यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 24
ऋषिः - विश्वदेव ऋषिः
देवता - मेधाविनो देवताः
छन्दः - भुरिग्विकृतिः
स्वरः - मध्यमः
2
अ॒ग्नेर्भा॒गोऽसि दी॒क्षाया॒ऽ आधि॑पत्यं॒ ब्रह्म॑ स्पृ॒तं त्रि॒वृत्स्तोम॑ऽ इन्द्र॑स्य भा॒गोऽसि॒ विष्णो॒राधि॑पत्यं क्ष॒त्रꣳ स्पृ॒तं प॑ञ्चद॒श स्तोमो॑ नृ॒चक्ष॑सां भा॒गोऽसि धा॒तुराधि॑पत्यं ज॒नित्र॑ꣳ स्पृ॒तꣳ स॑प्तद॒श स्तोमो॑ मि॒त्रस्य॑ भा॒गोऽसि॒ वरु॑ण॒स्याधि॑पत्यं दि॒वो वृष्टि॒र्वात॑ स्पृ॒तऽ ए॑कवि॒ꣳश स्तोमः॑॥२४॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्नेः। भा॒गः। अ॒सि॒। दी॒क्षायाः॑। आधि॑पत्य॒मित्याधि॑ऽपत्यम्। ब्रह्म॑। स्पृ॒तम्। त्रि॒वृदिति॑ त्रि॒ऽवृत्। स्तोमः॑। इन्द्र॑स्य। भा॒गः। अ॒सि॒। विष्णोः॑। आधि॑पत्य॒मित्याधि॑ऽपत्यम्। क्ष॒त्रम्। स्पृ॒तम्। प॒ञ्च॒द॒श इति॑ पञ्चऽद॒शः। स्तोमः॑। नृ॒चक्ष॑सा॒मिति॑ नृ॒ऽचक्ष॑साम्। भा॒गः। अ॒सि॒। धा॒तुः। आधि॑पत्य॒मित्याधि॑ऽपत्यम्। ज॒नित्र॑म्। स्पृ॒तम्। स॒प्त॒ऽद॒श इति॑ सप्तऽद॒शः। स्तो॑मः। मि॒त्रस्य॑। भा॒गः। अ॒सि॒। वरु॑णस्य। आधि॑पत्य॒मित्याधि॑ऽपत्यम्। दि॒वः। वृष्टिः॑। वातः॑। स्पृ॒तः। ए॒क॒वि॒ꣳश इत्ये॑कऽवि॒ꣳशः। स्तोमः॑ ॥२४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्नेर्भागोसि दीक्षाया आधिपत्यम्ब्रह्म स्पृतन्त्रिवृत्स्तोमऽइन्द्रस्य भागोसि विष्णोराधिपत्यङ्क्षत्रँ स्पृतम्पञ्चदशः स्तोमो नृचक्षसाम्भागोसि धातुराधिपत्यञ्जनित्रँ स्पृतँ सप्तदशः स्तोमो मित्रस्य भागोसि वरुणस्याधिपत्यन्दिवो वृष्टिर्वात स्पृत एकविँश स्तोमो वसूनाम्भागः ॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्नेः। भागः। असि। दीक्षायाः। आधिपत्यमित्याधिऽपत्यम्। ब्रह्म। स्पृतम्। त्रिवृदिति त्रिऽवृत्। स्तोमः। इन्द्रस्य। भागः। असि। विष्णोः। आधिपत्यमित्याधिऽपत्यम्। क्षत्रम्। स्पृतम्। पञ्चदश इति पञ्चऽदशः। स्तोमः। नृचक्षसामिति नृऽचक्षसाम्। भागः। असि। धातुः। आधिपत्यमित्याधिऽपत्यम्। जनित्रम्। स्पृतम्। सप्तऽदश इति सप्तऽदशः। स्तोमः। मित्रस्य। भागः। असि। वरुणस्य। आधिपत्यमित्याधिऽपत्यम्। दिवः। वृष्टिः। वातः। स्पृतः। एकविꣳश इत्येकऽविꣳशः। स्तोमः॥२४॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मनुष्यैः कथं विद्या अधीत्य किमाचरणीयमित्याह॥
अन्वयः
हे विद्वन्! यस्त्वमग्नेर्भागः संवत्सर इवाऽसि, स त्वं दीक्षायाः स्पृतमाधिपत्यं ब्रह्म प्राप्नुहि। यस्त्रिवृत्स्तोम इन्द्रस्य भाग इवासि, स त्वं विष्णोः स्पृतमाधिपत्यं क्षत्रं प्राप्नुहि। यस्त्वं पञ्चदश स्तोमो नृचक्षसां भाग इवासि, स त्वं धातुः स्पृतं जनित्रमाधिपत्यं प्राप्नुहि। यस्त्वं सप्तदश स्तोमो मित्रस्य भाग इवासि, स त्वं वरुणस्याधिपत्यं याहि। यस्त्वं वातः स्पृत एकविंश स्तोम इवासि तेन त्वया दिवो वृष्टिर्विधेया॥२४॥
पदार्थः
