यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 19
ऋषिः - विश्वदेव ऋषिः
देवता - पृथिव्यादयो देवताः
छन्दः - आर्षी जगती
स्वरः - निषादः
2
पृ॒थि॒वी छन्दो॒ऽन्तरि॑क्षं॒ छन्दो॒ द्यौश्छन्दः॒ समा॒श्छन्दो॒ नक्ष॑त्राणि॒ छन्दो॒ वाक् छन्दो॒ मन॒श्छन्दः॑ कृ॒षिश्छन्दो॒ हिर॑ण्यं॒ छन्दो॒ गौश्छन्दो॒ऽजाच्छन्दोऽश्व॒श्छन्दः॑॥१९॥
स्वर सहित पद पाठपृ॒थि॒वी। छन्दः॑। अ॒न्तरि॑क्षम्। छन्दः॑। द्यौः। छन्दः॑। समाः॑। छन्दः॑। नक्ष॑त्राणि। छन्दः॑। वाक्। छन्दः॑। मनः॑। छन्दः॑। कृ॒षिः। छन्दः॑। हिर॑ण्यम्। छन्दः॑। गौः। छन्दः॑। अ॒जा। छन्दः॑। अश्वः॑। छन्दः॑ ॥१९ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पृथिवीच्छन्दोन्तरिक्षच्छन्दो द्यौश्छन्दः समाश्छन्दो नक्षत्राणि छन्दो वाक्छन्दो मनश्छन्दः कृषिश्छन्दो हिरण्यञ्छन्दो गौश्छन्दोजा च्छन्दः श्वश्छन्दः ॥
स्वर रहित पद पाठ
पृथिवी। छन्दः। अन्तरिक्षम्। छन्दः। द्यौः। छन्दः। समाः। छन्दः। नक्षत्राणि। छन्दः। वाक्। छन्दः। मनः। छन्दः। कृषिः। छन्दः। हिरण्यम्। छन्दः। गौः। छन्दः। अजा। छन्दः। अश्वः। छन्दः॥१९॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे स्त्रीपुरुषाःæ! यूयं यथा पृथिवी छन्दोऽन्तरिक्षं छन्दो द्यौश्छन्दः समाश्छन्दो नक्षत्राणि छन्दो वाक् छन्दो मनश्छन्दः कृषिश्छन्दो हिरण्यं छन्दो गौश्छन्दोऽजाच्छन्दोऽश्वश्छन्दोऽस्ति, तथा विद्याविनयधर्माचरणेषु स्वाधीनतया वर्त्तध्वम्॥१९॥
पदार्थः
(पृथिवी) भूमिः (छन्दः) स्वच्छन्दा (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (छन्दः) (द्यौः) प्रकाशः (छन्दः) (समाः) वर्षाणि (छन्दः) (नक्षत्राणि) (छन्दः) (वाक्) (छन्दः) (मनः) (छन्दः) (कृषिः) भूमिविलेखनम् (छन्दः) (हिरण्यम्) सुवर्णम् (छन्दः) (गौः) (छन्दः) (अजा) (छन्दः) (अश्वः) (छन्दः)। [अयं मन्त्रः शत॰८.३.३.६ व्याख्यातः]॥१९॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। स्त्रीपुरुषैः स्वच्छविद्याक्रियाभ्यां स्वातन्त्र्येण पृथिव्यादिपदार्थानां गुणादीन् विज्ञाय कृष्यादिकर्मभिः सुवर्णादिं प्राप्य गवादीन् संरक्ष्यैश्वर्यमुन्नेयम्॥१९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वही उक्त विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे स्त्री-पुरुषो! तुम लोग जैसे (पृथिवी) भूमि (छन्दः) स्वतन्त्र (अन्तरिक्षम्) आकाश (छन्दः) आनन्द (द्यौः) प्रकाश (छन्दः) विज्ञान (समाः) वर्ष (छन्दः) बुद्धि (नक्षत्राणि) तारे लोक (छन्दः) स्वतन्त्र (वाक्) वाणी (छन्दः) सत्य (मनः) मन (छन्दः) निष्कपट (कृषिः) जोतना (छन्दः) उत्पत्ति (हिरण्यम्) सुवर्ण (छन्दः) सुखदायी (गौः) गौ (छन्दः) आनन्द-हेतु (अजा) बकरी (छन्दः) सुख का हेतु और (अश्वः) घोड़े आदि (छन्दः) स्वाधीन हैं, वैसे विद्या, विनय और धर्म के आचरण विषय में स्वाधीनता से वर्त्तो॥१९॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। स्त्री-पुरुषों को चाहिये कि शुद्ध विद्या, क्रिया और स्वतन्त्रता से पृथिवी आदि पदार्थों के गुण, कर्म और स्वभावों को जान; खेती आदि कर्मों से सुवर्ण आदि रत्नों को प्राप्त हों और गौ आदि पशुओं की रक्षा करके ऐश्वर्य्य बढ़ावें॥१९॥
