Loading...
यजुर्वेद अध्याय - 14

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 12
    ऋषिः - विश्वकर्मर्षिः देवता - वायुर्देवता छन्दः - भुरिग्विकृतिः स्वरः - मध्यमः
    3

    वि॒श्वक॑र्मा त्वा सादयत्व॒न्तरि॑क्षस्य पृ॒ष्ठे व्यच॑स्वतीं॒ प्रथ॑स्वतीम॒न्तरि॑क्षं यच्छा॒न्तरि॑क्षं दृꣳहा॒न्तरि॑क्षं॒ मा हि॑ꣳसीः। विश्व॑स्मै प्रा॒णाया॑ऽपा॒नाय॑ व्या॒नायो॑दा॒नाय॑ प्रति॒ष्ठायै॑ च॒रित्राय॑। वा॒युष्ट्वा॒भिपा॑तु म॒ह्या स्व॒स्त्या छ॒र्दिषा॒ शन्त॑मेन॒ तया॑ दे॒वत॑याङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वा सी॑द॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒श्वक॒र्मेति॑ वि॒श्वऽक॑र्मा। त्वा॒। सा॒द॒य॒तु॒। अ॒न्तरि॑क्षस्य। पृ॒ष्ठे। व्यच॑स्वती॒मिति॒ व्यचः॑ऽवतीम्। प्रथ॑स्वतीम्। अ॒न्तरि॑क्षम्। य॒च्छ॒। अ॒न्तरि॑क्षम्। दृ॒ꣳह॒। अ॒न्तरि॑क्षम्। मा। हि॒ꣳसीः॒। विश्व॑स्मै। प्रा॒णाय॑। अ॒पा॒नाय॑। व्या॒नाय॑। उ॒दा॒नाय॑। प्रति॒ष्ठायै॑। च॒रित्रा॑य। वा॒युः। त्वा॒। अ॒भि। पा॒तु। म॒ह्या। स्व॒स्त्या। छ॒र्दिषा॑। शन्त॑मेन। तया॑। दे॒वत॑या। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ध्रु॒वा। सी॒द॒ ॥१२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वकर्मा त्वा सादयत्वन्तरिक्षस्य पृष्ठे व्यचस्वतीम्प्रथस्वतीमन्तरिक्षँयच्छान्तरिक्षन्दृँहान्तरिक्षम्मा हिँसीः । विश्वस्मै प्राणायापानाय व्यानायोदानाय प्रतिष्ठायै चरित्राय । वायुष्ट्वाभिपातु मह्या स्वस्त्या च्छर्दिषा शन्तमेन तया देवतयाङ्गिरस्वद्धरुवा सीद ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वकर्मेति विश्वऽकर्मा। त्वा। सादयतु। अन्तरिक्षस्य। पृष्ठे। व्यचस्वतीमिति व्यचःऽवतीम्। प्रथस्वतीम्। अन्तरिक्षम्। यच्छ। अन्तरिक्षम्। दृꣳह। अन्तरिक्षम्। मा। हिꣳसीः। विश्वस्मै। प्राणाय। अपानाय। व्यानाय। उदानाय। प्रतिष्ठायै। चरित्राय। वायुः। त्वा। अभि। पातु। मह्या। स्वस्त्या। छर्दिषा। शन्तमेन। तया। देवतया। अङ्गिरस्वत्। ध्रुवा। सीद॥१२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 14; मन्त्र » 12
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे स्त्रि! विश्वकर्मा पतिर्यां व्यचस्वतीं प्रथस्वतीमन्तरिक्षस्य पृष्ठे त्वा सादयतु। सा त्वं विश्वस्मै प्राणायाऽपानाय व्यानायोदानाय प्रतिष्ठायै चरित्रायान्तरिक्षं यच्छाऽन्तरिक्षं दृंहान्तरिक्षं मा हिंसीः। यो वायुः प्राण इव प्रियस्तव स्वामी मह्या स्वस्त्या छर्दिषा शन्तमेन त्वा त्वामभिपातु, सा त्वं तया पत्याख्यया देवतया सहाङ्गिरस्वद् ध्रुवा सीद॥१२॥

