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यजुर्वेद अध्याय - 14

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  • यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 29
    ऋषिः - विश्वदेव ऋषिः देवता - ईश्वरो देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप्, ब्रह्मी जगती स्वरः - धैवतः, निषादः
    5

    न॒वभि॑रस्तुवत पि॒तरो॑ऽसृज्य॒न्तादि॑ति॒रधि॑पत्न्यासीत्। एकाद॒शभि॑रस्तुवतऽ ऋ॒तवो॑ऽसृज्यन्तार्त्त॒वाऽ अधि॑पतयऽआसन्। त्रयोद॒शभि॑रस्तुवत॒ मासा॑ऽ असृज्यन्त संवत्स॒रोऽधि॑पतिरासीत्। पञ्चद॒शभि॑रस्तुवत क्ष॒त्रम॑सृज्य॒तेन्द्रोऽधि॑पतिरासीत्। सप्तद॒शभि॑रस्तुवत ग्रा॒म्याः प॒शवो॑ऽसृज्यन्त॒ बृह॒स्पति॒रधि॑पतिरासीत्॥२९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न॒वभि॒रिति॑ न॒वऽभिः॑। अ॒स्तु॒व॒त॒। पि॒तरः॑। अ॒सृ॒ज्य॒न्त॒। अदि॑तिः। अधि॑प॒त्नीत्यधि॑ऽपत्नी। आ॒सी॒त्। ए॒का॒द॒शभि॒रित्ये॑काऽद॒शभिः॑। अ॒स्तु॒व॒त॒। ऋ॒तवः॑। अ॒सृ॒ज्य॒न्त॒। आ॒र्त्त॒वाः। अधि॑पतय॒ इत्यधि॑ऽपतयः। आ॒स॒न्। त्र॒यो॒द॒शभि॒रिति॑ त्रयोद॒शऽभिः॑। अ॒स्तु॒व॒त॒। मासाः॑। अ॒सृ॒ज्य॒न्त॒। सं॒व॒त्स॒रः। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। आ॒सी॒त्। प॒ञ्च॒द॒शभि॒रिति॑ पञ्चऽद॒शभिः॑। अ॒स्तु॒व॒त॒। क्ष॒त्रम्। अ॒सृ॒ज्य॒त॒। इन्द्रः॑। अधि॑पति॒रित्यधि॑पतिः। आ॒सी॒त्। स॒प्त॒द॒शभि॒रिति॑ सप्तऽद॒शभिः॑। अ॒स्तु॒व॒त॒। ग्रा॒म्याः। प॒शवः॑। अ॒सृ॒ज्य॒न्त॒। बृह॒स्पतिः॑। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। आ॒सी॒त् ॥२९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नवभिरस्तुवत पितरोसृज्यन्तादितिरध्निपत्न्यासीदेकादशभिरस्तुवतऽऋतवोसृज्यन्तार्तवाऽअधिपतयऽआसँस्त्रयोदशभिरस्तुवत मासाऽअसृज्यन्त सँवत्सरोधिपतिरासीत्पञ्चदशभिरस्तुवत क्षत्रमसृज्यतेन्द्रोधिपतिरासीत्सप्तदशभिरस्तुवत ग्राम्याः पशवोसृज्यन्त बृहस्पतिरधिपतिरासीन्नवदशभिरस्तुवत ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    नवभिरिति नवऽभिः। अस्तुवत। पितरः। असृज्यन्त। अदितिः। अधिपत्नीत्यधिऽपत्नी। आसीत्। एकादशभिरित्येकाऽदशभिः। अस्तुवत। ऋतवः। असृज्यन्त। आर्त्तवाः। अधिपतय इत्यधिऽपतयः। आसन्। त्रयोदशभिरिति त्रयोदशऽभिः। अस्तुवत। मासाः। असृज्यन्त। संवत्सरः। अधिपतिरित्यधिऽपतिः। आसीत्। पञ्चदशभिरिति पञ्चऽदशभिः। अस्तुवत। क्षत्रम्। असृज्यत। इन्द्रः। अधिपतिरित्यधिपतिः। आसीत्। सप्तदशभिरिति सप्तऽदशभिः। अस्तुवत। ग्राम्याः। पशवः। असृज्यन्त। बृहस्पतिः। अधिपतिरित्यधिऽपतिः। आसीत्॥२९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 14; मन्त्र » 29
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स जगत्स्रष्टा किंभूत इत्याह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! यूयं येन पितरोऽसृज्यन्त यत्राधिपत्न्यदितिरासीत् तं यूयं नवभिरस्तुवत। येनर्त्तवोऽसृज्यन्त, यत्रार्त्तवा अधिपतय आसंस्तमेकादशभिरस्तुवत। येन मासा असृज्यन्त, पञ्चदशभिः संवत्सरोऽधिपतिः सृष्ट आसीत् त्रयोदशभिरस्तुवत। यत्रेन्द्रोऽधिपतिरासीद्येन क्षत्रमसृज्यत, तं सप्तदशभिरस्तुवत। येन बृहस्पतिरधिपतिः सृष्ट आसीद्, ग्राम्याः पशवोऽसृज्यन्त तं परमेश्वरं सप्तदशभिरस्तुवत॥२९॥

