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यजुर्वेद अध्याय - 18

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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 24
    ऋषिः - देवा ऋषयः देवता - विषमाङ्कगणितविद्याविदात्मा देवता छन्दः - संकृतिः, विराट् संकृतिः स्वरः - गान्धारः
    4

    एका॑ च मे ति॒स्रश्च॑ मे ति॒स्रश्च॑ मे॒ पञ्च॑ च मे॒ पञ्च॑ च मे स॒प्त च॑ मे स॒प्त च॑ मे॒ नव॑ च मे॒ नव॑ च म॒ऽएका॑दश च म॒ऽएका॑दश च मे॒ त्रयो॑दश च मे॒ त्रयो॑दश च मे॒ पञ्च॑दश च मे॒ पञ्च॑दश॒ च मे स॒प्तद॑श च मे स॒प्तद॑श च मे॒ नव॑दश च मे॒ नव॑दश च मऽएक॑विꣳशतिश्च म॒ऽएक॑विꣳशतिश्च मे॒ त्रयो॑विꣳशतिश्च मे त्रयो॑विꣳशतिश्च मे॒ पञ्च॑विꣳशतिश्च मे॒ पञ्च॑विꣳशतिश्च मे स॒प्तवि॑ꣳशतिश्च मे स॒प्तवि॑ꣳशतिश्च मे॒ नव॑विꣳशतिश्च मे॒ नव॑विꣳशतिश्च म॒ऽएक॑त्रिꣳशच्च म॒ऽएक॑त्रिꣳशच्च मे॒ त्रय॑स्त्रिꣳशच्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥२४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एका॑। च॒। मे॒। ति॒स्रः। च॒। मे॒। ति॒स्रः। च॒। मे॒। पञ्च॑। च॒। मे॒। पञ्च॑। च॒। मे॒। स॒प्त। च॒। मे॒। स॒प्त। च॒। मे। नव॑। च॒। मे॒। नव॑। च॒। मे॒। एका॑दश। च॒। मे॒। एका॑दश। च॒। मे॒। त्रयो॑द॒शेति॒ त्रयः॑ऽदश। च॒। मे॒। त्रयो॑द॒शेति॒ त्रयः॑ऽदशः। च॒। मे॒। पञ्च॑द॒शेति॒ पञ्च॑ऽदश। च॒। मे॒। पञ्च॑द॒शेति॒ पञ्च॑दश। च॒। मे॒। स॒प्तद॒शेति॒ स॒प्तऽद॑श। च॒। मे॒। स॒प्तद॒शेति॒ स॒प्तऽद॑श। च॒। मे॒ नव॑द॒शेति॒ नव॑ऽदश। च॒। मे॒। नव॑द॒शेति॒ नव॑ऽदश। च॒। मे॒। एक॑विꣳशति॒रित्येक॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। एक॑विꣳशति॒रित्येक॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। त्रयो॑विꣳशति॒रिति॒ त्रयः॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। त्रयो॑विꣳशति॒रिति॒ त्रयः॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। पञ्च॑विꣳशति॒रिति॒ पञ्च॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। पञ्च॑विऽꣳशतिरिति॒ पञ्च॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। स॒प्तवि॑ꣳशति॒रिति॑ स॒प्तऽवि॑ꣳशतिः। च॒। मे॒। स॒प्तवि॑ꣳशति॒रिति॑ स॒प्तऽवि॑ꣳशतिः। च॒। मे॒। नव॑विꣳशति॒रिति॒ नव॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। नव॑विꣳशति॒रिति॒ नव॑ऽविꣳशतिः। च॒। मे॒। एक॑त्रिꣳश॒दित्येक॑ऽत्रिꣳशत्। च॒। मे॒। एक॑त्रिꣳश॒दित्येक॑ऽत्रिꣳशत्। च॒। मे॒। त्रय॑स्त्रिꣳश॒दिति॒ त्रयः॑ऽत्रिꣳशत्। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥२४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एका च मे तिस्रश्च मे तिस्रश्च मे पञ्च च मे पञ्च च मे सप्त च मे सप्त च मे नव च मे नव च म एकादश च म एकादश च मे त्रयोदश च मे त्रयोदश च मे पञ्चदश च मे पञ्चदश च मे सप्तदश च मे सप्तदश च मे नवदश च मे नवदश च म एकविँशतिश्च म एकविँशतिश्च मे त्रयोविँशतिश्च मे त्रयोविँशतिश्च मे पञ्चविँशतिश्च मे पञ्चविँशतिश्च मे सप्तविँशश्च मे सप्तविँशतिश्च मे नवविँशतिश्च मे नवविँशतिश्च म एकत्रिँशच्च म एकत्रिँशच्च मे त्रयस्त्रिँशच्च मे त्रयस्त्रिँशच्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    एका। च। मे। तिस्रः। च। मे। तिस्रः। च। मे। पञ्च। च। मे। पञ्च। च। मे। सप्त। च। मे। सप्त। च। मे। नव। च। मे। नव। च। मे। एकादश। च। मे। एकादश। च। मे। त्रयोदशेति त्रयःऽदश। च। मे। त्रयोदशेति त्रयःऽदशः। च। मे। पञ्चदशेति पञ्चऽदश। च। मे। पञ्चदशेति पञ्चदश। च। मे। सप्तदशेति सप्तऽदश। च। मे। सप्तदशेति सप्तऽदश। च। मे नवदशेति नवऽदश। च। मे। नवदशेति नवऽदश। च। मे। एकविꣳशतिरित्येकऽविꣳशतिः। च। मे। एकविꣳशतिरित्येकऽविꣳशतिः। च। मे। त्रयोविꣳशतिरिति त्रयःऽविꣳशतिः। च। मे। त्रयोविꣳशतिरिति त्रयःऽविꣳशतिः। च। मे। पञ्चविꣳशतिरिति पञ्चऽविꣳशतिः। च। मे। पञ्चविऽꣳशतिरिति पञ्चऽविꣳशतिः। च। मे। सप्तविꣳशतिरिति सप्तऽविꣳशतिः। च। मे। सप्तविꣳशतिरिति सप्तऽविꣳशतिः। च। मे। नवविꣳशतिरिति नवऽविꣳशतिः। च। मे। नवविꣳशतिरिति नवऽविꣳशतिः। च। मे। एकत्रिꣳशदित्येकऽत्रिꣳशत्। च। मे। एकत्रिꣳशदित्येकऽत्रिꣳशत्। च। मे। त्रयस्त्रिꣳशदिति त्रयःऽत्रिꣳशत्। च। मे। यज्ञेन। कल्पन्ताम्॥२४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 24
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ गणितविद्याया मूलमुपदिश्यते॥

