यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 17
आयु॑र्मे पाहि प्रा॒णं मे॑ पाह्यपा॒नं मे॑ पाहि व्या॒नं मे॑ पाहि॒ चक्षु॑र्मे पाहि॒ श्रोत्रं॑ मे पाहि॒ वाचं॑ मे पिन्व॒ मनो॑ मे जिन्वा॒त्मानं॑ मे पाहि॒ ज्योति॑र्मे यच्छ॥१७॥
स्वर सहित पद पाठआयुः॑। मे॒। पा॒हि॒। प्रा॒णम्। मे॒। पा॒हि॒। अ॒पा॒नमित्य॑प्ऽआ॒नम्। मे॒। पा॒हि॒। व्या॒नमिति॑ विऽआ॒नम्। मे॒। पा॒हि॒। चक्षुः॑। मे॒। पा॒हि॒। श्रोत्र॑म्। मे॒। पा॒हि॒। वाच॑म्। मे॒। पि॒न्व॒। मनः॑। मे॒। जि॒न्व॒। आ॒त्मान॑म्। मे॒। पा॒हि॒। ज्योतिः॑। मे॒। य॒च्छ॒ ॥१७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आयुर्मे पाहि प्राणम्मे पाहि अपानम्मे पाहि व्यानम्मे पाहि चक्षुर्मे पाहि श्रोत्रम्मे पाहि वाचम्मे पिन्व मनो मे जिन्वात्मानम्मे पाहि ज्योतिर्मे यच्छ ॥
स्वर रहित पद पाठ
आयुः। मे। पाहि। प्राणम्। मे। पाहि। अपानमित्यप्ऽआनम्। मे। पाहि। व्यानमिति विऽआनम्। मे। पाहि। चक्षुः। मे। पाहि। श्रोत्रम्। मे। पाहि। वाचम्। मे। पिन्व। मनः। मे। जिन्व। आत्मानम्। मे। पाहि। ज्योतिः। मे। यच्छ॥१७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे स्त्रि पुरुष वा! त्वं शरदृतावायुर्मे पाहि, प्राणं मे पाह्यपानं मे पाहि, व्यानं मे पाहि, चक्षुर्मे पाहि, श्रोत्रं मे पाहि, वाचं मे पिन्व, मनो मे जिन्वात्मानं मे पाहि, ज्योतिर्मे यच्छ॥१७॥
पदार्थः
(आयुः) जीवनम् (मे) मम (पाहि) (प्राणम्) (मे) (पाहि) (अपानम्) (मे) (पाहि) (व्यानम्) (मे) (पाहि) (चक्षुः) दर्शनम् (मे) (पाहि) (श्रोत्रम्) श्रवणम् (मे) (पाहि) (वाचम्) वाणीम् (मे) (पिन्व) सुशिक्षया सिंच (मनः) (मे) (जिन्व) प्रीणीहि (आत्मानम्) चेतनम् (मे) (पाहि) (ज्योतिः) विज्ञानम् (मे) मह्यम् (यच्छ) देहि। [अयं मन्त्रः शत॰८.३.२.१४ व्याख्यातः]॥१७॥
भावार्थः
स्त्री पुरुषस्य पुरुषः स्त्रियाश्च यथाऽऽयुरादीनां वृद्धिः स्यात् तथैव नित्यमाचरेताम्॥१७॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर भी पूर्वोक्त विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे स्त्री वा पुरुष! तू शरद् ऋतु में (मे) मेरी (आयुः) अवस्था की (पाहि) रक्षा कर (मे) मेरे (प्राणम्) प्राण की (पाहि) रक्षा कर (मे) मेरे (अपानम्) अपान वायु की (पाहि) रक्षा कर (मे) मेरे (व्यानम्) व्यान की (पाहि) रक्षा कर (मे) मेरे (चक्षुः) नेत्रों की (पाहि) रक्षा कर (मे) मेरे (श्रोत्रम्) कानों की (पाहि) रक्षा कर (मे) मेरी (वाचम्) वाणी को (पिन्व) अच्छी शिक्षा से युक्त कर (मे) मेरे (मनः) मन को (जिन्व) तृप्त कर (मे) मेरे (आत्मानम्) चेतन आत्मा की (पाहि) रक्षा कर और (मे) मेरे लिये (ज्योतिः) विज्ञान का (यच्छ) दान कर॥१७॥
भावार्थ
स्त्री पुरुष की और पुरुष स्त्री की जैसे अवस्था आदि की वृद्धि होवे, वैसे परस्पर नित्य आचरण करें॥१७॥
पदार्थ
पदार्थ = हे दयामय जगदीश्वर ! ( मे आयुः पाहि ) = मेरे आयु की रक्षा करो। ( मे प्राणम् पाहि ) = मेरे प्राण की रक्षा करो । ( मे व्यानम् पाहि ) = मेरे व्यान की रक्षा करो । ( मे चक्षुः पाहि ) = मेरे नेत्रों की रक्षा करो । ( मे श्रोत्रम् पाहि ) = मेरे कानों की रक्षा करो । ( मे वाचम् पिन्व ) = मेरी वाणी को अच्छी शिक्षा से युक्त करो। ( मे मनः जिन्व ) = मेरे मन को प्रसन्न करो । ( मे आत्मानम् पाहि ) = मेरे चेतन आत्मा की और मेरे इस भौतिक देह की रक्षा करो। ( मे ज्योतिः यच्छ ) = मुझे आत्मा की और अपनी यथार्थ ज्ञानरूपी ज्योतिः प्रदान करें ।
