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यजुर्वेद अध्याय - 18

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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 1
    ऋषिः - देवा ऋषयः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - शक्वरी स्वरः - धैवतः
    26

    वाज॑श्च मे प्रस॒वश्च॑ मे॒ प्रय॑तिश्च मे॒ प्रसि॑तिश्च मे धी॒तिश्च॑ मे॒ क्रतु॑श्च मे॒ स्व॑रश्च मे॒ श्लोक॑श्च मे॒ श्र॒वश्च॑ मे॒ श्रुति॑श्च मे॒ ज्योति॑श्च मे॒ स्वश्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वाजः॑। च॒। मे॒। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वः। च॒। मे॒। प्रय॑ति॒रिति॒ प्रऽय॑तिः। च॒। मे॒। प्रसि॑ति॒रिति॒ प्रऽसि॑तिः। च॒। मे॒। धी॒तिः। च॒। मे॒। क्रतुः॑। च॒। मे॒। स्वरः॑। च॒। मे॒। श्लोकः॑। च॒। मे॒। श्र॒वः। च॒। मे॒। श्रुतिः॑। च॒। मे॒। ज्योतिः॑। च॒। मे॒। स्व᳖रिति॒ स्वः᳖। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। कल्प॒न्ताम् ॥१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वाजश्च मे प्रसवश्च मे प्रयतिश्च मे प्रसितिश्च मे धीतिश्च मे क्रतुश्च मे स्वरश्च मे श्लोकश्च मे श्रवश्च मे श्रुतिश्च मे ज्योतिश्च मे स्वश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वाजः। च। मे। प्रसव इति प्रऽसवः। च। मे। प्रयतिरिति प्रऽयतिः। च। मे। प्रसितिरिति प्रऽसितिः। च। मे। धीतिः। च। मे। क्रतुः। च। मे। स्वरः। च। मे। श्लोकः। च। मे। श्रवः। च। मे। श्रुतिः। च। मे। ज्योतिः। च। मे। स्वरिति स्वः। च। मे। यज्ञेन। कल्पन्ताम्॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादौ मनुष्यैर्यज्ञेन किं किं साधनीयमित्याह॥

    अन्वयः

    मे वाजश्च मे प्रसवश्च मे प्रयतिश्च मे प्रसितिश्च मे धीतिश्च मे क्रतुश्च मे स्वरश्च मे श्लोकश्च मे श्रवश्च मे श्रुतिश्च मे ज्योतिश्च मे स्वश्च यज्ञेन कल्पन्ताम्॥१॥

    पदार्थः

    (वाजः) अन्नम् (च) विज्ञानादिकम् (मे) मम (प्रसवः) ऐश्वर्यम् (च) तत्साधनानि (मे) (प्रयतिः) प्रयतते येन सः। अत्र सार्वधातुभ्य॰ [उणा॰४.११९] इत्यौणादिक इन् प्रत्ययः। (च) तत्साधनम् (मे) (प्रसितिः) प्रबन्धः (च) रक्षणम् (मे) (धीतिः) धारणा (च) ध्यानम् (मे) (क्रतुः) प्रज्ञा (च) उत्साहः (मे) (स्वरः) स्वयं राजमानं स्वातन्त्र्यम् (च) परं तपः (मे) (श्लोकः) प्रशंसिता शिक्षिता वाक्। श्लोक इति वाङ्नामसु पठितम्॥ (निघं॰१.११) (च) वक्तृत्वम् (मे) (श्रवः) श्रवणम् (च) श्रावणम् (मे) (श्रुतिः) शृण्वन्ति सकला विद्या यया सा वेदाख्या (च) तदनुकूला स्मृतिः (मे) (ज्योतिः) विद्याप्रकाशः (च) अन्यस्मै विद्याप्रकाशनम् (मे) (स्वः) सुखम् (च) परमसुखम् (मे) (यज्ञेन) पूजनीयेन परमेश्वरेण जगदुपकारकेण व्यवहारेण वा (कल्पन्ताम्) समर्था भवन्तु॥१॥