    पदार्थः

    (नवभिः) प्राणविशेषैः (अस्तुवत) प्रशंसन्तु (पितरः) पालका वर्षादयः (असृज्यन्त) उत्पादिताः (अदितिः) मातेव पालिका भूमिः (अधिपत्नी) अधिपतिसहिता (आसीत्) अस्ति (एकादशभिः) दश प्राणा एकादश आत्मा तैः (अस्तुवत) स्तुवन्तु (ऋतवः) वसन्तादयः (असृज्यन्त) सृष्टाः (आर्त्तवाः) ऋतुषु भवा गुणाः (अधिपतयः) (आसन्) भवन्ति (त्रयोदशभिः) दश प्राणा द्वे प्रतिष्ठे त्रयोदश आत्मा तैः (अस्तुवत) स्तुवन्तु (मासाः) चैत्राद्याः (असृज्यन्त) सृष्टाः (संवत्सरः) (अधिपतिः) अधिष्ठाता (आसीत्) अस्ति (पञ्चदशभिः) प्रतिपदादितिथिभिः (अस्तुवत) स्तुवन्तु संख्यायन्तु (क्षत्रम्) राज्यं क्षत्रियकुलं वा (असृज्यत) सृष्टम् (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यहेतुः सूर्य्यः (अधिपतिः) अधिष्ठाता (आसीत्) (सप्तदशभिः) दश पाद्या अङ्गुलयश्चत्वार्यूर्वष्ठीवानि द्वे प्रतिष्ठे यदर्वाङ् नाभेस्तत्सप्तदशं तैः (अस्तुवत) स्तुवन्तु (ग्राम्याः) ग्रामे भवाः (पशवः) गवादयः (असृज्यन्त) (बृहस्पतिः) बृहतां पालको वैश्यः (अधिपतिः) अधिष्ठाता (आसीत्) अस्ति। [अयं मन्त्रः शत॰८.४.३.७-११ व्याख्यातः]॥२९॥