    अन्वयः

    यज्ञेन सङ्गतिकरणेन म एका संख्या च-द्वे मे तिस्रः, च-पुनर्मे तिस्रश्च-द्वे मे पञ्च, च-पुनर्मे पञ्च च-द्वे मे सप्त, च-पुनर्मे सप्त च-द्वे मे नव, च-पुनर्मे नव च-द्वे म एकादश, च-पुनर्म एकादश च-द्वे मे त्रयोदश, च-पुनर्मे त्रयोदश च-द्वे मे पञ्चदश, च-पुनर्मे पञ्चदश च-द्वे मे सप्तदश, च-पुनर्मे सप्तदश च-द्वे मे नवदश, च-पुनर्मे नवदश च-द्वे म एकविंशतिः, च-पुनर्मे एकविंशतिश्च-द्वे मे त्रयोविंशतिः, च-पुनर्मे त्रयोविंशतिश्च-द्वे मे पञ्चविंशतिः, च-पुनर्मे पञ्चविंशतिश्च-द्वे मे सप्तविंशतिः, च-पुनर्मे सप्तविंशतिश्च-द्वे मे नवविंशतिः, च-पुनर्मे नवविंशतिश्च-द्वे म एकत्रिंशच्च, पुनर्म एकत्रिंशच्च-द्वे मे त्रयस्त्रिंशच्चादग्रेऽप्येवं संख्याः कल्पन्ताम्॥ इत्येको योगपक्षः॥१॥२४॥अथ द्वितीयः पक्ष-यज्ञेन योगतो विपरीतेन दानरूपेण वियोगमार्गेण विपरीताः संगृहीताश्चान्यान्याः संख्या द्वयोर्वियोगेन यथा मे कल्पन्तां तथा मे त्रयस्त्रिंशच्च-द्वयोर्दानेन वियोगेन म एकत्रिंशत्, च-पुनर्मे ममैकत्रिंशच्च-द्वयोर्वियोगेन मे नवविंशतिः, च-पुनर्मे नवविंशतिश्च द्वयोर्वियोगेन मे सप्तविंशतिरेवं सर्वत्र॥ इति वियोगेनान्तरेण द्वितीयः पक्षः॥२॥२४॥ अथ तृतीयः—म एका च मे तिस्रश्च, मे तिस्रश्च मे पञ्च च, मे पञ्च च मे सप्त च, मे सप्त च मे नव च, मे नव च म एकादश चैवंविधाः संख्याः अग्रेऽपि यज्ञेन उक्तपुनःपुनर्योगेन गुणनेन कल्पन्तां समर्था भवन्तु॥ इति गुणनविषये तृतीयः पक्षः॥३॥२४॥

    पदार्थः

    (एका) एकत्वविशिष्टा सङ्ख्या (च) (मे) (तिस्रः) त्रित्वविशिष्टा संख्या (च) (मे) (तिस्रः) (च) (मे) (पञ्च) पञ्चत्वविशिष्टा गणना (च) (मे) (पञ्च) (च) (मे) (सप्त) सप्तत्वविशिष्टा गणना (च) (मे) (सप्त) (च) (मे) (नव) नवत्वविशिष्टा संख्या (च) (मे) (नव) (च) (मे) (एकादश) एकाधिका दश (च) (मे) (एकादश) (च) (मे) (त्रयोदश) त्र्यधिका दश (च) (मे) (त्रयोदश) (च) (मे) (पञ्चदश) पञ्चोत्तर दश (च) (मे) (पञ्चदश) (च) (मे) (सप्तदश) सप्ताधिका दश (च) (मे) (सप्तदश) (च) (मे) (नवदश) नवोत्तरा दश (च) (मे) (नवदश) (च) (मे) (एकविंशतिः) एकाधिका विंशतिः (च) (मे) (एकविंशतिः) (च) (मे) (त्रयोविंशतिः) त्र्यधिका विंशतिः (च) (मे) (त्रयोविंशतिः) (च) (मे) (पञ्चविंशतिः) पञ्चाधिका विंशतिः (च) (मे) (पञ्चविंशतिः) (च) (मे) (सप्तविंशतिः) सप्ताधिका विंशति (च) (मे) (सप्तविंशतिः) (च) (मे) (नवविंशतिः) नवाधिका विंशतिः (च) (मे) (नवविंशतिः) (च) (मे) (एकत्रिंशत्) एकाधिका त्रिंशत् (च) (मे) (एकत्रिंशत्) (च) (मे) (त्रयस्त्रिंशत्) त्र्यधिकास्त्रिशत् (च) (मे) (यज्ञेन) सङ्गतिकरणेन योगेन दानेन वियोगेन वा (कल्पन्ताम्)॥२४॥

