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यजुर्वेद अध्याय - 14

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  • यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 9
    ऋषिः - विश्वेदेवा ऋषयः देवता - प्रजापत्यादयो देवताः छन्दः - निचृद्ब्राह्मी पङ्क्तिः,शक्वरी स्वरः - पञ्चमः, धैवतः
    2

    मू॒र्धा वयः॑ प्र॒जाप॑ति॒श्छन्दः॑ क्ष॒त्रं वयो॒ मय॑न्दं॒ छन्दो॑ विष्ट॒म्भो वयोऽधि॑पति॒श्छन्दो॑ वि॒श्वक॑र्मा॒ वयः॑ परमे॒ष्ठी छन्दो॑ ब॒स्तो वयो॑ विब॒लं छन्दो॒ वृष्णि॒र्वयो॑ विशा॒लं छन्दः॒ पु॑रुषो॒ वय॑स्त॒न्द्रं छन्दो॑ व्या॒घ्रो वयोऽना॑धृष्टं॒ छन्दः॑ सि॒ꣳहो वय॑श्छ॒दिश्छन्दः॑ पष्ठ॒वाड् वयो॑ बृह॒ती छन्द॑ऽ उ॒क्षा वयः॑ क॒कुप् छन्द॑ऽ ऋष॒भो वयः॑ स॒तोबृ॑ह॒ती छन्दः॑॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मू॒र्धा। वयः॑। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। छन्दः॑। क्ष॒त्रम्। वयः॑। मय॑न्दम्। छन्दः॑। वि॒ष्ट॒म्भः। वयः॑। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। छन्दः॑। वि॒श्वक॒र्म्मेति॑ वि॒श्वऽक॑र्म्मा। वयः॑। प॒र॒मे॒ष्ठी। प॒र॒मे॒स्थीति॑ परमे॒ऽस्थी। छन्दः॑। ब॒स्तः। वयः॑। वि॒ब॒लमिति॑ विऽब॒लम्। छन्दः॑। वृष्णिः॑। वयः॑। वि॒शा॒लमिति॑ विऽशा॒लम्। छन्दः॑। पुरु॑षः। वयः॑। त॒न्द्रम्। छन्दः॑। व्या॒घ्रः। वयः॑। अना॑धृष्टम्। छन्दः॑। सि॒ꣳहः। वयः॑। छ॒दिः। छन्दः॑। प॒ष्ठ॒वाडिति॑ पष्ठ॒ऽवाट्। वयः॑। बृ॒ह॒ती। छन्दः॑। उ॒क्षा। वयः॑। क॒कुप्। छन्दः॑। ऋ॒ष॒भः। वयः॑। स॒तोबृ॑ह॒तीति॑ स॒तःऽबृ॑हती। छन्दः॑ ॥९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मूर्धा वयः प्रजापतिश्छन्दः क्षत्रँवयो मयन्दञ्छन्दो विष्टम्भो वयोधिपतिश्छन्दो विश्वकर्मा वयः परमेष्ठी छन्दो बस्तो वयो विवलञ्छन्दो वृष्णिर्वयो विशालञ्छन्दः पुरुषो वयस्तन्द्रञ्छन्दो व्याघ्रो वयो नाधृष्टञ्छन्दः । सिँहो वयश्छदिश्छन्दः पष्ठवाड्वयो बृहती छन्दऽउक्षा वयः ककुप्छन्दऽऋषभो वयः सतोबृहती छन्दोनड्वान्वयः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मूर्धा। वयः। प्रजापतिरिति प्रजाऽपतिः। छन्दः। क्षत्रम्। वयः। मयन्दम्। छन्दः। विष्टम्भः। वयः। अधिपतिरित्यधिऽपतिः। छन्दः। विश्वकर्म्मेति विश्वऽकर्म्मा। वयः। परमेष्ठी। परमेस्थीति परमेऽस्थी। छन्दः। बस्तः। वयः। विबलमिति विऽबलम्। छन्दः। वृष्णिः। वयः। विशालमिति विऽशालम्। छन्दः। पुरुषः। वयः। तन्द्रम्। छन्दः। व्याघ्रः। वयः। अनाधृष्टम्। छन्दः। सिꣳहः। वयः। छदिः। छन्दः। पष्ठवाडिति पष्ठऽवाट्। वयः। बृहती। छन्दः। उक्षा। वयः। ककुप्। छन्दः। ऋषभः। वयः। सतोबृहतीति सतःऽबृहती। छन्दः॥९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 14; मन्त्र » 9
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे स्त्रि पुरुष वा! मूर्धा प्रजापतिरिव त्वं वयो मयन्दं छन्दः क्षत्रमेरय, विष्टम्भोऽधिपतिरिव त्वं वयश्छन्द एरय, विश्वकर्मा परमेष्ठीव त्वं वयश्छन्द एरय, वस्त इव त्वं वयो विबलं छन्द एरय, वृष्णिरिव त्वं विशालं वयश्छन्द एरय। पुरुष इव त्वं वयस्तन्द्रं छन्द एरय, व्याघ्र इव त्वं वयोनाधृष्ट छन्द एरय, सिंह इव त्वं वयश्छदिश्छन्द एरय, पष्ठवाडिव त्वं बृहती वयश्छन्द एरय, उक्षेव त्वं वयः ककुप्छन्द एरय, ऋषभ इव त्वं वयः सतोबृहती छन्द एरय प्रेरय॥९॥