(अग्नेः) सूर्य्यस्य (भागः) विभजनीयः (असि) (दीक्षायाः) ब्रह्मचर्यादेः (आधिपत्यम्) (ब्रह्म) ब्रह्मवित्कुलम् (स्पृतम्) प्रीतं सेवितम् (त्रिवृत्) यत्त्रिभिः कायिकवाचिकमानसैः साधनैः शुद्धं वर्त्तते (स्तोमः) यः स्तूयते (इन्द्रस्य) विद्युतः परमैश्वर्यस्य वा (भागः) (असि) (विष्णोः) व्यापकस्य जगदीश्वरस्य (आधिपत्यम्) (क्षत्रम्) क्षात्रधर्मप्राप्तं राजन्यकुलम् (स्पृतम्) (पञ्चदशः) पञ्चदशानां पूर्णः (स्तोमः) स्तोता (नृचक्षसाम्) येऽर्था नृभिः ख्यायन्ते तेषाम् (भागः) (असि) (धातुः) धर्त्तुः (आधिपत्यम्) अधिपतेर्भावः (जनित्रम्) जननम् (स्पृतम्) (सप्तदशः) (स्तोमः) स्तावकः (मित्रस्य) (भागः) (असि) (वरुणस्य) श्रेष्ठोदकसमूहस्य वा (आधिपत्यम्) (दिवः) प्रकाशस्य (वृष्टिः) वर्षा (वातः) वायुः (स्पृतः) सेवितः (एकविंशः) (स्तोमः) स्तुवन्ति येन सः। [अयं मन्त्रः शत॰८.४.२.३-६ व्याख्यातः]॥२४॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये बाल्यावस्थामारभ्य सज्जनोपदिष्टविद्याग्रहणाय प्रयत्नेनाधिपत्यं लभन्ते, ते स्तुत्यानि कर्माणि कृत्वोत्तमा भूत्वा सविधं कालं विज्ञाय विज्ञापयेयुः॥२४॥
हिन्दी (3)
विषय
अब मनुष्य किस प्रकार विद्या पढ़ के कैसा आचरण करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे विद्वान् पुरुष! जो तू (अग्नेः) सूर्य्य का (भागः) विभाग के योग्य संवत्सर के तुल्य (असि) है, सो तू (दीक्षायाः) ब्रह्मचर्य्य आदि की दीक्षा का (स्पृतम्) प्रीति से सेवन किये हुए (आधिपत्यम्) (ब्रह्म) ब्रह्मज्ञ कुल के अधिकार को प्राप्त हो, जो (त्रिवृत्) शरीर, वाणी और मानस साधनों से शुद्ध वर्त्तमान (स्तोमः) स्तुति के योग्य (इन्द्रस्य) बिजुली वा उत्तम ऐश्वर्य के (भागः) विभाग के तुल्य (असि) है, सो तू (विष्णोः) व्यापक ईश्वर के (स्पृतम्) प्रीति से सेवने योग्य (क्षत्रम्) क्षत्रियों के धर्म के अनुकूल राजकुल के (आधिपत्यम्) अधिकार को प्राप्त हो, जो तू (पञ्चदशः) पन्द्रह का पूरक (स्तोमः) स्तुतिकर्त्ता (नृचक्षसाम्) मनुष्यों से कहने योग्य पदार्थों के (भागः) विभाग के तुल्य (असि) है, सो तू (धातुः) धारणकर्त्ता के (स्पृतम्) ईप्सित (जनित्रम्) जन्म और (आधिपत्यम्) अधिकार को प्राप्त हो, जो तू (सप्तदशः) सत्रह संख्या का पूरक (स्तोमः) स्तुति के योग्य (मित्रस्य) प्राण का (भागः) विभाग के समान (असि) है, सो तू (वरुणस्य) श्रेष्ठ जलों के (आधिपत्यम्) स्वामीपन को प्राप्त हो, जो तू (वातः स्पृतः) सेवित पवन और (एकविंशः) इक्कीस संख्या का पूरक (स्तोमः) स्तुति के साधन के समान (असि) है, सो तू (दिवः) प्रकाशरूप सूर्य्य से (वृष्टिः) वर्षा होने का हवन आदि उपाय कर॥२४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो पुरुष बाल्यावस्था से लेकर सज्जनों ने उपदेश की हुई विद्याओं के ग्रहण के लिये प्रयत्न कर के अधिकारी होते हैं, वे स्तुति के योग्य कर्मों को कर और उत्तम हो के विधान के सहित काल को जान के दूसरों को जनावें॥२४॥
विषय
राष्ट्र की नाना समृद्धियों के स्वरूप ।
भावार्थ
