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यजुर्वेद अध्याय - 18

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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 29
    ऋषिः - देवा ऋषयः देवता - यज्ञानुष्टातात्मा देवता छन्दः - स्वराड्विकृतिः स्वरः - मध्यमः
    3

    आयु॑र्य॒ज्ञेन॑ कल्पतां प्रा॒णो य॒ज्ञेन॑ कल्पतां॒ चक्षु॑र्य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ श्रोत्रं॑ य॒ज्ञेन॑ कल्पतां॒ वाग्य॒ज्ञेन॑ कल्पतां॒ मनो॑ य॒ज्ञेन॑ कल्पतामा॒त्मा य॒ज्ञेन॑ कल्पतां ब्र॒ह्मा य॒ज्ञेन॑ कल्पतां॒ ज्योति॑र्य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वर्य॒ज्ञेन॑ कल्पतां पृ॒ष्ठं य॒ज्ञेन॑ कल्पतां य॒ज्ञो य॒ज्ञेन॑ कल्पताम्। स्तोम॑श्च॒ यजु॑श्च॒ऽऋक् च॒ साम॑ च बृ॒हच्च॑ रथन्त॒रञ्च॑। स्व॑र्देवाऽअगन्मा॒मृता॑ऽअभूम प्र॒जाप॑तेः प्र॒जाऽअ॑भूम॒ वेट् स्वाहा॑॥२९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आयुः॑। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। प्रा॒णः। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। चक्षुः॑। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। श्रोत्र॑म्। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। वाक्। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। मनः॑। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। आ॒त्मा। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। ब्र॒ह्मा। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। ज्योतिः॑। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वः᳖। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। पृ॒ष्ठम्। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। य॒ज्ञः। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्तोमः॑। च॒। यजुः॑। च॒। ऋक्। च॒। साम॑। च॒। बृ॒हत्। च॒। र॒थ॒न्त॒रमिति॑ रथम्ऽत॒रम। च॒। स्वः᳖। दे॒वाः॒। अ॒ग॒न्म॒। अ॒मृताः॑। अ॒भू॒म॒। प्र॒जाप॑ते॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तेः। प्र॒जा इति॑ प्र॒ऽजाः। अ॒भू॒म॒। वेट्। स्वाहा॑ ॥२९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आयुर्यज्ञेन कल्पताम्प्राणो यज्ञेन कल्पताञ्चक्षुर्यज्ञेन कल्पताँ श्रोत्रँ यज्ञेन कल्पताँवाग्यज्ञेन कल्पताम्मनो यज्ञेन कल्पतामात्मा यज्ञेन कल्पताम्ब्रह्मा यज्ञेन कल्पताञ्ज्योतिर्यज्ञेन कल्पताँ स्वर्यज्ञेन कल्पताम्पृष्ठं यज्ञेन कल्पताँयज्ञो यज्ञेन कल्पताम् । स्तोमश्च यजुश्चऽऋक्च साम च बृहच्च रथन्तरञ्च । स्वर्देवाऽअगन्मामृताऽअभूम प्रजापतेः प्रजाऽअभूम वेट्स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आयुः। यज्ञेन। कल्पताम्। प्राणः। यज्ञेन। कल्पताम्। चक्षुः। यज्ञेन। कल्पताम्। श्रोत्रम्। यज्ञेन। कल्पताम्। वाक्। यज्ञेन। कल्पताम्। मनः। यज्ञेन। कल्पताम्। आत्मा। यज्ञेन। कल्पताम्। ब्रह्मा। यज्ञेन। कल्पताम्। ज्योतिः। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वः। यज्ञेन। कल्पताम्। पृष्ठम्। यज्ञेन। कल्पताम्। यज्ञः। यज्ञेन। कल्पताम्। स्तोमः। च। यजुः। च। ऋक्। च। साम। च। बृहत्। च। रथन्तरमिति रथम्ऽतरम। च। स्वः। देवाः। अगन्म। अमृताः। अभूम। प्रजापतेरिति प्रजाऽपतेः। प्रजा इति प्रऽजाः। अभूम। वेट्। स्वाहा॥२९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 29
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ किं किं यज्ञसिद्धये नियोजनीयमित्याह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्य! ते तव प्रजानामाधिपत्यायायुर्यज्ञेन कल्पताम्, प्राणो यज्ञेन कल्पताम्, चक्षुर्यज्ञेन कल्पताम्, श्रोत्रं यज्ञेन कल्पताम्, वाग्यज्ञेन कल्पताम्, मनो यज्ञेन कल्पताम्, आत्मा यज्ञेन कल्पताम्, ब्रह्मा यज्ञेन कल्पताम्, ज्योतिर्यज्ञेन कल्पताम्, स्वर्यज्ञेन कल्पताम्, पृष्ठं यज्ञेन कल्पताम्, यज्ञो यज्ञेन कल्पताम्, स्तोमश्च यजुश्च ऋक् च साम च बृहच्च रथन्तरं च यज्ञेन कल्पताम्। हे देवा विद्वांसो यथा वयममृताः स्वरगन्म प्रजापतेः प्रजा अभूम वेट् स्वाहायुक्ताश्चाभूम, तथा यूयमपि भवत॥२९॥