    भावार्थः

    हे मनुष्याः! भवन्तो येन ऋत्वादयः प्रजापालका निर्मिताः पाल्याश्च, येन कालनिर्मापकाः सूर्य्यादयः सर्वे पदार्थाः सृष्टास्तं परमात्मानमुपासीरन्॥२९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह जगत् का रचने वाला कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! तुम लोग जिस ने (पितरः) रक्षक मनुष्य (असृज्यन्त) उत्पन्न किये हैं, जहां (अदितिः) रक्षा के योग्य (अधिपत्नी) अत्यन्त रक्षक माता (आसीत्) होवे, उस परमात्मा की (नवभिः) नव प्राणों से (अस्तुवत) गुण प्रशंसा करो, जिस ने (ऋतवः) वसन्त आदि ऋतु (असृज्यन्त) रचे हैं, जहां (आर्त्तवाः) उन-उन ऋतुओं के गुण (अधिपतयः) अपने-अपने विषय में अधिकारी (आसन्) होते हैं, उस की (एकादशभिः) दश प्राणों और ग्यारहवें आत्मा से (अस्तुवत) स्तुति करो, जिस ने (मासाः) चैत्रादि बारह महीने (असृज्यन्त) रचे हैं, (पञ्चदशभिः) पन्द्रह तिथियों के सहित (संवत्सरः) संवत्सर (अधिपतिः) सब काल का अधिकारी रचा (आसीत्) है, उस की (त्रयोदशभिः) दश प्राण, ग्यारहवां जीवात्मा और दो प्रतिष्ठाओं से (अस्तुवत) स्तुति करो, जिन से (इन्द्रः) परम सम्पत्ति का हेतु सूर्य्य (अधिपतिः) अधिष्ठाता उत्पन्न किया (आसीत्) है, जिसने (क्षत्रम्) राज्य वा क्षत्रियकुल को (असृज्यत) रचा है, उस को (सप्तदशभिः) दश पांव की अंगुली, दो जंघा, दो जानु, दो प्रतिष्ठा और एक नाभि से ऊपर का अंग- इन सत्रहों से (अस्तुवत) स्तुति करो, जिस ने (बृहस्पतिः) बड़े-बड़े पदार्थों का रक्षक वैश्य (अधिपतिः) अधिकारी रचा (आसीत्) है और (ग्राम्याः) ग्राम के (पशवः) गौ आदि पशु (असृज्यन्त) रचे हैं, उस परमेश्वर की पूर्वोक्त सब पदार्थों से युक्त होके (अस्तुवत) स्तुति करो॥२९॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो! आप लोग जिसने ऋतु आदि प्रजा के रक्षक और रक्षा के योग्य पदार्थ इस जगत् में रचे हैं और जिसने काल के विभाग करने वाले सूर्य्य आदि पदार्थ रचे हैं, उस परमेश्वर की उपासना करो॥२९॥

