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यजुर्वेद अध्याय - 14

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  • यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 23
    ऋषिः - विश्वदेव ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - भुरिग्ब्राह्मी पङ्क्तिः, भुरिगतिजगती स्वरः - पञ्चमः, निषादः
    2

    आ॒शुस्त्रि॒वृद्भा॒न्तः प॑ञ्चद॒शो व्यो॑मा सप्तद॒शो ध॒रुण॑ऽ एकवि॒ꣳशः प्रतू॑र्त्तिरष्टाद॒शस्तपो॑ नवद॒शोऽभीव॒र्त्तः स॑वि॒ꣳशो वर्चो॑ द्वावि॒ꣳशः स॒म्भर॑णस्त्रयोवि॒ꣳशो योनि॑श्चतुर्वि॒ꣳशो गर्भाः॑ पञ्चवि॒ꣳशऽ ओज॑स्त्रिण॒वः क्रतु॑रेकत्रि॒ꣳशः प्र॑ति॒ष्ठा त्र॑यस्त्रि॒ꣳशो ब्र॒ध्नस्य॑ वि॒ष्टपं॑ चतुस्त्रि॒ꣳशो नाकः॑ षट्त्रि॒ꣳशो वि॑व॒र्तोऽष्टाचत्वारि॒ꣳशो ध॒र्त्रं च॑तुष्टो॒मः॥२३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒शुः। त्रि॒वृदिति॑ त्रि॒ऽवृत्। भा॒न्तः। प॒ञ्च॒द॒श इति॑ पञ्चऽद॒शः। व्यो॒मेति॒ विऽओ॑मा। स॒प्त॒द॒श इति॑ सप्तऽद॒शः। ध॒रुणः॑। ए॒क॒वि॒ꣳश इत्ये॑कऽवि॒ꣳशः। प्रतू॑र्त्ति॒रिति॒ प्रऽतू॑र्त्तिः। अ॒ष्टा॒द॒श इत्य॑ष्टाऽद॒शः। तपः॑। न॒व॒द॒श इति॑ नवऽद॒शः। अ॒भी॒व॒र्त्तः। अ॒भी॒व॒र्त्त इत्य॑भिऽव॒र्त्तः। स॒वि॒ꣳश इति॑ सऽवि॒ꣳशः। वर्चः॑। द्वा॒वि॒ꣳशः। स॒म्भर॑ण॒ इति॑ स॒म्ऽभर॑णः। त्र॒यो॒वि॒ꣳश इति॑ त्रयःऽविं॒शः। योनिः॑। च॒तु॒र्वि॒ꣳशः इति॑ चतुःऽविं॒शः। गर्भाः॑। प॒ञ्च॒वि॒ꣳश इति॑ पञ्चऽवि॒ꣳशः। ओजः॑। त्रि॒ण॒वः। त्रि॒न॒व॒ इति॑ त्रिऽन॒वः। क्रतुः॑। ए॒क॒त्रि॒ꣳश इत्ये॑कऽत्रि॒ꣳशः। प्र॒ति॒ष्ठा। प्र॒ति॒स्थेति॑ प्रति॒ऽस्था। त्र॒य॒स्त्रि॒ꣳश इति॑ त्रयःऽत्रि॒ꣳशः। ब्र॒ध्नस्य॑। वि॒ष्टप॑म्। च॒तु॒स्त्रि॒ꣳश इति॑ चतुःऽत्रि॒ꣳशः। नाकः॑। ष॒ट्त्रि॒ꣳश इति॑ षट्ऽत्रि॒ꣳशः। वि॒व॒र्त्त इति॑ विऽव॒र्त्तः। अ॒ष्टा॒च॒त्वा॒रि॒ꣳश इत्य॑ष्टाऽच॒त्वा॒रि॒ꣳशः। ध॒र्त्रम्। च॒तु॒ष्टो॒मः। च॒तु॒स्तो॒म इति॑ चतुःऽस्तो॒मः ॥२३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आशुस्त्रिवृद्भान्तः पञ्चदशो व्योमा सप्तदशो धरुणऽएकविँशः प्रतूर्तिरष्टादशस्तपो नवदशोभीवर्तः सविँशो वर्चा द्वाविँशः सम्भरणस्त्रयोविँशो योनिश्चतुर्विँशो गर्भाः पञ्चविँशःऽओजस्त्रिणवः क्रतुरेकत्रिँशः प्रतिष्ठा त्रयस्त्रिँशो ब्रध्नस्य विष्टपञ्चतुस्त्रिँशो नाकः षट्त्रिँशो विवर्ता ष्टाचत्वारिँशो धर्त्रञ्चतुष्टोमः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आशुः। त्रिवृदिति त्रिऽवृत्। भान्तः। पञ्चदश इति पञ्चऽदशः। व्योमेति विऽओमा। सप्तदश इति सप्तऽदशः। धरुणः। एकविꣳश इत्येकऽविꣳशः। प्रतूर्त्तिरिति प्रऽतूर्त्तिः। अष्टादश इत्यष्टाऽदशः। तपः। नवदश इति नवऽदशः। अभीवर्त्तः। अभीवर्त्त इत्यभिऽवर्त्तः। सविꣳश इति सऽविꣳशः। वर्चः। द्वाविꣳशः। सम्भरण इति सम्ऽभरणः। त्रयोविꣳश इति त्रयःऽविंशः। योनिः। चतुर्विꣳशः इति चतुःऽविंशः। गर्भाः। पञ्चविꣳश इति पञ्चऽविꣳशः। ओजः। त्रिणवः। त्रिनव इति त्रिऽनवः। क्रतुः। एकत्रिꣳश इत्येकऽत्रिꣳशः। प्रतिष्ठा। प्रतिस्थेति प्रतिऽस्था। त्रयस्त्रिꣳश इति त्रयःऽत्रिꣳशः। ब्रध्नस्य। विष्टपम्। चतुस्त्रिꣳश इति चतुःऽत्रिꣳशः। नाकः। षट्त्रिꣳश इति षट्ऽत्रिꣳशः। विवर्त्त इति विऽवर्त्तः। अष्टाचत्वारिꣳश इत्यष्टाऽचत्वारिꣳशः। धर्त्रम्। चतुष्टोमः। चतुस्तोम इति चतुःऽस्तोमः॥२३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 14; मन्त्र » 23
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ संवत्सर कीदृशोऽस्तीत्याह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याःæ! यूयं यस्मिन् संवत्सर आशुस्त्रिवृद् भान्तः पञ्चदशो व्योमा सप्तदशो धरुण एकविंशः प्रतूर्त्तिरष्टादशस्तपो नवदशोऽभीवर्त्तः सविंशो वर्चो द्वाविंशः संभरणस्त्रयोविंशो योनिश्चतुर्विंशो गर्भाः पञ्चविंश ओजस्त्रिणवः क्रतुरेकत्रिंशः प्रतिष्ठा त्रयस्त्रिंशो ब्रध्नस्य विष्टपं चतुस्त्रिंशो नाकः षट्त्रिंशो विवर्त्तोऽष्टाचत्वारिंशो धर्त्रं चतुष्टोमोऽस्ति, तं संवत्सरं विजानीत॥२३॥