    पदार्थः

    (आयुः) एति जीवनं येन तत् (यज्ञेन) परमेश्वरस्य विदुषां च सत्कारेण (कल्पताम्) समर्थं भवतु (प्राणः) जीवनहेतुः (यज्ञेन) सङ्गतिकरणेन (कल्पताम्) (चक्षुः) नेत्रम् (यज्ञेन) (कल्पताम्) (श्रोत्रम्) श्रवणेन्द्रियम् (यज्ञेन) (कल्पताम्) (वाक्) वक्ति यया सा वाणी (यज्ञेन) (कल्पताम्) (मनः) अन्तःकरणम् (यज्ञेन) (कल्पताम्) (आत्मा) अतति शरीरमिन्द्रियाणि प्राणांश्च व्याप्नोति सः (यज्ञेन) (कल्पताम्) (ब्रह्मा) चतुर्वेदविद्विद्वान् (यज्ञेन) (कल्पताम्) (ज्योतिः) न्यायप्रकाशः (यज्ञेन) (कल्पताम्) (स्वः) सुखम् (यज्ञेन) (कल्पताम्) (पृष्ठम्) ज्ञातुमिच्छा (यज्ञेन) अध्ययनाख्येन (कल्पताम्) (यज्ञः) सङ्गन्तव्यो धर्मः (यज्ञेन) सत्यव्यवहारेण (कल्पताम्) (स्तोमः) स्तुवन्ति यस्मिन् सोऽथर्ववेदः (च) (यजुः) यजति येन स यजुर्वेदः (च) (ऋक्) ऋग्वेदः (च) (साम) सामवेदः (च) (बृहत्) महत् (च) (रथन्तरम्) सामस्तोत्रविशेषः (च) (स्वः) मोक्षसुखम् (देवाः) विद्वांसः (अगन्म) प्राप्नुयाम (अमृताः) जन्ममरणदुःखरहिताः सन्तः (अभूम) भवेम (प्रजापतेः) सकलसंसारस्य स्वामिनो जगदीश्वरस्य (प्रजाः) पालनीयाः (अभूम) भवेम (वेट्) सत्कियया (स्वाहा) सत्यया वाण्या॥२९॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। पूर्वमन्त्रात् (ते, आधिपत्याय) इति पदद्वयमनुवर्त्तते। मनुष्या धार्मिकविद्वदनुकरणेन यज्ञाय सर्वं समर्प्य परमेश्वरं न्यायाधीशं राजानं च मत्वा सततं न्यायपरायणा भूत्वा सुखिनः स्युः॥२९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब क्या-क्या यज्ञ की सिद्धि के लिये युक्त करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्य। तेरे प्रजाजनों के स्वामी होने के लिये (आयुः) जिससे जीवन होता है, वह आयुर्दा (यज्ञेन) परमेश्वर और अच्छे महात्माओं के सत्कार से (कल्पताम्) समर्थ हो, (प्राणः) जीवन का हेतु प्राणवायु (यज्ञेन) सङ्ग करने से (कल्पताम्) समर्थ होवे, (चक्षुः) नेत्र (यज्ञेन) परमेश्वर वा विद्वान् के सत्कार से (कल्पताम्) समर्थ हों, (श्रोत्रम्) कान (यज्ञेन) ईश्वर वा विद्वान् के सत्कार से (कल्पताम्) समर्थ हों, (वाक्) वाणी (यज्ञेन) ईश्वर वा विद्वान् के सत्कार से (कल्पताम्) समर्थ हों (मनः) संकल्पविकल्प करने वाला मन (यज्ञेन) ईश्वर वा विद्वान् के सत्कार (कल्पताम्) समर्थ हो, (आत्मा) जो कि शरीर इन्द्रिय तथा प्राण आदि पवनों को व्याप्त होता है, वह आत्मा (यज्ञेन) ईश्वर वा विद्वान् के सत्कार (कल्पताम्) समर्थ हो, (ब्रह्मा) चारों वेदों का जानने वाला विद्वान् (यज्ञेन) ईश्वर वा विद्वान् के सत्कार से (कल्पताम्) समर्थ हो, (ज्योतिः) न्याय का प्रकाश (यज्ञेन) ईश्वर वा विद्वान् के सत्कार से (कल्पताम्) समर्थ हो, (स्वः) सुख (यज्ञेन) ईश्वर वा विद्वान् के सत्कार से (कल्पताम्) समर्थ हो, (पृष्ठम्) जानने की इच्छा (यज्ञेन) पठनरूप यज्ञ से (कल्पताम्) समर्थ हो, (यज्ञः) पाने योग्य धर्म (यज्ञेन) सत्यव्यवहार से (कल्पताम्) समर्थ हो, (स्तोमः) जिसमें स्तुति होती है, वह अथर्ववेद (च) और (यजुः) जिससे जीव सत्कार आदि करता है, वह यजुर्वेद (च) और (ऋक्) स्तुति का साधक ऋग्वेद (च) और (साम) सामवेद (च) और (बृहत्) अत्यन्त बड़ा वस्तु (च) और सामवेद का (रथन्तरम्) रथन्तर नाम वाला स्तोत्र (च) भी ईश्वर वा विद्वा्न के सत्कार से समर्थ हो। हे (देवाः) विद्वानो! जैसे हम लोग (अमृताः) जन्म-मरण के दुःख से रहित हुए (स्वः) मोक्षसुख को (अगन्म) प्राप्त हों तथा (प्रजापतेः) समस्त संसार के स्वामी जगदीश्वर की (प्रजाः) पालने योग्य प्रजा (अभूम) हों तथा (वेट्) उत्तम क्रिया और (स्वाहा) सत्यवाणी से युक्त (अभूम) हों, वैसे तुम भी होओ॥२९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। यहाँ पूर्व मन्त्र से (ते, आधिपत्याय) इन दो पदों की अनुवृत्ति आती है। मनुष्य धार्मिक विद्वान् जनों के अनुकरण से यज्ञ के लिये सब समर्पण कर परमेश्वर और राजा को न्यायाधीश मान के न्यायपरायण होकर निरन्तर सुखी हों॥२९॥