१. हे विज्ञान राशे ! (अग्नेः भागः असि) तू अभि ज्ञानवान् पुरुष के सेवन करने योग्य है । तुझ पर ( दीक्षायाः ) दीक्षा, इतग्रहण और वाणी का ( आधिपत्यम् ) आधिपत्य, स्वामित्व है। इससे ही ( ब्रह्म स्मृतम् ) ब्रह्म अर्थात् वेद ज्ञान सुरक्षित रहता है । ( त्रिवृत् स्तोमः ) उपासना, ज्ञान और कर्म ये तीन प्रकार का वीर्य प्राप्त होता है । २. ( इन्द्रस्य भागः असि ) हे क्षात्रबल ! तू ( इन्द्रस्य ) ऐश्वर्यवान् या शत्रुओं के नाशकारी वीर पुरुष का ( भाग : असि ) सेवन करने योग्य अंश है । उस पर ( विष्णोः आधिपत्यम् ) व्यापक या विस्तृत सामर्थ्यवान् पुरुष का आधिपत्य या स्वामित्व है । उसके अधीन (क्षत्र्ं स्पृतम् ) क्षत्र बल की रक्षा होती है। (पञ्चदश: स्तोम ) उसका अधिकारी बल चन्द्र के समान १५ तिथियों या कलाओं से युक्त है। या उसका पद १२ मास ३ ऋतु वाले आदित्य संवत्सर के समान है । ३. ( तृचक्षसां भागः असि ) हे राष्ट्र मे बसे प्रजाजन ! तुम लोग नृचक्षसां भागः असि ) प्रजाओं के कार्यों के निरीक्षक अधिकारी पुरुषी के भाग हो । तुम पर ( धातुः ) प्रजा का पालन करने और ऐश्वर्य या पौष्टिक अनादि पदार्थों से पुष्ट करने हारे 'धातृ' नामक अधिकारी का ( आधिपत्यम् ) स्वामित्व है । ( जनित्रम् स्पृतम् ) इस प्रकार प्रजाओं का उत्पन्न होना और उनके जीवन की रक्षा होती है। इसमें (सप्तदश स्तोमः) इस अधिकारी के अधीन १७ अन्य अधिकारी जन हों । ४. ( मित्रस्य भागः असि ) मित्र सर्व प्रजा के प्रति स्नेही, निष्पतपात, न्यायकारी, सूर्य के समान तेजस्वी, पुरुष का यह भाग है। इस पर ( वरुणस्य आधिपत्यम्) वरुण दुष्टों को वारण करने वाले दमनकर्त्ता अधि- कारी का अधिकार है। (दिवः वृष्टिः ) आकाश से जैसे जल वृष्टि सब को समान रूप से प्राप्त होता है और ( वातः ) वायु जिस प्रकार सब को समान रूप से प्राप्त है उसी प्रकार सर्व साधारण के अन्न जल वायु के समान जन्म सिद्ध अधिकार भी ( स्पृतः ) सुरक्षित हों। ( एकविंश: स्तोम ) उसमें २१ अधिकारीगण हो ॥ २४ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
लिंगोक्ता देवताः । भुरिक् विकृतिः । मध्यमः ।
विषय
ब्रध्न + क्षत्र + जनित्र + वात
पदार्थ
१. (अग्नेः) = अग्नि का भाग [भज सेवायाम्] = भजन करनेवाला, अतएव अग्नि का ही अंश - छोटारूप तू असि है । 'नाधः शिखा याति कदाचिदेव' = अग्नि की ज्वाला कभी नीचे की ओर नहीं जाती। इसी प्रकार अग्नि का उपासक भी कभी नीचे की ओर झुकाववाला नहीं होता। (दीक्षाया आधिपत्यम्) = [वाग्वै दीक्षा - श० ८।४।२।३] वाणी पर इसका आधिपत्य होता है। वस्तुत: ‘अग्निर्वाग् भूत्वा०' अग्नि ही वाणी का रूप धारण करके मुख में प्रवेश करती है, अतः यह अग्नि की उपासना करता हुआ वाणी का अधिपति बनता है। वाणी का अधिपति बनकर (ब्रह्म स्पृतम्) = [ स्पृ प्रीतिरक्षाप्राणनेषु] इसने ज्ञान के साथ प्रीति की है, ज्ञान की रक्षा की है तथा ज्ञान को ही अपना जीवन बनाने का प्रयत्न किया है। (त्रिवृत्स्तोमः) = ज्ञान प्राप्त करके यह [त्रिषु वर्त्तते] 'धर्मार्थ, काम' तीनों में वर्त्तनेवाला बना है और यह धर्म, अर्थ, काम का सम सेवन ही स्तोमः - इसकी स्तुति हुई है। २. इन्द्रस्य = इन्द्र का भागः