    भावार्थः

    अस्मिन् मन्त्रे यज्ञेनेति पदेन योगवियोगौ गृह्येते कुतो यजधातोर्हि यः सङ्गतिकरणार्थस्तेन सङ्गतिकरणं कस्याश्चित् सङ्ख्यायाः कयाचिद्योगकरणं यश्च दानार्थस्तेनैवं सम्भाव्य कस्याश्चिद्दानं व्ययीकरणमिदमेवान्तरमेवं गुणनभागवर्गवर्गमूलघनघनमूलभागजातिप्रभागजातिप्रभृतयो ये गणितभेदाः सन्ति, ते योगवियोगाभ्यामेवोत्पद्यन्ते। कुतः काञ्चित् संख्यां कयाचित् संख्यया सकृत् संयोजयेत् स योगो भवति, यथा २+४=६ द्वयोर्मध्ये चत्वारो युक्ताः षट् संपद्यन्ते। इत्थमनेकवारं चेत् संख्यायां संख्यां योजयेत् तर्हि तद्गुणनमाहुः। यथा र्२ें४ृ८ अर्थात् द्विरूपां संख्यां चतुर्वारं पृथक् पृथग् योजयेद्वा द्विरूपां संख्यां चतुर्भिर्गुणयेत् तदाष्टौ जायन्ते। एवं चत्वारश्चतुर्वारं युक्ता वा चतुर्भिर्गुणितास्तदा चतुर्णां वर्गः षोडश संपद्यन्ते, इत्थमन्तरेण भाग-वर्गमूल-घनमूलाद्याः क्रिया निष्पद्यन्ते अर्थात् यस्यां कस्याञ्चित् संख्यायां काञ्चित् संख्यां योजयेद्वा केनचित् प्रकारान्तरेण वियोजयेदित्यनेनैव योगेन वियोगेन वा बुद्धिमतां यथामतिकल्पनया व्यक्ताव्यक्ततराः सर्वा गणितक्रिया निष्पद्यन्तेऽतोऽत्र मन्त्रे द्वयोर्योगेनोत्तरोत्तरा द्वयोर्वियोगेन वा पूर्वा पूर्वा विषमसंख्या प्रदर्शिता तथा गुणनस्यापि कश्चित्प्रकारः प्रदर्शित इति वेदितव्यम्॥२४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब गणितविद्याया के मूल का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    (यज्ञेन) मेल करने अर्थात् योग करने से (मे) मेरी (एका) एक संख्या (च) और दो (मे) मेरी (तिस्रः) तीन संख्या (च) फिर (मे) मेरी (तिस्रः) तीन (च) और दो (मे) मेरी (पञ्च) पांच (च) फिर (मे) मेरी (पञ्च) पांच (च) और दो (मे) मेरी (सप्त) सात (च) फिर (मे) मेरी (सप्त) सात (च) और दो (मे) मेरी (नव) नौ (च) फिर (मे) मेरी (नव) नौ (च) और दो (मे) मेरी (एकादश) ग्यारह (च) फिर (मे) मेरी (मे) मेरी (एकादश) ग्यारह (च) और दो (मे) मेरी (त्रयोदश) तेरह (च) फिर (मे) मेरी (त्रयोदश) तेरह (च) और दो (मे) मेरी (पञ्चदश) पन्द्रह (च) फिर (मे) मेरी (पञ्चदश) पन्द्रह (च) और दो (मे) मेरी (सप्तदश) सत्रह (च) फिर (मे) मेरी (सप्तदश) सत्रह (च) और दो (मे) मेरी (नवदश) उन्नीस (च) फिर (नवदश) उन्नीस (च) और दो (मे) मेरी (एकविंशतिः) इक्कीस (च) फिर (मे) मेरी (एकविंशतिः) इक्कीस (च) और दो (मे) मेरी (त्रयोविंशतिः) तेईस (च) फिर (मे) मेरी (त्रयोविंशतिः) तेईस (च) और दो (मे) मेरी (पञ्चविंशतिः) पच्चीस (च) फिर (मे) मेरी (पञ्चविंशतिः) पच्चीस (च) और दो (मे) मेरी (सप्तविंशतिः) सत्ताईस (च) फिर (मे) मेरी (सप्तविंशतिः) सत्ताईस (च) और दो (मे) मेरी (नवविंशतिः) उनतीस (च) फिर (मे) मेरी (नवविंशतिः) उनतीस (च) और दो (मे) मेरी (एकत्रिंशत्) इकतीस (च) फिर (मे) मेरी (एकत्रिंशत्) इकतीस (च) और दो (मे) मेरी (त्रयस्त्रिंशत्) तेंतीस (च) और आगे भी इसी प्रकार संख्या (कल्पन्ताम्) समर्थ हों। यह एक योगपक्ष है॥