यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 31
ऋषिः - विश्वदेव ऋषिः
देवता - प्रजापतिर्देवता
छन्दः - निचृदतिधृतिः
स्वरः - षड्जः
3
नव॑विꣳशत्याऽस्तुवत॒ वन॒स्पत॑योऽसृज्यन्त॒ सोमोऽधि॑पतिरासी॒त्। एक॑त्रिꣳशताऽस्तुवत प्र॒जाऽ अ॑सृज्यन्त॒ यवा॒श्चाय॑वा॒श्चाधि॑पतयऽआस॒न्। त्रय॑स्त्रिꣳशताऽस्तुवत भू॒तान्य॑शाम्यन् प्र॒जाप॑तिः परमे॒ष्ठ्यधि॑पतिरासीत्॥३१॥
स्वर सहित पद पाठनव॑विꣳश॒त्येति॒ नव॑ऽविꣳशत्या। अ॒स्तु॒व॒त॒। वन॒स्पत॑यः। अ॒सृ॒ज्य॒न्त॒। सोमः॑। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। आ॒सी॒त्। एक॑त्रिꣳश॒तेत्येक॑ऽत्रिꣳशता। अ॒स्तु॒व॒त॒। प्र॒जा इति॑ प्र॒ऽजाः। अ॒सृ॒ज्य॒न्त॒। यवाः॑। च॒। अय॑वाः। च॒। अधि॑पतय॒ इत्यधि॑ऽपतयः। आ॒स॒न्। त्रय॑स्त्रिꣳश॒तेति॒ त्रयः॑ऽत्रिꣳशता। अ॒स्तु॒व॒त॒। भू॒तानि॑। अ॒शा॒म्य॒न्। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। प॒र॒मे॒ष्ठी। प॒र॒मे॒ऽस्थीति॑ परमे॒ऽस्थी। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। आ॒सी॒त् ॥३१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नवविँशत्यास्तुवत वनस्पतयोसृज्यन्त सोमोधिपतिरासीदेकत्रिँशतास्तुवत प्रजाऽअसृज्यन्त यवाश्चायवाश्चाधिपतयऽआसँस्त्रयस्त्रिँशतास्तुवत भूतान्यशाम्यन्प्रजापतिः परमेष्ठ्यधिपतिरासील्लोकन्ताऽइन्द्रम्॥ गलितमन्त्रा--- लोकम्पृण च्छिद्रम्पृणाथो सीद धु्रवा त्वम् । इन्द्राग्नी त्वा बृहस्पतिरस्मिन्योनावसीषदन् ॥ ताऽअस्य सूददोहसः सोमँ श्रीणन्ति पृश्नयः । जन्मन्देवानाँविशस्त्रिष्वा रोचने दिवः ॥ इन्द्रँविश्वाऽअवीवृधन्त्समुद्रव्यचसङ्गिरः रथीतमँ रथीनां वाजानाँ सत्पतिम्पतिम्॥
स्वर रहित पद पाठ
नवविꣳशत्येति नवऽविꣳशत्या। अस्तुवत। वनस्पतयः। असृज्यन्त। सोमः। अधिपतिरित्यधिऽपतिः। आसीत्। एकत्रिꣳशतेत्येकऽत्रिꣳशता। अस्तुवत। प्रजा इति प्रऽजाः। असृज्यन्त। यवाः। च। अयवाः। च। अधिपतय इत्यधिऽपतयः। आसन्। त्रयस्त्रिꣳशतेति त्रयःऽत्रिꣳशता। अस्तुवत। भूतानि। अशाम्यन्। प्रजापतिरिति प्रजाऽपतिः। परमेष्ठी। परमेऽस्थीति परमेऽस्थी। अधिपतिरित्यधिऽपतिः। आसीत्॥३१॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स एव विषय उपदिश्यते॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! यूयं येनोत्पादितः सोमोऽधिपतिरासीद् येन ते वनस्पतयोऽसृज्यन्त, तं जगदीश्वरं नवविंशत्यास्तुवत। यासां यवा मिश्रिताः पर्वतादयश्च त्रसरेण्वादयश्चाऽयवाः प्रकृत्यवयवाः सत्त्वरजस्तमांसि गुणाः परमाण्वादयश्चाऽधिपतय आसन्, ताः प्रजा असृज्यन्त, तमेकत्रिंशतास्तुवत। यस्य प्रभावाद् भूतान्यशाम्यन्, यः प्रजापतिः परमेष्ठ्यधिपतिरासीत्, तं त्रयस्त्रिंशतास्तुवत॥३१॥
पदार्थः