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    विषय

    नाना प्रकार की ब्रह्मशक्ति और राष्ट्र व्यवस्थाओं का देह की व्यवस्थानुसार वर्णन ।

    भावार्थ

    ५. ( नवमिः ) शरीर में नव प्राण है पूर्वोक सात शिरोगत और दो नीचे के भाग में मूलेन्द्रिय और गुदा । ये शरीर को धारण करते उसी प्रकार ( पितरः ) विश्व में अग्नि आदि पालक शक्तियां 'पितृ' रूप से प्रकट होती हैं। विद्वान् लोग ( नवभिः अस्तुवत ) उन नवीं ही शक्तियों के द्वारा उसकी स्तुति करते हैं । उन नवों पर ( अदितिः अधिपत्नी आसीत् ) उस परमेश्वर की अखण्ड शक्ति पालक रहती है । ६. ( एकादशभिः ) शरीर में १० प्राण, ५ कर्मेन्द्रिय और ६ बुद्धीन्द्रियें हैं, ११ वां भ्रामा है। विश्व में भी ( ऋतवः असृज्यन्त ) ११ ऋतु -प्राण रचे गये हैं। विद्वान लोग उन ( एकादशभिः अस्तुवत ) ११ मुख्य प्राणों के द्वारा ही इस परमेश्वर या विधाता की स्तुति करते हैं । उनके ( भावाः ) ऋतुओं के भीतर विद्यमान विशेष दिव्य शक्तियां ही ( अधिपतय: ) पालक ( शासन ) हैं । ७. (त्रयोदशभिः) शरीर में दरा प्राय, दो चरण और एक आत्मा ये १३ प्रधान बल हैं । उसी प्रकार विश्व में ( मासाः असृज्यन्त ) एक संवत्सर रूप प्रजापति के १३ मास अंग रूप से बने हैं। मासों का (अधिपतिः संवत्सरः आसीत् ) अधिपति जिस प्रकार 'संवत्सर' है, उसी प्रकार १३ हों का भी अध्यक्ष परमेश्वर भी 'संवत्सर' नाम से कहाने योग्य हैं । उसकी १३ हों अंगों द्वारा ( अस्तुवत ) विद्वान् लोग स्तुति करते हैं । ८. (पञ्चदशभिः) इस शरीर में जिस प्रकार दश हाथ की अंगुलियां, दो बाहुएं और दो टांगे और १५ वां नाभि से ऊपर का शरीर भाग है। उसी प्रकार विश्व ब्रह्माण्ड में १५ महती शक्तियां विश्व की ३ प्रकार से रक्षा करती है जैसे हाथ शरीर की । विश्व की रक्षा के लिये ही ( क्षत्रम् असृज्यत ) क्षेत्र, शत्रु को खदेड़ने वाला और प्रजा को शत्रु द्वारा पहुंचने वाली क्षति से बचाने वाला बल बनाया गया । उक्त १२ हाँ शक्तियों से विद्वान् उस विधाता प्रजापति की ( अस्तुवत ) स्तुति करते हैं अर्थात् उसके बनाये शरीर को देख कर उसके भीतर विद्यमान बलवान् हाथों की अँगुलियों की रचना को देख कर स्वयं भी उसके अनुकरण में समाज में प्रजा के रक्षक क्षत्रिय-बल की रचना करके उसके भी परस्पर उपकारक अंग प्रत्यंग रचते हैं। ९. ( सप्तदशभि: अस्तुचत ) शरीर में जिस प्रकार १० हाथ पैर के अंगुलियां, दो टांगें दो गोवे, दो पैर और नाभि का अधोभाग ये १७ अंग हैं उसी प्रकार ( इन्द्रः अधिपतिः आसीत् ) उनका अधिपति 'इन्द्र' है । विश्व के भी जीव सर्ग में सर्वत्र ये शक्तियां विद्यमान हैं और विश्व के जीव सर्ग को चला रही हैं। विद्वान्गण उन द्वारा भी परमेश्वर विधाता की ही स्तुति करते हैं । उन शक्तियों से ही ( ग्राम्याः ) ग्रामवासी नाना ( पशवः ) पशु गया ( असृज्यन्त ) पैदा किये गये हैं । उन सब का ( बृहस्पतिः) महान् विश्व और महती ज्ञानमयी वेदवाणी का स्वामी परमेश्वर ही ( अधिपतिः मालिक है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ - आर्षी त्रिष्टुप् । धैवतः । २ - ब्राह्मी जगती निषादः ॥

