यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 6
ऋषिः - उशना ऋषिः
देवता - ग्रीष्मर्तुर्देवता
छन्दः - निचृदुत्कृतिः
स्वरः - षड्जः
2
शु॒क्रश्च॒ शुचि॑श्च॒ ग्रैष्मा॑वृ॒तूऽ अ॒ग्नेर॑न्तःश्लेषोऽसि॒ कल्पे॑तां॒ द्यावा॑पृथि॒वी कल्प॑न्ता॒माप॒ऽ ओष॑धयः॒ कल्प॑न्ताम॒ग्नयः॒ पृथ॒ङ् मम॒ ज्यैष्ठ्या॑य॒ सव्र॑ताः। येऽअ॒ग्नयः॒ सम॑नसोऽन्त॒रा द्यावा॑पृथि॒वीऽइ॒मे। ग्रैष्मा॑वृ॒तूऽ अ॑भि॒कल्प॑माना॒ऽइन्द्र॑मिव दे॒वाऽअ॑भि॒संवि॑शन्तु॒ तया॑ दे॒वत॑याङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वे सी॑दतम्॥६॥
स्वर सहित पद पाठशु॒क्रः। च॒। शुचिः॑। च॒। ग्रैष्मौ॑। ऋ॒तू। अ॒ग्नेः। अ॒न्तः॒श्ले॒ष इत्य॑न्तःऽश्ले॒षः। अ॒सि॒। कल्पे॑ताम्। द्यावा॑पृथि॒वी इति॒ द्यावा॑ऽपृथि॒वी। कल्प॑न्ताम्। आपः॑। ओष॑धयः। कल्प॑न्ताम्। अ॒ग्नयः॑। पृथ॑क्। मम॑। ज्यैष्ठ्या॑य। सव्र॑ता॒ इति॒ सऽव्र॑ताः। ये। अ॒ग्नयः॑। सम॑नस॒ इति॒ सऽम॑नसः। अ॒न्त॒रा। द्यावा॑पृथि॒वी इति॒ द्यावा॑ऽपृथि॒वी। इ॒मेऽइती॒मे। ग्रैष्मौ॑। ऋ॒तूऽइत्यृ॒तू। अ॒भि॒कल्प॑माना॒ इत्य॑भि॒ऽकल्प॑मानाः। इन्द्र॑मि॒वेतीन्द्र॑म्ऽइव। दे॒वाः। अ॒भि॒संवि॑श॒न्त्वित्य॑भि॒ऽसंवि॑शन्तु। तया॑। दे॒वत॑या। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ध्रु॒वे इति॑ ध्रु॒वे। सी॒द॒त॒म् ॥६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
शुक्रश्च शुचिश्च ग्रैष्मावृतूऽअग्नेरन्तःश्लेषोसि कल्पेतान्द्यावापृथिवी कल्पन्तामापऽओषधयः कल्पन्तामग्नयः पृथङ्मम ज्यैष्ठ्याय सव्रताः । येऽअग्नयः समनसोन्तरा द्यावापृथिवीऽइमे ग्रैष्मावृतूऽअभिकल्पमानाऽइन्द्रमिव देवाऽअभिसँविशन्तु तया देवतयाङ्गिरस्वद्धरुवे सीदतम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
शुक्रः। च। शुचिः। च। ग्रैष्मौ। ऋतू। अग्नेः। अन्तःश्लेष इत्यन्तःऽश्लेषः। असि। कल्पेताम्। द्यावापृथिवी इति द्यावाऽपृथिवी। कल्पन्ताम्। आपः। ओषधयः। कल्पन्ताम्। अग्नयः। पृथक्। मम। ज्यैष्ठ्याय। सव्रता इति सऽव्रताः। ये। अग्नयः। समनस इति सऽमनसः। अन्तरा। द्यावापृथिवी इति द्यावाऽपृथिवी। इमेऽइतीमे। ग्रैष्मौ। ऋतूऽइत्यृतू। अभिकल्पमाना इत्यभिऽकल्पमानाः। इन्द्रमिवेतीन्द्रम्ऽइव। देवाः। अभिसंविशन्त्वित्यभिऽसंविशन्तु। तया। देवतया। अङ्गिरस्वत्। ध्रुवे इति ध्रुवे। सीदतम्॥६॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ ग्रीष्मर्तुवर्णनमाह॥
अन्वयः
हे स्त्रीपुरुषौ! यथा मम ज्यैष्ठ्याय यौ शुक्रश्च शुचिश्च ग्रैष्मावृतू ययोरग्नेरन्तःश्लेषोऽ(स्य)स्ति याभ्यां द्यावापृथिवी कल्पेतामापः कल्पन्तामोषधयोग्नयश्च ये पृथक् कल्पन्तां यथा समनसः सव्रता अग्नयोऽन्तरा कल्पन्ते तैर्ग्रैष्मावृतू अभिकल्पमाना देवा भवन्त इन्द्रमिव तानग्नीनभिसंविशन्तु तथा तया देवतया सह युवामिमे द्यावापृथिवी ध्रुवे एतौ चाङ्गिरस्वत् सीदतम्॥६॥
पदार्थः