    पदार्थः

    (आशुः) (त्रिवृत्) शीते चोष्णो द्वयोर्मध्ये च वर्त्तते सः (भान्तः) प्रकाशः (पञ्चदशः) पञ्चदशानां पूरणः पञ्चदशविधः (व्योमा) व्योमवद् विस्तृतः (सप्तदशः) सप्तदशविधः (धरुणः) धारणगुणः (एकविंशः) एकविंशतिधा (प्रतूर्त्तिः) शीघ्रगतिः (अष्टादशः) अष्टादशधा (तपः) संतापो गुणः (नवदशः) नवदशधा (अभीवर्त्तः) य आभिमुख्ये वर्त्तते सः (सविंशः) विंशत्या सह वर्त्तमानः (वर्चः) दीप्तिः (द्वाविंशः) द्वाविंशतिधा (सम्भरणः) सम्यग् धारकः (त्रयोविंशः) त्रयोविंशतिधा (योनिः) संयोजको वियोजको गुणः (चतुर्विंशः) चतुर्विंशतिधा (गर्भाः) गर्भधारणशक्तयः (पञ्चविंशः) पञ्चविंशतिधा (ओजः) पराक्रमः (त्रिणवः) सप्तविंशतिधा (क्रतुः) कर्म प्रज्ञा वा (एकत्रिंशः) एकत्रिंशद्धा (प्रतिष्ठा) प्रतिष्ठन्ति यस्यां सा (त्रयस्त्रिंशः) त्रयस्त्रिंशत् प्रकारः (ब्रध्नस्य) महतः (विष्टपम्) व्याप्तिम्। अत्र विष् धातोर्बाहुलकादौणादिकस्तपः प्रत्ययः (चतुस्त्रिंशः) चतुस्त्रिंशद्विधः (नाकः) आनन्दः (षट्त्रिंशः) षट्त्रिंशत्प्रकारः (विवर्त्तः) विविधं वर्तते यस्मिन् सः (अष्टाचत्वारिंशः) अष्टाचत्वारिंशद्धा (धर्त्रम्) धारणम् (चतुष्टोमः) चत्वारः स्तोमाः स्तुतयो यस्मिन् संवत्सरे सः। [अयं मन्त्रः शत॰८.४.१.९ व्याख्यातः]॥२३॥

    भावार्थः

    यस्य संवत्सरस्य सम्बन्धिनो भूतभविष्यद्वर्त्तमानादयोऽवयवाः सन्ति तस्य सम्बन्धादेते व्यवहारा भवन्तीति यूयं बुध्यध्वम्॥२३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब संवत्सर कैसा है, यह विषय अगने मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! तुम लोग इस वर्त्तमान संवत् में (आशुः) शीघ्र (त्रिवृत्) शीत और उष्ण के बीच वर्त्तमान (भान्तः) प्रकाश (पञ्चदशः) पन्द्रह प्रकार का (व्योमा) आकाश के समान विस्तारयुक्त (सप्तदशः) सत्रह प्रकार का (धरुणः) धारण गुण (एकविंशः) इक्कीस प्रकार का (प्रतूर्त्तिः) शीघ्र गति वाला (अष्टादशः) अठारह प्रकार का (तपः) सन्तापी गुण (नवदशः) उन्नीस प्रकार का (अभीवर्त्तः) सम्मुख वर्त्तने वाला गुण (सविंशः) इक्कीस प्रकार की (वर्चः) दीप्ति (द्वाविंशः) बाईस प्रकार का (सम्भरणः) अच्छे प्रकार धारणकारक गुण (त्रयोविंशः) तेईस प्रकार का (योनिः) संयोग-वियोगकारी गुण (चतुर्विंशः) चौबीस प्रकार की (गर्भाः) गर्भ धारण की शक्ति (पञ्चविंशः) पच्चीस प्रकार का (ओजः) पराक्रम (त्रिणवः) सत्ताईस प्रकार का (क्रतुः) कर्म्म वा बुद्धि (एकत्रिंशः) एकतीस प्रकार की (प्रतिष्ठा) सब की स्थिति का निमित्त क्रिया (त्रयस्त्रिंशः) तेंतीस प्रकार की (ब्रध्नस्य) बड़े ईश्वर की (विष्टपम्) व्याप्ति (चतुस्ंित्रशः) चौंतीस प्रकार का (नाकः) आनन्द (षट्त्रिंशः) छत्तीस प्रकार का (विवर्त्तः) विविध प्रकार से वर्त्तन का आधार (अष्टाचत्वारिंशः) अड़तालीस प्रकार का (धर्त्रम्) धारण और (चतुष्टोमः) चार स्तुतियों का आधार है, उस को संवत्सर जानो॥२३॥