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    विषय

    नौ- ग्यारह-तेरह - पन्द्रह - सत्रह

    पदार्थ

    १. (पितरः असृज्यन्त) = [पितर :- नव जगद्रक्षका रश्मयः । नव वै प्राणाः सप्तशीर्षन्नवाञ्चौ द्वौ- - श० ८।४।३।७] ज्ञानेन्द्रियाँ व कर्मेन्द्रियाँ रक्षा करने के प्रमुख साधन होने से यहाँ 'पितरः' [पा रक्षणे] कही गई हैं। यद्यपि ये पाँच-पाँच होकर दस हैं तथापि 'जिह्वा' रस ग्रहण करने से ज्ञानेन्द्रियों में तथा शब्द बोलने से कर्मेन्द्रियों में परिगणित होती है, अतः यह दोनों ओर एक ही है। एवं, ये मिलकर वस्तुतः नौ हैं। ये नौ इन्द्रियाँ ज्ञानेन्द्रियों के क्षेत्र में रश्मियाँ व किरणें हैं, कर्मेन्द्रियों की दृष्टि से ये रश्मियाँ लगामें हैं। ये सब रक्षक इन्द्रियाँ प्रभु से उत्पन्न की गई हैं। इनकी रचना के सौन्दर्य व अद्भुतता को देखकर (नवभिः) = इन नौ इन्द्रियों से प्रजाएँ अस्तुवत उस प्रभु का स्तवन करें कि (अदितिः) = इन इन्द्रियों के निर्माण से हमारा खण्डन न होने देनेवाली वह जगज्जननी ही हमारी (अधिपत्नी आसीत्) = पालिका अधिष्ठात्री देवी है। खण्डन न होने देने के कारण ही वह 'अदिति' नामवाली है । २. (ऋतवः) = ऋतुएँ (असृज्यन्त) = उत्पन्न की गईं। एक-एक ऋतु जीव को शक्ति देनेवाली है। ऋतुचर्या के ठीक पालन से जीव के सब प्राण व सब इन्द्रियाँ बड़े शक्तिशाली बने रहते हैं। इनको शक्ति प्राप्त कराने के लिए उस उस ऋतु में वनस्पतियों से समपोषयुक्त वे-वे ओषधियाँ प्राप्त होती हैं। इसी से ब्राह्मणों में हम पढ़ते हैं कि 'ऋतवः वै पृष्ठानि' (श० १।३।३।२।१) 'वीर्यं वै पृष्ठानि' [ता० ४।८।७] ऋतुएँ हमारी पृष्ठ [backbone] व वीर्यशक्ति हैं, अतः जीव (एकादशभिः) = [दश प्राणा आत्मैकादश:- श० २।४।३१८] दश प्राणों व आत्मा से (अस्तुवत) = उस प्रभु का स्तवन करें कि किस प्रकार 'आर्तवा:' [ऋतुषु भवा गुणा:- द०] उस-उस ऋतु के गुण- खूबियाँ (अधिपतयः आसन्) = हमारा सम्यक् पालन करनेवाले हैं। ३. (मासा असृज्यन्त) = महीने [वैशाख आदि बारह मास तथा १३वाँ मलमास, वेद के शब्दों में ' अहंसस्पति'] उत्पन्न किये गये। 'मासो मानात् - नि० ४।२७' ये हमारे जीवन का निर्माण करते हैं। 'यव्या मासा - श० १।७।२।२६' ये हमारे शरीर के अवगुणों को दूर करनेवाले तथा गुणों का शरीर में उपचय करनेवाले हैं। यु-इस मिश्रण व अमिश्रण की क्रिया में ये उत्तम हैं। इस प्रकार ये हमारे जीवन को उत्तम बनाते हैं। हमें चाहिए कि (मासाः = त्रयोदशभिः अस्तुवत) = [दश प्राणाः प्रतिष्ठे एक आत्मा - श० ८।