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    विषय

    यज्ञ से आयु, प्राण, चक्षुः, श्रोत्र, वाणी, मन, आत्मा, ब्रह्मा, स्वः, पृष्ठ स्तोम, यजु, ऋक्, साम, बृहत् रथन्तर आदि की प्राप्ति । इनकी व्याख्या ।

    भावार्थ

    (आयुः) आयु, दीर्घ जीवन, ( चक्षुः ) आंख, दर्शनशक्ति ( श्रोत्रं ) कान, श्रवणशक्ति, (वाग) वाणी, भाषणशक्ति, (मनः ) मन, मननशक्ति, (आत्मा) आत्मा, देह में व्यापक धारणशक्ति, (ब्रह्मा) चारों वेदों का विद्वान् अथवा देह में अन्तःकरण चतुष्टय, ( ज्योतिः ) प्रकाश, स्वयंप्रकाश परमात्मा और विद्याप्रकाश, न्याय, ( स्व:) परम सुख, आनन्दमय मोक्ष, (पृष्ठ ) ज्ञान करने की इच्छा, पालनशक्ति, सर्वाश्रयता अथवा सर्वोपरि मोक्ष, (यज्ञः ) उपास्य देव और उपासनादि धर्माचरण, ( स्तोमः चः ) स्तुति के मन्त्र, अथर्ववेद (यजुः च) यज्जु- वेद (ऋक् च ) ऋग्वेद, ( साम च ) सामवेद ( बृहत् च रथन्तरं च ) बृहत् और रथन्तर नामक साम ये समस्त ( यज्ञेन ) योग-साधन, सत्संग धर्मानुष्ठान, देवोपासना, विद्वत्समागम आदि से ( कल्पताम् ) सिद्ध हों। हम ( देवाः ) देव, विजयी, ज्ञानी होकर ( स्वः ) परम मोक्ष एवं सुखमय राज्य को ( अगन्म ) प्राप्त हों । हम ( अमृताः ) अमृत, मोक्ष सुख को प्राप्त एवं दीर्घायु ( अभूम ) हों । ( प्रजापतेः प्रजाः अभूम ), प्रजा के पालक परमेश्वर और उत्तम राजा की प्रजा बन कर रहें । (वेट) उत्तम सत्कर्मानुष्ठान द्वारा ( स्वाहा ) उत्तम यश को प्राप्त करें । देखो यजुर्वेद अ० ९ । २१, २२ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    यज्ञानुष्ठानात्मा । (१) स्वराड् विकृतिः । पंचमः । (२) ब्राह्मी उष्णिक । ऋषभः ॥