१॥२४॥ अब दूसरा पक्ष-(यज्ञेन) योग से विपरीत दानरूप वियोगमार्ग से विपरीत संगृहीत (च) और संख्या दो के वियोग अर्थात् अन्तर से [जैसे] (मे) मेरी (कल्पन्ताम्) समर्थ हों, वैसे (मे) मेरी (त्रयस्त्रिंशत्) तेंतीस संख्या (च) दो के देने अर्थात् वियोग से (मे) मेरी (एकत्रिंशत्) इकतीस (च) फिर (मे) मेरी (एकत्रिंशत्) इकतीस (च) दो के वियोग से (मे) मेरी (नवविंशतिः) उनतीस (च) फिर (मे) फि (मे) मेरी (नवविंशतिः) उनतीस (च) दो के वियोग से (मे) मेरी (सप्तविंशतिः) सत्ताईस समर्थ हों, ऐसे सब संख्याओं में जानना चाहिये॥ यह वियोग से दूसरा पक्ष है॥२॥२४॥ अब तीसरा (मे) मेरी (एका) एक संख्या (च) और (मे) मेरी (तिस्रः) तीन संख्या (च) परस्पर गुणी, (मे) मेरी (तिस्रः) तीन संख्या (च) और (मे) मेरी (पञ्च) पांच संख्या (च) परस्पर गुणित, (मे) मेरी (पञ्च) पांच संख्या (च) और (मे) मेरी (सप्त) सात संख्या (च) परस्पर गुणित, (मे) मेरी (सप्त) सात संख्या (च) और (मे) मेरी (नव) नव संख्या (च) परस्पर गुणित, (मे) मेरी (नव) नव संख्या (च) और (मे) मेरी (एकादश) ग्यारह संख्या (च) परस्पर गुणित, इस प्रकार अन्य संख्या (यज्ञेन) उक्त बार-बार योग अर्थात् गुणन से (कल्पन्ताम्) समर्थ हों। यह गुणन विषय से तीसरा पक्ष है॥३॥२४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में (यज्ञेन) इस पद से जोड़ना-घटाना लिये जाते हैं, क्योंकि जो यज धातु का सङ्गतिकरण अर्थ है, उससे सङ्ग कर देना अर्थात् किसी संख्या को किसी संख्या से योग कर देना वा यज धातु का जो दान अर्थ है, उससे ऐसी सम्भावना करनी चाहिये कि किसी संख्या का दान अर्थात् व्यय करना निकाल-डालना यही अन्तर है। इस प्रकार गुणन, भाग, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, भागजाति, प्रभागजाति आदि जो गणित के भेद हैं, वे योग और अन्तर से ही उत्पन्न होते हैं, क्योंकि किसी संख्या को किसी संख्या से एक बार मिला दे तो योग कहाता है, जैसे २+४=६ अर्थात् २ में ४ जोड़ें तो ६ होते हैं। ऐसे यदि अनेक वार संख्या में संख्या जोड़ें तो उसको गुणन कहते हैं, जैसे अर्थात् र्२ें४ृ२ को ४ वार अलग अलग जोड़ें वा २ को ४ चार से गुणे तो ८ होते हैं। ऐसे ही ४ को ४ चौगुना कर दिया तो ४ का वर्ग १६ हुए, ऐसे ही अन्तर से भाग, वर्गमूल, घनमूल आदि निष्पन्न होते हैं अर्थात् किसी संख्या को जोड़ देवे वा किसी प्रकारान्तर से घटा देवे, इसी योग वा वियोग से बुद्धिमानों की यथामति कल्पना से व्यक्त, अव्यक्त, अङ्कगणित और बीजगणित आदि समस्त गणितक्रिया उत्पन्न होती हैं। इस कारण इस मन्त्र में दो के योग से उत्तरोत्तर संख्या वा दो के वियोग से पूर्व पूर्व संख्या अच्छे प्रकार दिखलाई हैं, वैसे गुणन का भी कुछ प्रकार दिखलाया है, यह जानना चाहिये॥२४॥