४।३।८] अपने दश प्राणों दो आधारभूत पाँव व आत्मा से उस प्रभु का स्तवन करें, जो इन तेरह मासों के द्वारा हमारे निवास को उत्तम बनाने के कारण 'संवत्सर: ' [ उत्तम निवासक] संवत्सर नामवाला होता हुआ (अधिपतिः आसीत्) = अधिष्ठातृरूपेण रक्षक है। ये मास उस 'संवत्सर' के ही कर्मकररक्षणात्मक कर्म करनेवाले हैं। [ मासाः संवत्सरस्य कर्मकराः - तै० ३।११।१०।३] ये उस प्रभु के कर्मकर हमारे जीवन को निरन्तर उन्नत करनेवाले हैं। उन्नत करने से ही 'उदाना:- ता० ५।२० ' इन्हें 'उदान' कहा गया है 'उत्कर्षेण आनयन्ति । ४. ऋतुचर्या व मासचर्या के ठीक चलने के परिणामरूप ही अब (क्षत्रम्) = क्षत्रिय वर्ण की विशेषता का सम्पादक यह बल (असृज्यत) = उत्पन्न किया गया। सबल बनी हुई (पञ्चदशभि:) = [ दश हस्त्या अंगुलयश्चत्वारि दोर्बाहवाणि यदूर्ध्वं नाभेस्तत् पंचदशम् श० ८।४।३।१०] हाथ की दस अंगुलियों, दो हाथों, दो बाहुओं तथा नाभि से उपरले शरीरभाग से (अस्तुवत) = उस प्रभु का स्तवन करो कि (इन्द्रः) = सब ऐश्वर्य का स्वामी, सब शक्तियों का स्रोत [ इन्द to be powerful ] वह प्रभु अधिपतिः (आसीत्) = हमारा अधिष्ठातृरूपेण रक्षक है। हमारे सब अङ्गों को वह सबल बनाकर हमारा पालन कर रहा है। ५. बल व शक्ति को प्राप्त कराने के लिए ही जीवन की आवश्यक सामग्रियों को दूध तथा वस्त्रादि के लिए ऊन आदि को प्राप्त करानेवाले (ग्राम्याः पशवः) = ग्राम्य पशु [जो संख्या में सम्भवतः सत्रह जातियों के हैं] (असृज्यन्त) = उत्पन्न किये गये। इन पशुओं के महत्त्व को समझते हुए हम (सप्तदशभिः अस्तुवत) = [दश पाद्या अंगुलयश्चत्वार्यूर्वष्ठीवानि द्वे प्रतिष्ठे यदवाङ् नाभेस्तत् सप्तदशम् - श० ८|४ | ३ | ११ ] अपने पाँवों की दस अंगुलियों, दो घुटने, दो जाँघों, दो पाँव व सतरहवें नाभि के अधः देश से उस प्रभु का स्तवन करें कि वह (बृहस्पतिः) = ऊँचे-से-ऊँचे ज्ञान का पति प्रभु वेदज्ञान के देने से हमारा (अधिपतिः आसीत्) = रक्षक है। वह प्रभु वेद द्वारा इन सब पशुओं से उपयुक्त सामग्री प्राप्त करने का उपदेश देता है और इस प्रकार इन्हें हमारे जीवन के साथ जोड़ देता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारा रोम-रोम उस प्रभु का स्तवन अदिति, आर्तव संवत्सर, इन्द्र व बृहस्पति' इन नामों से कर रहा हो।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! ज्याने कलविभाजन करणारे सूर्य इत्यादी पदार्थ निर्माण केलेले आहेत त्या परमेश्वराची उपासना करा.