असि=तू भजन व उपासन करनेवाला हुआ है । इन्द्रियों का अधिष्ठाता पूर्ण जितेन्द्रिय बनकर (विष्णोः आधिपत्यम्) = तुझे व्यापकता, उदारता व यज्ञिय वृत्ति का आधिपत्य प्राप्त हुआ है। तूने इस यज्ञिय भावना के द्वारा विषयासक्ति से बचकर (क्षत्रं स्मृतम्) = बल की रक्षा की है - बल को प्रिय वस्तु बनाया है सबल जीवन जीने का प्रयत्न किया है और इस प्रकार (पञ्चदशः) = पाँचों ज्ञानेन्द्रियों, पाँचों कर्मेन्द्रियों व पाँच प्राणों को तूने स्वस्थ किया है। उन्हें अपनी सम्पत्ति बनाया है और यही तेरा (स्तोमः) = स्तवन हो गया है। इन्द्रियों व प्राणों का ठीक रखना वस्तुतः प्रभु-स्तवन है । ३. (नृचक्षसाम्) = [नॄन् चक्षते - look after men= देवा:] मनुष्यों का रक्षण करनेवाले देवों का तू (भागः असि) = भजन करनेवाला है। इस भजन से तू उनका भाग- अंश वा छोटा रूप बना है। (धातुराधिपत्यम्) = तुझे धारण करनेवाले का आधिपत्य प्राप्त हुआ है। धारक देवों का उपासक धारक क्यों न बनेगा? (जनित्रं स्मृतम्) = धारक बनकर तूने [विड् वै जनित्रम् - श० ८।४।२१५] प्रजा से प्रेम किया है, प्रजा की रक्षा की है और प्रजाओं को ही अपना प्राण बनाया है। (सप्तदश स्तोमः) = पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच प्राण तथा मन और बुद्धि ये सत्रह तत्त्व तेरा स्तवन बने हैं। इनको ठीक रखना ही तेरा प्रभु-स्तवन बन गया है। ४. मित्रस्य प्राण का व स्नेह की देवता का तू (भागः असि) = भजन करनेवाला है। वस्तुतः प्राणशक्ति के ठीक होने पर ही स्नेह की प्रवृत्ति होती है। इनमें कार्यकारण भाव है-प्राण की कमी स्नेहवृत्ति की न्यूनता का कारण बनती है। इस स्नेह की वृत्ति से तुझे (वरुणस्याधिपत्यम्) = अपान का व द्वेष निवारण का आधिपत्य प्राप्त होता है। अपान' से दोषों का दूरीकरण होता है और मनुष्य निद्वेष बनता है। इस स्नेह व निर्देष के होने पर (दिवः वृष्टिः) = मूर्धा में [मस्तिष्क में] होनेवाली आनन्द की वर्षा होती है अथवा प्रकाश की वृष्टि होती है, जीवन वस्तुतः आनन्दमय बनता है। इस उच्च स्थिति को स्थिर रखने के लिए तूने (वातः स्मृतः) = वायु की, निरन्तर क्रियाशीलता की रक्षा की है, क्रियाशीलता से ही प्रेम किया है तथा क्रियाशीलता से ही जीने का प्रयत्न किया है। क्रियाशीलता से (एकविंश:) = शरीर की इक्कीस शक्तियोंवाला तू होता है और यही तेरा (स्तोमः) = प्रभु-स्तवन है।
भावार्थ
भावार्थ - अग्नि के उपासक बनकर हम ज्ञान की रक्षा करें। इन्द्र के उपासक बनकर हम बल की रक्षा करें। देवों के उपासक बनकर प्रजाओं की रक्षा करें। मित्र-स्नेह की देवता के उपासक बनकर हम क्रियाशीलता की रक्षा करें। हम ज्ञानी, सबल, प्रजारक्षक व क्रियाशील बनें।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे बाल्यावस्थेपासून सज्जनांनी सांगितलेल्या मार्गाने जाऊन त्यांचा उपदेश ग्रहण करण्याचा प्रयत्न करून ज्ञानी बनतात, त्यांनी प्रशंसायुक्त कर्म करावे. स्वतः उत्तम बनून काळाचे ज्ञान प्राप्त करावे व इतरांनाही शिकवावे.