(शुक्रः) य आशु पांसुवर्षातीव्रतापाभ्यामन्तरिक्षं मलिनं करोति स ज्येष्ठः (च) (शुचिः) पवित्रकारक आषाढः (च) (ग्रैष्मौ) ग्रीष्मे भवौ (ऋतू) यावृच्छतस्तौ (अग्नेः) पावकस्य (अन्तःश्लेषः) मध्य आलिङ्गनम् (असि) अस्ति (कल्पेताम्) समर्थयेताम् (द्यावापृथिवी) प्रकाशान्तरिक्षे (कल्पन्ताम्) (आपः) जलानि (ओषधयः) यवसोमाद्याः (कल्पन्ताम्) (अग्नयः) पावकाः (पृथक्) (मम) (ज्यैष्ठ्याय) अतिशयेन प्रशस्यस्य भावाय (सव्रताः) सत्यैर्नियमैः सह वर्तमानाः (ये) (अग्नयः) (समनसः) मनसा सह वर्तमानाः (अन्तरा) मध्ये (द्यावापृथिवी) (इमे) (ग्रैष्मौ) (ऋतू) (अभिकल्पमानाः) आभिमुख्येन समर्थयन्तः (इन्द्रमिव) यथा विद्युतम् (देवाः) विद्वांसः (अभिसंविशन्तु) अभितः सम्यक् प्रविशन्तु (तया) (देवतया) दिव्यगुणया (अङ्गिरस्वत्) अङ्गानां रसः कारणं तद्वत् (ध्रुवे) निश्चले (सीदतम्) विजानीतम्॥६॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। वसन्तर्त्तुव्याख्यानानन्तरं ग्रीष्मर्त्तुर्व्याख्यायते। हे मनुष्याः! यूयं ये पृथिव्यादिस्थाः शरीरात्ममानसाश्चाग्नयो वर्त्तन्ते, यैर्विना ग्रीष्मर्त्तुसंभवो न जायते, तां विज्ञायोपयुज्य सर्वेभ्यः सुखं प्रयच्छत॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर भी ग्रीष्म ऋतु का व्याख्यान अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे स्त्री-पुरुषो! जैसे (मम) मेरे (ज्यैष्ठ्याय) प्रशंसा के योग्य होने के लिये जो (शुक्रः) शीघ्र धूली की वर्षा और तीव्र ताप से आकाश को मलीन करने हारा ज्येष्ठ (च) और (शुचिः) पवित्रता का हेतु आषाढ़ (च) ये दोनों मिल के प्रत्येक (ग्रैष्मौ) ग्रीष्म (ऋतू) ऋतु कहाते हैं। जिस (अग्नेः) अग्नि के (अन्तःश्लेषः) मध्य में कफ के रोग का निवारण (असि) होता है, जिससे ग्रीष्म ऋतु के महीनों से (द्यावापृथिवी) प्रकाश और अन्तरिक्ष (कल्पेताम्) समर्थ होवें, (आपः) जल (कल्पन्ताम्) समर्थ हों, (ओषधयः) यव वा सोमलता आदि ओषधियां और (अग्नयः) बिजुली आदि अग्नि (पृथक्) अलग-अलग (कल्पन्ताम्) समर्थ होवें। जैसे (समनसः) विचारशील (सव्रताः) सत्याचरणरूप नियमों से युक्त (अग्नयः) अग्नि के तुल्य तेजस्वी को (अन्तरा) (ग्रैष्मौ) (ऋतू) (अभिकल्पमानाः) सन्मुख होकर समर्थ करते हुए (देवाः) विद्वान् लोग (इन्द्रमिव) बिजुली के समान उन अग्नियों की विद्या में (अभिसंविशन्तु) सब ओर से अच्छे प्रकार प्रवेश करें, वैसे (तया) उस (देवतया) परमेश्वर देवता के साथ तुम दोनों (इमे) इन (द्यावापृथिवी) प्रकाश और पृथिवी को (ध्रुवे) निश्चल स्वरूप से इन का भी (अङ्गिरस्वत्) अवयवों के कारणरूप रस के समान (सीदतम्) विशेष कर के ज्ञान कर प्रवर्त्तमान रहो॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। वसन्त ऋतु के व्याख्यान के पीछे ग्रीष्म ऋतु की व्याख्या करते हैं। हे मनुष्यो! तुम लोग जो पृथिवी आदि पञ्चभूतों के शरीरसम्बन्धी वा मानस अग्नि हैं कि जिन के विना ग्रीष्म ऋतु नहीं हो सकता, उन को जान और उपयोग में ला के सब प्राणियों को सुख दिया करो॥६॥
विषय
ग्रीष्म के समान राजा का वर्णन ।
भावार्थ