भावार्थ
भावार्थ = परमात्मन्! आप कृपा करके हमारे आयुः, प्राण, अपान, व्यान, नेत्र, श्रोत्र, वाणी, मन, देह और इस चेतन जीवात्मा की रक्षा करते हुए मुझे यथार्थ ब्रह्मज्ञान प्रदान करें, जिससे हम आपके दिये मनुष्य जन्म को सफल कर सकें। भगवन् ! आयुः, प्राण, नेत्र, श्रोत्र, वाणी, मन आदि की रक्षा और इन की नीरोगता के बिना, हमारा जीवन ही दुःखमय हो जाएगा, इसलिए आपसे इनकी रक्षा और प्रसन्नता की भी हम प्रार्थना करते हैं कृपा करके इस प्रार्थना को अवश्य स्वीकार करें ।
विषय
आयु प्राण आदि की रक्षा ।
भावार्थ
हे परमेश्वर ! प्रभो ! हे स्वामिन् ! ( मे आयुः पाहि ) मेरी आयु की रक्षा कर । ( मे प्राणं प्राहि ) मेरे प्राण का पालन कर । ( के अपानं पाहि ) मेरे अपान की रक्षा कर । ( में व्यानं पाहि ) मेरे व्यान की रक्षा कर । ( मे चक्षुः पाहि ) मेरी आंखों का पालन कर ।( श्रोत्रं मे पाहि ) मेरे कानों का पालन कर । ( मे वाचं पिन्व ) मेरी वाणी को तृप्त कर । ( मे मनः जिन्व ) मेरे मन को प्रसन्न कर । ( मे आत्मानं पाहि ) मेरे आत्मा या देह की रक्षा कर । ( से ) मुझे ( ज्योति:) ज्ञान ज्योति का ( यच्छ ) प्रदान कर ॥ शत० ८ । ३ । २ । १४ : १५ ॥
विषय
आयु - ज्योतिः
पदार्थ
१. गत मन्त्र के ‘वार्षिक [आनन्द की वर्षा करनेवाले] व शारद [ बुराइयों को शीर्ण करनेवाले]' पति-पत्नी प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि (मे आयुः पाहि) = मेरे जीवन की रक्षा कीजिए। वस्तुत: इस प्रार्थना को करते हुए वे अपनी आयु की रक्षा के लिए पूर्ण प्रयत्न करते हैं। पूर्ण प्रयत्न के साथ ही प्रार्थना शोभा देती है । २. इस जीवन में (प्राणं मे पाहि) = मेरी प्राणशक्ति की रक्षा कीजिए, (अपानं मे पाहि) = मेरी अपान- रोगनिराकरण-शक्ति की रक्षा कीजिए। (व्यानं मे पाहि) = मेरी इस सर्वशरीर- व्यापिनी व्यानशक्ति की रक्षा कीजिए। वस्तुत: 'प्राणापान, व्यान' से रहित जीवन कोई जीवन नहीं है। स्वस्थ जीवन ही जीवन है । ३. इस स्वस्थ जीवन में में (चक्षुः) = मेरी आँख की (पाहि) = रक्षा कीजिए। मेरी दृष्टिशक्ति विकृत न हो जाए। मेरे जीवन का दृष्टिकोण ठीक बना रहे। इसके ठीक रहने पर ही सब कार्य ठीक होते हैं। ४. (श्रोत्रं मे पाहि) = मेरे श्रोत्र की रक्षा कीजिए। इससे मैं कभी अभद्र न सुनूँ। संसार में ये स्तुति-निन्दा को न सुनेंगे तो न झगड़ेंगे न पतित होंगे। ५. (वाचं मे पिन्व) = मेरी वाणी को प्रीणित कीजिए। यह औरों का प्रीणन करनेवाली हो, इसमें कटुता न हो। ६. (मे मनः जिन्व) = मुझे मानस शक्ति दीजिए [जिव् = give] । मेरा मन प्रबल हो। ७. (मे आत्मानं पाहि) = मेरी आत्मा की रक्षा कीजिए, अर्थात् मेरी आत्मा, जो आप हैं, उन्हें मैं भूल न जाऊँ, इसीलिए मैं चाहता हूँ कि ८. (मे ज्योतिः यच्छ) = मुझे प्रकाश दीजिए। मुझे वह ज्ञान की ज्योति दीजिए, जिससे मैं आपका दर्शन कर पाऊँ । सम्पन्न, शुद्ध इन्द्रियों व मनवाला तथा ज्योतिर्मय
भावार्थ
भावार्थ- हमारा जीवन दीर्घ, शक्ति हो, जिससे हम प्रभु-दर्शन में समर्थ हों।
मराठी (2)
भावार्थ
स्त्री-पुरुषांच्या अवस्था जसजशा वृद्धिंगत होत जातील त्यानुरूप परस्परांशी व्यवहार करावा.