(नवविंशत्या) एतत्संख्याकैर्वनस्पतिगुणैः (अस्तुवत) जगत्स्रष्टारं परमात्मानं प्रशंसत (वनस्पतयः) अश्वत्थादयः (असृज्यन्त) सृष्टाः (सोमः) ओषधिराजः (अधिपतिः) अधिष्ठाता (आसीत्) भवति (एकत्रिंशता) प्रजाङ्गैः (अस्तुवत) प्रशंसत (प्रजाः) (असृज्यन्त) निर्मिताः (यवाः) मिश्रिताः (च) (अयवाः) अमिश्रिताः (च) (अधिपतयः) अधिष्ठातारः (आसन्) सन्ति (त्रयस्त्रिंशता) महाभूतगुणैः (अस्तुवत) प्रशंसत (भूतानि) महान्ति तत्त्वानि (अशाम्यन्) शाम्यन्ति (प्रजापतिः) प्रजापालक ईश्वरः (परमेष्ठी) परमेश्वररूपे आकाशे वाऽभिव्याप्य तिष्ठतीति (अधिपतिः) अधिष्ठाता (आसीत्) अत्राऽपि लोकन्ता इन्द्रमिति मन्त्रत्रयप्रतीकानि पूर्ववत्केनचित् क्षिप्तानीति वेद्यम्। [अयं मन्त्रः शत॰८.४.३.१७-१९ व्याख्यातः]॥३१॥
भावार्थः
येन जगदीश्वरेण लोकानां रक्षणाय वनस्पत्यादीन् सृष्ट्वा ध्रियन्ते व्यवस्थाप्यन्ते, स एव सर्वैर्मनुष्यैरुपासनीयः॥३१॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर भी वही उक्त विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! तुम लोग जिस के बनाने से (सोमः) ओषधियों में उत्तम ओषधि (अधिपतिः) स्वामी (आसीत्) है, जिस ने उन (वनस्पतयः) पीपल आदि वनस्पतियों को (असृज्यन्त) रचा है, उस परमात्मा की (नवविंशत्या) उनतीस प्रकार के वनस्पतियों के गुणों से (अस्तुवत) स्तुति करो और जिस ने उत्पन्न किये (यवाः) समष्टिरूप बने पर्वत आदि (च) और त्रसरेणु आदि (अयवाः) भिन्न-भिन्न प्रकृति के अवयव सत्व, रजस् और तमोगुण (च) तथा परमाणु आदि (अधिपतयः) मुख्य कारण रूप अध्यक्ष (आसन्) हैं, उन (प्रजाः) प्रसिद्ध ओषधियों को जिस ने (असृज्यन्त) रचा है, उस ईश्वर की (एकत्रिंशता) इकत्तीस प्रजा के अवयवों से (अस्तुवत) प्रशंसा करो। जिसके प्रभाव से (भूतानि) प्रकृति के परिणाम महत्तत्व के उपद्रव (अशाम्यन्) शान्त हों, जो (प्रजापतिः) प्रजा का रक्षक (परमेष्ठी) परमेश्वर के समान आकाश में व्यापक हो के स्थित परमेश्वर (अधिपतिः) अधिष्ठाता (आसीत्) है, उसकी (त्रयस्ंित्रशता) महाभूतों के तेतीस गुणों से (अस्तुवत) प्रशंसा करो॥३१॥
भावार्थ
जिस परमेश्वर ने लोकों की रक्षा के लिये वनस्पति आदि ओषधियों को रच के धारण और व्यवस्थित किया है, उसी की उपासना सब मनुष्यों को करनी चाहिये॥३१॥
विषय
नाना प्रकार की ब्रह्मशक्ति और राष्ट्र व्यवस्थाओं का देह की व्यवस्थानुसार वर्णन ।
भावार्थ
१५. ( नवविंशत्या अस्तुवत ) देह में हाथों पैरों को दस २ अंगुलियां, ६ प्राण हैं उसी प्रकार २६ घटक शक्तियां विश्व को रच रही हैं। उन द्वारा विद्वान् जन विधाता प्रजापति की स्तुति करते हैं । ( वनस्पतयः असृज्यन्त ) उन घटक शक्तियों से ही वनस्पतियों को बनाया गया है । उनका ( सोम अधिपतिः आसीत् ) सोम अधिपति है । १६. ( एकत्रिंशता अस्तुवत ) हाथ पैर की दस २ अंगुलियां, १० प्राण और ३१ व आत्मा उन घटकों से समस्त शरीर बने हैं। उन शक्तियों द्वारा ही विद्वान् जन विधाता के कौशल का वर्णन करते हैं । इनसे ही ( प्रजाः असृज्यन्त ) समस्त प्रजा सृजी गयी है । उनके ( यवाः च अयवाः च अधिपतयः आसन् ) उनके पूर्व पक्ष और अपर पक्ष अथवा मिथुन भूत जोड़े