    भावार्थ

    जिस संवत्सर के सम्बन्धी भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल आदि अवयव हैं, उस के सम्बन्ध से ही से सब संसार के व्यवहार होते हैं, ऐसा तुम लोग जानो॥२३॥

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    विषय

    राजा के नाना स्वरूप ।

    भावार्थ

    १. ( आशुः त्रिवृत् ) आशु शीघ्रकारी, वायु के समान बलवान् पुरुष वायु के समान तीनों लोकों में व्याप्त और तीनों बलों से युक्त होता है । और जिस प्रकार ( त्रिवृत् ) शीत, उष्ण और शीतोष्ण तीन प्रकार की ऋतुओं से युक्त संवत्सर होता है उसी प्रकार प्रजापति राजा भी शीत, उष्ण और सम इन तीन स्वभाव वाला होता है उसको 'आशु' कहते हैं। अथवा जिसके अधीन तीन शक्तियां हों या जिसके अमात्य तीन हो वह अपने नियमों को शीघ्र कर लेने वाला होने से 'आशु नाम प्रजापति कहाता है । वह प्राण वायु के समान त्रिवृत् वीर्य होता है । २. ( भान्तः पञ्चदशः ) १५ गुण वीर्य या वीर सहायक पुरुषों से युक्त राजा 'भान्त' नामक है। अर्थात् जिस प्रकार चन्द्रमा प्रतिपक्ष में बहती १५ कलाओं से युक्त होता है उसी प्रकार १५ राज्यांगों से युक्त प्रजापालक राजा १५ गुण वीर्य होने से चन्द्रमा के समान 'भान्त' कहाता है । ३. ( व्योमा सप्तदश: ) जिस प्रकार संवत्सर में १५ मास और ५ ऋतु होने से १७ विभाग होते हैं, इसी प्रकार वह प्रजापालक राजा जो इसी प्रकार अपने राज्य के १७ विभाग बना कर रखता है वह ( व्योमा ) विशेष रक्षाकारिणी शक्ति से सम्पन्न होने से 'व्योम' प्रजापति कहाता है । ४. ( धरुणः एकविंश: ) जिस प्रकार सूर्य १२ मास, ५ऋतु, तीन लोक, इन २१ वीर्यों सहित सबका आश्रय होकर अकेला विराजता है और 'वरुण' कहाता है। उसी प्रकार जो प्रजा पालक राजा अपने राष्ट्र मैं २१ वीर्यों या प्रबल विभागों या वीर सहायक अधिकारियों सहित प्रजा का पालन करता, सबका आश्रय रहता है वह भी 'एकविंश धरुण कहाता है । ५. ( प्रतूर्त्तिः अष्टादशः ) जिस प्रकार संवत्सर रूप प्रजापति के १२ मास, ६ ऋतु या १२ मास ५ ऋतु और १८ वां स्वयं होकर समस्त जन्तुओं को खूब बढ़ाता है उसी प्रकार जो राजा स्वयं अपने राज्य के १८ विभाग करके प्रजाओं की वृद्धि और उनको हृष्ट पुष्ट करता है वह 'प्रसूति' कहाता है । ६. ( तपः नवदशः ) जिस प्रकार १२ मास, ६ ऋतु और आप स्वयं मिलकर १९ वां होकर समस्त प्राणियों को संतप्त करने से आदित्य रूप संवत्सर 'तपः' है उसी प्रकार राजा भी १८ विभागों के राज्य पर स्वयं १९ वां अधिपति होकर शासन करता हुआ शत्रुओं को संतापित करे, वह भी 'तप' कहाता है । ७. ( अभीवर्तः सविंशः ) जिस प्रकार १२ मास, ७ ऋतुओं से आदित्य रूप संवत्सर समस्त प्राणियों को पुनः प्राप्त होने से 'अभिवर्त्त' कहाता है उसी प्रकार राज्य के १९ विभागाध्यक्षों पर स्वयं २० वां होकर शासन करने वाला प्रजापति राजा उस सूर्य के समान समस्त राष्ट्र में व्यापक प्रभाव वाला होकर 'अभीवर्त' पद को प्राप्त करता है । ८ ( वर्च: द्वाविंशः ) जिस प्रकार १२ मास, ७ ऋतु, दिन और रात्रि उनका प्रवर्तक स्वयं २२ व आदित्य रूप संवत्सर वर्चस्वी होने से 'वर्चः 'कहाता है, उसी प्रकार जो राजा १२ मास, ७ ऋतु, दिन और रात्रि के लक्षणों से युक्त २१ विभागाध्यक्षों पर स्वयं २२ वां होकर विराजता है वह भी वर्चस्वी होने से 'वर्चः' पद का भागी होता है । ९. ( सम्भरणः त्रयोविंशः ) जिस प्रकार १३ मास, ७ ऋतु, २ रात