    पदार्थः

    (विश्वकर्मा) अखिलशुभक्रियाकुशलः (त्वा) त्वाम् (सादयतु) संस्थापयतु (अन्तरिक्षस्य) आकाशस्य (पृष्ठे) भागे (व्यचस्वतीम्) प्रशस्तं व्यचो विज्ञानं सत्करणं विद्यते यस्यास्ताम् (प्रथस्वतीम्) उत्तमविस्तीर्णविद्यायुक्ताम् (अन्तरिक्षम्) जलम्। अन्तरिक्षमित्युदकनामसु पठितम्॥ (निघं॰१।१२) (यच्छ) (अन्तरिक्षम्) प्रशस्तं शोधितमुदकम् (दृंह) (अन्तरिक्षम्) मधुरादिगुणयुक्तं रोगनाशकमुदकम् (मा) (हिंसीः) हिंस्याः (विश्वस्मै) समग्राय (प्राणाय) (अपानाय) (व्यानाय) (उदानाय) (प्रतिष्ठायै) (चरित्राय) शुभकर्माचाराय (वायुः) प्राण इव (त्वा) (अभि) (पातु) (मह्या) महत्या (स्वस्त्या ) सुखक्रियया (छर्दिषा) प्रकाशेन (शन्तमेन) अतिशयेन सुखकारकेण (तया) (देवतया) दिव्यसुखप्रदानक्रियया सह (अङ्गिरस्वत्) सूत्रात्मवायुवत् (ध्रुवा) निश्चलज्ञानयुक्ता (सीद) स्थिरा भव। [अयं मन्त्रः शत॰८.३.१.९-१० व्याख्यातः]॥१२॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा पुरुषः स्त्रियं सत्कर्मसु नियोजयेत् तथा स्त्र्यपि स्वपतिं च प्रेरयेत्, यतः सततमानन्दो वर्द्धेत॥१२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वही विषय अगले मन्त्र में उपदेश किया है॥

    पदार्थ

    हे स्त्रि! (विश्वकर्मा) सम्पूर्ण शुभ कर्म करने में कुशल पति जिस (व्यचस्वतीम्) प्रशंसित विज्ञान वा सत्कार से युक्त (प्रथस्वतीम्) उत्तम विस्तृत विद्या वाली (अन्तरिक्षस्य) प्रकाश के (पृष्ठे) एक भाग में (त्वा) तुझ को (सादयतु) स्थापित करे सो तू (विश्वस्मै) सब (प्राणाय) प्राण (अपानाय) अपान (व्यानाय) व्यान और (उदानाय) उदानरूप शरीर के वायु तथा (प्रतिष्ठायै) प्रतिष्ठा (चरित्राय) और शुभ कर्मों के आचरण के लिये (अन्तरिक्षम्) जलादि को (यच्छ) दिया कर (अन्तरिक्षम्) प्रशंसित शुद्ध किये जल से युक्त अन्न और धनादि को (दृंह) बढ़ा और (अन्तरिक्षम्) मधुरता आदि गुणयुक्त रोगनाशक आकाशस्थ सब पदार्थों को (मा हिंसीः) नष्ट मत कर, जिस (त्वा) तुझ को (वायुः) प्राण के तुल्य प्रिय पति (मह्या) बड़ी (स्वस्त्या) सुख रूप क्रिया (छर्दिषा) प्रकाश और (शन्तमेन) अति सुखदायक विज्ञान से तुझ को (अभिपातु) सब ओर से रक्षा करे सो तू (तया) उस (देवतया) दिव्य सुख देने वाली क्रिया के साथ वर्त्तमान पतिरूप देवता के साथ (अङ्गिरस्वत्) व्यापक वायु के समान (ध्रुवा) निश्चल ज्ञान से युक्त (सीद) स्थिर हो॥१२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे पुरुष स्त्री को अच्छे कर्मों में नियुक्त करे, वैसे स्त्री भी अपने पति को अच्छे कर्मों में प्रेरणा करे, जिस से निरन्तर आनन्द बढ़े॥१२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    राजा विश्वकर्मा, पक्षान्तर में पति ।