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    विषय

    तो सृष्टिकर्ता कसा आहे, (अथवा त्याची स्तुती कशी करावी) पुढील मंत्रात हा विषय वर्णित आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, ज्याने (पितर:) तुमच्या पालक (पूर्वात आदींना उत्पन्न केले आहे) अथवा तुमचे रक्षक-पालक अशा वीरजनांना उत्पन्न केले आहे, जो परमात्मा (अदिति:) तुमच्या रक्षणास समर्थ असून (अधिपत्नी) सर्वाधिक रक्षक मातेप्रमाणे आहे, त्या परमेश्वराचे तुम्ही (नवभि:) नव प्राणांद्वारे (अस्तुवत) गुणवर्णन करा. ज्याने (ऋतव:) वसंत आदी ऋतूंची रचना केली आहे की ज्या ऋतूंमध्ये (आर्त्तवा:) त्या त्या ऋतूंचे गुण (अधितम:) विशेत्वाने प्रकट (आसन्) होतात, त्या ऋतुकर्ता परमेश्वराची (एकादशमि:) दशप्राण आणि अकरावा आत्मा यांद्वारे (अस्तुवत) स्तुती करा. ज्याने (मासा:) चैत्र आदी बारा मासांची (असृज्यन्त) रचना केली आहे आणि (पंचदशभि:) पंधरा तिथींसह (संवत्सर:) संवत्सर की जो सर्व काळापैकी मुख्य आहे . त्या संवत्सराची रचना केली (आसीत्) आहे, तुम्ही त्या परमेश्वराची (ऋय्तेदशभि:) दहा प्राण, अकरावा जीवात्मा आणि दोन प्रतिष्ठा यांद्वारे (अस्तुवत) स्तुती करा. जो (इन्द्र:) परम संपत्तीचे कारण अशा सूर्याचा (अधिपति) स्वामी असून ज्याने त्याची उत्पत्ती केली (आसीत्) आहे, ज्याने (क्षत्रम्) राज्याचे अथवा क्षत्रियकुळाचे, (असृज्यत) सृजन केले आहे, त्या परमात्म्याची (सप्तदशभि:) तुम्ही आपल्या पायाची सहा बोटें, दोन जंधा, दोन जानु (गुडघे) दोन प्रतिष्ठा (-------) आणि नाभीच्या वरील अवयव, या सतरा अंगांनी (अस्तुवत) स्तुती करा. तसेच ज्याने (बृहस्पति:) मोठमोठ्या पदार्थांचा रक्षक अशा वैश्यासारखा (अधिपति:)---- निर्मिला आहे, (क्षत्रिय आणि वैश्वकर्णाची रचना केली आहे) आणि (ग्राम्या:) (पशव:) ग्राम्य पाळीव गौ आदी पशू (असृज्यन्त) उत्पन्न केले आहेत, हे मनुष्यांनो, तुम्ही वर वर्णित पदार्थांद्वारे त्या परमेश्वराची (अस्तुवत) स्तुती करा ॥।29॥

    भावार्थ

    missing

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O men, God has created wise persons. The mother-like nourishing Earth is our lord. Praise God with nine breaths. He has created the seasons. The attributes of those seasons respectively reign supreme in them. Praise God with ten pranas and soul. He has created the twelve months. The year is the master of time. Praise God with thirteen objects. He has created the Kshatriyas. The sun lords over us through his intense glory. Praise God with fifteen objects. He has created the village cattle, and the vaishas, who are our supporters. Praise God through seventeen objects.

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    Meaning

    Worship Him with nine faculties of prana and mind who created the paternal and protective forces of nature and the earth which is the supreme mother of His children. Worship with eleven faculties (ten pranic energies and the soul) Him who created the seasons with their characteristic ruling properties. Worship with thirteen faculties (ten pranas, two commitments-one for values and one against disvalues — and the soul) Him who created the twelve months with their presiding year. Worship with fifteen faculties (five pranas, five senses, two commitments one soul, mind and reason/intellect) Him who created the socio-political order of governance with Indra, the supreme ruler of the order. Worship with seventeen faculties (five pranas, five senses, two commitments, one soul, mind, reason/ intellect, hands and feet) Him who created the domestic animals and the economic order with Brihaspati as the head of the economic (Vaishya) class.

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    Translation

    He is praised with nine; the elders are created; the eternity is their sovereign (1) He is praised with eleven; the seasons are created; Lords of the seasons are their sovereigns. (2) He is praised with thirteen; the months are created; the year is their sovereign. (3) He is praised with fifteen; the ruling power is created; the king is its sovereign. (4) He is praised with seventeen; the domestic animals are created; the Lord Supreme is their sovereign. (5)