विषय
मा, प्रमा आदि शक्तियों का वर्णन ।
भावार्थ
इसी प्रकार - ( पृथिवी ) पृथिवी और ( द्यौः ) द्यौ, आकाश, ( समा ) वर्ष, (नक्षत्राण ) नक्षत्र, ( वाक् ) वाणी, ( मन ) मन, ( कृषिः ) कृषि, ( हिरण्यम् ) सुवर्णे, ( गौः ) गौ आदि पशु ( अजा ) अजा आदि पशु ( अश्वः ) अश्व आदि एक खुर के पशु ये सब भी ( छन्दः ) शक्ति के स्थान, कार्यों के साधन करने में सहायक, अथवा मानव प्रजा को अपने भीतर आच्छादित या सुरक्षित रखते हैं । शत० २ । ३ । ३ । १-१२ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वेदेवा देवताः । छन्दांसि देवताः । भुरिगति जगती । निषादः ।
विषय
NULL
पदार्थ
१३. (पृथिवी छन्दः) = तुम्हारी इच्छा शरीर को पूर्ण स्वस्थ करने की हो। इसकी शक्तियों का तुम विस्तार करो। १४. (अन्तरिक्षं छन्दः) = हृदयान्तरिक्ष को निर्मल बनाने की कामना करो। इसके अधिपति बनो, मन को वश में करके चलो, सदा मध्यमार्ग को अपनाओ। यह मन तुम्हें अति में ले जानेवाला न हो जाए । १५. द्(यौः छन्दः)- = मस्तिष्करूप द्युलोक की तुम कामना करो। इसे [दिव्= द्युति] प्रकाशमय बनाने के लिए प्रयत्नशील होओ। १६. (समाः छन्दः) = [समायन्ति ऋतवो यस्यां सा समाः] संवत्सर की तुम्हारी कामना हो, जैसे इसमें सब ऋतुएँ समय पर आती हैं, इसी प्रकार तुममें भी सब कर्त्तव्य समय-समय पर आते रहें। तुम अपने सब कार्यों को समय पर करते रहो अथवा (समाः) = काल जैसे सबके लिए सम है, उसी प्रकार तुम भी सबके लिए सम होओ। तुम्हारे व्यवहार में वैषम्य न हो । १७. (नक्षत्राणि छन्दः) = नक्षत्रों के समान [नक्ष गतौ] सदा क्रियाशीलता की भावना तुममें बनी रहे । 'न क्षिणोति हिनस्ति इति' तुम नक्षत्रों से हिंसा न करने का पाठ सीखो। ये कल्याण-ही-कल्याण करते हैं, हिंसा नहीं। तुम भी लोगों को थोड़ा-बहुत प्रकाश देनेवाले होओ। १८. (वाक् छन्दः) = तुम्हारी इच्छा निरन्तर ज्ञान की वाणियों को प्राप्त करने की हो । १९. (मनः छन्दः) = मन को निरुद्ध करने की और इस प्रकार मानस-बल को बढ़ाने की तुम्हारी इच्छा हो । २०. इस मनो निरोध के लिए तुम (कृषिः छन्दः) = कृषि आदि कार्यों की इच्छा करो । कृषि आदि कार्यों में लगा हुआ मन विषयों में जाने से रुका रहेगा । २१. इस कृषि से प्राप्य (हिरण्यं छन्दः) = धन की तुम कामना करो। कृषि से प्राप्य धन वस्तुतः मनुष्य के लिए बड़ा हितरमणीय है, अतः वस्तुतः यही धन 'हिरण्य' है । २२. (गौ: छन्दः) = वहाँ खेती में गौओं की तुम इच्छा करो [तत्र गाव:] । कृषि करते हुए गौएँ रखने में आर्थिक कष्ट नहीं होता। २३. (अजाः छन्दः) = वहाँ खेती में तू बकरियों को रखने की इच्छा कर तथा २४. (अश्वः छन्दः) = घोड़ों को रखने की तू कामना कर। ये गौ और घोड़े ही तेरे जीवन को उत्कृष्ट बुद्धि व बल से सम्पन्न करेंगे।