    पदार्थः

    (मूर्धा) मूर्धावदुत्तमं ब्राह्मणकुलम् (वयः) कमनीयम् (प्रजापतिः) प्रजापालकः (छन्दः) विद्याधर्मशमादिकर्म (क्षत्रम्) क्षत्रियकुलम् (वयः) न्यायविनयपराक्रमव्याप्तम् (मयन्दम्) यन्मयं सुखं ददाति तत् (छन्दः) बलयुक्तम् (विष्टम्भः) विशो वैश्यस्य विष्टम्भो रक्षणं येन (वयः) प्रजनकः (अधिपतिः) अधिष्ठाता (छन्दः) स्वाधीनः (विश्वकर्मा) अखिलोत्तमकर्मकर्ता राजा (वयः) कमिता (परमेष्ठी) सर्वेषां स्वामी (छन्दः) स्वाधीनः (वस्तः) व्यवहारैराच्छादितो युक्तः (वयः) विविधव्यवहारव्यापी (विबलम्) विविधं बलं यस्मात् (छन्दः) (वृष्णिः) सुखसेचकः (वयः) सुखप्रापकम् (विशालम्) विस्तीर्णम् (छन्दः) स्वाच्छन्द्यम् (पुरुषः) पुरुषार्थयुक्तः (वयः) कमनीयं कर्म्म (तन्द्रम्) कुटुम्बधारणम्। अत्र तत्रि कुटुम्बधारण इत्यस्मादच्, वर्णव्यत्ययेन तस्य दः (छन्दः) बलम् (व्याघ्रः) यो विविधान् समन्ताज्जिघ्रति (वयः) कमनीयम् (अनाधृष्टम्) धार्ष्ट्यम् (छन्दः) बलम् (सिंहः) यो हिनस्ति पश्वादीन् सः (वयः) पराक्रमम् (छदिः) अपवारणम् (छन्दः) प्रदीपनम् (पष्ठवाट्) यः पष्ठेन पृष्ठेन वहत्युष्ट्रादिः। वर्णव्यत्ययेन ऋकारस्यात्राकारादेशः (वयः) बलवान् (बृहती) महत्त्वम् (छन्दः) पराक्रमम् (उक्षा) सेचको वृषभः (वयः) बलिष्ठः (ककुप्) दिशः (छन्दः) आनन्दम् (ऋषभः) गतिमान् पशुः (वयः) बलिष्ठः (सतोबृहती) (छन्दः) स्वातन्त्र्यम्। [अयं मन्त्रः शत॰८.२.४.१-८ व्याख्यातः]॥९॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषवाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। एरयेति पूर्वस्मान्मन्त्रादनुवर्त्तते। स्त्रीपुरुषैर्ब्राह्मणादिवर्णान् स्वच्छन्दान् संपाद्य वेदादीन् प्रचार्य्यालस्यादिकं त्यक्त्वा शत्रून्निवार्य्य महद् बलं सदा वर्द्धनीयम्॥९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे स्त्रि वा पुरुष! (मूर्धा) शिर के तुल्य उत्तम ब्राह्मण का कुल (प्रजापतिः) प्रजा के रक्षक राजा के समान तू (वयः) कामना के योग्य (मयन्दम्) सुखदायक (छन्दः) बलयुक्त (क्षत्रम्) क्षत्रिय कुल को प्ररेणा कर (विष्टम्भः) वैश्यों की रक्षा का हेतु (अधिपतिः) अधिष्ठाता पुरुष नृप के समान तू (वयः) न्याय विनय को प्राप्त हुए (छन्दः) स्वाधीन पुरुष को प्रेरणा कर (विश्वकर्म्मा) सब उत्तम कर्म करने हारे (परमेष्ठी) सब के स्वामी राजा के समान तू (वयः) चाहने योग्य (छन्दः) स्वतन्त्रता को (एरय) बढ़ाइये (वस्तः) व्यवहारों से युक्त पुरुष के समान तू (वयः) अनेक प्रकार के व्यवहारों में व्यापी (विबलम्) विविध बल के हेतु (छन्दः) आनन्द को बढ़ा (वृष्णिः) सुख के सेचने वाले के सदृश तू (विशालम्) विस्तारयुक्त (वयः) सुखदायक (छन्दः) स्वतन्त्रता को बढ़ा (पुरुषः) पुरुषार्थयुक्त जन के तुल्य तू (वयः) चाहने योग्य (तन्द्रम्) कुटुम्ब के धारणरूप कर्म्म और (छन्दः) बल को बढ़ा (व्याघ्रः) जो विविध प्रकार के पदार्थों को अच्छे प्रकार सूंघता है, उस जन्तु के तुल्य राजा तू (वयः) चाहने योग्य (अनाधृष्टम्) दृढ़ (छन्दः) बल को बढ़ा (सिहः) पशु आदि को मारने हारे सिंह के समान पराक्रमी राजा तू (वयः) पराक्रम के साथ (छदिः) निरोध और (छन्दः) प्रकाश को बढ़ा (पष्ठवाट्) पीठ से बोझ उठाने वाले ऊंट आदि के सदृश वैश्य तू (बृहती) बड़े (वयः) बलयुक्त (छन्दः) पराक्रम को प्ररेणा कर (उक्षा) सींचने हारे बैल के तुल्य शूद्र तू (वयः) अति बल का हेतु (ककुप्) दिशाओं और (छन्दः) आनन्द को बढ़ा (ऋषभः) शीघ्रगन्ता पशु के तुल्य भृत्य तू (वयः) बल के साथ (सतोबृहती) उत्तम बड़ी (छन्दः) स्वतन्त्रता की प्रेरणा कर॥९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं और पूर्व मन्त्र से एरय पद की अनुवृत्ति आती है। स्त्री-पुरुषों को चाहिये कि ब्राह्मण आदि वर्णों को स्वतन्त्र कर वेदादि शास्त्रों का प्रचार, आलस्यादि त्याग और शत्रुओं का निवारण करके बड़े बल को सदा बढ़ाया करें॥९॥