विषय
मनुष्यांनी कशाप्रकारे वा कशी विद्या अवगत करून कसे वागावे, याविषयी -
शब्दार्थ
(आचार्य अनेक शिष्यांना वा मनुष्यांना क्रमश: उपदेश करीत आहेत)^शब्दार्थ - हे विद्वान शिष्या ते मनुष्या (अग्ने:) सूर्याच्या (भाग:) विभागाप्रमाणे होत असलेल्या (सौर ) संवत्सराप्रमाणे (असि) आहेस. (सूर्य आणि संवत्सराप्रमाणे नियमित व संयमी आहेत) तू (दीक्षाया:) ब्रह्मचर्य आदी दीक्षा (स्मृतम्) स्वयमेव प्रेमाने घेतली आहेस. म्हणून (आधिपत्यम्) (ब्रह्म) ब्रह्मज्ञ कुळाचे अधिकार मिळण्यास पात्र आहेस ब्राह्मण वर्ण स्वीकारण्याचा अधिकारी झाला आहेस) (आचार्य दुसर्या शिष्यास म्हणतात) ------ तू शरीर वाणी आणि मनाने शुद्ध असून (स्तोम:) प्रशंसनीय अशा (इन्द्रस्य) विद्युत अथवा उत्तम ऐश्वर्याच्या (भाग:) विभागाप्रमाणे (असि) आहेस. (तुझे ऐश्वर्य उत्तम मार्गाने प्राप्त झालेले आहे) यामुळे तू (विष्णो:) व्यापक ईश्वराच्या (स्पृतम्) प्रेमाने सेवन करणार्या (क्षत्रम्) क्षात्रधर्माचे, राजवंशाचे (अधिपत्यम्) अधिकार प्राप्त करण्यास पात्र झाला आहेस (तू क्षत्रिय वर्ण स्वीकारण्याचा अधिकारी आहेस) हे शिष्या/मनुष्या, तू (पंचदश:) इतरांपेक्षा पंधरापटीने अधिक (स्तोम:) स्तुतिकर्ता असून (नृचक्षसाम्) मनुष्यांना सागण्यासारखा वस्तूंचा (भाग:) विभागाप्रमाणे (असि) आहेस (तू लोकांना पदार्थांच्या उचित उपयोग सांगण्यात सक्षम आहेस) म्हणून तुला (धातु:) धारणकर्ता (पमरेश्वराचे दिलेल्या) (स्पृतम्) वांछित (जमित्रम्) जन्माला (उचित पद्धतीने जगण्याचा) (अधिकत्यम्) अधिकार प्राप्त झाला आहे. (तू उपदेशक होण्यास पात्र आहेस का) 4) हे शिष्या/मनुष्या, तू (सप्तदश:) इतरांपेक्षा सतरा पटीने अधिक (स्तोम:) स्तवनीय वा प्रशंसनीय (मित्रस्य) प्राणांच्या (भाग:) विभागाप्रमाणे (असि) आहेस. (तू इतरांपेक्षा सतरापटीने प्राणशक्तीने अधिक संपन्न आहेस) म्हणून तू (वरूणस्य) उत्तम जलाच्या (अधिकत्यय्) स्वामित्व प्राप त करण्याचा अधिकारी झाला आहेस (तू प्राणदायक अशा जलाची सर्वांसाठी योग्य व्यवस्था कर) (5) हे शिष्या/मनुष्या, तू (वातस्पृत:) सेवनीय पवन आणि (एकविरा:) एकवीस प्रकारच्या (स्तोम:) प्रशंसनीय साधनांनी युक्त (असि) आहेस. म्हणून तू (दिन:) प्रकाशरुप सूर्याच्या प्रभावामुळे (वृष्टि:) वृष्टी होण्यास हवन आदी उयानांचा अवलंब कर.