अमैथुनी अथवा जन्तु शरीरों में होने वाले ऋतु धर्म सम्बन्धी पूर्वोत्तर पक्ष या ( यवाः ) पुरुष और ( अयवा ) स्त्रिये ही उनके अधिपति हैं । १७. ( त्रयः त्रिंशता अस्तुवन् ) हाथों पैरों की दस २ अंगुलियां, दश प्राण, २ चरण और ३३ वां आत्मा ये सब पूर्ण शरीर के मुख्य मुख्य घटक हैं, और उसी प्रकार ३३ ही ब्रह्माण्ड के भी घटक हैं उनके द्वारा ही परम विधाता की विद्वान स्तुति करते हैं। उनसे ही ( भूतानि ) समस्त प्राणि गण ( अशाम्यन् ) सुखी होते हैं। उन सब का ( परमेष्ठी प्रजापतिः अधिपतिः आसीत् ) परमेष्ठी सर्वोच्च पद पर प्रजापति परमात्मा ही सबका अधिपति है । ८। ४ । ३ । १-१६ ॥ राष्ट्र पक्ष में १, ३, ५, ७, ६, ११, १३, १५, १७, १६, २१, २३, २५, २७, २६, ३१, और ३३ इन भिन्न २ घटक अड्गों से बने राज्यों एवं राजाओं को परमेश्वर के बनाये देह के मुख्यांगों की रचना के अनुसार बनाना चाहिये और उनके अधिपति भी भिन्न २ योग्यता के पुरुषों को रखना चाहिये । और विद्वान् लोग उन घटक अवयवों का ही उत्तम रीति से ( अस्तुवत ) उपदेश करें और तदनुसार राज्यों की कल्पना करें । उन राष्ट्र के भिन्न २ भागों में प्रजापति ब्रह्मणस्पति, धाता, अदिति, आर्तव आदि नामधारी मुख्य पदाधिकारियों को नियत करें।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
स्वराड् ब्राह्मी जगती । निषादः ॥
विषय
उनत्तीस- इकतीस - तेतीस
पदार्थ
१. प्रभु से (वनस्पतयः) = वनस्पतियाँ (असृज्यन्त) = बनाई गईं [जो सम्भवतः २९ प्रकार की थी - २९ जातियों में विभक्त थीं] । मानव जीवन में इन वनस्पतियों का स्थान स्पष्ट है। मनुष्य इन्हीं के उपयोग से अपने शरीर, मन व बुद्धि को पूर्ण स्वस्थ बनाता है। इन्हें वनस्पति नाम इसीलिए दिया गया कि ये मानवरूपी गृह [वन = a house] की रक्षा करती हैं। इस मानव-शरीर में (वनस्) = ज्ञानकिरणों की रक्षा करती हैं-बुद्धि को सात्त्विक बनानेवाली हैं। मनुष्य को चाहिए कि (नवविंशत्या) = हाथ-पैर की अंगुलियों व नौ प्राणों इन २९ से (अस्तुवत) = उस प्रभु का स्तवन करें कि (सोमः) = हमारे जीवनों में इन वनस्पतियों के प्रयोग से सौम्यता का वर्धन करनेवाला वह 'सोम' नामक प्रभु (अधिपतिः आसीत्) = अधिष्ठातृरूपेण हमारा रक्षक है । २. अब इन वनस्पतियों के द्वारा (प्रजाः) = सब प्रकार के विकासों [प्र+जन्] का (असृज्यन्त) = सर्जन हुआ। मनुष्य को चाहिए कि (एकत्रिंशता) = बीस अंगुलियाँ, दस प्राण तथा इकतीसवें आत्मा से अस्तुवत उस प्रभु का स्तवन करे कि (यवाः च) = हमारे साथ सब अच्छाइयों का मिश्रण करनेवाले 'यवा:' नामवाले वे प्रभु तथा (अयवा: च) = हमारी सब बुराइयों को दूर करनेवाले 'अयवा:' नामवाले प्रभु (अधिपतयः आसन्) = हमारे अधिष्ठातृरूपेण रक्षक हैं। ब्राह्मणग्रन्थों के अनुसार शुक्ल पूर्वपक्ष 'यव' हैं, कृष्ण अपरपक्ष 'अयव' हैं। वे प्रभु भी हमारे अन्दर शुक्लपक्ष की भाँति एक-एक गुणकला को भरनेवाले हैं तथा