    भावार्थः

    हे मनुष्याः! युष्माभिरन्नाद्येन सर्वसुखाय यज्ञ उपासनीयः साधनीयश्च, यतः सर्वेषां मनुष्यादीनामुन्नतिर्भवेत्॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब अठारहवें अध्याय का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को ईश्वर वा धर्मानुष्ठानादि से क्या क्या सिद्ध करना चाहिये, विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    (मे) मेरा (वाजः) अन्न (च) विशेष ज्ञान (मे) मेरा (प्रसवः) ऐश्वर्य्य (च) और उसके ढंग (मे) मेरा (प्रयतिः) जिस व्यवहार से अच्छा यत्न बनता है, सो (च) और उसके साधन (मे) मेरा (प्रसितिः) प्रबन्ध (च) और रक्षा (मे) मेरी (धीतिः) धारणा (च) और ध्यान (मे) मेरी (क्रतुः) श्रेष्ठ बुद्धि (च) उत्साह (मे) मेरी (स्वरः) स्वतन्त्रता (च) उत्तम तेज (मे) मेरी (श्लोकः) पदरचना करने हारी वाणी (च) कहना (मे) मेरा (श्रवः) सुनना (च) और सुनाना (मे) मेरी (श्रुतिः) जिससे समस्त विद्या सुनी जाती हैं, वह वेदविद्या (च) और उसके अनुकूल स्मृति अर्थात् धर्मशास्त्र (मे) मेरी (ज्योतिः) विद्या का प्रकाश होना (च) और दूसरे को विद्या का प्रकाश करना (मे) मेरा (स्वः) सुख (च) और अन्य का सुख (यज्ञेन) सेवन करने योग्य परमेश्वर वा जगत् के उपकारी व्यवहार से (कल्पन्ताम्) समर्थ होवें॥१॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो! तुम को अन्न आदि पदार्थों से सब के सुख के लिये ईश्वर की उपासना और जगत् के उपकारक व्यवहार की सिद्धि करनी चाहिये, जिससे सब मनुष्यादिकों की उन्नति हो॥१॥

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    विषय

    यज्ञ, प्रजापति परमेश्वर के अनुग्रह और उपासना और 'उत्तम राज्यप्रबन्ध से अन्न, वीर्य, ऐश्वर्य, राज्यप्रबन्ध, प्रेम, ध्यान, ज्ञान, वाणी की प्राप्ति करना ।

    भावार्थ

    ( यज्ञेन ) यज्ञ, प्रजापालनरूप सत्कर्म से ( मे ) मुझ राजा या प्रजा जन को ( वाज: च ) अन्न, वीर्य और ( प्रसवः च) ऐश्वर्य, ( प्रयतिः ) प्रयत्न, साधन और ( प्रसितिः ) उत्कृष्ट राज्यप्रबन्ध और प्रेम, ( धीति: च ) उत्तम ध्यान या चिन्तन, ( क्रतुः च ) उत्तम कर्म और प्रज्ञान, बुद्धि, (स्वरः च ) उत्तम स्वर, उत्तम कण्ठध्वनि और ( श्लोकः च मे ) उत्तम वाणी, ( श्रवः च ) उत्तम 'श्रव' गुरु-उपदेश या अन्न, ( श्रुति: च ) उत्तम श्रवणयोग्य वेद, ( ज्योति: ) विद्या का प्रकाश और ( स्वः च ) उत्तम सुख ये सब ( मे ) मुझे (यज्ञेन ) यज्ञ उत्तम राज्य प्रबन्ध, व्यवस्था और राजा- प्रजा के सम्मिलित यत्न, सत्संगति द्वारा (कल्पन्ताम् ) प्राप्त हों । (१-२१) शत० ९।३।२।१-१० ॥ अध्यात्म में – अन्न, ऐश्वर्य आदि सब पदार्थ मुझे ( यज्ञेन ) आत्मा और परमात्मा के चिन्तन, योगसाधन या उपासना द्वारा ( कल्पन्ताम् सिद्ध हों ।

    टिप्पणी

    अथातो वसोर्धारामन्त्राः १-२७ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ – २७ देवा ऋषयः । अग्निर्देवता । शक्वरी । धैवतः ॥