विषय
पुढील मंत्रात तोच विषय वर्णित आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे पत्नी त पतीचे वचन आहे-तसेच पत्नीही पतीला म्हणत आहे) हे पती / हे पत्नी, या शरद ऋतूत तू (मे) माझ्या (आयु:) आयुष्याची (जीवनशक्तीची) (पाहि) रक्षा कर. (मे) माझ्या (प्राणम्) प्राणांचे (याहि) रक्षण कर. (मे) माझ्या (अपानम्) अपानवायूचे (पाहि) रक्षण कर. (मे) माझ्या (व्यानम्) व्यान वायूचे (पाहि) रक्षण कर (मे) माझ्या (चक्षु) नेत्रांचे (पाहि) रक्षण कर. (मे) माझ्या (श्रोत्रम्) कानांचे (पाहि) रक्षण कर (मे) मी माझ्या (वाचम्) वाणीद्वारे (पिम्व) चांगले बोलण्याचे उच्चारणाचे वळण लाव. (मे) माझे (मन:) मन (जिन्व) तप्तृ कर (मला सर्वथा आनंद व संतोष दे) (मे) माझ्या (आत्म्यानम्) चेतन आत्म्याचे (पाहि) रक्षण कर आणि (मे) मला (ज्योति:) ज्ञान-विज्ञान (यच्छ) दे (उत्तम विचार व विवेक (शिकव) (पती पत्नीला पत्नी पतीला म्हणते की शरद ऋतूत दोघांचे वागणे, आहार-विहार-आचार आदी असे असावेत की ज्यायोगे एकामुळे दुसर्याचे प्राणादी वायू, नेत्रादी इंद्रियें उत्तमपणे कार्यशक्ती संपन्न राहतील) ॥17॥
भावार्थ
भावार्थ - स्त्रीने पुरुषाचे आणि पुरुषाने स्त्रीची (आहार-विचार-आचार यांमध्ये) निरंतर उन्नती होत राहील, असेच दोघांचे वागणे असावे. ॥17॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Preserve my life, Preserve my Pran. Guard my Apan. Guard my Vyan. Preserve my eyes. Preserve my ears. Strengthen my speech with good instructions. Satisfy my mind. Preserve my soul. Vouchsafe me light of knowledge.
Meaning
Light and Law of the Universe, protect my life. Energize my breath. Clear and strengthen my cleansing system and eliminate the wastes. Strengthen the circulation of energy in my body. Protect and sharpen my eye. Protect and sensitize my ear. Guard and enliven my speech. Regenerate and broaden my mind. Save and strengthen my soul. Give me light, give me the light to see and realize.
Translation
O Lord, preserve my life. (1) Preserve my vital breath. (2) Protect my out-breath. (3) Protect my through-breath. (4) Preserve my vision. (5) Preserve my audition. (6) Keep my speech strong. (7) Gladden my mind. (8) Guard my soul. (9) Show me the light. (10)
Notes
раһ, रक्ष, protect ; preserve. Prana, арапа and vyàna, three types of vital breaths, essential for proper functioning of the body. Caksuh, Srotram, vacam, vision, (eye sight), audition, (power of hearing), and speech, the most important functions of the body for a life with dignity (अदीनं जीवनम् )Pipa, सिंच, irrigate. सुशिक्षया सिंच, cultivate with good education. Also, strengthen; make firm, so that speech may be clear and effective. Mano me jinva, प्रीणय, delight, please or gladden my mind. For the mind delight or pleasure is the best condition which 15 opposite to sorrow or distress. Jyotirme yaccha, show me the light, so that I may not get astray in the darkness. Dayananda interprets jyotih as knowledge of science or of the real self.