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. जे लोक बालपणापासून सज्जनांनी केलेल्या उपदेशाप्रमाणे वागतात, विद्याप्राप्तीकरिता यत्नशील असतात, त्यांच्या हातूनच प्रशंसनीय कर्म होतात. अशा लोकांनी स्वत: उत्तम मनुष्य होऊन कर्तव्य-कर्में जाणावीत आणि इतरांनाही त्यांची माहिती सांगावी. ॥24॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O learned person, thou art like the year. Practising celibacy, attain to the sovereignty of a Brahmin family. Being pure in body, word and mind, and worthy of praise, thou art the embodiment of supremacy ; attain to the sovereignty of a royal Kshatriya family, loved by the All-pervading God. Being fifteen-fold praiser, thou art like the part of Objects described by the people ; attain to the desired birth and right of a sustainer. Laudable in seventeen ways, thou art the part of Pran ; attain to the sovereignty of waters. Served by air, thou art like the twenty-one-fold praiser, draw rain from the sun through Homa (sacrificial fire).
Meaning
You are a part of Agni, lord giver of life and protection, wholly under the direction and control of your dedication to the lord. With the observance of Trivrit (three part) stoma, you inculcate, protect and promote the Brahmana character of society. You are a part of Indra, lord of energy and power, wholly under the direction and control of Vishnu, the omnipresent lord of the world. With the observance of Panchadasha (fifteen part) stoma, you inculcate, protect and promote the power and prowess (Kshatriya character) of the community. You are a part of the intelligent and wide-awake observers of the people, totally under the direction and control of the lord and ruler of humanity. With the observance of Saptadasha (seventeen part) stoma, you inculcate, protect and promote the economic power of the people. You are a part of Mitra, sun and universal energy, totally under the direction and control of Varuna, the universal water power. With the observance of Ekavinsha (twenty-one part) stoma, you attract and promote the wind and rain from the region of the sun.
Translation
You are the share of Agni (Fire); overlordship is of Diksa (the consecration); Brahma (intellectual power) is preserved; and the praise-song is Trivrt (3 x 3 = 9). (1) You are the share of Indra (lightning); overlordship is of Visnu (sacrifice); Ksatra (ruling power) is preserved; the praise-song is Pancadasa (fifteen). (2) You are the share of Nrcaksas (the benefactors of men); overlordship is of Dhatr (the constructive impulse); Janitra (producing power) is preserved; the praise-song is Saptadasa (seventeen). (3) You are the share of Mitra (Sun); the overlordship is of Varuna (ocean); Vrsti and Vata (rain and wind) of the sky is preserved; the praise-song is Ekavimsa (twenty-one). (4)