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    विषय

    वयस् और छन्दस् का दृष्टान्तों से स्पष्टीकरण ।

    भावार्थ

    १. ( मूर्धा ) 'मूर्धा', शिर (वयः) बल, पद या स्थिति है तो ( प्रजापतिः छन्दः ) 'प्रजापति' उसका 'छन्द' अर्थात् स्वरूप है । अर्थात् शिर जिस प्रकार शरीर में सब के ऊपर विराजमान है उसी प्रकार समाज में जो सबसे ऊंचे पद पर स्थित हो उसका कर्त्तव्य प्रजापति का है । वह प्रजापति के समान समस्त प्रजाओं का पालन करे । २. ( क्षत्रं वयः मयन्दं छन्दः ) 'क्षत्र' वय है और 'मयन्द' छन्द है । अर्थात् जो 'क्षत्र' या वीर्यवान् पद पर स्थित है उसका कर्त्तव्य प्रजा को सुख प्रदान करना है । ३. ( विष्टम्भः वयः अधिपतिः छन्दः ) 'विष्टम्भ' वय है और अधिपति छन्द है । अर्थात् जो विविध प्रजाओं को विविध प्रकारों और उपायों से स्तम्भन कर सके, पाल सके वे वैश्य या जो शत्रुओं को विविध दिशाओं से थाम या रोकने में समर्थ हो उसका कर्तव्य 'अधिपति होने का है। वह सबका अधिपति हो कर रहे । ४. ( विश्वकर्मा वयः परमेष्ठी छन्दः ) विश्वकर्मा 'वय' है और 'परमेष्टी' छन्द है । अर्थात् जो पुरुष 'विश्वकर्मा' राज्य के समस्त कार्यों के प्रवर्तक श्रम विभाग के मुख्य पदपर स्थित हैं वे 'परमेष्टी' परम उच्च पद पर स्थित होने योग्य हैं । ५. ( बस्तः वयः विवलं छन्दः ) बस्त 'वय:' है और 'विवल' छन्द । अर्थात् सबको आच्छादित करने वाले पदाधिकारी का कर्त्तव्य है कि वह विविध प्रकार से संवरण, शरीरगोपन के पदार्थों को उपस्थित करे । ६. ( वृष्णि: वयः विशालं छन्दः ) वृष्णि 'वय' है और 'विशाल' छन्द है । अर्थात् जो पुरुष बलवान् सब सुखों को प्रदान करने में समर्थ है उसका कर्तव्य है कि वह विविध ऐश्वर्यों से शोभायमान हो । और अन्यों को भी विविध ऐश्वर्य प्रदान करे । ७. ( पुरुषः वयः तन्द्रं छन्दः ) 'पुरुष' वय है 'तन्द्र' छन्द है । अर्थात् जिसमें पुरुष होने का सामर्थ्य है उसका 'तन्द्र' अर्थात् तन्त्र कुटुम्ब को धारण पोषण करने का कर्त्तव्य है । ८. ( व्याघ्रं वयः अनाधृष्टं छन्दः ) 'व्याघ्र' वय है और 'अनाधृष्ट' छन्द है । जो पुरुष व्याघ्र के समान शूरवीर है उसका कर्त्तव्य है कि वह शत्रु से कभी पराजित न हो । ९. ( सिंहः वयः छदिः छन्दः) 'सिंह' वय है और 'छदि' छन्द है । अर्थात् सिंह के समान बढे २ बलवान् शत्रुओं को भी जो हनन करने में समर्थ है वह प्रजा पर 'छदि' अर्थात् गृह के छत के समान सब को आश्रय देने वाला होकर अपनी छत्र-छाया में रक्खे । १०. ( पृष्ठवाड् वयः बृहती छन्दः ) 'पृष्ठ वाड्' वय है और 'बृहती' छन्द है । अर्थात् जो पीठ से बोझा लादने वाले पशु के समान राष्ट्र के कार्य भार को वहन करने में समर्थ है वह 'बृहती' पृथ्वी के समान बडे कार्य भार को अपने ऊपर ले । ११. ( उक्षा वयः ककुप् छन्दः ) 'उक्षा' वय है और 'ककुप् छन्द है । वीर्य सेचन में समर्थ वृषभ के समान वीर्यवान् पुरुष का कर्त्तव्य 'ककुपू' अर्थात् अपने अधीन प्रजाओं को आच्छादन करना और सब से अपने सरल सत्य व्यवहार से वर्त्तना है । १२. (ऋषभोः वयः सतो बृहती छन्दः ) 'ऋषभ' वय है और 'सतो- बृहती छन्द है । अर्थात् जो सर्वश्रेष्ठ ज्ञानमान से प्रकाशित है उसका कर्त्तव्य 'सतः बृहती' अर्थात् प्राप्त हुए बड़े २ कार्यों का उठाना है ।