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    विषय

    वाज:-स्वः

    पदार्थ

    १. पिछले अध्याय की समाप्ति के मन्त्रों का देवता 'यज्ञपुरुष'- यज्ञशील पुरुष था । यह प्रस्तुत मन्त्रों में यज्ञ के द्वारा पदार्थ की सम्पन्नता के लिए प्रार्थना करता है और कहता है कि (वाजश्च मे) = शक्ति मुझे यज्ञ के द्वारा प्राप्त हो । शक्ति के साथ (प्रसवश्च मे) = [सु= ऐश्वर्य] ऐश्वर्य भी मुझे प्राप्त हो। केवल ऐश्वर्य कुबेर के पास है और शक्ति 'यमराज' के पास है। मैं अपने में शक्ति व ऐश्वर्य का समन्वय कर पाऊँ। २. [क] इस ऐश्वर्य को कमाने के लिए प्रयतिश्च मे मुझमें प्रकृष्ट पुरुषार्थ हो, यह पुरुषार्थ मुझे शक्ति सम्पन्न करेगा। मैं पुरुषार्थ से ही धन कमाऊँ, जुए की ओर मेरा झुकाव न हो। 'अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित् कृषस्व=' पासों से न खेल खेती कर'। 'प्रबन्ध' सातत्यवाला हो, यह वेद का उपदेश मुझे स्मरण रहे। (प्रसितिश्च मे) = [षिञ् बन्धने] मेरा यह प्रयत्न निरन्तर चलता जाए। मैं प्रयत्न में शैथिल्य न आने दूँ। [ख] इस मन्त्रभाग का अर्थ यह भी कर सकते हैं कि ऐश्वर्य व शक्ति होने पर मैं कहीं विलास व आराम के मार्ग पर न चला जाऊँ। मेरा जीवन (प्रयतिः) = प्रकृष्ट संयमवाला हो और उस संयम में (प्रसितिः) = मैं अपने को उत्तम व्रतों के बन्धनों में बाँधकर चलूँ। ३. इन्हीं नियमों में न फँस जाने के उद्देश्य से ही धीतिश्च में मुझमें प्रभु- सम्पर्क द्वारा [यज्ञ द्वारा ] ध्यान की वृद्धि हो तथा क्रतुश्च मे मुझमें ज्ञान की वृद्धि हो। मेरा जीवन ध्यानमय और ज्ञानमय हो। ४. ध्यान व ज्ञान के द्वारा (स्वरश्च मे) = [स्वयं राजते इति स्वर:, स्व + राज्+ड] मुझमें स्वयं राजमानता हो, अर्थात् मैं इन्द्रियों के वशीभूत होकर जीवन न बिताऊँ, और श्लोकश्च मे मुझे यश ही यश प्राप्त हो, इन्द्रियों का दास बनकर ही मैं अपयश का भागी होता हूँ। ५. (श्रवश्च मे) = मुझमें श्रवण का सामर्थ्य हो और उस श्रवण - सामर्थ्य से ज्ञान को बढ़ाते हुए (श्रुतिश्च मे) = मैं वेद को अपना बना पाऊँ। यह ज्ञान ही तो मेरे 'स्वर' बनने में व स्वर बनकर यशस्वी बनाने में सहायक होगा। ६. इस वेदज्ञान को अपनाने से (ज्योतिश्च मे) = मुझे प्रकाश प्राप्त होगा और उस प्रकाश में मार्ग-भ्रष्ट न होने से (स्वश्च मे) = मुझे सुख प्राप्त हो अथवा मैं उस स्वयं देदीप्यमान ज्योति परमात्मा को पानेवाला बनूँगा ।

    भावार्थ

    भावार्थ-यज्ञेन - प्रभु- सम्पर्क द्वारा यज्ञ (मे) = मेरे लिए (कल्पन्ताम्) = सम्पन्न हों।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! ईश्वराला स्मरून सर्वांच्या सुखासाठी अन्न इत्यादी पदार्थांनी जगावर उपकार करावे. ज्यामुळे सर्व माणसांची उन्नती होईल.

