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यजुर्वेद अध्याय - 18

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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 75
    ऋषिः - उत्कील ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    2

    व॒यं ते॑ऽअ॒द्य र॑रि॒मा हि काम॑मुत्ता॒नह॑स्ता॒ नम॑सोप॒सद्य॑। यजि॑ष्ठेन॒ मन॑सा यक्षि दे॒वानस्रे॑धता॒ मन्म॑ना॒ विप्रो॑ऽअग्ने॥७५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व॒यम्। ते॒। अ॒द्य। र॒रि॒म। हि। काम॑म्। उ॒त्ता॒नह॑स्ता॒ इत्यु॑त्ता॒नऽह॑स्ताः। नम॑सा। उ॒प॒सद्येत्यु॑प॒ऽसद्य॑। यजि॑ष्ठेन। मन॑सा। य॒क्षि॒। दे॒वान्। अस्रे॑धता। मन्म॑ना। विप्रः॑। अ॒ग्ने॒ ॥७५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वयन्तेऽअद्य ररिमा हि काममुत्तानहस्ता नमसोपसद्य । यजिष्ठेन मनसा यक्षि देवानस्रेधता मन्मना विप्रो अग्ने ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वयम्। ते। अद्य। ररिम्। हि। कामम्। उत्तानहस्ता इत्युत्तानऽहस्ताः। नमसा। उपसद्येत्युपऽसद्य। यजिष्ठेन। मनसा। यक्षि। देवान्। अस्रेधता। मन्मना। विप्रः। अग्ने॥७५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 75
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुरुषार्थेन किं साध्यमित्याह॥

    अन्वयः

    हे अग्ने! उत्तानहस्ता वयं ते नमसोपसद्याद्य कामं हि ररिम, यथा विप्रोऽस्रेधता मन्मना यजिष्ठेन मनसा देवान् यजति संगच्छते, यथा च त्वं यक्षि, तथा वयमपि यजेम॥७५॥

    पदार्थः

    (वयम्) (ते) तव (अद्य) अस्मिन् दिने (ररिम) दद्मः। रा दाने लिट्। अन्येषामपि दृश्यते [अष्टा॰६.३.१३७] इति दीर्घः। (हि) खलु (कामम्) (उत्तानहस्ताः) उत्तानावूर्ध्वगतावभयदातारौ हस्तौ येषां ते (नमसा) सत्कारेण (उपसद्य) सामीप्यं प्राप्य (यजिष्ठेन) अतिशयेन यष्टृ संगन्तृ तेन (मनसा) विज्ञानेन (यक्षि) यजसि (देवान्) विदुषः (अस्रेधता) इतस्ततो गमनरहितेन स्थिरेण (मन्मना) येन मन्यते विजानाति तेन (विप्रः) मेधावी (अग्ने) विद्वन्॥७५॥

    भावार्थः

    ये मनुष्याः पुरुषार्थेनालंकामाः स्युस्ते विद्वत्संगेनैतत् प्राप्तुं शक्नुयुः॥७५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    पुरुषार्थ से क्या सिद्ध करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्वन्! (उत्तानहस्ताः) उत्कृष्टता से अभय देनेहारे हस्तयुक्त (वयम्) हम लोग (ते) आपके (नमसा) सत्कार से (उपसद्य) समीप प्राप्त होके (अद्य) आज ही (कामम्) कामना को (हि) निश्चय (ररिम) देते हैं, जैसे (विप्रः) बुद्धिमान् (अस्रेधता) इधर-उधर गमन अर्थात् चञ्चलतारहित स्थिर (मन्मना) बल और (यजिष्ठेन) अतिशय करके संयमयुक्त (मनसा) चित्त से (देवान्) विद्वानों और शुभ गुणों को प्राप्त होता है और जैसे तू (यक्षि) शुभ कर्मों में युक्त हो, हम भी वैसे ही सङ्गत होवें॥७५॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य पुरुषार्थ से पूर्ण कामना वाले हों, वे विद्वानों के सङ्ग से इस विषय को प्राप्त होने को समर्थ होवें॥७५॥