    भावार्थ

    हे राजशक्ते ! ( व्यचस्वतीम् ) विविध रूपों से विस्तृत और ( प्रधस्वतीम् ) विस्तृत ऐश्वर्य वाली ( त्वा ) तुझको ( विश्वकर्मा ) समस्त उत्तम कार्यों के करने हारा पुरुष राजा ( अन्तरिक्षस्य पृष्ठे ) अन्तरिक्ष के समान सब के बीच पूजनीय पुरुष के पृष्ठ पर अर्थात् उसके बल या आश्रय पर स्थापित करे । तू स्वयं ( अन्तरिक्षम् ) अपने भीतर विद्यमान पूज्य पुरुष या अन्तरिक्ष के समान प्रजा के रक्षक राजा को (यच्छ) बल प्रदान कर । ( अन्तरिक्ष दृढ ) उसी 'अन्तरिक्ष नाम राजा को दृढ़कर, बढ़ा ( अन्तरिक्षं ) उस अन्तरिक्ष पदपर विद्यमान सर्वरक्षक राजा को ( मा हिंसीः ) मत विनाश कर ( विश्वस्मै ) सब के ( प्राणाय) प्राण ( अपानाय ) अपान, ( व्यानाय ) व्यान, ( उदानाय ) उदान ( प्रतिष्ठात्रे ) प्रतिष्ठा और ( चरित्राय ) उत्तम चरित्र या आश्रय की रक्षा के लिये ( वायुः ) वीर्यवान् वायु के समान बलशाली पुरुष ( मह्या स्वस्त्या ) बड़े भारी कल्याणकारी सम्पत्ति या शक्ति से ( शंतमेन ) अति शान्तिदायक ( छर्दिषा ) तेज और पराक्रम से ( त्वा अभि पातु ) तेरी रक्षा करे ( तया देवतया ) उस देवस्वरूप पुरुष के साथ तू ( अङ्गिरस्वत् ) अभि के समान तेजस्विनी होकर ( ध्रुवा सीद ) स्थिर होकर रह । शत० ८ । ३ । १ । ९-१० ॥ स्त्री के पक्ष में- हे स्त्री ( विश्वकर्मा ) तेरा पति ( व्यचस्वतीं प्रथस्वती ) विविध गुणों से प्रकाशित और प्रसिद्ध कीर्ति वाली तुझको अन्तरिक्ष के पृष्ठ अर्थात् हृदय में स्थापित करे । तू उसको अपने आप को सौंप, उसको बढ़ा और उसको पीड़ा मत दे। सबके प्राण, अपान, व्यान, उदान और सचरित्र की रक्षा के लिये वायु के समान प्राणेश्वर पति तेरी रक्षा करे । तू उस हृदय-देवता से तेजस्विनी होकर रह ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वकर्मा ऋषिः । वायुर्देवता । विकृतिः । मध्यमः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    मही-स्वस्ति-शन्तमछर्दि