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    विषय

    आता अठराव्या अध्यायाचा आरंभ होत आहे. या अध्यायाच्या प्रथम मंत्रात हे सांगितले आहे की मनुष्यांनी ईश्वरापासून (उपासनेद्वारा) तसेच धर्माच्या अनुष्ठानाद्वारे कोणकोणती कार्ये सिद्ध केली पाहिजेत.

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (ईश्वराचा उपासक अथवा धर्मानुष्ठान करणारा सांसारिक मनुष्य इच्छा करीत आहे की) (मे) माझे वा माझ्या (वाज:) अन्न (च) आणि विशेष ज्ञान (सुखकारी होवो) (मे) माझे (प्रसवा) ऐश्वर्य (च) आणि त्याच्या उपयोगाची पद्धती (सुखकारी व्हावी) (मे) माझे (प्रयति:) उत्तम आचरणासाठी केले जाणारे यत्न (च) आणि त्याची साधनें (सुखकारी व्हावीत) (मे) माझी (प्रसिति:) सर्व व्यवस्था (च) आणि त्या व्यवस्थेचे रक्षण (सुखकारी होवो) (मे) माझी (धीति:) धारणा (च) आणि ध्याय तसेच (मे) माझी (क्रतु:) श्रेष्ठ बुद्धी (च) आणि (कार्याविषयीचा) उत्साहा (सुखकारी होवो) (मे) माझे (स्वर:) स्वातंत्र्य (च) आणि तेज असेच (मे) माझी पदरचना करणारी वाणी (च) आणि त्याचे उच्चारण (सुखकारी होवो) (मे) माझे (श्रवण:) ऐकणे (च) आणि ऐकवणे तसेच (मे) माझी (श्रुति:) समस्त विद्यांचे ज्ञान देणारी वेदविद्या (च) आणिश त्यानुकुल असलेली स्मृती अर्थात धर्म शास्त्र (सुखकारी होवो) (मे) माझे स्वत:चे (ज्योति:) विद्येचे ज्ञान (च) आणि इतरांना मी देत असलेली विद्या तसेच (मे) माझे वैयक्तिक सुख (च) आणि अन्यजनांचे सुख (हितकारी होवो) (यज्ञेन) (वरील सर्व उपासनीय परमेश्वराच्या उपासनेसाठी आणि जगाचे उपकारी असे व्यवहार करण्यासाठी (कल्पनाम्) समर्थ होवोत (वरील सर्व कर्मे करण्यासाठी मी समर्थ व्हावे, ही इच्छा) ॥1॥

    भावार्थ

    भावार्थ - हे मनुष्यांनो, तुम्ही सर्वांना (तुमच्या व्यतिरिक्त अन्य जनांना) सुख देण्याकरिता अन्न आदी पदार्थ देऊन सुखी करा. त्यासाठी ईश्वराची उपासना करा आणि अशी कामें करा की ज्यायोगे संसाराचा उपकार होईल आणि सर्व मनुष्यांची उन्नती होईल. ॥1॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May my food and my prosperity, my exertion and my influence, my thought and my mental power, my independence and my speech, my hearing and my vedic knowledge, the light of my learning and my pleasure prosper through the contemplation of Adorable God, and the performance of philanthropic deeds for the good of humanity.

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    Meaning

    By yajna, by the Grace of God, by virtue of our joint action, by virtue of my own performance: food is mine and energy is mine; prosperity is mine and the way to prosperity is mine; effort is mine and the will to effort is mine; management is mine and preservation is mine; faith is mine and firmness is mine; vision is mine and resolution is mine; freedom is mine and discipline is mine; praise is mine and the tongue is mine; the heard is mine and the spoken is mine; shruti (Veda) is mine and Smriti (law and tradition) is mine; light is mine and illumination is mine; joy is mine and supreme bliss is mine; all these may grow, all these be favourable; all these be auspicious for all, by yajna.