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    विषय

    राजा का प्रजा और उनकी सन्तानों की रक्षा का कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्ने ! अग्रणी नेत: ! विद्वन् ! (ते) तेरे (कामम् ) अभिलषित पदार्थ को (अद्य) आज ( वयम् ) हम (उत्तानहस्ता) अभय-. प्रद रूप से, उत्तान, उदार हाथों से (नमसा ) नमस्कारपूर्वक सादर (उपसद्य) तेरे समीप पहुँच कर (ररिम) प्रदान करते हैं और ( देवान् ) विजिगीषु वीर राजगण को और (अस्त्रेधता) स्थिर, (मन्मना ) मननशील ( यजिष्टेन) अति आदर, प्रेम से युक्त (मनसा) मन से (विप्रः) मेधावी, ज्ञानवान् होकर तू (यक्षि ) प्राप्त होता है । शत० ९।५।२।९ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    उत्काल आत्कीलो वा कात्य ऋषिः । अग्निर्देवता । आर्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    विषय

    अपनी इच्छा को प्रभु-इच्छा में

    पदार्थ

    १. पिछले मन्त्र में कहा था कि प्रभु-रक्षण से सब कामनाएँ पूर्ण होती हैं। प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि प्रभुभक्त अपनी कामना को प्रभु की कामना में मग्न [merge] कर देता है, उसकी वही इच्छा होती है जो प्रभु की इच्छा हो। वह अपनी स्वतन्त्र इच्छा को समाप्त कर देता है। आज यह अपने को उस उत्-उत्कृष्ट प्रभु के साथ कील- बाँधनेवाला बनकर प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'उत्कील' बनता है और कहता है कि (वयम्) = कर्मतन्तु का सन्तान = करनेवाले हम [वञ्= तन्तुसन्ताते] (अद्य) = आज (कामम्) = अपनी इच्छा को (ते ररिमा) = तेरे प्रति दे डालते हैं, हमारी इच्छा आज से वही है जो आपकी । २. आपके प्रति अपना अर्पण करके हम उद्यम को नहीं छोड़ देते, (उत्तानहस्ता) = हम कर्मों में उत्कृष्टता से हाथों का विस्तार करनेवाले होते हैं [उत् +तन्], अर्थात् हमारे हाथ सदा उत्कृष्ट कर्मों में व्याप्त रहते हैं ३. इन कर्मों को हम (नमसा उपसद्य) = नम्रता से आपकी उपासना करते हुए करते हैं। हम कर्म करते हैं, परन्तु इस बात को भूलते नहीं कि यह सब आपकी ही शक्ति है और हम उस शक्ति से होनेवाले कार्यों के माध्यममात्र हैं, अतः हम कर्मों को करते हैं, परन्तु उन कर्मों का गर्व नहीं करते। ४. उल्लिखित संकल्पवाले 'उत्कील' को प्रभु प्रेरणा देते हैं कि (यजिष्ठेन मनसा) = अधिक-से-अधिक देवपूजा की वृत्तिवाले, सबके साथ स्नेह व मेल की भावनावाले तथा दान की वृत्तिवाले (यज्) = [क] देवपूजा [ख] संगतिकरण [ग] दानवाले मन से (देवान्) = दिव्य गुणों को (यक्षि) = अपने साथ सङ्गत कर। यजिष्ठ मन से हममें दिव्य गुणों का वर्धन होता है। ५. हे (अग्ने) = प्रगतिशील उत्कील! तू (अस्त्रेधता) = [इतस्ततो गमनरहितेन स्थिरेण - द०] सुपथगामी (मन्मना) = मनन से (विप्रः) = अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाला बन । प्रभु के अनन्य चिन्तन से मनुष्य का जीवन शुद्ध व शक्तिशाली बनता है। हमारी सब कमियाँ दूर हो जाती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - [क] हम अपनी इच्छा को प्रभु की इच्छा में मिला दें। [ख] नम्रता से प्रभु का उपासन करते हुए उत्कृष्ट कर्मों में हाथों को व्यापृत रक्खें। [ग] यजिष्ठ मन से अपने जीवन को देवों से सङ्गत करें, दिव्य गुणों से पूर्ण करें। [घ] प्रभु का अनन्य चिन्तन करते हुए अपनी सब न्यूनताओं को दूर करके अपना उत्तम पूरण करें।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जी माणसे पुरुषार्थाने पूर्ण कामनायुक्त बनतात ती विद्वानांच्या संगतीने शुभ गुण कर्माचा स्वीकार करण्यास समर्थ ठरतात.