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনঃ স জগৎস্রষ্টা কিংভূত ইত্যাহ ॥
    পুনঃ সে জগত রচয়িতা কেমন, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! তোমরা যিনি (পিতরঃ) রক্ষক মনুষ্য (অসৃজ্যন্ত) উৎপন্ন করিয়াছেন যেখানে (অদিতিঃ) রক্ষার যোগ্য (অধিপত্নী) অত্যন্ত রক্ষক মাতা (আসীৎ) হইবে সেই পরমাত্মার (নবভিঃ) নয়টি প্রাণগুলির দ্বারা (অস্তুবত) গুণ প্রশংসা কর, যিনি (ঋতবঃ) বসন্তাদি ঋতু (অসৃজন্ত) রচনা করিয়াছেন, যেখানে (আর্ত্তবাঃ) সেই সেই ঋতুগুলির গুণ (অধিপতয়ঃ) স্ব স্ব বিষয়ে অধিকারী (আসন্) হয় তাহার (একাদশভিঃ) দশ প্রাণ ও একাদশ আত্মা দিয়া স্তুতি কর । যিনি (মাসাঃ) চৈত্রাদি দ্বাদশ মাস (অসৃজন্ত) রচনা করিয়াছেন । (পঞ্চদশভিঃ) পঞ্চদশ তিথি সহিত (সংবৎসরঃ) সংবৎসর (অধিপতিঃ) সর্ব কালের অধিকারী রচিয়াছেন তাহার (ত্রয়োদশভিঃ) দশ প্রাণ, একাদশ জীবাত্মা এবং দুই প্রতিষ্ঠার নিকট স্তুতি কর । যদ্দ্বারা (ইন্দ্রঃ) পরম সম্পত্তির হেতু সূর্য্য (অধিপতিঃ) অধিষ্ঠাতা উৎপন্ন (আসীৎ) করিয়াছেন যিনি (ক্ষত্রম্) রাজ্য বা ক্ষত্রিয়কুলকে (অসৃজ্যত) রচিয়াছেন তাহাকে (সপ্তদশভিঃ) দশটি পায়ের আঙুল, দুটি জঙ্ঘা, দুটি জানু, দুটি প্রতিষ্ঠা ও একটি নাভি হইতে উপরের অঙ্গ, এই সপ্তদশ দ্বারা (অস্তুবত) স্তুতি কর, যিনি (বৃহস্পতিঃ) বড় বড় পদার্থের রক্ষক বৈশ্য (অধিপতিঃ) অধিকারী (আসিৎ) রচিয়াছেন এবং (গ্রাম্যাঃ) গ্রামের (পশবঃ) গাভি ইত্যাদি পশু (অসৃজয়ন্ত) রচিয়াছেন, সেই পরমেশ্বরের পূর্বোক্ত সব পদার্থের সঙ্গে যুক্ত হইয়া (অস্তুবত) স্তুতি কর ॥ ২ঌ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! আপনারা যিনি ঋতু আদিপ্রজার রক্ষক এবং রক্ষার যোগ্য পদার্থ এই জগতে রচিয়াছেন এবং যিনি কালের বিভাগকারী সূর্য্যাদি পদার্থ রচিয়াছেন সেই পরমেশ্বরের উপাসনা কর ॥ ২ঌ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ন॒বভি॑রস্তুবত পি॒তরো॑ऽসৃজ্য॒ন্তাদি॑তি॒রধি॑পত্ন্যাসীদেকাদ॒শভি॑রস্তুবতऽ ঋ॒তবো॑ऽসৃজ্যন্তার্ত্ত॒বাऽ অধি॑পতয়ऽআসংস্ত্রয়োদ॒শভি॑রস্তুবত॒ মাসা॑ऽ অসৃজ্যন্ত সংবৎস॒রোऽধি॑পতিরাসীৎ । পঞ্চদ॒শভি॑রস্তুবত ক্ষ॒ত্রম॑সৃজ্য॒তেন্দ্রোऽ ধি॑পতিরাসীৎ । সপ্তদ॒শভি॑রস্তুবত গ্রা॒ম্যাঃ প॒শবো॑ऽসৃজ্যন্ত॒ বৃহ॒স্পতি॒রধি॑পতিরাসীৎ ॥ ২ঌ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    নবভিরস্তুবতেত্যস্য বিশ্বদেব ঋষিঃ । ঈশ্বরো দেবতা । পূর্বস্যার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ । ত্রয়োদশভিরিত্যুত্তরস্য ব্রাহ্মী জগতী ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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