( शुक्रः च शुचिः च ) शुक्र और शुचि ये दोनों ( ग्रैष्मौ ऋतू ) ग्रीष्म काल के दोनों मास अंगस्वरूप हैं । (अग्ने ) लेपः (असि० ) इत्यादि व्याख्या देखो अ० १३ । म० २५ ॥ शत० ८। २ । १। ७६॥
विषय
शुक्र + शुचि-ग्रीष्म
पदार्थ
१. पुरोहित वर-वधू को संकेत करता है कि - वर शुक्रः- (शुक गतौ) सदा क्रियाशील हो । पुरुषार्थ से धन कमानेवाला हो। उद्योग न करनेवाले गृहस्थ को तो समुद्र में डुबा देना चाहिए। २. पत्नी की ओर देखकर कहता है कि- (शुचिः) = वह बड़े पवित्र जीवनवाली हो । पति क्रियाशील है, पत्नी पवित्र जीवनवाली है तो वह घर स्वर्ग क्यों न बनेगा? यहाँ 'च' का प्रयोग अपि = 'भी' के अर्थ में आकर यह भाव प्रकट करता है कि पति गतिशील भी हो, अर्थात् पवित्र तो हो ही, गतिशील भी। इसी प्रकार पत्नी क्रियाशील तो हो ही, पवित्र भी। इस प्रकार दोनों में दोनों ही गुण अभीष्ट हैं। ३. क्रियाशीलता व पवित्रतावाले ये दोनों (ग्रैष्मौ) = ग्रीष्म के सन्तान हैं, इनमें प्राणशक्ति की गरमी है। ये उष्णिक उद्योगी हैं। (ऋतू) = ये ऋतुओं के समान व्यवस्थित गतिवाले हैं, सब कार्यों को समय पर करनेवाले हैं । ५. इनमें से एक एक (अग्ने:) = उस अग्नि नामक प्रभु को (अन्तः श्लेषः) = हृदय के अन्दर आलिङ्गन करनेवाला (असि) = है। ये हृदय में प्रभु का ध्यान करनेवाले हैं । ६. इस प्रकार इनके (द्यावापृथिवी) = मस्तिष्क व शरीर दोनों (कल्पेताम्) = शक्तिशाली हों [कृपू सामर्थ्ये] । ७. इनके लिए (आपः ओषधयः) = जल व ओषधियाँ (कल्पन्ताम्) = शक्ति देनेवाली हों। ये पानी पीएँ, वनस्पति खाएँ और अपने को सबल बनाएँ। ८. पति-पत्नी चाहते हैं कि (मम) = मेरे (ज्येष्ठ्याय) = ज्येष्ठतारूप- श्रेष्ठ कर्म के सम्पादन के लिए (सव्रता:) = समान व्रतवाले होकर, अर्थात् मेरी ज्येष्ठता को ही अपना लक्ष्य बनाकर (अग्नयः) = दक्षिणाग्निरूप माता, गार्हपत्याग्निरूप पिता तथा आहवनीयाग्निरूप आचार्य (पृथक्) = अलग-अलग -पाँच वर्ष तक माता, आठ वर्ष तक पिता तथा चौबीस वर्ष तक आचार्य (कल्पन्ताम्) = समर्थ हों। ये सब मिलकर हमें ज्येष्ठ बनानेवाले हों। ९. (इमे) = द्यावापृथिवी (अन्तरा) = इस द्युलोक व पृथिवीलोक के बीच में ये (अग्नयः) = जो माता-पिता व आचार्यरूप अग्नियाँ हैं, वे (समनसः) = समान मनवाले हों, उन सबकी यह समान कामना हो कि हमें इन भावी नागरिकों को उत्तम बनाना है। १०. तुम दोनों पति-पत्नी (ग्रैष्मौ) = गरमी व उत्साहवाले बनो, ऋतू नियमित गतिवाले होके (अभिकल्पमाना) = शरीर व अध्यात्म बल का सम्पादन करनेवाले बनो। ११. (इन्द्रमिव) = सब इन्द्रियों को जीतकर इन्द्र के समान बने हुए तुझे देवा: - सब दिव्य गुण (अभिसंविशन्तु) प्राप्त हों। १२. (तया देवतया) = उस प्रसिद्ध देवता परमात्मा के साथ सम्पर्क के द्वारा (अङ्गिरस्वत्) = अङ्ग अङ्ग में रस के सञ्चारवाले होकर (ध्रुवे सीदतम्) = तुम ध्रुव होकर इस मर्यादावाले घर में आसीन होओ। प्रभु- सम्पर्क से तुम्हें शक्ति प्राप्त हो। तुम्हारा जीवन मर्यादित हो और सारा घर मर्यादा में चलनेवाला हो ।
भावार्थ