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    विषय

    यज्ञेन कल्पताम्

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में संवत्सर के बारह के बारह मासों को यज्ञमय बनाने का वर्णन था उसी बात को इस रूप में कहते हैं कि (आयु:) = मेरा सारा जीवन यज्ञेन - [यज्ञनिमित्तेन] यज्ञ के हेतु (कल्पताम्) = सिद्ध हो। [ कल्पताम् साध्यताम् प्राप्यताम् - म० ] । इसी प्रकार २. (प्राणः यज्ञेन कल्पताम्) = मेरी प्राणशक्ति यज्ञ के निमित्त सिद्ध हो। मैं अपनी सम्पूर्ण प्राणशक्ति का प्रयोग यज्ञ के लिए करूँ। ३. जीवन और प्राण को यज्ञ के लिए सिद्ध करनेवाला मैं यही चाहता हूँ कि (चक्षुः श्रोत्रं वाग्यज्ञेन कल्पताम्) = मेरी आँख, मेरे कान तथा मेरी वाणी - ये सब यज्ञ के लिए सिद्ध हों। सवितादेव की कृपा से मेरी ये सब इन्द्रियाँ यज्ञात्मक शुभ कर्मों में लगी रहें। ४. (मनो यज्ञेन कल्पताम्) = सब इन्द्रियाश्वों के लिए लगामरूप यह मन भी यज्ञ के लिए अर्पित हो । मन की कृपा से (आत्मा यज्ञेन कल्पताम्) = मेरा यह देही [आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः] यज्ञिय बन जाए। ५. ब्रह्मा यज्ञेन कल्पताम् = चारों वेदों का ज्ञाता 'ब्रह्मा' मैं अपने को यज्ञ के निमित्त सिद्ध करूँ। ऊँचे-से-ऊँचा ज्ञानी बनकर भी मैं यज्ञनिवृत्त न हो जाऊँ। अपितु ज्ञानी बनकर मैं और अधिक लोकहितात्मक कर्मों में प्रवृत्त होऊँ । ज्योतिः यज्ञेन कल्पताम्- मेरा यह अन्त: प्रकाश यज्ञों के लिए सिद्ध हो। मैं अपने अन्दर उस प्रभु के प्रकाश को देखकर पूर्णरूप से ही 'यज्ञ' बन जाऊँ, इस यज्ञ से ही मैं उस यज्ञ [प्रभु] को उपासित करूँगा । ६. (स्वर्यज्ञेन कल्पताम्) = [स्वरिति व्यानः, व्यानः सर्वशरीरग:] मेरा सर्वशरीर व्यापी व्यानवायु यज्ञ के निमित्त सिद्ध हो, अर्थात् मेरी एक-एक चेष्टा यज्ञ के लिए हो। ७. (पृष्ठं) = [पृष्ठं स्तोत्रं स्वर्गस्थानं वा 'दिवो नाकस्य पृष्ठात्] मेरा सारा प्रभु-स्तवन या सुखमय स्थिति यज्ञ के लिए हो। यज्ञ को ही मैं प्रभु स्तवन समझँ और यज्ञ को ही स्वर्ग जानूँ - यज्ञ में आनन्द लूँ। ८. लोकहित के लिए स्वार्थ की भावना से ऊपर उठकर किये गये कर्म 'यज्ञ' हैं। (यज्ञो यज्ञेन कल्पताम्) = मेरे यज्ञ भी यज्ञ के लिए सिद्ध हों । यज्ञात्मक कर्मों को करते हुए मुझे किसी प्रकार की फलेच्छा न हो। ९. (स्तोमश्च) = [स्तुवन्ति यस्मिन् सोऽथर्ववेदः - द०] (यजुः च) = [यजति येन स यजुर्वेद: - द०] (ऋक् च साम च) = मेरे ये अथर्व, यजुः, ऋक् व साम नामक सब वेद यज्ञ के निमित्त सिद्ध हों। इस प्रकार (बृहत् च) = मेरा वर्धन-ही-वर्धन हो। (रथन्तरं च) = मैं इस शरीररूप रथ से इस भव-सागर को तीर्ण करनेवाला बनूँ। ११. हे (देवाः) = सब देवो! आपकी कृपा से, वस्तुतः आपको अपने अन्दर धारण करने से (स्वः अगन्म) = हम उस 'स्वयं राजमान' [स्वर] ज्योति ब्रह्म को प्राप्त करें। (अमृताः अभूम) = मृत्युरूप रोगों से कभी आक्रान्त न हों। १२. इस प्रकार (प्रजापतेः प्रजाः अभूम) = प्रभु की प्रजा बनें। प्रभु की प्रजा बनकर (वेट्) = [सत् क्रियया- द०] सत् क्रिया के द्वारा (स्वाहा) = हम प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाले बनें। वस्तुतः अपने सत्कर्मों से ही हम प्रभु का अर्चन करनेवाले होगें।