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    Translation

    May my strength and my aspiration, my effort and my achievement, my planning and implementation, my praise and my fame, my knowledge acquired and knowledge inspired, my light and my bliss be secured by means of sacrifice. (1)

    Notes

    Śravaḥ, knowledge acquired, Śrutiḥ, knowledge inspired Jyotih, light. Svaḥ, bliss; light that brings bliss. Meyajñena kalpantām, अनेन यज्ञेन क्लृप्तानि भवन्तु, यज्ञो अस्मभ्यं एतेषां दाता भवतु, may be secured to me through sacri fice, may the sacrifice be granter of these things to us.

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    बंगाली (1)

    विषय

    ॥ ও৩ম্ ॥
    অথ অথাষ্টাদশাऽধ্যারম্ভঃ ॥
    ও৩ম্ বিশ্বা॑নি দেব সবিতর্দুরি॒তানি॒ পরা॑ সুব । য়দ্ভ॒দ্রং তন্ন॒ऽআ সু॑ব ॥ য়জুঃ৩০.৩ ॥
    তত্রাদৌ মনুষ্যৈর্য়জ্ঞেন কিং কিং সাধনীয়মিত্যাহ ॥
    এখন অষ্টদশতম অধ্যায়ের আরম্ভ । তাহার প্রথম মন্ত্রে মনুষ্যদিগকে ঈশ্বর বা ধর্মানুষ্ঠানাদি হইতে কী কী সিদ্ধ করা উচিত, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–(মে) আমার (বাজঃ) অন্ন (চ) বিশেষ জ্ঞান (মে) আমার (প্রসবঃ) ঐশ্বর্য্য (চ) এবং তাহার সাধন (মে) আমার (প্রয়তিঃ) যে ব্যবহারে উত্তম প্রযত্ন তৈরী হয় উহা (চ) এবং উহার সাধন (মে) আমার (প্রসিতিঃ) ব্যবস্থা (চ) এবং রক্ষা (মে) আমার (ধীতিঃ) ধারণা (চ) এবং ধ্যান (মে) আমার (ঋতুঃ) শ্রেষ্ঠ বুদ্ধি (চ) উৎসাহ (মে) আমার (স্বরঃ) স্বতন্ত্রতা (চ) উত্তম তেজ (মে) আমার (শ্লোকঃ) পদ রচনাকারিণী বাণী (চ) বলা (মে) আমার (শ্রবঃ) শ্রবণ করা (চ) এবং শ্রবণ করানো (মে) আমার (শ্রুতিঃ) যদ্দ্বারা সমস্ত বিদ্যা শ্রুত হয় সেই বেদবিদ্যা (চ) এবং তাহার অনুকূল স্মৃতি অর্থাৎ ধর্মশাস্ত্র (মে) আমার (জ্যোতিঃ) বিদ্যার প্রকাশ হওয়া (চ) এবং অন্যকে বিদ্যার প্রকাশ করা (মে) আমার (স্বঃ) সুখ (চ) এবং অন্যের সুখ (য়জ্ঞেন) সেবনীয় পরমেশ্বর বা জগতের উপকারী ব্যবহারের দ্বারা (কল্পন্তাম্) সমর্থ হউক ॥ ১ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! তোমাদেরকে অন্নাদি পদার্থ দ্বারা সকলের সুখের জন্য ঈশ্বরের উপাসনা এবং জগতের উপকারক ব্যবহারের সিদ্ধি করা উচিত যাহাতে সব মনুষ্যাদির উন্নতি হয় ॥ ১ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    বাজ॑শ্চ মে প্রস॒বশ্চ॑ মে॒ প্রয়॑তিশ্চ মে॒ প্রসি॑তিশ্চ মে ধী॒তিশ্চ॑ মে॒ ক্রতু॑শ্চ মে॒ স্বর॑শ্চ মে॒ শ্লোক॑শ্চ মে॒ শ্র॒বশ্চ॑ মে॒ শ্রুতি॑শ্চ মে॒ জ্যোতি॑শ্চ মে॒ স্ব᳖শ্চ মে য়॒জ্ঞেন॑ কল্পন্তাম্ ॥ ১ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    বাজশ্চ ম ইত্যস্য দেবা ঋষয়ঃ । অগ্নির্দেবতা । শক্বরী ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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