    पदार्थ

    १. पत्नी के लिए कहते हैं कि (विश्वकर्मा) = सब कर्मों को करनेवाला प्रभु (त्वा) = तुझे अन्तरिक्षस्य (पृष्ठे) = हृदयान्तरिक्ष की श्री में [पृष्ठ = श्री - ऐ० ६ । ५] (सादयतु) = स्थापित करे, अर्थात् तुझमें सेवा की भावना को जन्म दे [श्रिञ् सेवायाम्] । अथवा (विश्वकर्मा) = आजीविका के लिए सब धर्म्य कर्मों को करने के लिए सदा उद्यत पति तुझे सेवा की वृत्तिवाला बनाये। पति को गृह - भार को वहन करते हुए देखकर पत्नी में इस वृत्तिका उत्पन्न होना स्वाभाविक है। 'ध्रुवैधि पोष्ये मयि' पोषण करनेवाले पति में पत्नी ध्रुव होकर रहेगी ही । २. तू (व्यचस्वतीम्) = [वि अञ्च्] वस्तुओं को व्यक्त करनेवाले ज्ञानवाली है तथा (प्रथस्वतीम्) = [ प्रथ विस्तारे ] हृदय के विस्तारवाली है। जहाँ तेरा ज्ञान ऊँचा है वहाँ तेरा हृदय भी विशाल है। ३. (अन्तरिक्षं यच्छ) = तू अपने मन को नियमित कर, मन को काबू करनेवाली हो। (अन्तरिक्षं बृंह) - इस मन को दृढ़ बना तथा (अन्तरिक्षं मा हिंसी:) = अपने मन को नष्ट न होने दे। 'मन के हारे हार है' ' - मन का उत्साह गया तो जीवन समाप्त हुआ, मन के उत्साह में ही सब उन्नति है । ४. इस प्रकार मन को नियमित, दृढ़ व जीवित बनाकर तू (प्राणाय) = प्राणशक्ति के लिए, (अपानाय) = दोषों को दूर करनेवाली अपानशक्ति के लिए, (व्यानाय) = सर्वशरीर व्यापी व्यानशक्ति के लिए और उसके द्वारा सारे नाड़ी संस्थान के स्वास्थ्य के लिए, (उदानाय) = कण्ठदेश में ठीक स्थिति को रखनेवाली उदानवायु के लिए, (प्रतिष्ठायै) = स्थिरता के लिए तथा (चरित्राय) = उत्तम आचरण के लिए, (विश्वस्मै) = इन सब बातों के लिए सन्नद्ध हो। ५. (वायुः) [वा गतौ ] = क्रियाशील पति (त्वा मह्या) = तुझे गौ के द्वारा [मही गोनाम - नि० २।११] (शन्तमेन छर्दिषा) = सब ऋतुओं में अधिक-से-अधिक शान्ति देनेवाले घर से (स्वस्त्या) = सब आवश्यक वस्तुओं को प्राप्त कराने से अविनाश के द्वारा या उत्तम स्थिति के द्वारा (अभिपातु) = अन्दर व बाहर से सुरक्षित करे - इहलोक व परलोक के दृष्टिकोण से सुरक्षित करे । ६. (तया देवतया) = उस गौ, उत्तम घर व सम्पत्ति आदि को प्राप्त करानेवाले देवतुल्य पति के साथ (अङ्गिरस्वत्) = अङ्ग अङ्ग में रसवाली तू (ध्रुवा) = ध्रुव होकर (सीद) = इस गृह में बैठ। ६. जिस घर में गौ होगी वहाँ 'देवत्व - अङ्गिरसत्व व ध्रुवत्व' ये सभी बातें सम्भव होंगी। गोदुग्ध सेवन से मन सात्त्विक व दैवी सम्पत्तिवाला बनाता है-गोरस शीतवीर्य को जन्म देकर अङ्ग अङ्ग में रस का सञ्चार करनेवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- पत्नी हृदय में सेवा की वृत्तिवाली हो, ज्ञान के लिए विस्तारवाली, विशाल हृदयवाली हो। मन को दृढ़ व नियमित रक्खे। पति उत्तम गौ, उत्तम घर व समृद्धता का ध्यान करे।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेष व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. पुरुषाने स्त्रीला चांगल्या कामात प्रेरणा द्यावी, तसेच स्त्रीनेही आपल्या पतीला चांगल्या कामात प्रेरित करावे, ज्यामुळे आनंदाची वृद्धी होईल.