दिन, इन २२ का विधाता स्वयं २३ वां आदित्य रूप संवत्सर समस्त प्राणियों का भरण पोषण कर्त्ता होने से 'सम्भरण' कहाता है उसी प्रकार २२ विभागाध्यक्षों का प्रवर्त्तक २३ वां स्वयं समस्त प्रजाओं का भरण पोषण करने वाला राजा 'सम्भर पदका अधिकारी है । १०. ( योनिः चतुर्विंशः ) १२ मास, २४ अर्ध मासों से युक्त आदित्य रूप संवत्सर समस्त प्राणियों का आश्रय होने से योनि कहता है उसी प्रकार २४ विभागाध्यक्षों का प्रवर्त्तक राजा भी सबका आश्रय होने से 'योनि' कहाता है । ११. ( गर्भाः पञ्चविंशः ) २४ अर्ध मासों का प्रवर्तक स्वयं २५ वां आदित्य-रूप संवत्सर जिस प्रकार १३ वें माल का रूप धर कर समस्त अन्य ऋतुओं में अंशांशि भाव से प्रविष्ट होता है और 'गर्भ' नाम से कहाता है उसी प्रकार २४ विभागाध्यक्षों का प्रवर्तक राजा पृथक् स्वरूप रह कर भी सब पर अपना वश करके 'गर्भ' नाम से कहाता है । १२. ( ओजस्त्रिणवः) २४ अर्ध मास और २ रात्रि दिन इन २६ सों पर स्वयं २७ वां प्रवर्तक होकर विराजने वाला आदित्य संवत्सर ओजस्वी होने से 'ओज' कहता है उसी प्रकार २६ अध्यक्षों का स्वयं प्रवर्तक २७ वां राजा ओजस्वी वज्र के समान पराक्रमी होकर 'ओज: ' कहाता है । १३. ( क्रतु: एकत्रिंश: ) २४ अर्धमास और ६ ऋतु सब मिलकर जिस प्रकार ३० का समष्टि विभागों रूप संवत्सर आदित्य स्वयं सबका कर्त्ता होकर 'ऋतु' कहता है उसी प्रकार ३० विभागों के शासक राजा राज्यकर्त्ता होने से 'क्रतु' कहाता है । १४ ( प्रतिष्ठा त्रयस्त्रिंश:) २४ अर्धमात्र, ९ ऋतु, २ दिन-रात्रि, उन का प्रवर्त्तक ३३ वां स्वयं आदित्य संवत्सर सबकी प्रतिष्ठा या स्थिति का कारण होने से 'प्रतिष्ठा' कहाता है, उसी प्रकार ३२ विभागों पर स्वयं ३३ वां प्रवर्तक राजा सबका प्रतिष्ठापक होने से 'प्रतिष्ठा' पद को प्राप्त होता है। १५ ( ब्रध्नस्य विष्टपं चतुस्त्रिंश: ) २४ अर्धमास सात ऋतु २ रात दिन, इनका प्रवर्त्तक संवत्सर आदित्य जिस प्रकार स्वयं ३४ वां है और वह 'ब्रध्न का विष्टप' अर्थात् सर्वाधार सूर्य का लोक या पद इस नाम से कहाता है उसी प्रकार ३३ विभागों का प्रवर्तक शासक स्वयं ३४ वां होकर ' ब्रध्न का विष्टप' 'सूर्य का पद सम्राट्` कहाता है । १६. ( नाक: षट्त्रिंश: ) २४ अर्धमास, १२ मास इनका प्रवर्त्तक संवत्सर सब के दुःखों का नाशक होने से 'नाक' कहाता है इसी प्रकार ३६ विभागों का राजतन्त्र सुखप्रद होने से 'नाक' कहाता है । १७. ( विवर्त्तः अष्टाचत्वारिंशः ) २६ अर्धमास और २३ मास, २ अहोरात्र, ७ ऋतु इनका प्रवर्तक सूर्य स्वयं इनका स्वरूप होकर 'विवर्त्त' कहाता है उसी प्रकार ४८ विभागों का प्रवर्तक राजा समस्त प्रजाओं को विविध मार्गों में चलाने हारा होने से 'विवर्त्त' कहाता है। १८. ( धत्रं चतुष्टोमः ) चारों दिशाओं में अपने बल वेग से गमन करने वाले वायु के समान अपने संहारक पराक्रम से चारों दिशों का विजय करने में समर्थ अपनी राज्य प्रतिष्ठा करने वाला विजेता राजा 'धर्त्र' कहाता है । शत० ८ । १ । १ । १-१८ ॥ वीर्यं वै स्तोमाः । ता० २ ।५ । ४ । प्राणा वै स्तोमाः । शत० ८ । १ । ३॥ इस आधार पर स्तोम त्रिवृद् आदि वीर्य अर्थात् अधिकारों और उनके सञ्चालक और धारक अधिकारी अध्यक्षों का वाचक है ।

    टिप्पणी

    अतः परं चतुर्थी चितिः । मेधो विनो देवता । द० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषयो ऋषयः । मेधाविनो देवताः । भुरिग् विकृतिः । मध्यमः ॥

