यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 33
वाजो॑ नोऽअ॒द्य प्र सु॑वाति॒ दानं॒ वाजो॑ दे॒वाँ२ऽऋ॒तुभिः॑ कल्पयाति। वाजो॒ हि मा सर्व॑वीरं ज॒जान॒ विश्वा॒ऽआशा॒ वाज॑पतिर्जयेयम्॥३३॥
स्वर सहित पद पाठवाजः॑। नः॒। अ॒द्य। प्र। सु॒वा॒ति॒। दान॑म्। वाजः॑। दे॒वान्। ऋ॒तुभि॒रित्यृ॒तुऽभिः॑। क॒ल्प॒या॒ति॒। वाजः॑। हि। मा। सर्व॑वीर॒मिति॒ सर्व॑ऽवीरम्। ज॒जान॑। विश्वाः॑। आशाः॑। वाज॑पति॒रिति॒ वाज॑ऽपतिः। ज॒ये॒य॒म् ॥३३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वाजो नोऽअद्य प्रसुवाति दानँवाजो देवाँऽऋतुभिः कल्पयाति । वाजो हि मा सर्ववीरञ्जजान विश्वाऽआशा वाजपतिर्जयेयम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
वाजः। नः। अद्य। प्र। सुवाति। दानम्। वाजः। देवान्। ऋतुभिरित्यृतुऽभिः। कल्पयाति। वाजः। हि। मा। सर्ववीरमिति सर्वऽवीरम्। जजान। विश्वाः। आशाः। वाजपतिरिति वाजऽपतिः। जयेयम्॥३३॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं किमभीप्सितव्यमित्याह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! ययाऽद्य यद्वाजो नो दानं प्रसुवाति, वाज ऋतुभिर्देवान् कल्पयाति, यद्धि वाजः सर्ववीरं मा जजान, तेनाहं वाजपतिर्भूत्वा विश्वा आशा जयेयम्, तथा यूयमपि जयत॥३३॥
पदार्थः
(वाजः) अन्नम् (नः) अस्मभ्यम् (अद्य) अस्मिन् दिने (प्र) (सुवाति) प्रेरयेत् (दानम्) (वाजः) (देवान्) विदुषो दिव्यान् गुणान् वा (ऋतुभिः) वसन्तादिभिः (कल्पयाति) समर्थयेत् (वाजः) (हि) खलु (मा) माम् (सर्ववीरम्) सर्वे वीरा यस्मात् तम् (जजान) जनयतु। अत्र लोडर्थे लिट् (विश्वाः) समग्राः (आशाः) दिशः (वाजपतिः) अन्नाद्यधिष्ठाता (जयेयम्) उत्कर्षेयम्॥३३॥
भावार्थः
यावन्तीह खलु वस्तूनि सन्ति, तावतामन्नमेव श्रेष्ठमस्ति, यतोऽन्नवान् सर्वत्र विजयी जायते॥३३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या-क्या चाहने योग्य है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! जैसे (अद्य) आज जो (वाजः) अन्न (नः) हमारे लिये (दानम्) दान=दूसरे को देना (प्रसुवाति) चितावे और (वाजः) वेगरूप गुण (ऋतुभिः) वसन्त आदि ऋतुओं से (देवान्) अच्छे-अच्छे गुणों को (कल्पयाति) प्राप्त होने में समर्थ करे वा जो (हि) ही (वाजः) अन्न (सर्ववीरम्) सब वीर जिससे हों, ऐसे अति बलवान् (मा) मुझ को (जजान) प्रसिद्ध करे, उससे ही मैं (वाजपतिः) अन्नादि का अधिष्ठाता होकर (विश्वाः) समस्त (आशाः) दिशाओं को (जयेयम्) जीतूं, वैसे तुम भी जीता करो॥३३॥