    टिप्पणी

    १ मूर्धा । २ पुरुषो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    लिंगोक्ताः प्रजापत्यादयो देवता: । ( १ ) निचृद् ब्राह्मी पंक्ति: । ( २ ) ब्राह्मी पंक्तिः । पञ्चमः ॥

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    विषय

    वयः+छन्दः

    पदार्थ

    १. प्रस्तुत मन्त्रों में ‘वयः' शब्द जीवन का वाचक है और 'छन्दः' इच्छा या संकल्प का अथवा 'वीर्यं छन्दासि' शतपथ ४|४ | ३ | १ के अनुसार 'छन्दः' का अर्थ वीर्य व शक्ति है। वस्तुत: संकल्प में भी 'कृपू सामर्थ्य' के अनुसार शक्ति की ही भावना है। प्रभु कहते हैं कि यदि तुम्हारा (वयः) = जीवन (मूर्धा) = शिर - स्थानापन्न है, अर्थात् यदि तुम समाज में सबसे ऊँचे स्थान पर हो तो (प्रजापतिः छन्दः) = तुम्हारा प्रबल संकल्प यह होना चाहिए कि तुम प्रजापति बनोगे, प्रजा का रक्षण करनेवाले बनोगे। समाज में ब्राह्मण का स्थान सर्वोच्च है, ब्राह्मण को प्रजा-रक्षण अपना मौलिक कर्त्तव्य समझना चाहिए। २. (क्षत्रं वयः) = यदि तुम्हारा जीवन क्षत्रिय का है तो (मयन्दं छन्दः) = तुम्हारी कामना यह होनी चाहिए कि [मयं ददाति इति - द०] तुम सबको सुख देनेवाले बनो। क्षत्रिय का कार्य 'क्षतात् त्राण' ही तो है। जो क्षत्रिय औरों को घावों से बचाकर उन्हें सुख नहीं पहुँचाता वह क्षत्रिय नहीं है । ३. (विष्टम्भः वयः) = [विष्टभ्नोति अन्नादिकं जगत् स्तम्भयति-म० ] यदि तुम्हारा जीवन 'विष्टम्भ' का है, उस वैश्य का है जो अन्नादि को स्तम्भों [ elevators] पर सुरक्षित रखता है तो (अधिपतिः छन्दः) = उसकी यही कामना होनी चाहिए कि वह अन्नादि का अधिष्ठाता होता हुआ प्रजा का रक्षक हो, दुर्भिक्षादि के समय अपने उन अन्न भण्डारों से सभी को अन्न देनेवाला हो । ४. (विश्वकर्मा वयः) = यदि तुम्हारा जीवन सब कर्मों को करनेवाला है तो तुम्हारी (छन्दः) = यह कामना हो कि परमेष्ठी मैं परम स्थान में स्थित होऊँ। बिना कर्मों में प्रवृत्त हुए, आलस्य में पड़े हुए तुम उच्च स्थान में स्थित नहीं हो सकते। ५. (वस्तः वय:) = [वस्त् to hurt, to kill ] यदि तुम यह चाहते हो कि तुम्हारा जीवन सब बुराइयों का ध्वंस करनेवाला हो तो (विवलं छन्दः) = तुम्हारी सदा यह इच्छा रहनी चाहिए कि मैं [वल् to go ] विशिष्ट कर्मों में लगा रहूँ। उत्तम कर्मों में लगे रहना ही बुराइयों को समाप्त करने का तरीका है। 'वस्तु' यह संज्ञा बकरी की भी है, उसका दूध 'सर्वरोगापहा' सब रोगों का हनन करनेवाला है। वह इसीलिए कि 'व्यायामात्' बकरी दिनभर में खूब व्यायाम कर लेती है। मेरा जीवन भी 'वस्त'- बुराइयों को नष्ट करनेवाला तभी बनेगा जब मैं विशिष्ट गतिवाला, कर्मशील बनने का संकल्प रक्खूँगा । ६. (वृष्णिः वयः) = निरन्तर गतिशीलता से तुम्हारा जीवन (वृष्णिः) = खूब वीर्यवान् बना है तो (विशालं छन्द:) = अब तुम्हारी इच्छा यही हो कि मैं (वि) = विविध उत्तम कर्मों से [शालते] शोभायान होऊँ। शक्ति का विनियोग उत्तम कर्मों में ही होना ठीक है। ७. (पुरुषो वयः) = यदि तुम्हारा जीवन पौरुष सम्पन्न पुरुष का बना है तो (तन्द्रं छन्दः) = [क] तुम्हारी इच्छा यही हो कि मैं [पङ्गिर्वै तन्द्रं छन्दः] पाँचों का धारण करनेवाला बनूँ 'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र व निषाद' सभी का हित करना मेरा धर्म हो । अथवा ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय व प्राण- पञ्चकों को वशीभूत करने का मेरा प्रयत्न हो। [ख] अथवा तन्द्रं=तन्त्रम् =कुटुम्ब का मैं धारण करनेवाला बनूँ। ८. (व्याघ्रः वयः) = यदि तुम्हारा जीवन 'पुरुषव्याघ्र' का हुआ है - तुम व्याघ्र के समान बने हो तो (अनाधृष्टं छन्दः) = प्रबल कामना करो कि मैं शत्रुओं से धर्षित न होऊँ। ९. (सिंहो वयः) = यदि 'पुरुषसिंह' के जीवनवाले हो तो (छदिः छन्दः)' = 'नरसिंह की भाँति प्राणिमात्र को सुरक्षित करनेवाले बनो। तुम्हारी शक्ति निर्बलों को सबलों के अत्याचार से बचानेवाली हो। १०. (पष्ठवाट् वयः) = [ पष्ठे - पृष्ठभागे वहतीति - म ० ] यदि तुम्हारा जीवन पीठ पर खूब कार्यभार उठाने में समर्थ पुरुष का हुआ है तो (बृहती छन्दः) = [वाग् वै बृहती - श० १४|४|१ | २२ ] वेदवाणी के अनुसार ही निरन्तर कार्यों को निभाने की तुम्हारी कामना हो । शक्ति है तो तुम मनमाने मार्ग से न चलने लग जाना। शास्त्रीय मार्ग से चलने से ही शक्ति बढ़ती है, शक्ति के मद में शास्त्रीय मार्ग छोड़ा और शक्ति का ह्रास हुआ। ११. (उक्षा वयः) = [उक्ष् to grow up, become strong] यदि तुम जीवन को शक्तिशाली पुरुष का जीवन बनाना चाहते हो, यदि निरन्तर उन्नति चाहते हो तो (ककुप् छन्दः) = दिशाएँ ही तुम्हारे संकल्प हों, अर्थात् इन दिशाओं से तुम प्रेरणा लेकर चलो। 'प्राची' से आगे बढ़ना, 'दक्षिणा' से नैपुण्य प्राप्त करना, 'प्रतीची' से प्रत्याहार का पाठ पढ़कर, ‘उदीची' से ऊपर उठना और 'ध्रुवा' से दृढ़ता व 'ऊर्ध्वा' से उन्नति के शिखर पर पहुँचने की भावना को लेना। ‘ककुप्' शब्द का एक अर्थ 'शिखर' है। शिखर [summit] पर पहुँचना तुम्हारा ध्येय ही बन जाए। 'ककुप्' का अर्थ [a sacred treatise ] धर्मशास्त्र भी है - शास्त्र के अनुसार चलने का संकल्प होने पर उन्नति होगी । १२. (ऋषभो वयः) = यदि श्रेष्ठ जीवनवाले 'पुरुषर्षभ' होना चाहते हो तो (सतोबृहती छन्दः) = सत् को प्राप्त वस्तु को ही [ बृहि वृद्धौ ] बढ़ाने की कामना करो। सदा वर्त्तमान में चलो 'वर्त्तमानेन वर्त्तयन्ति मनीषिणः'। भूतकाल में रहकर ‘था' को ही न बोलते रहो, भूतकाल ही के गीत न गाते रहो। न ही सदा भविष्यत् की बातें करते हुए 'गा' का ही प्रयोग करते रहो, और हवाई किले ही न बनाते रह जाओ । वर्त्तमान को ही उन्नत करने का प्रयत्न करो।

    भावार्थ

    भावार्थ- मन्त्र के बारह आदेशों का ध्यान करके हम अपने जीवन को अधिकाधिक सुन्दर बनाएँ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेष व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. या पूर्वीच्या मंत्रातील ‘एरय’ पदाची येथे अनुवृत्ती झालेली आहे. स्त्री-पुरुषांनी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र व शत्रूंचे निवारण करावे आणि अत्यंत बलवान व्हावे.