बंगाली (2)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ পূর্বোক্ত বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে স্ত্রী বা পুরুষ ! তুমি শরদ ঋতুতে (মে) আমার (আয়ুঃ) অবস্থার (পাহি) রক্ষা কর (মে) আমার (প্রাণম্) প্রাণের (পাহি) রক্ষা কর (মে) আমার (অপানম্) অপান বায়ুর (পাহি) রক্ষা কর, (মে) আমার (ব্যানম্) ব্যানের (পাহি) রক্ষা কর, (মে) আমার (চক্ষুঃ) নেত্রদ্বয়ের (পাহি) রক্ষা কর, (মে) আমার (শ্রোত্রম্) কর্ণ দ্বয়ের (পাহি) রক্ষা কর, (মে) আমার (বাচম্) বাণীকে (পিন্ব) উত্তম শিক্ষা দ্বারা যুক্ত কর, (মে) আমার (মনঃ) মনকে (জিন্ব) তৃপ্ত কর, (মে) আমার (আত্মানম্) চেতন আত্মার (পাহি) রক্ষা কর, এবং (মে) আমার জন্য (জ্যোতিঃ) বিজ্ঞানের (য়চ্ছ) দান কর ॥ ১৭ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- স্ত্রী পুরুষের এবং পুরুষ স্ত্রীর যেমন অবস্থাদির বৃদ্ধি হইবে সেইরূপ পরস্পর নিত্য আকর্ষণ করিবে ॥ ১৭ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
আয়ু॑র্মে পাহি প্রা॒ণং মে॑ পাহ্যপা॒নং মে॑ পাহি ব্যা॒নং মে॑ পাহি॒ চক্ষু॑র্মে পাহি॒ শ্রোত্রং॑ মে পাহি॒ বাচং॑ মে পিন্ব॒ মনো॑ মে জিন্বা॒ত্মানং॑ মে পাহি॒ জ্যোতি॑র্মে য়চ্ছ ॥ ১৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
আয়ুর্ম ইত্যস্য বিশ্বদেব ঋষিঃ । ঋতবো দেবতাঃ । স্বরাড্ ব্রাহ্ম্যনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
পদার্থ
আয়ুর্মে পাহি প্রাণং মে পাহি অপানং মে পাহি ব্যানং মে পাহি চক্ষুর্মে পাহি শ্রোত্রং মে পাহি বাচং মে পিন্ব মনো মে জিন্বাত্মানং মে পাহি জ্যোতির্মে যচ্ছ।।৬১।।
(যজু ১৪।১৭)
পদার্থঃ হে দয়াময় জগদীশ্বর! (মে আয়ুঃ পাহি) আমার আয়ুকে রক্ষা করো। (মে প্রাণম্ পাহি) আমার প্রাণের রক্ষা করো। (মে অপানম্ পাহি) আমার অপানের রক্ষা করো। (মে ব্যানম পাহি) আমার ব্যানের রক্ষা করো। (মে চক্ষুঃ পাহি) আমার চক্ষুযুগলকে রক্ষা করো। (মে শ্রোত্রম্ পাহি) আমার কর্ণযুগলকে রক্ষা করো। (মে বাচম্ পিন্ব) আমার বাণীকে উত্তম শিক্ষার সাথে যুক্ত করো। (মে মনঃ জিন্ব) আমার মনকে প্রসন্ন করো। (মে আত্মানম্ পাহি) আমার চেতন আত্মাকে এবং আমার এই ভৌতিক দেহকে রক্ষা করো। (মে জ্যোতিঃ যচ্ছ) আমার আত্মার দিকে তোমার যথার্থ জ্ঞানরূপী জ্যোতিঃ প্রদান করো।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ হে পরমাত্মন! তুমি কৃপা করে আমাদের আয়ু, প্রাণ, অপান, ব্যান, চক্ষু, কর্ণ, বাণী, মন, দেহ এবং এই চেতন জীবাত্মাকে রক্ষা করে যথার্থ ব্রহ্মজ্ঞান প্রদান করো; যেন আমরা তোমার দেওয়া মনুষ্য জন্ম সফল করতে পারি। হে ভগবান! আয়ু, প্রাণ, চক্ষু, কর্ণ, বাণী, মন সকল কিছুর রক্ষা এবং এদের আরোগ্য ছাড়া আমাদের জীবন দুঃখময় হয়ে যাবে, এজন্য তোমার থেকে এদের রক্ষা এবং প্রসন্নতার প্রার্থনা করছি। কৃপা করে এই প্রার্থনাকে স্বীকার করো।।৬১।।
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