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पुढील मंत्रातही तोच विषय वर्णिला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ -(विद्वानाचा एका स्त्रीला की जी एका पतिची पत्नी आहे, तिला उपदेश) हे स्त्री, (विश्वकर्मा) समस्त शुभ कर्म करणारा कर्मकुशल तुझा पती तुला (शुभकर्मासाठी नियुक्त करो) कारण तू (व्यवस्वतीम्) ज्ञानवती असून सत्कारयोग्य आहेस आणि (प्रथस्वतीम्) उत्तम विद्यावती आहेस. (अशा तुला तुझा पती) (अन्तरिक्षस्य) प्रकाशाच्या (उन्नतीच्या) (पृष्ठे) भागात (त्या दिशेकडे) (सादयु तु) नियुक्त करो (नेवो) हे गृहिणी, तू (प्राणाय) (अपानाय) (व्यानाय) (उदानाय) प्राण, अपान, व्यान, उदान या (विश्वस्मै) सर्व वायूंकरिता (त्यांच्या नियमित गती कार्याकरिता) यत्न करीत जा तसेच (प्रतिष्ठायै) (आपल्या आणि घराच्या (प्रतिष्ठेकरिता आणि (चरित्राय) उत्तम आचरणाकरिता (अन्तरिक्षम्) (यत्न कर) आणि (सत्कारप्रसंगी देण्यात येणार्‍या) जल आदी पदार्थ (घरच्यांना आणि पाहुण्यांना (यच्छ) देत जा. (अन्तरिक्षम्) (अन्तरिक्ष या शब्दाचा जल अर्थदेखील निघंटु 1/12) शुद्ध सुसंस्कारित जलाने तयार केलेले अन्न आणि संपत्ती (दृंह) वाढव. (अन्तरिक्षम्) आकाशस्थ सर्व मधुर आणि रोगनाशक पदार्थ (पुष्प, फळे, शाखा आदी) (माहिंसी) नष्ट करू नकोस, (वायु:) तुझ्या प्राणप्रिय पतीने (त्वा) तुझ्याशी (मह्या) भरपूर (स्वस्त्या) सुख देणारे आचरण करावे (छर्दिषा) प्रकाशाद्वारे आणि शन्तमेन) सुखकारक ज्ञान-विज्ञान देऊन तुझी (अभियातु) सर्वत: रक्षा करावी. तू (तया) त्या (देवतया) दिव्य सुख देणार्‍या पतिरुप देवतेसह (अंगिरस्वत्) व्यापक वायूप्रमाणे (ध्रुवा) गहन ज्ञानाने (सीद) समृद्ध होऊन घरात स्थिर रहा ॥12॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात श्लेष आणि वाचकलुप्तोपमा हे दोन अलंकार आहेत. (अंतरिक्षम्) या शब्दात श्लेष आहे) ज्याप्रमाणे पतीने आपल्या पत्नीला उत्तम कर्मात प्रवृत्त केले पाहिजे, तद्वत पत्नीने देखील पतीला चांगले कर्म करण्यासाठी प्रेरित केले पाहिजे. यायोगे संसारात नित्य आनंद नांदेल ॥12॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O woman, may thy husband well-versed in doing various noble deeds, fix in his heart thee, full of reverence, praiseworthy knowledge, and vast store of learning. Thou shouldst offer water to all, for the safety of their Pran, Vyan, Udan, and Saman, for their prosperity and preservation of character. Increase the store of laudable, pure water. Dont destroy the sweet and disease-uprooting water. May thy husband, loving thee like life, keep thee safe with great well-being, his splendour and pleasant knowledge. Live constantly with thy godly husband like the soul.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    May Vishwakarma, lord maker of the world/your husband, seat you firmly on top of the sky. Do not pollute, do not injure, the sky. Growing expansive, encompassing, enrich the sky, strengthen the sky for the sake of prana, apana, vyana and udana energy, and for honour and strength of character. May Vayu, wind and universal energy/your husband, protect and promote you in all ways with great good fortune, light, peace and well-being. Stay firm with that divine power like the breath of life.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    May the supreme Mason settle you on the back of the mid-space; you who are capacious and extensive with your fame. May you control the mid-space; make the mid-space steady; do no harm to the mid-space. May the wind protect you for all the vital breath, for outbreath, for through-breath, for up-breath, for good reputation and good character, with great well-being and pleasing shelter. May you be seated firmly with that bounty of Nature shining bright, (1)

    Notes

    Please refer to Yajuh XIII. 17-19. Parts of those verses have been taken and antariksa is substituted for prthivi and vayuh for agni. Rest of the wording is nearly the same.

