिपति बना है ऋतु ऋतु में, अर्थात् सदा यज्ञशीलों का तू अधिपति हुआ है। उन मरुतों का जोकि [मितराविणः, महद् द्रवन्तीति-वा-नि० ११।१३] बड़ा परिमित बोलते हैं और खूब गतिशील होते हैं अथवा वासनाओं पर खूब आक्रमण करनेवाले होते हैं। इसी से तूने (गर्भाः स्मृताः) = [ इन्द्रियं वै गर्भ:- तै० १।८।३।३] अपनी इन्द्रियों की रक्षा की है, इन्द्रिय-शक्तियों को नष्ट नहीं होने दिया है। (पञ्चविंशः स्तोमः) = इन्द्रियों को अनर्थों से बचाकर चौबीस गुणों के सम्पादन करनेवाला पच्चीसवाँ तू पुरुष हुआ है, पच्चीसवाँ बनना ही तेरा प्रभु-स्तवन है । ३. (आदित्यै भागः असि) = अदीना देवमाता का अथवा अखण्डन [दो अवखण्डने ] की देवता का पूर्ण स्वास्थ्य का तू सेवन करनेवाला हुआ है। (पूष्णः आधिपत्यम्) = तूने पूषा का आधिपत्य प्राप्त किया है, अर्थात् सर्वोत्तम पोषण करनेवाला बना है। इस पोषण के द्वारा (ओजः स्पृतम्) = तूने ओजस्विता से प्रेम किया है, ओजस्विता का रक्षण किया है। वस्तुतः ओजस्वी जीवन जीने का ही ध्यान किया है। (त्रिणवः स्तोमः) = ओजस्विता से तीन गुणा नौ, अर्थात् चौबीस गुणों तथा मन, बुद्धि व आत्मतत्त्व का सम्पादन ही तेरा स्तवन बन गया है। इन २७ को प्राप्त करना ही तेरी स्तुति है । ४. (सवितुः देवस्य भागः असि) उस उत्पादक देव का तू उपासक बना है। इसकी उपासना से तुझे (बृहस्पतेः आधिपत्यम्) = ब्रह्मणस्पति का आधिपत्य प्राप्त हुआ है। तू ऊँचे-से-ऊँचा ज्ञानी बना है। इस उत्कृष्ट ज्ञान को प्राप्त करके (समीचीः दिशः स्पृताः) = [सम्+अञ्च] उत्तम गतिवाली दिशाओं से तूने प्रेम किया है, उनसे प्राप्त होनेवाले 'आगे बढ़ना', दाक्षिण्य प्राप्त करना, प्रत्याहार व उन्नति और ध्रुव तथा उच्चस्थिति के उपदेशों को तूने अपने जीवन में घटाया है और इस प्रकार इन वेदोक्त उपदेशों का रक्षण किया है। (चतुः स्तोमः) = वेदों का समूह जिनमें सब उपदेश दिये गये हैं वे वेद ही तेरे (स्तोमः) स्तवन हुए हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम उत्तम निवासवाले बनकर चतुष्पात् धर्म [ स्वाध्याय, यज्ञ, तप व दान] की रक्षा करें। गुणों का आदान करनेवाले बनकर हम अपनी सब इन्द्रियों की अनर्थों से रक्षा करें। अदिति [पूर्ण स्वास्थ्य] के उपासक बनकर हम ओजस्वी बनें और उत्पादक देव की उपासना करते हुए दिशाओं से दिये गये उपदेशों को जीवन में अनूदित करें।
मराठी (2)
भावार्थ
ज्यांचा स्वभाव उत्तम असतो ते विद्वानांना प्रिय असतात. ते सर्वांचे अधिष्ठाते असतात. जे वरिष्ठ अधिकारी असतात अशा लोकांनी सर्व माणसांशी पित्याप्रमाणे व्यवहार करावा.