कृष्णपक्ष की भाँति एक-एक दोषकला को क्षीण करनेवाले हैं। ३. इस प्रकार सब विकासों के हो जाने पर अथवा गुणपूर्ति व दोष-निराकरण हो जाने पर (भूतानि अशाम्यन्) = सब प्राणी पूर्णरूप से शान्ति का अनुभव करनेवाले हुए। हमें चाहिए कि हम (त्रयस्त्रिंशता) = सब अंगुलियों, प्राणों, दो आधारभूत पाँव तथा आत्मा से (अस्तुवत) = उस प्रभु का स्तवन करें कि वे प्रभु (प्रजापतिः) = हम सब प्रजाओं के रक्षक हैं, (परमेष्ठी) = सर्वोच्च स्थान में स्थित हैं-अपने भक्तों को भी सर्वोच्च स्थान में पहुँचानेवाले हैं, अधिपतिः आसीत् वे ही हमारे अधिष्ठातृरूपेण रक्षक हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु विविध वनस्पतियों के उत्पादन द्वारा हमारी सब शक्तियों के विकास का कारण बनते हैं और हमारे जीवनों में शान्ति उत्पन्न करते हैं। हम उस प्रभु का 'सोम, यव, अयव तथा प्रजापति, परमेष्ठी' नाम से स्तवन करें।
मराठी (2)
भावार्थ
ज्या परमेश्वराने लोकांचे रक्षण करण्यासाठी वनस्पती इत्यादी औषधी निर्माण करून व धारण करून सर्व व्यवस्थित केलेले आहे त्यांचीच उपासना सर्व माणसांनी केली पाहिजे.
विषय
पुढील मंत्रातही तोच विषय प्रतिपादित आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, ज्याने निर्माण केल्यामुळे (सोम:) औषधींमधे (अधिपति) उत्तम औषध (स्वास्थ प्रद उपकारक) गुण (आसीत्) आहे, ज्याने त्या (वनस्पतय:) पिंपळ आदी वनस्पतींचे (असृज्यन्त) निर्माण केले आहे, तुम्ही त्या परमेश्वराची (नवविंशत्या) एकोनतीस प्रकारच्या वनस्पतीगुणांनी (अस्तुवत) स्तुती करा (परमेश्वराने औषधींमधे रोगनिवारक, रोगप्रतिरोधक गुण वा प्रभाव दिला आहे, म्हणून त्याचे आभार माना) ज्याने निर्मिलेले (यवा:) समष्टि रुप पर्वत आदी (च) आणि त्रसरेणु आदी (अयवा:) तसेच प्रकृतीचे भिन्न-भिन्न अवयव, सत्व, रज, आणि तमोगुण (च) आणि परमाणू आदी (अधियतमय:) या सर्वांचा जो मुक्त कारण रूप अध्यक्ष (आसन्) आहे, तसेच ज्याने (प्रजा:) उत्तम प्रसिद्ध औषधी (असृन्यन्त) निर्मिल्या आहेत, तुम्ही त्या परमेश्वराची (एकत्रिंशता) एकवीस प्रजेच्या अवयवांनी (अस्तुवत) प्रशंसा करा. ज्याच्या शक्ती व प्रभावामुळे (भूतानि) प्रकृतीचे परिणाम महत्त्वत्वाचे होणारे उपद्रव (अशाम्यन्) शान्त होतात आणि जो (प्रजापति:) प्रजेचा (प्राणिमात्रांचा) रक्षक आहे, तो (परमेष्ठी) परमेश्वराप्रमाणे व्यापक आकाशामध्ये व्यापक होऊन स्थित आहे, तोच (अधिपति:) सर्वाधिष्ठाता (आसीत्) आहे. त्या परमेश्वराची तुम्ही (त्रयंस्त्रिंशता) महाभूतांच्या तेहतीस गुणांनी (अस्तुवत) प्रशंसा करा ॥31॥
भावार्थ
भावार्थ - ज्या परमेश्वराने लोकरक्षणासाठी वनस्पती आदी औषधींची रचना केली आहे आणि ज्याने त्याचे धारण, पालन व व्यवस्थापन केले आहे, त्याचीच उपासना सर्व मनुष्यांनी केली पाहिजे. ॥31॥
टिप्पणी
या अध्यायात वसंत आदी ऋतूंच्या गुणांचे वर्णन केले असून या अध्यायाची संगती पूर्वीच्या तेराव्या अध्यायाशी जाणावी. ॥^चवदावा अध्याय समाप्त