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    विषय

    एक, तीन, पांच आदि एकान्तर क्रम से सेना- व्यूह और संख्यावृद्धि का नियम ।

    भावार्थ

    (एका च) एक और (तिस्रः च तिस्रः च) तीन और तीन, . और (पञ्च च पञ्च च) पांच और पांच और (सप्त च सप्त च) सात और सात और ( नव च नव च ) नौ और नौ और (एकादश च एकादश च) ग्यारह और ग्यारह ( त्रयोदश च त्रयोदश च ) तेरह और तेरह, ( पञ्चदश च पञ्चदश च ) पन्द्रह और पन्द्रह ( सप्तदश च सप्तदश च ) सत्रह और सत्रह ( नवदश च नवदश च ) उन्नीस और उन्नीस ( एक- विंशतिः च एकविंशतिः च ) इक्कीस और इक्कीस ( त्रयोविंशतिः च - त्रयोविंशतिः च ) तेईस और तेईस (पञ्चविंशति: च ) पच्चीस और पच्चीस ( सप्तविंशतिः च सप्तविंशतिः च) सत्ताईस और सत्ताईस ( नवविंशतिः च नवविंशतिः च ) उनतीस और उनतीस ( एकत्रिंशत् च एकत्रिंशत् च ) इकतीस और इकतीस और ( त्रयः त्रिंशत् च ) तेतीस इस क्रम से ( मे ) मेरी सेनाएं व्यूह बना कर ( यज्ञेन ) परस्पर के मेल और दान, अर्थात् ऋण, घटाने द्वारा ( कल्पन्ताम् ) हों । १, ३, ५, ७, ९, ११, १३, १५, १७, १९, २१, २३, २५, २७, २९, ३१, ३३ ये अयुग्म स्तोम या अयुग्म राशि हैं । इन-इन संख्या में सेनाओं को चला कर उत्तम राष्ट्र को प्राप्त होते हैं । व्यूह में ओर छोर के छोड़ने से दो-दो की क्रमशः वृद्धि और न्यूनता होती है । १ १२३४५६७८९१०११ १२३ १२३४५६७८९ १२३४५ अथवा १२३४५६७ १२३४५६७ १२३४५ १२३४५६७८९ १२३ १२३४५६७८९१०११ १ गणित में इसी प्रकार दो-दो के जोड़ने वा परस्पर गुणन से संख्या की उत्तरोत्तर वृद्धि और दो-दो के घटाने वा परस्पर के भाग द्वारा संख्या की न्यूनता करनी चाहिये । व्यूहों में भी एक एक, तीन तीन, पांच पांच, सात सात की पंक्ति बना कर चलने का उपदेश है । इसी प्रकार १, ३, ५, ७ आदि क्रम से बढ़ती राज्य-शक्तियों का वर्णन है, वे भी बलवान् बनें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विषमाङ्कगणितविद् आत्मा ( १ ) संकृति: । ( २ ) विराट संकृतिः । गान्धारः ॥