भावार्थ
जितने इस पृथिवी पर पदार्थ हैं, उन सबों में अन्न ही अत्यन्त प्रशंसा के योग्य है, क्योंकि अन्नवान् पुरुष सब जगह विजय को प्राप्त होता है॥३३॥
विषय
ऐश्वर्यं के साथ दानशीलता, पराक्रम और बल की वृद्धि ।
भावार्थ
( वाजः ) अन्नादि, ऐश्वर्य, पराक्रम (नः) हमारी ( अद्य ) अब ( दानं ) दानशक्ति को ( प्रसुवाति ) उत्पन्न करे । ( वाजः ) वह ऐश्वर्य, पराक्रम ही ( देवान् ) विद्वान्, विजयी पुरुषों को (ऋतुभिः) ऋतुओं के अनुसार ( कल्पयाति ) हृष्ट पुष्ट बनावे । (वाजः ) अन्न आदि ऐश्वर्य ही ( मा ) मुझको (सर्ववीरं ) समस्त वीर पुरुषों, पुत्रों और प्राणों से युक्त ( जजान ) करे । मैं ( वाजपतिः) उस अन्न और बल का पालक होकर ही ( विश्वाः आशाः जयेयम् ) समस्त कामनाओं और दिशाओं को विजय करूं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वाजपतिर्देवता । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
दान-दिव्यता-वीरता-विजय
पदार्थ
१. (वाजः) = शक्ति (न:) = हममें (अद्य) = आज (दानम्) = दान को (प्रसुवाति) = [प्रेरयेत्] प्रेरित करे। शक्तिशाली व्यक्ति कृपणता को कायरता समझता है, इसलिए वह देता है, लेने से वह मरना अच्छा समझता है। २. (वाजः) = यह शक्ति (ऋतुभिः) = नियमित - व्यवस्थित गति द्वारा (देवान्) = दिव्य गुणों को कल्पयाति सिद्ध करती है। शक्ति के कारण हममें दिव्य गुणों का विकास होता है। वर्च [Virtue ] वीरत्व ही तो है और अवीरता ही ईवल [ evil ] है । ३. (वाजः) = यह शक्ति (हि) = निश्चय से (मा) = मुझे (सर्ववीरम्) = सब दिशाओं में वीर-ही-वीर बनाती हैं। मैं दान देने में वीर बनता हूँ, इन्द्रियों के संयम में वीर बनता हूँ, माता-पिता, आचार्य की सेवा में वीर बनता हूँ तथा स्वाध्याय में भी शूर बनता हूँ। ४. (वाजपतिः) = इस शक्ति का पति बनकर (विश्वाः आशाः) = सब दिशाओं को (जयेयम्) - मैं जीतनेवाला बनूँ। मैं कहीं पराजित न होऊँ। 'विजय ही सदाचार है, पराजय ही अनाचार है' इन आचार्य दयानन्द के शब्दों के अनुसार इस वाज के द्वारा मैं सर्वत्र विजयी बनूँ।
भावार्थ
भावार्थ-वाज के द्वारा शक्ति के परिणामस्वरूप मुझमें दान की वृत्ति हो, सब दिव्य गुणों का मुझमें विकास हो। मैं वीर बनूँ और विजयी होऊँ।
मराठी (2)
भावार्थ
पृथ्वीवर जितके पदार्थ आहेत त्यापैकी अन्न हा अत्यंत उत्कृष्ट व प्रशंसनीय पदार्थ आहे. त्यामुळे ज्याच्याजवळ अन्न असते असा माणून सर्वत्र विजय प्राप्त करतो.