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    विषय

    आशुः, चतुष्टोमः

    पदार्थ

    १. (आशुः) [अश्नुते कर्मसु] = तू सदा कर्मों में व्याप्त होनेवाला बनता है और आलस्य को छोड़कर शीघ्रता से कार्यों को करनेवाला होता है। कर्मों में व्याप्त होते हुए तू (त्रिवृत्) = [त्रिषु वर्त्तते] 'धर्म, अर्थ, काम' तीनों पुरुषार्थों में समरूप से वर्त्तनेवाला होता है। केवल 'धर्म' को अपनाकर, जटाधारी बन, अग्नि में आहुति ही नहीं देता रहता। केवल 'अर्थ' को अपनाकर 'मनी मेकिंग मशीन' = धनार्जन यन्त्र ही नहीं हो जाता और केवल 'काम' को ध्येय बनाकर निकम्मा नहीं हो जाता। २. (भान्तः) = ' भा कान्तिरेव अन्तः स्वरूपं यस्य' तू कान्त रूपवाले चन्द्रमा के समान बनता है, सदा आह्लादमय तेरा रूप होता है [चदि आह्लादे] और (पञ्चदशः) = पाँचों ज्ञानेन्द्रियों, पाँचों कर्मेन्द्रियों व पाँचों प्राणों को उत्तम बनाकर पन्द्रहवाला बनता है। ३. (व्योमा) = 'विविधम् अवति'- तू (वी) = प्रकृति (ओम्) = परमात्मा व (अन्) = जीव [वी+ओम्+ अन्=व्योमन्] इन सभी का अपने में समन्वय करता है और सचमुच इन विविध तत्त्वों का अपने में रक्षण करता है। प्रकृति के अवन से तेरा भौतिक [material] अंश ठीक बनता है, जीव के अवन से तेरा सामाजिक [social] अंश ठीक होता है और प्रभु के अवन से तेरा अध्यात्म [spiritual] अंश ठीक होता है। इस प्रकार तू (सप्तदशः) = 'पाँच ज्ञानेन्द्रिय+पाँच कर्मेन्द्रिय+ पाँच प्राण+मन व बुद्धि' इन सत्रह तत्त्वों को ठीक रखनेवाला होता है। ४. (धरुणः) = [धरुण आदित्यः - श० ८।१।१।१२] आदित्य के समान प्रकाश आदि उत्तम तत्त्वों का आदान व धारण करनेवाला बनता है। इसी से तू (एकविंश:) = शरीर के धारण करनेवाले २१ तत्त्वोंवाला होता है ['ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभ्रत: ] ५. (प्रतूर्ति:) = [प्रकृष्टा तूर्ति: त्वरा यस्य] जिसके जीवन में शीघ्रता है व आलस्य का अभाव है, ऐसा तू (अष्टादश:) = अठारह तत्त्वोंवाले इस सूक्ष्म शरीर का अधिष्ठाता (विराट्) = चमकनेवाला आत्मा बनेगा। ६. (तपः) = यदि तू तपस्या की प्रतिमूर्त्ति खूब तपस्वी जीवनवाला बनेगा तो (नवदशः) = शरीर के नौ द्वारों [अष्टाचक्रा नवद्वारा०] तथा दश प्राणों का अपनानेवाला होगा। तपस्या तेरे इन इन्द्रिय-द्वारों व प्राणों को स्वस्थ व शक्ति सम्पन्न बनाएगी। ७. (अभीवर्त्तः) = [अभि-वर्तते] उस प्रभु की ओर जानेवाला होगा तो (सविंश:) = तू बीस के साथ होगा। ये शरीर की दस इन्द्रियाँ व दस प्राण तेरे अधीन होंगे, ये तेरा साथ न छोड़नेवाले होंगे। प्रभु की ओर झुकाव से - प्रातः - सायं प्रभु स्मरण से प्रभु की शक्ति हमारी इन्द्रियों व प्राणों को सशक्त बनाएगी। ८. (वर्चः) = प्रभु - स्मरणवाला तू तब (वर्चस्वी) = वर्चस् का पुतला ही बन जाएगा तो (द्वाविंशः) = दस इन्द्रियों, दस प्राणों व मन और बुद्धि को पूर्ण स्वस्थ बनानेवाला होगा। ९. (सम्भरणः) = अपने में शक्ति का सम्यक् भरण करनेवाला तथा शक्ति के द्वारा सबका सम्यक् भरण करनेवाला तू (त्रयोविंश:) = दस इन्द्रियाँ, दस प्राण, मन-बुद्धि तथा चित्तवाला होगा। तेरे ये तेईस-के-तेईस तत्त्व ठीक होंगे। १०. (योनिः) = [यु- मिश्रण अमिश्रण] सब अच्छाइयों को अपने से संपृक्त व बुराइयों को असंपृक्त करनेवाला तू (सर्वस्थानभूतः) = सबको आश्रय देनेवाला (चतुर्विंश:) = चौबीस गुणोंवाला होगा। दर्शन में चौबीस ही गुण हैं, तथा मोक्ष में इन्हीं चौबीस शक्तियों से जीव सुख भोगता है। ११. (गर्भः) = [व्यत्ययेन बहुत्वम्] [गिरति अनर्थान् इति गर्भः] = सब अनर्थों को तू नष्ट करनेवाला हुआ है, इसी से तू (पञ्चविंश:) = चौबीस गुणों वा शक्तियों का अधिष्ठाता पच्चीसवाँ पुरुष हुआ है। १२. (ओज:) = तू ओजस्वी बना है [वज्रो वा ओजः] अनर्थों को दूर करनेवाले वज्र के समान तू हुआ है और इसी से चौबीस गुण तथा मन-बुद्धि व आत्म-तत्त्ववाला (त्रिणवः) = ३ गुणा ९ सताईस तत्त्वोंवाला तू है । १३. (ऋतु:) = ओजस्वी बने रहने के लिए तू ऋतुमय जीवनवाला है, सदा यज्ञशील है और इसी से (एकत्रिंश:) = चौबीस गुणों तथा सात रत्नोंवाला [दमे दमे सप्तरत्नं दधानम्] हुआ है। १४. प्रतिष्ठा यज्ञों के द्वारा तू प्रभु में प्रतिष्ठित हुआ है और (त्रयस्त्रिंशः) = सब तेतीस देवोंवाला बना है। १५• (ब्रध्नस्य विष्टपम्) = [असौ वा आदित्यो ब्रध्नः - श० ८|४|१|२३] ब्रह्मरूप = आधारवाला होकर तू 'आदित्यलोक' वाला हो गया है [ब्रध्नस्य विष्टपं स्वराज्यस्थापकम्] तू स्वतन्त्र, स्वराट् हो गया है। तुझमें किसी प्रकार की परतन्त्रता नहीं रह गई। इसी से (चतुस्त्रिंशः) = ३३ देव व ३४ वें महादेववाला तू है । १६. (नाक:) = अब स्वतन्त्र होकर - स्वराट् बनकर [सर्वमात्मवशं सुखम्] तू दुःख के लवलेश से भी रहित स्वर्ग में पहुँच गया है [न अकं दुखं यत्र] और (षट्त्रिंशः) = तू तेतीस देवों तथा धर्मार्थ- कामरूप तीनों पुरुषार्थोंवाला हुआ है। १७. (विवर्त्तः) = आज तू विशिष्ट ही वर्त्तनवाला बना है, तेरे सब कर्म दिव्य हो गये हैं और (अष्टाचत्वारिंशः) = २७ भागों में बटी हुई दैवी सम्पत् तथा शरीर की २१ शक्तियों को अपने में धारण करनेवाला बना है। भौतिक व आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टियों से तेरा जीवन ऊँचा बना है। १८. (धर्त्रम्) = [वायुर्वाव धर्त्रम्] विशिष्ट क्रियाओंवाला बनकर तू वायु की भाँति सबका धारण करनेवाला है। तेरी गति स्वाभाविक रूप से है और तू सभी का हित करने में प्रवृत्त है, तू सभी का धारण कर रहा है और (चतुष्टोमः) = [चतुर्भिः दिग्भिः स्तूयते] चारों दिशाओं में तेरा स्तवन- ही स्तवन है, तेरी सर्वत्र कीर्ति हो रही है। अथवा चारों वेदज्ञानों के द्वारा तेरा स्तवन चल रहा है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारा जीवन, ऊपर की अठारह बातों को धारण करके, पूर्ण यज्ञिय बन जाए, हम 'आशु' से जीवन को प्रारम्भ करें, शीघ्रता से कार्यों को करनेवाले बनें और 'चतुष्टोम' पर हमारे जीवन का अन्त हो। चारों वेदों से हमारा प्रभु-स्तवन चल रहा हो ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    भूत, भविष्य, वर्तमान हे काळ संवत्सराचे अवयव आहेत. त्यामुळेच या जगातील सर्व व्यवहार होतात हे माणसांनी जाणावे.