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    विषय

    पुढील मंत्रात तोच विषय प्रतिपादित आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे स्त्री वा हे पुरुषा, (मूर्धा) शरीरात मस्तकाप्रमाणे जे उत्तम ब्राह्मण कुळ (वाणी आहे आणि जो ब्राह्मण (प्रजा पति:) राजाप्रमाणे प्रजेचा रक्षक आहे असा ब्राह्मण (वय:) कमनीय वा वांछनीय (मयन्दम्) सुखदायक आणि (छन्द:) बलवान अशा (क्षत्रम्) क्षत्रिय कुळाला प्रेरित कर (ब्राह्मणांनी क्षत्रियांचा उत्साह वाढवावा) (विष्टम्भ:) वैश्यजनांचा रक्षक जो (अधिपति:) अधिकारी पुरुष म्हणजे राज्याचा राजा आहे, त्याच्याप्रमाणे तू (वय:) न्याय आणि विनम्रभाव अंगीकारून (छन्द्र:) त्या (क्षत्रिय आणि वैश्याला) प्रेरित कर. (विश्वकर्मा) सर्व उत्तम कर्म करणार्‍या (परेमष्ठी) सर्वाधिपती राजाप्रमाणे तू (वय:) वांझनीय (छन्द:) स्वातंत्र्याची (----) वृद्धी कर (क्षत्रिय, वैश्य आणि कार्मिक शूद्र यांना तू ते ते कर्म करण्यास स्वातंत्र्य दे) (या मंत्रात ’एरय’ या क्रियापदाची अनुवृत्ती मागील मंत्रावरून केली आहे. या मंत्रात ‘एरय’ हा शब्द नाही) (वस्त:) व्यवहार व कर्मशील पुरुषाप्रमाणे (शूद्राप्रमाणे) तू (वय:) अनेक प्रकारच्या व्यवहारांमधे मग्न होऊन (विबलम्) विविध शक्ती (शारीरिक-मानसिक शक्ती) संपादित करून (छन्द:) आनंदाची वृद्धी कर (कर्म व परिश्रम करण्यात संकोच मानूं नकोस) (वृष्णि:) सुखाचे सिंचन वा वृष्टी करणार्‍या माणसाप्रमाणे तू (विशालम्) विशाल आणि (वय:) सुखदायक (छन्द:) स्वातंत्र्याचे वृद्धी कर. (पुरूष:) एखाद्या पुरूषार्थी मनुष्याप्रमाणे तू (वय:) प्रिय वा वांछनीय अशा (तन्द्रम्) आपल्या परिवाराच्या भरण-पोषणादी कर्मांमध्ये (छन्द्र:) आपली शक्ती वापरीत जा. (व्याघ्र:) विविध प्रकारच्या पदार्थ, वनस्पती आदींना जो पशु वास घेऊन चटकन ओळखतो अशा (कुत्रा, मांजर आदी) पशूप्रमाणे हे राजा, तू (वय:) आवश्यक व वांछनीय (अनाधृष्टम्) दृढ अपरानेय (छन्द:) शक्तीची वृद्धी कर (गुप्तचर आदी यंत्रणा जागरूक ठेव) (सिंह:) पशूंना मारणार्‍या सिंहाप्रमाणे पराक्रमी, हे राजा, तू (वय:) पराक्रमाद्वारे तसेच (छदि:) बंधन, निवारण, (शत्रूला कैद करणे, पळवून लावणे) आदी उपायांद्वारे (छन्द:) तुझी कीर्ती वाढव. (पष्ठवाट्) पाठीवर ओझं वाहणारे उंट आदी प्राण्यांप्रमाणे, हे वैश्य माणसा, तू (बृहती) मोठ्या (वय:) धाडशी (छन्द:) पराक्रम (वा व्यापारात धडाडी आणि कल्पकतेने व्याप करण्यासाठी सिद्ध हो. (उक्षा) सिंचन कार्य वा गाडी ओढणार्‍या बैलाप्रमाणे, हे शुद्र तू (वय:) शक्तीचा पुष्कळ प्रयोग करीत (ककुप्) दिशांपर्यंत (दूर दूरपर्यंत) आपला (छन्द:) आनंद आणि कीर्ती वाढव. (ऋषभ:) शीघ्रगामी पशूप्रमाणे, हे सेवका, तू (वय:) पूर्ण शक्तीनिशी (सतोबृहती) उत्तम व (छन्द:) मोकळ्यापणे कार्य करण्यात स्वतंत्र रहा. (समाजातील प्रत्येक वर्णाने आपापली जबाबदारी समर्थपणे पार पाडावी, हा आशय आहे. ॥9॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात श्लेष आणि वाचकलुप्तोपमा, हे दोन अलंकार आहेत. (‘छन्द्:’ ‘वय:’ या दोन शब्दांचे प्रसंगानुरूप एकाहून अधिक अर्थ आहेत, म्हणून येथे ‘श्लेष’ अलंकार आहे. उपमावाचक शब्द ‘यथा, सम, वत’ आदी शब्दांचा प्रत्येक प्रयोग नाही, पण उपमा मात्र आहे. म्हणजे या मंत्रात उपमावाचक शब्द लुप्त आहे) या मंत्रात पूर्वीच्या मंत्रातील ‘एरय’ या शब्दाची अनुवृत्ती आहे. सर्व स्त्री-पुरुषांना उचित आहे की त्यांनी ब्राह्मण आदी वर्णांना वेदादीशास्त्रांचा प्रचार करण्यात स्वातंत्र्य द्यावे तसेच (क्षत्रियांनी) आळस त्यागून शत्रूला दूर हाकलावे आणि आपल्या शक्तीची सदैव वृद्धी करीत असावे ॥9॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The Brahman is foremost in the society, like head in the body. His force lies in the protection of humanity through knowledge, religion and austerity. The Kshatriya is a class amongst men. His power lies in affording happiness to humanity through justice, humility and strength. The Vaishya is another class, who amasses foodstuffs. His strength lies in becoming the lord of riches. The artisan, Shudra is another class of men, whose strength lies in doing hard work. The king, the doer of all good acts is, lovable, lord of all subjects and independent. It is the duty of man at the helm of affairs, to muster different forces for the protection of his body. It is the duty of the strong man, who is competent to give happiness to others, to attain to supremacy, and grant power to others, It is the duty of an affluent person to nourish his family. It is the duty of a man heroic like a tiger, to be invincible by an enemy. He who is powerful to subdue foes, powerful like the lion, should afford protection to his people, like the roof of the house. He who like the camel can take upon his shoulders this responsibility of managing the affairs of the State, should like the earth take upon himself the burden of all enterprises. _ It is the duty of a man, strong like an ox, to protect his subjects and treat all straightly and justly. It is the duty of a person well-known for his intellect and honour, to undertake projects that lie before him.