विषय
मनुष्यांसाठी गंछनीय काय काय आहे, याविषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यानो, (अन्न असे असावे की) जे (वाज:) अन्न (अद्य) आज (न:) आम्हाला (आमच्या हृदयात) (दानम्) इतरांना दान देण्याची (प्रसुवाति) प्रेरणा देईल (अन्न असे सात्विक असावे की ज्यामुळे माणसाच्या मनात दानप्रवृत्ती जागृत होईल) तसेच जे अन्न (वाज:) वेग (वा उत्साह) रुप गुण (जागृत करून आम्हाला) (ऋतुभि:) वसंत आदी ऋतूंमधे (देवान्) सद्गुण (कल्पयाति) प्राप्त करण्याचे सामर्थ उत्पन्न करील, तसेच (हि) निश्चयाने (वाज:) अन्न असे असावे की कोणही सारी दुनिया -------- जे (मा) मला अतिबलवान करील आणि वीर बनवील. अशा अन्नामुळे मी (वाज:पति) अन्न धान्यादी इतर पदार्थांचा स्वामी होऊन (विश्वा:) (आशा:) समस्त दिशा (जयेयम्) जिंकणारा वीर होईल. (हे मनुष्यांनो) तुम्हीही माझ्याप्रमाणे तश्या अन्नाचे सेवन करून विजय प्राप्त करा ॥33॥
भावार्थ
भावार्थ - या पृथ्वीवर जितके पदार्थ आहेत, त्या सर्वांत अन्नच अत्यंत प्रशंसनीय (प्रिय आणि वांछनीय) आहे. या (उत्तम पौष्टिक) अन्नामुळेच पुरुष सर्व विजयी होतोत) ॥33॥
इंग्लिश (3)
Meaning
May food urge us today for charity. May food taken according to season strengthen our faculties, Yea, food hath made me rich in brave sons. As lord of food may I conquer all the regions.
Meaning
It is food, energy, power, wealth, which inspires us to give in charity. With the seasons, according to need, it feeds the powers of nature and humanity. It is food and energy which produces and promotes our children and young people. By virtue of the same food and power, may I, producer and promoter of food, energy and wealth, attain all my hopes to fruition in all directions.
Translation
Our strength today procures donations to us. Strength enables the learned people to enjoy the seasons. Strength has made me the master of all the brave sons. May I, the lord of strength, win all the quarters. (1)
Notes
Prasuvāti, प्रापयति, procures. Also,प्रेरयतु, may urge us to donate. Kalpayāti, समर्थयति, enables. Āśaḥ, दिश:, regions. Viśvaḥ, सर्वा:, all.
बंगाली (1)
विषय
পুনর্মনুষ্যৈঃ কিং কিমভীপ্সিতব্যমিত্যাহ ॥
পুনঃ মনুষ্যদিগকে কী কী চাহিতে হইবে, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যেমন (অদ্য) আজ যে (বাজঃ) অন্ন (নঃ) আমাদের জন্য (দানম্) দান অর্থাৎঅন্যকে দেওয়ার জন্য (প্রসুবাতি) প্রেরণা দেয় এবং (বাজঃ) বেগরূপ গুণ (ঋতুভিঃ) বসন্তাদি ঋতু দ্বারা (দেবান্) উত্তম উত্তম গুণকে (কল্পয়াতি) প্রাপ্ত হইতে সক্ষম করুক অথবা যে (হি) ই (বাজঃ) অন্ন (সর্ববীরম্) সকল বীর যাহা দ্বারা হয় এইরূপ অতি বলবান্ (মা) আমাকে (জজান) প্রসিদ্ধ করুক যদ্দ্বারা আমি (বাজপতিঃ) অন্নাদির অধিষ্ঠাতা হইয়া (বিশ্বাঃ) সমস্ত (আশাঃ) দিক্গুলিকে (জয়েয়ম্) জিতি, সেইরূপ তুমিও জিতিতে থাক ॥ ৩৩ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–যত এই পৃথিবীর উপর পদার্থ আছে সেই সকলের মধ্যে অন্নই অত্যন্ত প্রশংসার যোগ্য কেননা অন্নবান পুরুষ সব জায়গায় বিজয় লাভ করে ॥ ৩৩ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
বাজো॑ নোऽঅ॒দ্য প্র সু॑বাতি॒ দানং॒ বাজো॑ দে॒বাঁ২ऽঋ॒তুভিঃ॑ কল্পয়াতি ।
বাজো॒ হি মা সর্ব॑বীরং জ॒জান॒ বিশ্বা॒ऽআশা॒ বাজ॑পতির্জয়েয়ম্ ॥ ৩৩ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
বাজো ন ইত্যস্য দেবা ঋষয়ঃ । অন্নপতির্দেবতা । ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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