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    विषय

    पुढील मंत्रात संवत्सर कसा आहे, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, तुम्ही वर्तमान (संवत्सर) संततमधे) (काय काय असते, हे जाणून घ्या) या संवत्सरात (आशु:) शीघ्र) (त्रिवृत्) शांत, उष्ण आणि समशीतोष्ण या तीन क्रारचा (भान्त:) प्रकाश वा वातावरण असते. (पंचदश:) पंधरा प्रकारचा (न्योमा) आकाशवत विस्तार असतो. (सप्तदश:) सतरा प्रकारे (धरूण:) धारणकर्ता गुण असतात. (एकविंश:) एकवीस प्रकारचे (प्रतूर्चि:) शीघ्रगामी गुण आहे. (अष्टादश:) अठरा प्रकारचे (तप:) संताप देणारे गुण असतात. (नवदश:) एकोणीस प्रकारचे (अभीवर्त्त) सम्मुख दिसणारे गुण असतात. (सविंश:) एकवीस प्रकारची (वर्च:) दीप्ती असते. (द्विविंश:) बावीस प्रकारचे (सम्मरण:) चांगल्याप्रकारे धारण करणारे गुण असतात. (त्रयोविंश:) तेवीस प्रकारचे (योनि:) संभोग आणि वियोग करणारे गुण असतात. (चतुर्विश:) चोवीस प्रकारची (गर्भा:) गर्भधारणाची शक्ती असते. (पंचविंश:) पंचवीस प्रकारचा (ओज:) पराक्रम असतो (वा करता येतो) (त्रिणव:) सत्तावीस प्रकारचे (क्रतु:) कर्म वा विचार असतात. (एकत्रिंश:) एकतीस प्रकारची (प्रतिष्ठा सर्वांच्या स्थिती वा अस्तित्वाचे जे कारण म्हणजे क्रिया असते (त्रयत्रिंश:) तेहतीस प्रकारची (ब्रध्नस्य) महान ईश्वराची (विष्टपम्) व्याप्ती असते. (चतुस्त्रिंश:) चौतीस प्रकारचा (नाक:) आनंद आणि (षट्त्रिंश:) छत्तीस प्रकारचा (विवर्त्त:) विविधप्रकारे व्यवहार करण्याचा आधार असतो (अष्टाचत्वारिंश:) अठ्ठेचाळीस प्रकारे (धर्त्रम्) धारणकर्ता गुण असतात. अशाप्रकारचे (चतुष्टोम:) या संवत्कराची चार प्रकारे स्तुती करता येते (वर्णन करता येते) (याउपरिवर्णित वैशिष्ट्यें आणि गुणांच्या आधारात) तुम्ही संवत्सर म्हणून जाणा. ॥23॥^(संवत्वारामधील संख्या आणि त्यांची वैशिष्ट्यें गुणादीची सविस्तर व स्पष्ट व्याख्या विद्वज्जनांच्या शोधाचा विषय आहे)