इंग्लिश (3)
Meaning
O men, God has created the trees, Soma is their head. Praise Him with twenty-nine objects. He has created the important plants, the forests, the dust-rays, the different parts of the matter with their attributes of Satva, Rajas and Tamas. Atoms are their over-lord. Praise Him with thirty one objects. Through His grace all big forces of Nature attain to calmness, God, the Sustainer of men, the Pervader of the universe, is over-lord. Praise Him through thirty-three objects.
Meaning
With twenty nine properties of the herbs and trees, worship Him who created the herbs and trees with Soma as their chief and presiding power. With thirty-one parts and properties of the created world of nature, worship Him who created the elemental and the compound materials of nature and life with these very elements and forms being the presiding presences of existence. With thirty three properties of the elements of nature, worship Him in whose creation Prajapati, the father of His creatures, is the Supreme Lord, and into whom all the forms and elements of existence recede in peace and silence for the night of annihilation.
Translation
He is praised with twenty-nine; the plants are created; Soma (medicinal herb) is their sovereign. (1) He is praised with thirty-one; the progeny is created; cereals and non-cereals are its sovereigns. (2) He is praised with thirty-three and cosmic elements calm down; the divine Supreme is sovereign then. (3) Repeat here the verses beginning with the words Lokam (XII. 54), (4) Tа (XII. 55), (5) and ‘Indram’ (XII. 56). (6)
Notes
Navaviinéatya, with twenty nine, दश हस्त्या अंगुलयो दश पाद्या नव प्राणा:, ten fingers, ten toes and nine vital breaths. (Ibid . 4. 3. 17). Ekatriinóatà, with thirty-one, दश हस्त्या अंगुलयो दश पाद्या दश प्राणा आत्मा एकत्रिंश:, ten fingers, ten toes; ten vital breaths and thirty-first the Self. (Ibid VIII. 4. 3. 18). Trayastriin£ata, with thirty-three, दश हस्त्या अंगुलयो दश पाद्या दश प्राणा द्वे प्रतिष्ठे आत्मा त्रयस्त्रिंश:, ten fingers, ten toes, ten vital breaths, two feet and thirty-third the Self. (Ibid, VHI. 4. 3. 19). It requires much faith to assimilate these explanations. The figure thirty-three coincides with the number of Devas. According to Dayananda, these thirty three devas are; eight Vasus, eleven Rudras, twelve Adityas, Indra (the self) and Prajapati (God supreme).