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    विषय

    तेतीस देवता

    पदार्थ

    १. (एका च मे तिस्रः च मे) = एक देवता को मैं अपनानेवाला बनूँ और एक देवता को अपनाने के द्वारा तीनों देवताओं को मैं अपनानेवाला बनूँ। वस्तुतः गुणों का यह स्वभाव है कि एक गुण को अपने अन्दर धारण करने से अन्य गुणों को मैं अपने में धारण करनेवाला बनता हूँ। गुणों की एक शृंखला है। उस शृंखला की एक कड़ी को पकड़कर अपनी ओर आकृष्ट करेंगे तो शृंखला की शृंखला हमारी ओर खिंची चली आएगी। २. (तिस्रः च मे पञ्च च मे) = तीन देवताओं को मैं धारण करता हूँ और इससे पाँच देवताओं का धारण करनेवाला बनता हूँ। ३. (पञ्च च मे सप्त च मे) = पाँच दिव्य गुणों को धारण करता हुआ मैं सात दिव्य गुणों को अपने में ग्रहण करता हूँ। ४. (सप्त च मे नव च मे) = सात के धारण से नौ का धारण होता है। ५. (नव च म एकादश च मे) = नौ मेरे होते हैं, और इससे ग्यारह-के-ग्यारह पृथिवीस्थ देव मेरे हो जाते हैं। अध्यात्म में पृथिवी यह शरीर है। इस शरीर के 'पुरमेकादश द्वारम्' इन उपनिषत् शब्दों में वर्णित सभी ग्यारह द्वारों के अधिष्ठातृ देव मुझमें अपना-अपना स्थान ठीक रूप में ग्रहण करते हैं। ६. (एकादश च मे त्रयोदश च मे) = मेरे शरीर के ग्यारह देवों के ठीक स्थान ग्रहण करने पर हृदयान्तरिक्ष के बारहवें व तेरहवें देव भी मेरे होते हैं। ७ (त्रयोदश च मे पञ्चदश च मे) = तेरह देव मेरे होते हैं और पन्द्रह देवों को मैं ग्रहण करता हूँ। ८. (पञ्चदश च मे सप्तदश च मे) = पन्द्रह मेरे होते हैं और उससे मैं सतरह को अपनाता हूँ। ९. (सप्तदश च में नवदश च मे) सतरह देवों को मैं अपनाता हूँ और उससे उन्नीस देव मेरे होते हैं। १०. (नवदश च मे एकविंशतिः च मे) = उन्नीस देव मेरे होते हैं, और उससे इक्कीस देवों को मैं अपनानेवाला होता हूँ। ११. (एकविंशतिः च मे त्रयोविंशतिः च मे) = इक्कीस देव मेरे होते हैं और उससे तेईस देवों को मैं अपनाता हूँ। १२. हृदयान्तरिक्ष के देवों के साथ मस्तिष्करूप द्युलोक के देव भी मेरे होते हैं (त्रयोविंशतिः च मे पञ्चविंशतिः च मे) = तेईस को अपनाकर पच्चीस को मैं अपनाता हूँ। १३. (पञ्चविंशतिः च मे सप्तविंशः च मे) = पच्चीस तो मेरे होते ही हैं मैं अपने में सताईस का धारण करता हूँ। १४. (सप्तविंशतिः च मे नव विंशतिः च मे) = सताईस मेरे होते हैं और उनसे उन्तीस भी मेरे हो जाते हैं । १५. (नवविंशतिः च मे एकत्रिंशत् च मे) = उन्तीस मेरे होते हैं और इकतीस को मैं अपना लेता हूँ और अन्त में १६. (एकत्रिंशत् च मे त्रयस्त्रिंशत् च मे) = इकतीस देव तो मेरे होते ही हैं, मैं तेंतीस -के-तेंतीस देवों को अपनानेवाला बनता हूँ। ये सब देव (यज्ञेन) = प्रभु के उपासन से (कल्पन्ताम्) = मुझे प्राप्त हों। अथवा प्रभु से सम्पर्क के निमित्त मुझे समर्थ करें।