    भावार्थ

    भावार्थ - भूत, भविष्य आणि वर्तमान आदी काळ ज्या संवत्सराचे अवयव आहेत, त्याच्या संबंधानेच जगातील सर्व व्यवहार संभवतात. तुम्ही लोक हे निश्चितपणे जाणून घ्या. ॥23॥

    टिप्पणी

    (या मंत्रात या संख्या 15, 17, 21, 28, 19, 21, 22, 23, 24, 25, 27, 31, 33, 34, 36, 48, 4)

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The year contains heat, cold and moderate heat, cold. The moon waxes and wanes for fifteen days. The year, like the vast atmosphere is seventeen fold. The year, the support of all substances is twenty one fold. The fast fleeting year is eighteen fold. The year giving warmth to all like the sun, is nineteen fold. The year that confronts men is twentyfold. The powerful year is twenty twofold. The year, the nourished of all is twenty three-fold. The year, the resort of all beings is twenty four-fold. The year that keeps human beings under its control is twenty fivefold. The vigorous year is twenty seven-fold. The year, the field for work is thirty-one-fold. The year, the cause of the residence of all, is thirty-three-fold. The year, pervaded by the Almighty Father, is thirty-four-fold. The year, the giver of happiness is thirty six-fold. The year, in which we move in various ways, is forty eight-fold. The year, is the retainer of all objects, and the support of praises in the four directions. O men know this to be the year.

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    Meaning

    In the year round of yajna there is the spontaneous hymn (song) of the threefold stoma sacred for the purity of body, mind and speech. There is the fifteen part song of light and the moon, the seventeen part song for the sky and the year. There is the twenty-one part stoma for stability, eighteen part song of fast motion, nineteen part song of austerity and discipline, twenty part song of open conduct, twenty-two part song of brilliance, twenty-three part song of sustenance, twenty-four part song of union and discussion, twenty-five part song of procreation, twenty-seven part song of prowess and lustre, thirty-one part song of karma and intelligence, thirty-three part song of stability, thirty-four part song of the height of heaven and divinity, thirty-six part song of paradisal bliss, forty-eight part song of the modes of existence, and four stage song of celebration in chatushtoma yajna in the year.

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    Translation

    Quick is the Trivrt (three-fold) praise-song. (1) Shining is the fifteen. (2) The Space is the seventeen. (3) The supporter (i. e. the sun) is the twenty-one. (4) The extreme quickness is the eighteen. (5) The austerity is the nineteen. (6) The cycle of the year is the twenty. (7) The lustre is the twenty-two. (8) The maintenance is the twenty-three. (9) The womb is the twenty-four. (10) The embryos are the twenty-five. (11) The vigour is the twenty-seven. (12) The action is the thirty-one. (13) The basis of existence is the thirty-three. (14) The sun's station is the thirty-four. (15) The sorrowless station is the thirty-six. (16) The revolving world is the forty-eight. (17) The sustainer world is the fourfold praise-song. (18)