भावार्थ- पति-पत्नी क्रियाशील व पवित्रतावाले हों। प्रतिदिन प्रभु -सम्पर्क से अपने को प्रकृष्ट बलवाला बनाते हुए ये मर्यादा का पालन करनेवाले होकर घर में निवास करें।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. वसंत ऋतूच्या व्याख्येनंतर ग्रीष्म ऋतूची व्याख्या केली जात आहे. हे माणसांनो ! पृथ्वी वगैरे पंचमहाभूतांतील मन व शरीरासंबंधी अग्नीचे जे स्वरूप आहे ते जाणा. कारण त्याखेरीज ग्रीष्म ऋतू होऊ शकत नाही. तेव्हा त्याचा व्यवस्थित उपयोग करून सर्व प्राण्यांना सुखी करा.
विषय
आता ग्रीष्म ऋतूविषयी प्रतिपादन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे स्त्री-पुरुषहो, (मम) मला हे दोन महिने (ज्यैष्ठ्याय) प्रशंसनीय वा प्रिय (वाटत नाहीत अथवा मला प्रशंसा व कीर्ती मिळविण्यासाठी हे दोन महिने, साहाय्यभूत आहेत) या महिन्यांत (शुक्र:) जोराचा सुसाट वारा, (झळा) वादळ, धुळीचा जाट (बावटळी) आणि तीव्र उष्णता याद्वारे आकाशाला मलिन करणारा ज्येष्ठ मास आहे (च) आणि (शुचि:) पवित्रतेचे कारण असलेला आषाढ मास (च) आहे. या दोन महिन्याना मिळून (ग्रॅष्मी) ग्रीष्म (ऋतू) ऋतू म्हटले जाते. या काळात (अग्ने:) अग्नी (वा उष्णतेमुळे) (अन्त:श्लेष:) कफजन्य रोग दूर (असि) होतात. या ग्रीष्मऋतूत (द्यावापृथिवी) प्रकाश आणि अंतरिक्ष (कल्पताम्) योग्य प्रमाणात असावेत (सूर्यप्रकाश अति लापदायक आणि आकाश धूळ-मातीने भरलेला असू नये, अशी कामना आहे) या ग्रीष्मऋतूत (आप:) पाणी (कल्पन्ताम्) सर्वत्र उपलब्ध व्हावे. (ओषधय:) यव, सोमलता आदी औषधी तसेच (अग्नय:) विद्युत आदी अग्नीचे विविध रूप आमच्यासाठी (पृथवू स्वतंत्रपणाने (कल्पन्ताम्) उपयोगी व्हावेत. (अशा त्रासदायक उन्हाळ्यामध्ये देखील) (समनस:) सुविचारी (सव्रता:) सत्याचरण आणि सद्नियमांचे पालन करणारे (अग्नय:) अग्नीप्रमाणे तेजस्वी लोक (अन्तरा) (ग्रॅष्मी) (ऋतू) (अभिकल्पमाना:) त्या तीव्र ग्रीष्मऋतूचा सामना करतात आणि (देवा:) विद्वान वैज्ञानिकजनांनी (इन्द्रमिव) विद्युत आणि अग्नीच्या विविध रुपांविषयी (अभिसंविशन्तु) सर्वप्रकारे गतिमान रहावे (विद्युत आदी अग्नीविषयी नूतन शोध करावा. त्या संहारक, दाहक अग्नीला देखील उपकारक व हितकारी कसे करता येईल, हे पहावे) हे पति-पत्नी, त्या विद्वानांप्रमाणे तुम्ही (तया) देवतया) त्या परमेश्वराच्या प्रेरणेने (इमे) या घावापृथिवी) प्रकाशलोक आणि पृथ्वीच्या सातत्य ठेवून आणि (धु्रवे) दृढ राहून (अहिरस्वत्) शरीराच्या अवयवांच्या कार्याचे कारण जे शरीरात रस, त्या रसाप्रमाणे (सीदतय्) विशेषत्वाने ज्ञानप्राप्तीसाठी प्रवृत्त रहा (उन्हाळ्यात रसामुळे शरीराची कार्यशक्ती वाढते, तो रस कसा वाढेल, हे पहा) ॥6॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात उपमा अलंकार आहे. (मागील काही मंत्रामधे) वसंतू ऋतूचे वर्णन केल्यानंतर आता ग्रीष्म ऋतूचे विषय प्रतिपादन करीत आहोत. हे मनुष्यांनो, पृथ्वी आदी पंचभूतांमधे शरीरविषयक आणि मनविषयक जे अग्नी आहेत, त्यांच्याविषयी तुम्ही अधिकाधिक ज्ञान मिळवा आणि त्या अग्नीच्या विविध रुपांपासून उपयोग घेऊन सर्व प्राण्यांना सुख मिळेल, असे करा (हे आवश्यक आहे, कारण की) पंच महाभूतांतील अग्नीविना ग्रीष्मऋतू संभवत नाही. (अग्नी, वायू, भूमी, जल, आकाश यांमध्ये अग्नी वेगवेगळ्या रुपात असतो. त्यामुळेच उन्हाळा होतो. याविषयी अधिक ज्ञान मिळवावे, असे मंत्रार्थांने सूचित केले आहे) ॥6॥