भावार्थ
भावार्थ - यह मन्त्र 'पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्यौ' से प्रारम्भ होता है, शरीर, मन व मस्तिष्क को उत्तम बनाने की कामना हमें करनी ही चाहिए। समाप्ति पर 'गौ-अजा व अश्व' हैं। गौ-दुग्ध हमारे मस्तिष्कों को सुन्दर बनाएगा, अजा दुग्ध हमारे मनों को तथा अश्व हमारे शरीर को सबल बनानेवाले होंगे।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. स्त्री व पुरुषांनी शुद्ध ज्ञान व कर्म या द्वारे स्वतंत्रपणे पृथ्वी इत्यादी पदार्थांचे गुण, कर्म, स्वभाव जाणून शेती इत्यादी द्वारा सुवर्ण, रत्ने प्राप्त करावीत आणि गाई वगैरे पशूंचे रक्षण करून ऐश्वर्य वाढवावे.
विषय
पुढील मंत्रात तोच विषय वर्णित आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे स्त्री-पुरुषहो (मनुष्यांनो), ज्याप्रमाणे (पृथिवी) ही भूमी (छन्द:) स्वतंत्र आहे, (अंतरिक्षम्) आकाश (छन्द:) आनंदमय आहे, (द्यौ:) प्रकाशलोक (छन्द:) विज्ञानमय आहे, (समा:) वर्ष (छन्द:) बुद्धीमय आहे (नक्षत्राणि) तारागण (छन्द:) स्वतंत्र आहे (वाक्) वाणी (छन्द:) सत्य असावी (मन:) मन (छन्द:) स्वतंत्र आहे (वाक्) वाणी (छन्द:) सत्य असावी (मन:) मन (छन्द:) ----- निष्कपट आहे, (कृषि:) कृषिकर्म (छन्द:) उत्पन्न देणारे आहे, (हिरण्यम्) सुवर्ण (छन्द:) आल्हादकारी आहे (गौ:) गाय (छन्द:) आनंदाचे कारण आहे, (अजा) शेळी (छन्द:) सुखाचे कारण आहे आणि (अश्व:) घोडा आदी पशू-(भारवहन, स्वारी आदी साठी) (छन्द:) शक्ति मानवा स्वाधीन आहेत, त्याप्रमाणे (हे मनुष्यांनो) तुम्ही देखील विद्या, विनय आणि धर्माचरण याबाबतीत स्वतंत्र आहात (म्हणून विद्या शिका, विनयाने वागा आणि धर्माचरण करा) ॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. स्त्री-पुरुषांना पाहिजे की शुद्ध विद्या, क्रिया आणि स्वातंत्र्यवृत्तीने पृथ्वी आदी पदार्थांचे गुण, कर्म, स्वभाव जाणावेत आणि शेती (उद्योग, व्यापार आदी) कर्मांद्वारे सुवर्ण, रत्न आदींची प्राप्ती करावी. तसेच गौ आदी पशूंचे पालन करून आपले ऐश्वर्य वाढवावे ॥19॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Earth is full of freedom. Heaven is extremely pleasant. Light is knowledge. Years enhance our wisdom. The stars are free in their movements. Let speech be truthful and mind free from fraud. Husbandry leads to produce. Gold gives comforts. Cow is the source of happiness. Goat gives us pleasure. Horses are free in motion.