बंगाली (1)
विषय
পুনঃ স এব বিষয় উপদিশ্যতে ॥
পুনঃ সেই উক্ত বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যাহার নির্মাণ করাইলে (সোমঃ) ওষধিগুলির মধ্যে উত্তম ওষধি (অধিপতিঃ) স্বামী (আসীৎ) হয়, যিনি সেই সব (বনস্পতয়ঃ) অশ্বত্থাদি, বনস্পতিকে (অসৃজ্যন্ত) রচিয়াছেন, সেই পরমাত্মার (নববিংশত্যা) ঊনত্রিশ প্রকারের বনস্পতিগুলির গুণ দ্বারা তোমরা (অস্তুবত) স্তুতি কর এবং যিনি উৎপন্ন করিয়াছেন (য়বাঃ) সমষ্টিরূপ নির্মিত পর্বতাদি (চ) এবং ত্রসরেণু ইত্যাদি (অয়বাঃ) ভিন্ন ভিন্ন প্রকৃতির অবয়ব সত্ত্ব, রজস ও তমোগুণ (চ) তথা পরমাণু ইত্যাদি (অধিপতয়ঃ) মুখ্য কারণরূপ অধ্যক্ষ (আসন্) আছেন সেই সব (প্রজাঃ) প্রসিদ্ধ ওষধিগুলিকে যিনি (অসৃজ্যন্ত) রচিয়াছেন সেই ঈশ্বরের (একত্রিংশতা) প্রজার অবয়বগুলির দ্বারা (অস্তুবত) প্রশংসা কর । যাহার প্রভাব বলে (ভূতানি) প্রকৃতির পরিণাম মহত্ত্বের উপদ্রব (অশাম্যন্) শান্ত হউক । যাহা (প্রজাপতিঃ) প্রজার রক্ষক (পরমেষ্ঠী) পরমেশ্বরের সমান আকাশে ব্যাপক হইয়া স্থিত পরমেশ্বর (অধিপতিঃ) অধিষ্ঠাতা (আসীৎ) আছেন তাঁহার (ত্রয়স্ত্রিংশতা) মহাভূতের তেত্রিশ গুণগুলির দ্বারা (অস্তুবত) প্রশংসা কর ॥ ৩১ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যে পরমেশ্বর লোক-লোকান্তরের রক্ষা হেতু বনস্পতি ইত্যাদি ওষধি সকলের রচনা করিয়া ধারণ ও ব্যবস্থিত করিয়াছেন তাঁহারই উপাসনা সব মনুষ্যকে করা উচিত ॥ ৩১ ॥
এই অধ্যায়ে বসন্তাদি ঋতুগুলির গুণবর্ণন হওয়ায় এই অধ্যায়ের অর্থের সঙ্গতি পূর্ব অধ্যায়ের অর্থ সহ জানিতে হইবে ॥
ইতি শ্রীমৎপরমহংসপরিব্রাজকাচার্য়াণাং পরমবিদুষাং শ্রীয়ুতবিরজানন্দসরস্বতীস্বামিনাং শিষ্যেণ পরমহংসপরিব্রাজকাচার্য়েণ শ্রীমদ্দয়ানন্দসরস্বতীস্বামিনা নির্মিতে সুপ্রমাণয়ুক্তে সংস্কৃতার্য়্যভাষাভ্যাং বিভূষিতে য়জুর্বেদভাষ্যে চতুর্দশোऽধ্যায়ঃ পূর্ত্তিমগাৎ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
নব॑বিꣳশত্যাऽস্তুবত॒ বন॒স্পত॑য়োऽসৃজ্যন্ত॒ সোমোऽধি॑পতিরাসী॒দেক॑ত্রিꣳশতাऽস্তুবত প্র॒জাऽ অ॑সৃজ্যন্ত॒ য়বা॒শ্চায়॑বা॒শ্চাধি॑পতয়ऽআসং॒স্ত্রয়॑স্ত্রিꣳশতাऽস্তুবত ভূ॒তান্য॑শাম্যন্ প্র॒জাপ॑তিঃ পরমে॒ষ্ঠ্যধি॑পতিরাসীৎ ॥ ৩১ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
নববিংশত্যেত্যস্য বিশ্বদেব ঋষিঃ । প্রজাপতির্দেবতা । নিচৃদতিধৃতিশ্ছন্দঃ ।
ষড্জঃ স্বরঃ ॥
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