इंग्लिश (3)
Meaning
May-June (Jayeshth), and June-July (Asarh) constitute the summer. This season due to intense heat, removes cough. May Heaven and Earth, may waters, medicinal plants, and fires, obeying the exact laws of nature, separately contribute to my prosperity in this season. May fires, similar in nature, that exist between the heaven and earth, make the summer strong, just as spiritual forces strengthen the soul. O husband and wife, receiving life from God, remain steady like Heaven and Earth.
Meaning
Jyeshtha and Ashadha are the two months of summer. Two-month summer, you are a temporal offspring of the internal (essential) power of agni, universal fire. May all the modes of agni, each with its natural power, be favourable to me toward honour and excellence. May the earth and heaven be favourable and make it (honour and excellence) possible. May the waters be favourable. May the herbs and trees make it possible. May all the forms of agni, heat, light, electricity, etc. , working in earth and the heaven toward one end and maturing the summer season, be firm and steady in nature. Just as all the devas, powers of nature, subserve Indra, the essential and central energy of nature and life, so should the two months of summer faithfully and inviolably serve the power of agni as part subserves the whole.
Translation
Sukra and suci (jyestha and asadha. i. e. May and June) are the two months of the summer season. You are the internal cementing force of the fire. May the heaven and earth help, may the waters and the herbs help, may the fires also help individually with unity of action in establishing my superiority. May all those fires, which exist betwen heaven and earth, one-minded and helping in this performance, gather around these two months of the summer season, just as the enlightened ones gather around the resplendent Lord. May both of you be seated firmly by that divinity shining bright. (1)
Notes
In the ritual, the sacrificer lays two rtavyd bricks with this mantra. Sukrah Sucih, jyestha and dsddha, (mid-May to mid-June, and mid-June to mid-July) two months of summer. Rest of the mantra is same as Yajuh XHI. 25.