    भावार्थ

    भावार्थ- यहाँ २९वें मन्त्र पर ११५ कर्म [वाज मेरा हो ? प्रसव मेरा हो आदि] समाप्त होते हैं। जिस वाज से इन वाक्यों का प्रारम्भ हुआ था उसी वाज का उपयोग अगले मन्त्र में कहते हैं-

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. येथे पूर्वीच्या मंत्राने (ते, आधिपत्याय) या दोन पदांची अनुवृत्ती होते. माणसांनी धार्मिक विद्वान लोकांचे अनुकरण करून समर्पणवृत्तीने यज्ञ करावा. परमेश्वर व राजाला न्यायाधीश मानून न्यायपरायण बनावे व सदैव सुखी व्हावे.

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    विषय

    यज्ञाच्या सिद्धीकरिता काय काय केले पाहिजे, पुढील मंत्रात याविषयी सांगितले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्या, तुला जर प्रजेचा स्वामी, (राजा वा अधिपती) व्हायचे असेल, तर (आम्ही प्रजाजन अशी कामना करतो की) तुझे (आयु:) जीवन (यज्ञेम) परमेश्वराच्या प्रार्थनेने तसेच महात्मा लोकांच्या सन्मान, सत्कार केल्याने (कल्पताम्) सिद्ध वा परिपूर्ण व्हावे. तुझा (प्राण:) प्राणवायू (यज्ञेन) (लोकांच्या) संगती करणाद्वारे (सर्वांमधे एकोपा घडवून आणण्याद्वारे) (कल्पताम्) समर्थ वा सिद्ध होवो. तुझे (चक्षु:) नेत्र (यज्ञेन) परमेश्वराच्या उपासनाद्वारे वा विद्वज्जनांच्या सत्काराद्वारे समर्थ वा सफल व्हावेत. तुझे (श्रोत्रम्) कान (यज्ञेन) ईश्वराच्या उपासनेच्या मंत्रांनी तसेच विद्वज्जनांच्या सत्कार-सन्मानामुळे मिळणार्‍या आशीर्वादामुळे) (कल्पताम्) समर्थ वा धन्य व्हावेत. (वाक्) तुझे वाणी (यज्ञेम) ईश्वरोपासनेच्या मंत्राद्वारे व विद्वानांच्या स्तुतीमुळे (कल्पताम्) समर्थ का पवित्र व्हावी. (मन:) तुझे संकल्प-विकल्प करणारे मन (यज्ञेन) परमेश्वकृपेने व विद्वानांच्या सत्काराने (कल्पताम्) समर्थ वा बलवान व्हावे. (आत्मा) तुझ्या शरीर , इंद्रिये आणि प्राण आदी पवनांत व्याप्त असा आत्मा (यज्ञेन) ईश्वरोपासनेने आणि विदवत्सत्काराने (कल्पताम्) समर्थ व्हावा. (ब्रह्मा) चार वेदांचा ज्ञाता व हा विद्वान (यज्ञेन) र्सश्वरकृपेने (कल्पताम्) समर्थ वा अधिक ज्ञानसंपन्न होवो. (ज्योति:) तुझ्या हृदयात असलेली न्यायाविषयीची प्रीती (यज्ञेन) ईश्वरोपासनेने वा विद्वज्जनांच्या सत्काराने (कल्पताम्) अधिकाधिक वाढत राहो. (स्व:) तुझे विद्यमान सुख (यज्ञेन) ईश्वरकृपेमुळे आणि विद्वानांच्या सत्कारामुळे (कल्पताम्) अधिकाधिक वाढो. (पृष्ठम्) तुझ्या मनात सर्व काही जाणण्याची जी इच्छा-जिज्ञासा आहे, ती (यज्ञेन) अध्ययन रुप यज्ञाने (कल्पताम्) जागृत राहो. (यज्ञ:) तुझा (प्राप्तव्य धर्म वा कर्तव्य कर्म (यज्ञेन) सत्याचरणामुळे (कल्पताम्) समर्थ वा सफल होवो. (स्तोम:) ज्यात वा ज्यामुळे ईश्वराची स्तुती केली जाते, ती अथर्ववेय (च) आणि (यजु:) ज्यामुळे जीव सत्कारायी कर्म करतो तो यजुर्वेद (च) आणि (ऋक्) स्तुतिसाधक ऋग्वेद (च) आणि सामवेदातील (रथन्तरम्) रथन्तर नामक स्तोत्र (च) आणि वरील सर्व काही ईश्वराच्या उपासनेने आणि विद्वज्जनांच्या सत्कारामुळे समर्थ (म्हणजे लाभकारी) व्हावे. (पुढे प्रजाजन विद्वज्जनांना म्हणत आहेत) हे (देवा:) विद्वज्जन हो, ज्याप्रमाणे (ईश्वराच्या उपासनाद्वारे आणि सत्कारादी सत्कृत्यांमुळे) आम्ही (प्रजाजन) (अमृता:) जन्म- मरण आदी दु:खापासून मुक्त होऊन (स्व:) मोक्ष-सुख प्राप्त करू वा प्राप्त करू शकतो, तसेच (प्रजापते:) समस्त संसाराचा जो स्वामी परमेश्वर त्याची (प्रजा:) पालित प्रजा (अभू:) होऊ वा होऊ शकतो, तसेच जसे आम्ही (वेट्) उत्तम कर्म आणि (स्वाहा) उत्तम वाणीबेन युक्त (अभूम) होऊ वा होऊ शकतो, तद्वत तुम्ही देखील व्हा (विद्वान आणि सामान्य प्रजाजन दोघांनीही ईश्वरोपासना, यज्ञा, सत्कर्म आदीद्वारे संसाराची प्रगती साधावी) ॥29॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. पूर्वीच्या मंत्रा (क्र. २८ ) तून ‘ते अधिपत्याय’ या दोन शब्दांची या मंत्रात अनुवृत्ती होत आहे (म्हणजे या मंत्राच्या अर्थपूर्ततेसाठी मालील मंत्रातील दोन शब्दांचा उपयोग केला आहे. हे दोन शब्द या मंत्रात नाहीत, पण अर्थपूर्तीसाठी यांची अनुवृत्ती आवश्यक आहे) मनुष्यांनी धार्मिक विद्वानजनांचे अनुकरण करावे, यज्ञाकरिता सर्व समर्पित करावे, तसेच परमेश्वर आणि राजा यांना न्यायाधीश मानून न्यायपरायण रहावे. त्यामुळे ते सदैव सुखी व आनंदी राहू शकतील. ॥29॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May life succeed through the service of God and the sages. May life-breath thrive through union. May the eye thrive through the service of God and the sages. May the ear thrive through the service of God and the sages. May the voice thrive through the service of God and the sages. May the mind thrive through the service of God and the sages. May the soul thrive through the service of God and the sages. May the knower of the four Vedas thrive through the service of God and the sages. May the light of justice thrive through the service of God and the sages. May happiness thrive through the service of God and the sages. May passion for knowledge be satisfied through study. May desirable deed be performed through true behaviour, May the Atharva Veda, the Yajur Veda, the Rig Veda, the Sama Veda, and its Brihat, Rathantra, thrive through the grace of God and the sages. O sages, may we, freed from the pangs of birth and death attain to the happiness of final beatitude. May we become the true sons of God. May we be yoked to noble deeds and truthful speech.