विषय
पुढील मंत्रातही तोच विषय वर्णित आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (आचार्य स. उपदेशक समाजातील पात्र विद्वज्जनांना म्हणत आहेत) (1) हे विद्वान मनुष्या, तू (वसूनाम्) अग्नी आदी जे आठ वसू आहेत अथवा जे प्रथम कोटीचे विद्वान आहेत, त्या विद्वानांचा (भाग:) सेवनीय आहेस (त्या श्रेष्ठ विद्वानांकडून विद्या घेण्यास पात्र आहेस), म्हणून (रुद्राणाम्) दश प्राण आणि अकरावा जीव यांच्या, अथवा मध्यम कोटीच्या विद्वानांकडून (विद्या घेण्याचे) (अधिपत्यम्) अधिकार तुला प्राप्त व्हावेत (अशी माझी शुभेच्छा आहे) तू (चतुर्विंश:) चोवीस प्रकारच्या (स्तोम:) स्तुतिकर्ता (प्रशंसनीय कर्म करणारा) आणि (आदित्यानाम्) बारा महिन्यापर्यंत (वर्षभरासाठी) अथवा उत्तम कोटीच्या विद्वानांकडून (भाग:) सेवनीय अथवा शिक्षण घेण्यास योग्य (असि) आहेस, म्हणून तू (चतुष्यात्) गौ आदी चतुष्याद पशूंचे (स्पृतम्) पालन कर (दुग्ध, धृतादीचे सेवन कर) आणि (मकताम्) मनुष्यांचा (सेवकगणाचा) आणि पशूंचा (अधिकत्यम्) (अधिष्ठाता) (प्रबन्धक वा स्वामी) हो. तू (पञ्चविंश:) पंचवीस प्रकारचा (स्तोम:) प्रशंसनीय अस्त (आदित्यै) अखंडित आकाशाच्या (भाग:) विभागाप्रमाणे (असि) आहेस, म्हणून तू (पूष्ण) पुष्टिकारक पृथ्वीच्या (स्पृतम्) सेवनीय (ओज:) शक्ती प्राप्त करून (अधिकएकम्) त्याचे अधिर (प्राप्नुहि) प्राप्त कर (आकाशाचे पंचवीस भागांचे ज्ञान प्राप्त करून पृथ्वीवर राज्य करण्याचे सामर्थ्य प्राप्त कर) तू (त्रिवण:) सत्तावीस प्रकारचा (स्तोम:) प्रशंसनीय असा (देवस्य) सुखदायक (सवितू) पित्याचा (भाग:) विभाग (असि) आहेस, तुम्ही तू (बृहस्पते:) महान वेदवाणीचा प्रदातात परमेश्वराने दिलेले (आधिपत्यम्) अधिकार प्राप्त कर (वेदविद्) वेद ज्ञानी आपल्या पित्याप्रमाणे तू ही वेदविद्या शिक.) तू (चतुष्टोम:) चारही वेदांचा विद्वान विश्लेषक व स्तुतिकर्ता आहेस, म्हणून तू (गर्भा:) गर्भामधे जसे शिशू, त्याप्रमाणे विद्या आणि शुभगुणांनी युक्त अशा (स्पृपा:) प्रेमी सज्जनगण ज्यांना (दिशांना) जाणतात, त्या (समीची:) सम्यक प्रेम प्राप्त करण्याचे साधन आणि (स्पृता:) प्रीतीचे विषय असलेल्या (दिश:) पूर्व दिशांना जाण. (पूर्व आदी दिशांमधे अनेक गुण आहेत, जिज्ञासू विद्वान त्या दिशांविषयी अत्यंत प्रेमाने व तल्लीनतेने शोध करतात, तूही त्यांच्याप्रमाणे दिशां विषयी, अनेक पदार्थांविषयी अधिकाधिक ज्ञान मिळव.) ॥25॥
भावार्थ
भावार्थ - जे लोक सुंदर स्वभाव आदी गुणांचे ग्रहण करतात (जेथून देखील विद्या, ज्ञान, गुण शिकता येत असेल, ते शिकण्यास उत्सुक असतात) तेच लोक विद्वानांचे प्रिय होतात आणि सर्वांचे अधिष्ठता आणि स्वामी होतात. अशी जी माणसें सर्वांधिकार प्राप्त करून सर्वोच्च होतात, त्याचे कर्तव्य आहे की त्यांनी सर्व मनुष्यांशी पित्याप्रमाणे वागावे ॥25॥
टिप्पणी
(या मंत्रात 24, 25, 27, या संख्या व संबधित पदार्थ विद्वज्जनांनी इतरत्र वर्णित केले आहेत)
इंग्लिश (3)
Meaning
O learned parson, thou art served by the Vasu Brahmcharis, Control thou the ten Pranas and the soul. Twenty-four-fold praiser, thou art honoured by the Aditya-Brahmcharis ; rear the cattle like cows ; and be the master of men. Deserving praise in twenty-five ways, thou art like a part of light. Acquiring the serviceable power of the earth, attain to sovereignty. Deserving praise in twenty seven ways, thou art the creation of pleasant God, acquire the strength granted thee by God, the protector of the Vedas. Thou, the worshipper with vedic verses, filled with knowledge and noble qualities, shouldst know all the directions, fit for affection, deserving to be fully mastered, and knowable by good people.
Meaning
You are a part of the Vasus, eight sustaining abodes of life, under care and control of the Rudras, protectors of life. With the observance of Chaturvinsha (twenty four part) stoma you love and protect the animal wealth of the world. You are a part of the Adityas, the suns and stars of the universe, under care and favour of the Maruts, powers of wind and sky. With the observance of Panchavinsha (twenty five part) stoma, you protect and promote the maternal power of women. You are a part of Aditi, earth and sky, under control and favour of the powers of health and nutrition in nature. With the observance of Trinava (twenty seven part) stoma you protect and advance the lustre and glory of the people. You are a part of Savita, Lord creator and sustainer of life, under care and control of Brihaspati, lord and master of the wide world. With the observance of Chatushtoma yajna you protect, develop and safeguard all the directions of space.