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    विषय

    पुरुषार्थाद्वारे काय प्राप्त करावे, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (सामाजिक जन विद्वानाला उद्देशून हे (अग्ने) विद्वान महोदय, (वयम्) आम्ही (उत्तानहस्ता:) उत्तमरीत्या हा उंचावून (तुम्हाला आशीषर्वचन) वा अभय देत आहोत. आणि (ते) तुमचा (नमसा) सत्कार करण्यासाठी (उपसघ) तुमच्याजवळ येतो आणि (अद्य) आज वा तुरत (कामय्) तुमच्या कामनेला (हि) अवश्यमेव (ररिम) समर्थन वा बळ देतो (तुच्या इच्छित योजनांना वा उपक्रमांना पाठिंबा देतो) तसेच (विप्र:) बुद्धिमान आणि (अस्रेधताँ) इकडे-तिकडे न जाणार्‍या स्थायी अशा (मन्ममा) तुमच्या शक्तीने आणि (यजिष्ठेन) अत्यंत संयमपूर्ण अशा (मनसा) मनाने (देवान्) विद्वानांजन आणि शुभगुण यांना प्राप्त करता (आपल्याशक्ती आणि चिंतनाद्वारे विद्वानांना एकत्रित करता) आणि (यक्षि) शुभकर्म करण्याकडे प्रवृत्त होता, तद्वत आम्ही सर्व समाजजनांनी देखील व्हायला हवे ॥75॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जे लोक पुरुषार्थ-परिणामाद्वारे आपल्या कामना पूर्ण करतात, त्यांनी विद्वानांचा संग देखील अवश्य करावा (त्यांचे सुयोग्य मार्गदर्शन घ्यावे) आणि अशाप्रकारे आपल्या उद्दिष्टात यशस्वी व्हावे. ॥75॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned person, approaching with raised hands and adoration, we have this day fulfilled for thee thy longing. O wise man, with undeviating fixed purpose, contemplative mood, and absolute restraint thou cultivatest good qualities.

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    Meaning

    Agni, lord of light, knowledge and power, with hands raised up in homage, we come to you today with a dedicated, concentrated, thoughtful and faithful mind and make the loved-most offerings. With the same dedicated, concentrated and committed mind, you too do honour to the powers of divinity.

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    Translation

    With uplifted hands, approaching you with reverence, we present to you today our deep devotion. May you, O wise Lord, honour Nature's bounties with great affection and unwearied appreciation. (1)

    Notes

    Uttänahastāḥ,अबद्धमुष्टिका: , open-handed; liberal. Rarima, ददिम, have given to you. Namasă, प्रणिपातेन, with reverence; humbly. Asredhată, from स्रिध गतौ, to move; unmoving; अनन्यगतेन,faithful only to you. Manmana, विजानाति येन, with which proper knowledge is gained. Or, देवमहिमानं जानाति येन, with which the might of deities is realized.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুরুষার্থেন কিং সাধ্যমিত্যাহ ॥
    পুরুষকার দ্বারা কী সিদ্ধ করা উচিত এই বিষয়েরউপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে (অগ্নে) বিদ্বন্! (উত্তানহস্তাঃ) উৎকৃষ্টতাপূর্বক অভয়দাতা হস্তযুক্ত (বয়ম্) আমরা (তে) আপনার (নমসা) সৎকার দ্বারা (উপসদ্য) সমীপ প্রাপ্ত হইয়া (অদ্য) আজই (কামম্) কামনাকে (হি) নিশ্চয় (ররিম) প্রদান করি যেমন (বিপ্রঃ) বুদ্ধিমান্ (অস্রেধতা) ইতস্ততঃ গমন অর্থাৎ চঞ্চলতারহিত স্থির (মন্মনা) বল ও (য়জিষ্ঠেন) অতিশয় করিয়া সংযমযুক্ত (মনসা) চিত্ত দ্বারা (দেবান্) বিদ্বান্গণ ও শুভ গুণগুলি প্রাপ্ত হয় এবং যেমন তুমি (য়ক্ষি) শুভ কর্মে যুক্ত হও, আমরাও সেইরূপ সঙ্গত হই ॥ ৭৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–যে সব মনুষ্য পুরুষকার দ্বারা পূর্ণ কামনাযুক্ত হইবে সেই সব বিদ্বান্গণের সঙ্গ দ্বারা এই বিষয়কে প্রাপ্ত হইতে সক্ষম হইবে ॥ ৭৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ব॒য়ং তে॑ऽঅ॒দ্য র॑রি॒মা হি কাম॑মুত্তা॒নহ॑স্তা॒ নম॑সোপ॒সদ্য॑ ।
    য়জি॑ষ্ঠেন॒ মন॑সা য়ক্ষি দে॒বানস্রে॑ধতা॒ মন্ম॑না॒ বিপ্রো॑ऽঅগ্নে ॥ ৭৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    বয়মিত্যস্যোৎকীল ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । আর্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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