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    Meaning

    Man of the yajna of governance, to accomplish your task, may health and age grow by yajna, may pranic energy grow by yajna, may the eye and vision grow by yajna, may the ear and information grow by yajna, may the tongue and communication grow by yajna, may the mind and morale and national confidence grow by yajna, may the soul grow strong by yajna, may the man of universal knowledge and the sense of higher values grow by yajna, may the light of justice and wisdom grow by yajna, may comfort and joy grow by yajna, may the questions, heights and foundations of life grow by yajna, may the yajna of Dharma grow by the yajna, pursuit of Dharma, may the hymns of praise and celebration of the Divine, the Yajus, the Riks, and the Samans, the Brihat Sama and Rathantara Sama also grow by yajna. May the noble people attain to the eternal joy of immortality. May we all attain to you and immortality. May we all be the children of the Lord and father of the universe by the truth of word and deed.

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    Translation

    May the life be regulated by sacrifice; may the breath be regulated by sacrifice; may the vision be regulated by sacrifice; may the hearing be regulated by sacrifice; may the mind be regulated by sacrifice; may the conscience be regulated by sacrifice; may the intellect be regulated by sacrifice; may the light be attained through sacrifice; may the bliss be secured through sacrifice; may the altar be put in order through sacrifice; may the sacrifice itself be secured through sacrifice; also the praise-songs, the sacrificial hymns, RK hymns and Saman hymns, Brhat and Rathantara hymns. O, enlightened ones, we have reached the world of bliss. We have become immortal. We have become the children of the creator Lord. Vet Svaha. (1)