Translation
You are the share of Vasus (the bounties); overlordship is of Rudras (terrible punishers); quadrupeds are preserved; the praise-song is Caturvimsa (twenty-four). (1) You are the share of Adityas (suns); overlordship is of Maruts (cloud-bearing winds); embryos are preserved; the praise-song is Pancavimsa (twenty-five). (2) You are the share of Aditi (the eternity); overlordship is of Pusan (the nourisher); the vigour is preserved; the praise-song is Trinava (3 x 9 = 27). (3) You are the share of the divine Savitr (the inspirer lord); overlordship is of Brahaspati (Jupiter); the benign quarters are preserved; the praise-song is Catustoma. (4)
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ পূর্বোক্ত বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে বিদ্বন্ ! তুমি যে (বসূনাম্) অগ্নি আদি আট বা প্রথম শ্রেণির বিদ্বান্দিগের (ভাগঃ) সেবন যোগ্য (অসি) হও, সুতরাং (রুদ্রাণাম্) দশ প্রাণাদি একাদশ জীব বা মধ্যশ্রেণির বিদ্বান্দিগের (আধিপত্যম্) অধিকার প্রাপ্ত হও যাহা (চতুর্বিশঃ) চব্বিশ প্রকারের (স্তোমঃ) স্তুতিকর্ত্তা (আদিত্যানাম্) দ্বাদশ মাসগুলি বা উত্তম শ্রেণির বিদ্বান্দিগের (ভাগঃ) সেবন করিবার যোগ্য (অসি) হয়, সুতরাং তুমি (চতুষ্পাৎ) গাভি আদি পশু সমূহের (স্পৃতম্) সেবন কর (মরুতাম্) মনুষ্য বা পশুদিগের (আধিপত্যম্) অধিষ্ঠাতা হও, তুমি (পঞ্চবিংশ) পঁচিশ প্রকারের (স্তোমঃ) স্তুতিযোগ্য (অদিত্যৈ) অখন্ডিত আকাশের (ভাগঃ) বিভাগের তুল্য (অসি) হও সুতরাং তুমি (পূষ্ণঃ) পুষ্টিকারক পৃথিবীর (স্পৃতম্) সেবনীয় (ওজঃ) বলকে প্রাপ্ত হইয়া (আধিপত্যম্) অধিকারকে (প্রাপ্নুহি) প্রাপ্ত হও, এবং তুমি (ত্রিণবঃ) সাতাইশ প্রকারের (স্তোমঃ) স্তুতিযোগ্য (দেবস্য) সুখদাতা (সবিতুঃ) পিতার (ভাগঃ) বিভাগ (অসি) হও, সুতরাং তুমি (বৃহস্পতেঃ) বৃহৎ বেদরূপী বাণীর পালক ঈশ্বর প্রদত্ত (আধিপত্যম্) অধিকারকে প্রাপ্ত হও, তুমি (চতুষ্টোমঃ) চতুর্বেদের দ্বারা বলিবার যোগ্য স্তুতিকর্ত্তা, সুতরাং তুমি (গর্ভাঃ) গর্ভতুল্য বিদ্যা ও শুভ গুণগুলির দ্বারা আচ্ছাদিত (স্পৃতাঃ) প্রীতিমান্ সজ্জনগণ যাহাদেরকে জানে তাহাদের (সমীচীঃ) সম্যক্ প্রাপ্তির সাধন (স্পৃতাঃ) প্রীতির বিষয় (দিশঃ) পূর্ব দিক্গুলিকে জান ॥ ২৫ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যাহারা সুন্দর স্বভাবাদি গুণগুলি গ্রহণ করেন তাঁহারা বিদ্বান্দিগের প্রিয় হইয়া সকলের অধিষ্ঠাতা হন এবং যাহারা সকলের উপর অধিকারী তাঁহারা মনুষ্যদিগের মধ্যে পিতৃ সমান আচরণ করিবেন ॥ ২৫ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
বসূ॑নাং ভা॒গো᳖ऽসি রু॒দ্রাণা॒মাধি॑পত্যং॒ চতু॑ষ্পাৎ স্পৃ॒তং চ॑তুর্বি॒ꣳশ স্তোম॑ऽ আ॒দি॒ত্যানাং॑ ভা॒গো᳖ऽসি ম॒রুতা॒মাধি॑পত্যং॒ গর্ভা॑ স্পৃ॒তাঃ প॑ঞ্চবি॒ꣳশ স্তোমোऽদি॑ত্যৈ ভা॒গো᳖ऽসি॒ পূ॒ষ্ণऽ আধি॑পত্য॒মোজ॑ স্পৃ॒তং ত্রি॑ণ॒ব স্তোমো॑ দে॒বস্য॑ সবি॒তুর্ভা॒গো᳖ऽসি॒ বৃহ॒স্পতে॒রাধি॑পত্যꣳ স॒মীচী॒র্দিশ॑ স্পৃ॒তাশ্চ॑তুষ্টো॒ম স্তোমঃ॑ ॥ ২৫ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
বসূনাং ভাগ ইত্যস্য বিশ্বদেব ঋষিঃ । বস্বাদয়ো লিঙ্গোক্তা দেবতাঃ ।
নিচৃদভিকৃতিশ্ছন্দঃ । ঋষভঃ স্বরঃ ॥
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