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে উপদেশ করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে স্ত্রী ! (বিশ্বকর্মা) সম্পূর্ণ শুভ কর্ম করিতে কুশল পতি যে (ব্যচস্বতীম্) প্রশংসিত বিজ্ঞান বা সৎকারের সহিত যুক্ত (প্রথস্বতীম্) উত্তম বিস্তৃত বিদ্যাযুক্ত (অন্তরিক্ষস্য) প্রকাশের (পৃষ্ঠে) এক অংশে (ত্বা) তোমাকে (সাদয়তু) স্থাপিত করে সুতরাং তুমি (বিশ্বস্মৈ) সকল (প্রাণায়) প্রাণ (অপানায়) অপান (ব্যানায়) ব্যান এবং (উদানায়) উদানরূপ শরীরের বায়ু তথা (প্রতিষ্ঠায়ৈ) প্রতিষ্ঠা (চরিত্রায়) এবং শুভকর্ম্মের আচরণ হেতু (অন্তরিক্ষম্) জলাদিকে (য়চ্ছ) প্রদান কর । (অন্তরিক্ষম্) প্রশংসিত শুদ্ধকৃত জলযুক্ত অন্ন ও ধনাদি (দৃংহ) বৃদ্ধি কর এবং (অন্তরিক্ষম্) মাধুর্য্যাদি গুণযুক্ত রোগনাশক আকাশস্থ পদার্থসকলকে (মাহিংসীঃ) নষ্ট করিও না যে (ত্বা) তোমাকে (বায়ুঃ) প্রাণতুল্য প্রিয়পতি (মহ্যা) মহান (স্বস্ত্যা) সুখরূপ ক্রিয়া (ছর্দিষা) প্রকাশ এবং (শন্তমেন) অতি সুখদায়ক বিজ্ঞান দ্বারা তোমাকে (অভিপাতু) সব দিক দিয়া রক্ষা করে সুতরাং তুমি (তয়া) সেই (দেবতয়া) দিব্য সুখদায়িনী ক্রিয়া সহ বর্ত্তমান পতিরূপ দেবতা সহ (অঙ্গিরস্বৎ) ব্যাপক বায়ুর সমান (ধ্রুবা) নিশ্চল জ্ঞানযুক্ত (সীদ) স্থির হও ॥ ১২ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে শ্লেষ ও বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন পুরুষ স্ত্রীকে উত্তম কর্ম্মে নিযুক্ত করিবে সেইরূপ স্ত্রীও স্বীয় পতিকে শুভ কর্ম্মে প্রেরণা দিবে যাহাতে নিরন্তর আনন্দ বৃদ্ধি পাইতে থাকে ॥ ১২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    বি॒শ্বক॑র্মা ত্বা সাদয়ত্ব॒ন্তরি॑ক্ষস্য পৃ॒ষ্ঠে ব্যচ॑স্বতীং॒ প্রথ॑স্বতীম॒ন্তরি॑ক্ষং য়চ্ছা॒ন্তরি॑ক্ষং দৃꣳহা॒ন্তরি॑ক্ষং॒ মা হি॑ꣳসীঃ । বিশ্ব॑স্মৈ প্রা॒ণায়া॑ऽপা॒নায়॑ ব্যা॒নায়ো॑দা॒নায়॑ প্রতি॒ষ্ঠায়ৈ॑ চ॒রিত্রা॑য় । বা॒য়ুষ্ট্বা॒ভি পা॑তু ম॒হ্যা স্ব॒স্ত্যা ছ॒র্দিষা॒ শন্ত॑মেন॒ তয়া॑ দে॒বত॑য়াঙ্গির॒স্বদ্ ধ্রু॒বা সী॑দ ॥ ১২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    বিশ্বকর্মেত্যস্য বিশ্বকর্মর্ষিঃ । বায়ুর্দেবতা । ভুরিগ্বিকৃতিশ্ছন্দঃ ।
    মধ্যমঃ স্বরঃ ।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top