    Notes

    This verse contains Kalpa offerings or the success li bations. Repeated with some additions from IX. 21. With this, Vasordhärā mantras come to an end. Now seven verses of Vājaprasaviya offerings (ahutis), i. e. strength-quickening libations.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ কিং কিং য়জ্ঞসিদ্ধয়ে নিয়োজনীয়মিত্যাহ ॥
    এখন কী কী যজ্ঞের সিদ্ধি হেতু যুক্ত করা উচিত, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে মনুষ্য! তোমার প্রজাগণের স্বামী হইবার জন্য (আয়ুঃ) যাহা হইতে জীবন হয় সেই আয়ুর্দা (য়জ্ঞেন) পরমেশ্বর এবং উত্তম মহাত্মাগণের সৎকার দ্বারা (কল্পতাম্) সক্ষম হউক (প্রাণঃ) জীবনের হেতু প্রাণ বায়ু (য়জ্ঞেন) সঙ্গ করিবার দ্বারা (কল্পন্তাম্) সক্ষম হউক (চক্ষুঃ) নেত্র (য়জ্ঞেন) পরমেশ্বর বা বিদ্বানের সৎকার দ্বারা (কল্পন্তাম্) সক্ষম হউক (শ্রোত্রম্) কর্ণ, (য়জ্ঞেন) ঈশ্বর বা বিদ্বান্দিগের সৎকার দ্বারা (কল্পন্তাম্) সক্ষম হউক । (বাক্) বাণী (য়জ্ঞেন) ঈশ্বর দ্বারা০ (কল্পন্তাম্) সক্ষম হউক । (মনঃ) সংকল্পবিকল্প কারী মন (যজ্ঞেন) ঈশ্বর দ্বারা০ (কল্পন্তাম) সক্ষম হউক (আত্মা) যাহা শরীর, ইন্দ্রিয় তথা প্রাণাদি পবনগুলিতে ব্যাপ্ত হয় সেই আত্মা (য়জ্ঞেন) ঈশ্বর দ্বারা০ (কল্পন্তাম্) সক্ষম হউক । (ব্রহ্মা) চারি বেদের জ্ঞাতা বিদ্বান্ (য়জ্ঞেন) ঈশ্বর বা বি০ দ্বারা (কল্পন্তাম্) সক্ষম হউক । (জ্যোতিঃ) ন্যায়ের প্রকাশ (য়জ্ঞেন) ঈশ্বর বা বি০ দ্বারা (কল্পন্তাম্) সক্ষম হউক । (স্বঃ) সুখ (য়জ্ঞেন) ঈশ্বর বা বি০ দ্বারা (কল্পন্তাম্) সক্ষম হউক । (পৃষ্ঠম্) জানিবার ইচ্ছা (য়জ্ঞেন) পঠনরূপ যজ্ঞের দ্বারা (কল্পন্তাম্) সক্ষম হউক (য়জ্ঞঃ) পাইবার যজ্ঞ ধর্ম (য়জ্ঞেন) সত্য ব্যবহার দ্বারা (কল্পন্তাম্) সক্ষম হউক । (স্তোমঃ) যদ্ দ্বারা স্তুতি হয় সেই অথর্ববেদ (চ) এবং (য়জুঃ) যদ্দ্বারা জীব সৎকারাদি করে সেই যজুর্বেদ (চ) এবং (ঋক্) স্তুতির সাধক ঋগ্বেদ (চ) এবং (সাম) সামবেদ (চ) এবং (বৃহৎ) অত্যন্ত বড় বস্তু (চ) এবং সামবেদের (রথন্তরম্) রথন্তর নামযুক্ত স্তোত্র (চ) ও ঈশ্বর বা বিদ্বানের সৎকার দ্বারা সক্ষম হউক । হে (দেবাঃ) বিদ্বান্গণ! যেমন আমরা (অমৃতাঃ) জন্ম-মরণের দুঃখ হইতে রহিত (স্বঃ) মোক্ষ সুখকে (অগন্ম) প্রাপ্ত হই তথা (প্রজাপতেঃ) সমস্ত সংসারের স্বামী জগদীশ্বরের (প্রজাঃ) পালন যোগ্য প্রজা (অভূম) হই তথা (বেট্) উত্তম ক্রিয়া এবং (স্বাহা) সত্যবাণী দ্বারা যুক্ত (অভূম) হই, সেইরূপ তোমরাও হও ॥ ২ঌ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । এখানে পূর্ব মন্ত্র হইতে (তে, আধিপত্যায়) এই দুইটি পদের অনুবৃত্তি আইসে । মনুষ্য ধার্মিক বিদ্বান্গণদের অনুকরণ দ্বারা যজ্ঞের জন্য সব সমর্পণ করিয়া পরমেশ্বর ও রাজাকে ন্যায়াধীশ মানিয়া ন্যায়পরায়ণ হইয়া নিরন্তর সুখী হইবে ॥ ২ঌ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    আয়ু॑র্য়॒জ্ঞেন॑ কল্পতাং প্রা॒ণো য়॒জ্ঞেন॑ কল্পতাং॒ চক্ষু॑র্য়॒জ্ঞেন॑ কল্পতা॒ᳬं শ্রোত্রং॑ য়॒জ্ঞেন॑ কল্পতাং॒ বাগ্য॒জ্ঞেন॑ কল্পতাং॒ মনো॑ য়॒জ্ঞেন॑ কল্পতামা॒ত্মা য়॒জ্ঞেন॑ কল্পতাং ব্র॒হ্মা য়॒জ্ঞেন॑ কল্পতাং॒ জ্যোতি॑র্য়॒জ্ঞেন॑ কল্পতা॒ᳬं স্ব᳖র্য়॒জ্ঞেন॑ কল্পতাং পৃ॒ষ্ঠং য়॒জ্ঞেন॑ কল্পতাং য়॒জ্ঞো য়॒জ্ঞেন॑ কল্পতাম্ । স্তোম॑শ্চ॒ য়জু॑শ্চ॒ऽঋক্ চ॒ সাম॑ চ বৃ॒হচ্চ॑ রথন্ত॒রঞ্চ॑ । স্ব॑র্দেবাऽঅগন্মা॒মৃতা॑ऽঅভূম প্র॒জাপ॑তেঃ প্র॒জাऽঅ॑ভূম॒ বেট্ স্বাহা॑ ॥ ২ঌ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    আয়ুর্য়জ্ঞেনেত্যস্য দেবা ঋষয়ঃ । য়জ্ঞানুষ্ঠাতাত্মা দেবতা । পূর্বস্য স্বরাড্বিকৃতিশ্ছন্দঃ । মধ্যমঃ স্বরঃ । স্তোমশ্চেত্যস্য ব্রাহ্ম্যুষ্ণিক্ ছন্দঃ ।
    ঋষভঃ স্বরঃ ॥

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