Notes
In this and the next two verses, there are ten mantras (sections of the kandika). In each mantra, there is one deity, one overlordship, one thing which is preserved and one praise-hymn. There are ten such sets in these three verses. Deity Overlord What is stoma (preserved) Agni Diksa Brahma Trivit Indra Visnu Ksatram Paficadasa Nrcaksas Dhitr Janitram Saptadasa ~ Mitra Varuna Divo vrstirvita Ekviín$a Vasus Rudras Chatuspat Chaturviinsa Adityah § Maruts Garbhah Paficavimsa Aditih Pusan Ojah Trinava Savitr Brhaspatih Samicirdisah Chatustoma Yavas Ayavas Prajah Chatvariinsa Rbhus Viśve devah Bhütam Trayastriinsa
बंगाली (1)
विषय
অথ মনুষ্যৈঃ কথং বিদ্যা অধীত্য কিমাচরণীয়মিত্যাহ ॥
এখন মনুষ্য কী প্রকার বিদ্যা পড়িয়া কেমন আচরণ করিবে, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে বিদ্বন্ পুরুষ ! যে তুমি (অগ্নেঃ) সূর্য্যের (ভাগঃ) বিভাগযোগ্য সম্বৎসরের তুল্য (অসি) হও সুতরাং তুমি (দীক্ষায়াঃ) ব্রহ্মচর্য্য ইত্যাদির দীক্ষার (স্পৃতম্) প্রীতিপূর্বক সেবনকৃত (আধিপত্যম্) (ব্রহ্ম) ব্রহ্মজ্ঞ কুলের অধিকারকে প্রাপ্ত হও, যে (ত্রিবৃৎ) শরীর, বাণীও মানস সাধনগুলি দ্বারা শুদ্ধ বর্ত্তমান (স্তোমঃ) স্তুতিযোগ্য (ইন্দ্রস্য) বিদ্যুৎ বা উত্তম ঐশ্বর্য্যের (ভাগঃ) বিভাগের তুল্য (অসি) হও সুতরাং তুমি (বিষ্ণোঃ) ব্যাপক ঈশ্বরের (স্পৃতম্) প্রীতিপূর্বক সেবনীয় (ক্ষত্রম্) ক্ষত্রিয়দিগের ধর্মের অনুকূল রাজকুলের (আধিপত্যম্) অধিকার প্রাপ্ত হও সুতরাং তুমি (পঞ্চদশঃ) পনেরর পূরক (স্তোমঃ) সৃষ্টিকর্তা (নৃচক্ষসাম্) মনুষ্যদিগের বলিবার যোগ্য পদার্থগুলির (ভাগঃ) বিভাগের তুল্য (অসি) হও, সুতরাং তুমি (ধাতুঃ) ধারণকর্ত্তার (স্পৃতম্) ঈপ্সিত (জনিত্রম্) জন্ম এবং (আধিপত্যম্) অধিকারকে প্রাপ্ত হও, তুমি (সপ্তদশঃ) সতের সংখ্যার পূরক (স্তোমঃ) স্তুতি যোগ্য (মিত্রস্য) প্রাণের (ভাগঃ) বিভাগ সদৃশ (অসি) হও, সুতরাং তুমি (বরুণস্য) শ্রেষ্ঠ জলসমূহের (আধিপত্যম্) স্বামিত্ব প্রাপ্ত হও, তুমি (বাতঃ স্পৃতঃ) সেবিত পবন এবং (একবিংশ) একুশ সংখ্যার পূরক (স্তোমঃ) স্তুতির সাধন সমান (অসি) হও, সুতরাং তুমি (দিবঃ) প্রকাশরূপ সূর্য্য হইতে (বৃষ্টিঃ) বর্ষা হওয়ার হবনাদি উপায় কর ॥ ২৪ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যে পুরুষ বাল্যাবস্থা হইতে সজ্জনদিগের উপদেশ করা বিদ্যাসকল গ্রহণের জন্য প্রযত্ন করিয়া অধিকারী হয়, সে স্তুতি যোগ্য কর্ম্ম করিয়া উত্তম হইয়া বিধান সহিত কালকে জানিয়া অন্যকে জানাক্ ॥ ২৪ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অ॒গ্নের্ভা॒গো᳖ऽসি দী॒ক্ষায়া॒ऽ আধি॑পত্যং॒ ব্রহ্ম॑ স্পৃ॒তং ত্রি॒বৃৎস্তোমঃ॑ ইন্দ্র॑স্য ভা॒গো᳖ऽসি॒ বিষ্ণো॒রাধি॑পত্যং ক্ষ॒ত্রꣳ স্পৃ॒তং প॑ঞ্চদ॒শ স্তোমো॑ নৃ॒চক্ষ॑সাং ভা॒গো᳖ऽসি ধা॒তুরাধি॑পত্যং জ॒নিত্র॑ꣳ স্পৃ॒তꣳ স॑প্তদ॒শ স্তোমো॑ মি॒ত্রস্য॑ ভা॒গো᳖ऽসি॒ বর॑ুণ॒স্যাধি॑পত্যং দি॒বো বৃষ্টি॒র্বাত॑ স্পৃ॒তऽ এ॑কবি॒ꣳশ স্তোমঃ॑ ॥ ২৪ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অগ্নের্ভাগ ইত্যস্য বিশ্বদেব ঋষিঃ । মেধাবিনো দেবতাঃ । ভুরিগ্বিকৃতিশ্ছন্দঃ ।
মধ্যমঃ স্বরঃ ॥
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