    Notes

    Inthis verse there is an enumeration of various stomas, i. e. hymns of praise. Trivrt, paftcadasa, ekavimSa etc. are the names of stomas. Here some sort of description is given to each stoma, e. g. आशुस्त्रिवृत् , quick is the trivrt, and so on. The commentrators have suggested that 'you are' is to be added to every section of the kandikà, meaning : ‘О brick, you are trivrt, the omnipresent. ’ ASuh has been translated as, that which is present everywhere, derived from the अशूङ् व्याप्तौ, to pervade. Now that which pervades every place is vayuh, therefore Т]: means váyuh. Following this style, far-fetched explanataions have been made for each and every stoma. Trivrt, triple praise-hymn, or a nine-verse hymn. Pancadaéa, ѕарќайаба etc. are the praise-hymns of so many verses, (number indicatrd by the name itself). Bhantah, चंद्रमा वज्रो वा, the moon, or the thunderbolt. Vyoma, आकश::, the space. व्योमा सम्वत्सर:, the year. Now a justification 15 sought for seventeen, by adding twelve months and the five seasons (while seasons are six). Such tiresome effort has been made for every section of this lengthy verse, but we do not find the effort. rewarding enough. Dharuna, supporter, i. e. aditya, the Sun. Pratürtih, extreme quickness. प्रतूर्ति: संवत्सर:, the year, Tapah, austerity; संवत्सरस्तप: the year. Abhivartah, अभिवर्त्यते आवर्त्यते इति अभीवर्त: the cycle of the year; सम्वत्सर: | Varcah, तेज:, lustre. वर्च: इति संवत्सर:, the year. . Sambharanah, maintenance, or maintainer, संभरण: संवत्सर:, the year. Yonih, womb. Garbhah, embryos. Ojah, vigour. Kratuh, $H, action. Pratistha, स्थितिहेतु: base or basis of existence. Bradhnasya vistapam, बध्न: सूर्य: तस्य विष्टपं स्थानं लोको वा, Sun's station. Nakah, the sorrowless world, i. e. heaven. Vivarttah, the revolving world; or the revolving one, the intercalary month. Strangely, all of these have been interpreted as संवत्सर the year, by the commentators, and stranger justifications have been offered for each and every number of the stoma's name. It shows that there is nothing which cannot be justified this way or that way. Dhartram, धारक:, one that holds, or supports. वायुर्वै धर्त्रं जगदाधारत्वात्, the elemental air. Catustomah, four-fold praise hymn.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ সংবৎসর কীদৃশোऽস্তীত্যাহ ॥
    এখন সংবৎসর কীরূপ হয়, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! তোমরা এই বর্ত্তমান সম্বতে (আশুঃ) শীঘ্র (ত্রিবৃৎ) শীত ও উষ্ণ উভয়ের মধ্যে বর্ত্তমান (ভান্তঃ) প্রকাশ (পঞ্চদশঃ) পনের প্রকারের (ব্যোমা) আকাশের সমান বিস্তারযুক্ত (সপ্তদশঃ) সতের প্রকারের (ধরুণঃ) ধারণগুণ (একবিংশঃ) একুশ প্রকারের (প্রতূর্ত্তিঃ) শীঘ্র গতি সম্পন্ন (অষ্টাদশঃ) আঠার প্রকারের (তপঃ) সন্তাপী গুণ (নবদশঃ) উনিশ প্রকারের (অভীবর্ত্তঃ) সম্মুখ ব্যবহার যোগ্য গুণ (সবিংশঃ) একুশ প্রকারের (বর্চঃ) দীপ্তি (দ্বাবিংশ) বাইশ প্রকারের (সম্ভরণ) উত্তম প্রকার ধারণকারক গুণ (ত্রয়োবিংশঃ) তেইশ প্রকারের (য়োনিঃ) সংযোগ-বিয়োগকারী গুণ (চতুর্বিংশঃ) চব্বিশ প্রকারের (গর্ভাঃ) গর্ভধারণের শক্তি (পঞ্চবিংশ) পঁচিশ প্রকারের (ওজঃ) পরাক্রম (ত্রিণবঃ) সাতাইশ প্রকারের (ক্রতুঃ) কর্ম্ম বা বুদ্ধিঃ (একত্রিংশঃ) একত্রিশ প্রকারের (প্রতিষ্ঠা) সকলের স্থিতির নিমিত্ত ক্রিয়া (ত্রয়স্ত্রিংশঃ) তেত্রিশ প্রকারের (ব্রধ্নস্য) মহৎ ঈশ্বরের (বিষ্টপন্) ব্যাপ্তি (চতুস্ত্রিংশঃ) চৌত্রিশ প্রকারের (নাকঃ) আনন্দ (ষট্ত্রিংশঃ) ছত্রিশ প্রকারের (বিবর্ত্তঃ) বিবিধ প্রকারে ব্যবহার করার আধার (অষ্টাচত্বারিংশঃ) আটচল্লিশ প্রকারের (ধর্ত্রম্) ধারণ এবং (চতুষ্টোমঃ) চারি স্তুতিগুলির আধার তাহাকেই সম্বৎসর জানিয়া লও ॥ ২৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যে সম্বৎসরের সম্বন্ধীয় ভূত, ভবিষ্যৎ ও বর্ত্তমান কালাদি অবয়ব আছে তাহার সম্বন্ধ দ্বারাই সব সংসারের ব্যবহার হয় এমন তোমরা জানিবে ॥ ২৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    আ॒শুস্ত্রি॒বৃদ্ভা॒ন্তঃ প॑ঞ্চদ॒শো ব্যো॑মা সপ্তদ॒শো ধ॒রুণ॑ऽ একবি॒ꣳশঃ প্রতূ॑র্ত্তিরষ্টাদ॒শস্তপো॑ নবদ॒শো᳖ऽভীব॒র্ত্তঃ স॑বি॒ꣳশো বর্চো॑ দ্বাবি॒ꣳশঃ স॒ম্ভর॑ণস্ত্রয়োবি॒ꣳশো য়োনি॑শ্চতুর্বি॒ꣳশো গর্ভাঃ॑ পঞ্চবি॒ꣳশऽ ওজ॑স্ত্রিণ॒বঃ ক্রতু॑রেকত্রি॒ꣳশঃ প্র॑তি॒ষ্ঠা ত্র॑য়স্ত্রি॒ꣳশো ব্র॒ধ্নস্য॑ বি॒ষ্টপং॑ চতুস্ত্রি॒ꣳশো নাকঃ॑ ষট্ত্রি॒ꣳশো বি॑ব॒র্তো᳖ऽষ্টাচত্বারি॒ꣳশো ধ॒র্ত্রং চ॑তুষ্টো॒মঃ ॥ ২৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    আশুস্ত্রিবৃদিত্যস্য বিশ্বদেব ঋষিঃ । য়জ্ঞো দেবতা । পূর্বস্য ভুরিগ্ব্রাহ্মী পংক্তিশ্ছন্দঃ । পঞ্চমঃ স্বরঃ । গর্ভা ইত্যুত্তরস্য ভুরিগতিজগতী ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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