बंगाली (1)
विषय
অথ গ্রীষ্মর্তুবর্ণনমাহ ॥
পুনশ্চ গ্রীষ্ম ঋতুর ব্যাখ্যান পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে স্ত্রী পুরুষগণ! যেমন (মম) আমার (জ্যৈষ্ঠায়) প্রশংসার যোগ্য হইবার জন্য যে (শুক্রঃ) শীঘ্র ধূলিবৃষ্টি এবং তীব্র তাপ হইতে আকাশকে মলিনকারী জেষ্ঠ (চ) এবং (শুচিঃ) পবিত্রতা হেতু আষাঢ় (চ) এই উভয়ে মিলিত হইয়া প্রত্যেক (গ্রৈষ্মৌ) গ্রীষ্ম (ঋতূ) ঋতু বলা হয়, যে (অগ্নেঃ) অগ্নির (অন্তঃশ্লেষঃ) মধ্যে কফের রোগের নিবারণ (অসি) হয় যাহার ফলে গ্রীষ্ম ঋতুর মাসগুলিতে (দ্যাবাপৃথিবী) প্রকাশ ও অন্তরিক্ষ (কল্পেতাম্) সক্ষম হউক (আপঃ) জল (কল্পন্তাম্) সক্ষম হউক (ওষধয়ঃ) যব বা সোমলতাদি ওষধিসকল এবং (অগ্নয়ঃ) বিদ্যুতাদি অগ্নি (পৃথক) পৃথক পৃথক (কল্পন্তাম্) সক্ষম হউক । যেমন (সমনসঃ) বিচারশীল (সব্রতাঃ) সত্যাচরণরূপ নিয়মগুলির সঙ্গে যুক্ত (অগ্নয়ঃ) অগ্নিতুল্য তেজস্বীকে (অন্তরা) (গ্রৈষ্মৌ) (ঋতূ) (অভিকল্পমানাঃ) সম্মুখ হইয়া সক্ষম করিয়া (দেবাঃ) বিদ্বান্গণ (ইন্দ্রমিব) বিদ্যুৎ সম সেই সব অগ্নির বিদ্যায় (অভিসংবিশন্তু) সকল দিক দিয়া সম্যক্ ভাবে প্রবেশ করুক, সেইরূপ (তয়া) সেই (দেবতয়া) পরমেশ্বর দেবতাসহ তোমরা উভয়ে (ইমে) এই (দ্যাবাপৃথিবী) প্রকাশ ও পৃথিবীকে (ধ্রুবে) নিশ্চল স্বরূপপূর্বক ইহাদেরও (অঙ্গিরস্বৎ) অবয়ব সমূহের কারণরূপ রসের সমান (সীদতম্) বিশেষ করিয়া জ্ঞান করতঃ প্রবর্ত্তমান থাক ॥ ৬ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে উপমালঙ্কার আছে । বসন্তু ঋতুর ব্যাখ্যানের পশ্চাৎ গ্রীষ্ম ঋতুর ব্যাখ্যা করিতেছি । হে মনুষ্যগণ তোমরা যে পৃথিবী আদি পঞ্চভূতের শরীর সম্পর্কীয় বা মানস অগ্নি আছে, যাহা ব্যতীত গ্রীষ্ম ঋতু হইতে পারেনা, তাহা জানিয়া লহ এবং উপযোগে আনিয়া সমস্ত প্রাণিদিগকে সুখ প্রদান কর ॥ ৬ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
শু॒ক্রশ্চ॒ শুচি॑শ্চ॒ গ্রৈষ্মা॑বৃ॒তূऽ অ॒গ্নের॑ন্তঃশ্লেষো᳖ऽসি॒ কল্পে॑তাং॒ দ্যাবা॑পৃথি॒বী কল্প॑ন্তা॒মাপ॒ऽ ওষ॑ধয়ঃ॒ কল্প॑ন্তাম॒গ্নয়ঃ॒ পৃথ॒ঙ্ মম॒ জ্যৈষ্ঠ্যা॑য়॒ সব্র॑তাঃ । য়েऽঅ॒গ্নয়ঃ॒ সম॑নসোऽন্ত॒রা দ্যাবা॑পৃথি॒বীऽই॒মে । গ্রৈষ্মা॑বৃ॒তূऽ অ॑ভি॒কল্প॑মানা॒ऽইন্দ্র॑মিব দে॒বাऽঅ॑ভি॒সংবি॑শন্তু॒ তয়া॑ দে॒বত॑য়াঙ্গির॒স্বদ্ ধ্রু॒বে সী॑দতম্ ॥ ৬ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
শুক্রশ্চেত্যস্যোশনা ঋষিঃ । গ্রীষ্মর্তুর্দেবতা । নিচৃদুৎকৃতিশ্ছন্দঃ ।
ষড্জঃ স্বরঃ ।
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