Meaning
Earth is the seat of freedom. Sky is the symbol of joy. Light is knowledge and science. Year is the understanding and measure of time. Stars are free in their orbits. Speech is the medium of truth. Mind is the seat of honesty. Farming is the source of production. Gold leads to pleasure. Cow is the mother of joy and plenty. Goat gives joy. Horse loves freedom. Know this and follow. And these are the themes of Vaidic verses.
Translation
The earth is joy. (1) The mid-space is joy. (2) The sky is joy. (3) The years are joy. (4) The constellations are joy. (5) The speech is joy. (6) The mind is joy. (7) The agriculture is joy. (8) The sheep is joy. (9) The cow is joy. (10) The goats are joy. (11) The horse is joy. (12)
Notes
In this verse prthivi etc. are mentioned as chandas. The commentators have interpreted : छादयति इति छंद: छादनात्,, that one which covers or protects. छद् also means to please, to delight. We have preferred this meaning in this verse. Dayinanda has translated छंद: : as स्वछंद:, unfettered. Samah, संवत्सरा:, years.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই উক্ত বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে স্ত্রী পুরুষগণ ! তোমরা যেমন (পৃথিবী) ভূমি (ছন্দঃ) স্বতন্ত্র (অন্তরিক্ষম্) আকাশ (ছন্দঃ) আনন্দ (দ্যৌঃ) প্রকাশ (ছন্দঃ) বিজ্ঞান (সমাঃ) বর্ষ (ছন্দঃ) বুদ্ধি (নক্ষত্রাণি) নক্ষত্র জগৎ (ছন্দঃ) স্বতন্ত্র (বাক্) বাণী (ছন্দঃ) সত্য (মনঃ) মন (ছন্দঃ) নিষ্কপট (কৃষিঃ) কৃষি (ছন্দঃ) উৎপত্তি (হিরণ্যম্) সুবর্ণ (ছন্দঃ) সুখদায়ী (গৌঃ) গাভি (ছন্দঃ) আনন্দ হেতু (অজা) ছাগী (ছন্দঃ) সুখের হেতু এবং (অশ্বঃ) অশ্বাদি (ছন্দঃ) স্বাধীন সেইরূপ বিদ্যা, বিনয় ও ধর্মের আচরণ বিষয়ে স্বাধীনতা পূর্বক ব্যবহার কর ॥ ১ঌ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । স্ত্রী-পুরুষদিগের উচিত যে, শুদ্ধ বিদ্যা, ক্রিয়া ও স্বতন্ত্রতা দ্বারা পৃথিবী ইত্যাদি পদার্থের গুণ, কর্ম ও স্বভাবকে জানিয়া কৃষি আদি কর্ম্ম দ্বারা সুবর্ণাদি রত্ন প্রাপ্ত হও এবং গাভি ইত্যাদি পশুসমূহের রক্ষা করিয়া ঐশ্বর্য্য বৃদ্ধি কর ॥ ১ঌ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
পৃ॒থি॒বী ছন্দো॒ऽন্তরি॑ক্ষং॒ ছন্দো॒ দ্যৌশ্ছন্দঃ॒ সমা॒শ্ছন্দো॒ নক্ষ॑ত্রাণি॒ ছন্দো॒ বাক্ ছন্দো॒ মন॒শ্ছন্দঃ॑ কৃ॒ষিশ্ছন্দো॒ হির॑ণ্যং॒ ছন্দো॒ গৌশ্ছন্দো॒ऽজাচ্ছন্দোऽশ্ব॒শ্ছন্দঃ॑ ॥ ১ঌ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
পৃথিবী ছন্দ ইত্যস্য বিশ্বদেব ঋষিঃ । পৃথিব্যাদয়ো দেবতাঃ । আর্ষী জগতী ছন্দঃ । নিষাদঃ স্বরঃ ॥
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