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    Meaning

    Like Prajapati, protector and sustainer of His children, try to attain the holiest qualities of knowledge, Dharma and peace of mind. Get to the Kshatriya class of regal virtues, justice, honour, magnanimity and courtesy. Like the guardian and supporter of the people, cultivate the economic values of freedom, justice, liberality and humility. Like Vishwakarma, maker of the world and lord of His creatures, try to be free and win the love of the people. Like a master of social and political activities, try to be a strong and independent expert of all socio¬ political developments. Like a mighty generous leader, be an independent harbinger of freedom, joy and prosperity. Like a great man of action and endeavour, take initiative in lovable action, family bonding and strong individuality. Like a tiger among men, be a man of invincible force and inviolable protection. Like the royal lord of excellence, be a man of light, regality, prowess and prosperity. Like a carrier of historic burdens, be a man of strength, greatness and endurance. Like the cloud laden with vapours, be strong and generous, go round in all the quarters and bring showers of joy. Like a flood of life-giving waters, come with a living message of freedom, holiness, fertility and growth.

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    Translation

    Head of the society, i. e. the intellectuals, is a category; sustenance of people is its nature. (1) Ruling power is a category, bestowing happiness is its nature. (2) Producing and supporting is a category; overlordship is its nature. (3) Doing all and sundry work is a category; going to extremes is its nature. (4) He-goat is a category; smartness is its nature. (5) The ram is a category; hugeness is its nature. (6) The man is a category; idleness is its nature. (7) The tiger is a category; indomitability is its nature. (8) The lion is a category; subordinating others is its nature. (9) The beast of burden is a category, brhati the metre. (10) The ox is a category; kakup the metre. (11) The steer is a category; satobrhati the metre. (12).

    Notes

    In the ritual, with this and the following verse nineteen vayasyá (vital-vigour) bricks are laid by the sacrificer. Mürdhà, शिर:, the head (of the society), i. e. the brahmana, the intellectuals. Vayah, शरीरावस्था, age; a category. Ksatram, ruling and administrative power. Chandah, स्वभाव: nature. Vistambhah, supporting power of the society i. e. vaisya. Viévakarmii, doing all and sundry work, i. e. working class, Sidra. Paramesthi, परमे चरमे तिष्ठति, one that goes to the extremes. Vastah, अज:, goat. Well-behaved (Dayaà. ). Vibalam, विविधं बलं, energy of various types, 1. e. smartness. Uvata and Mahidhara have interpreted वस्त: वृष्णि: पुरुष, व्याघ्र, सिंह, पष्ठवाट् उक्षा and ऋषभ as animals, goat, ram, man, tiger, lion, beast of burden, ox and steer respectively. Dayánazda has translated all of them etymologically and making these adjectives instead of nouns. But Uvata and Mahidhara have tried to associate all these with various metres (छंदस्). While ककुप ,बृहती, सतोबृहती metres are mentioned in the mantra, विबलं विशालं , तंद्र , अनाधृष्ट and छदि: have been interpreted as एकपदाख्यं छंद: ,द्विपदा, पंकति: , विराट्, अतिछंदस् respectively. A tiresome exercise. But the interpretations of Dayananda also are not more convincing. We have tried tc follow а way in the mid between. which is also not very satisfactory.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে স্ত্রী বা পুরুষ! (মূর্ধা) শিরতুল্য উত্তম ব্রাহ্মণের কুল (প্রজাপতিঃ) প্রজার রক্ষক রাজার সমান তুমি (বয়ঃ) কামনার যোগ্য (ময়ন্দম্) সুখদায়ক (ছন্দঃ) বলযুক্ত (ক্ষত্রম্) ক্ষত্রিয় কুলকে প্রেরণা করিয়া (বিষ্টম্ভ্যঃ) বৈশ্যদিগের রক্ষার হেতু (অধিপতিঃ) অধিষ্ঠাতা পুরুষ নৃপের সমান তুমি (বয়ঃ) ন্যায়-বিনয়কে প্রাপ্ত (ছন্দঃ) স্বাধীন পুরুষকে প্রেরণা করিয়া (বিশ্বকর্মা) সকল উত্তম কার্য্যকর্ত্তা (পরমেষ্ঠী) সকলের স্বামী রাজার সমান তুমি (বয়ঃ) চাহিবার যোগ্য (ছন্দঃ) স্বাধীনতাকে (এরয়) বৃদ্ধি কর । (বস্তঃ) ব্যবহার দ্বারা যুক্ত পুরুষের সমান তুমি (বয়ঃ) অনেক প্রকারের ব্যবহারে ব্যাপী (বিবলম্) বিবিধ বলের হেতু (ছন্দঃ) আনন্দকে বৃদ্ধি করাইয়া (বৃষ্ণিঃ) সুখকে সিঞ্চনকারীর সদৃশ তুমি (বিশালম্) বিস্তারযুক্ত (বয়ঃ) সুখদায়ক (ছন্দঃ) স্বতন্ত্রতাকে বৃদ্ধি করিয়া (পুরুষঃ) পুরুষার্থযুক্তগণের তুল্য তুমি (বয়ঃ) চাহিবার যোগ্য (তন্দ্রম্) কুটুম্বের ধারণারূপ কর্ম্ম এবং (ছন্দঃ) বলকে বৃদ্ধি করিয়া (ব্যাঘ্রঃ) যে বিবিধ প্রকার পদার্থগুলিকে সম্যক্ প্রকার ঘ্রাণ লয়, সেই জন্তু তুল্য রাজা তুমি (বয়ঃ) চাহিবার যোগ্য (অনাধৃষ্টম্) দৃঢ় (ছন্দঃ) বলকে বৃদ্ধি করিয়া (সিংহঃ) পশু আদিকে বধকারী সিংহের সমান পরাক্রমী রাজা তুমি (বয়ঃ) পরাক্রম সহ (ছদিঃ) নিরোধ ও (ছন্দঃ) প্রকাশকে বৃদ্ধি করিয়া (ষষ্ঠবাট্) পীঠ দিয়া বোঝা উত্তোলনকারী ঊট আদির সদৃশ বৈশ্য তুমি (বৃহতী) বৃহৎ (বয়ঃ) বলযুক্ত (ছন্দঃ) পরাক্রমকে প্রেরণা কর (উক্ষা) সিঞ্চনকারী বৃষভ তুল্য শূদ্র তুমি (বয়ঃ) অতি বলের হেতু (ককুপ্) দিকগুলি ও (ছন্দঃ) আনন্দকে বৃদ্ধি কর (ঋষভঃ) শীঘ্রগন্তা পশুর তুল্য ভৃত্য তুমি (বয়ঃ) বলসহ (সতোবৃহতী) উত্তম বৃহৎ (ছন্দঃ) স্বতন্ত্রতার প্রেরণা কর ॥ ঌ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে শ্লেষ ও বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে এবং পূর্ব মন্ত্র হইতে ‘এরয়’ পদের অনুবৃত্তি আইসে । স্ত্রীপুরুষদিগের উচিত যে, ব্রাহ্মণাদি বর্ণগুলিকে স্বতন্ত্র বেদাদি শাস্ত্রের প্রচার, আলস্যাদি ত্যাগ এবং শত্রুদিগকে নিবারণ করিয়া বৃহৎ বলকে সর্বদা বৃদ্ধি করিতে থাকে ॥ ঌ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    মূ॒র্ধা বয়ঃ॑ প্র॒জাপ॑তি॒শ্ছন্দঃ॑ ক্ষ॒ত্রং বয়ো॒ ময়॑ন্দং॒ ছন্দো॑ বিষ্ট॒ম্ভো বয়োऽধি॑পতি॒শ্ছন্দো॑ বি॒শ্বক॑র্মা॒ বয়ঃ॑ পরমে॒ষ্ঠী ছন্দো॑ ব॒স্তো বয়ো॑ বিব॒লং ছন্দো॒ বৃষ্ণি॒র্বয়ো॑ বিশা॒লং ছন্দঃ॒ পুর॑ুষো॒ বয়॑স্ত॒ন্দ্রং ছন্দো॑ ব্যা॒ঘ্রো বয়োऽনা॑ধৃষ্টং॒ ছন্দঃ॑ সি॒ꣳহো বয়॑শ্ছ॒দিশ্ছন্দঃ॑ পষ্ঠ॒বাড্ বয়ো॑ বৃহ॒তী ছন্দ॑ऽ উ॒ক্ষা বয়ঃ॑ ক॒কুপ্ ছন্দ॑ऽ ঋষ॒ভো বয়ঃ॑ স॒তোবৃ॑হতী॒ ছন্দঃ॑ ॥ ঌ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    মূর্ধা বয় ইত্যস্য বিশ্বেদেবা ঋষয়ঃ । প্রজাপত্যাদয়ো দেবতাঃ । পূর্বস্য নিচৃদ্ব্রাহ্মী পংক্তিশ্ছন্দঃ । পঞ্চমঃ স্বরঃ । পুরুষ ইত্যুত্তরস্য শক্বরী ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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