    भावार्थ

    भावार्थ - तेतीस देवों का अपनाना ही मेरा प्रभु-स्तवन होता है। ये ही मेरे स्तोम हो जाते हैं और शतपथ ९ | ३ | ३ | २ के ('एतद्यजमाना सर्वान् कामानाप्त्वा युग्भिः स्तोमैः स्वर्गं लोकमेति') इन शब्दों के अनुसार मैं इन 'एक, तीन, पाँच व सात' आदि के क्रम से विषम संख्याओं में चलनेवाले स्तोमों से इस लोक में सब वाञ्छनीय पदार्थों को प्राप्त करके स्वर्ग को प्राप्त करूँ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात (यज्ञेन) या पदाने बेरीज व वजाबाकी असा अर्थ घेतला जातो. कारण ‘यज’ धातूचा अर्थ संगतिकरण असा आहे. तेव्हा संगतिकरण करणे म्हणजे एखाद्या संख्येला दुसऱ्या संख्येत मिळविणे होय किंवा ‘यज’ धातूचा अर्थ दान असाही होतो. त्यावरून हे कळते की, एखाद्या संख्येचे दान करणे म्हणजे कमी, वजा करणे होय. याप्रमाणे गुणाकार, भागाकार, वर्ग, वर्गमूळ, घन, घनमूळ, भाग (जाती) , प्रभाग (प्रजाती) इत्यादी गणिताचे जे प्रकार आहेत ते बेरीज व वजाबाकीने उत्पन्न होतात. कारण एका संख्येत दुसरी संख्या मिळविल्यास होते जसे २ + ४ = ६ अर्थात् दोन (२) मध्ये चार (४) मिळविल्यास सहा (६) होतात. अशाप्रकारे अनेकवेळा एका संख्येत दुसरी मिळविल्यास गुणकार होतो. जसे २ेर्४ = ८ अर्थात् चार वेळा वेगवेगळी बेरीज किंवा २ ला ४ (चार) ने गुणल्यास ८ होतात. याप्रमाणे ४ च्या चौपट केले असता ४ चा वर्ग १६ होतो, तसेच वजा करण्याने भागाकार, वर्गमूळ, घनमूळ इत्यादी निष्पन्न होतात. तेव्हा एखाद्या संख्येत एखादी संख्या मिळविल्यास बेरीज किंवा कमी केल्यास वजाबाकी. याच बेरीज वजाबाकीने बुद्धिमान लोकांना त्यांच्या तर्कानुसार व्यक्त अव्यक्त अशा अंकगणित व बीजगणित इत्यादी सर्व गणिताच्या क्रिया उलगडतात. त्यामुळे या मंत्रात दोनच्या बेरजेने जास्त झालेली संख्या किंवा (२) दोनच्या वजाबाकीने कमी असलेली संख्या पूर्वीची संख्या चांगल्याप्रकारे दाखविलेली आहे, तसेच गुणाकाराचा काही प्रकारही दर्शविलेला आहे.

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    विषय

    आता गणितविद्येच्या मूळज्ञानाविषयी सांगत आहेत-

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (या मंत्रात गणितातील बेरीज, वजाबाकी आणि गुणाकर, या तीन प्रकारांविषयी सांगितले आहे. स्वामी दयानंदजी यांनी या मंत्राचे तीन अर्थ स्पष्ट केले आहेत)^पहिला अर्थ वा प्रथम पक्ष -^(यज्ञेन) मिळणे, जोडणे बेरीज, अर्थात योग करण्यामुळे (मे) माझी (एका) एक ही संख्या (च) आणि दोन ही संख्या मिळून (तिस्र:) तीन होतात. (च) पुन्हा (मे) माझी (तिस्र:) तीन ही संख्या (च) अधिक दोन ही संख्या मिळून (पञ्च) पाच बनतात. यानंतर (मे) माझी (पञ्च) पाच ही संख्या (च) दोन या संख्येशी मिळून (मे) माझी (सप्त) सप्तसंख्या बनते. (च) पुन्हा (मे) माझी (सप्त) सात संख्या (च) अधिक दोन ही संख्या मिळून (मे) माझी (नव) नऊ ही संख्या बनते. (च) यानंतर (मे) माझी (नव) नऊ संख्या (च) दोन या संख्येशी मिळून (मे) माझी (एकादश) अकरा संख्या बनते. (च) यानंतर (मे) माझी तेरा संख्या बनते (च) पुन्हा (मे) माझी (त्रयोदश) तेरा (च) आणि दोन ही संख्या मिळून (मे) माझी (पञ्चदश) पंधरा संख्या बनते. (च) नंतर (मे) माझी (पञ्चदश) पंधरा (च) आणि दोन संख्या मिळून (सप्तदश) सतरा ही संख्या बनते. (च) नंतर (मे) माझी (सप्तदश) सतरा (च) आणि दोन मिळून (मे) माझी (नवदश) एकोणीस संख्या होते. (च) पुन्हा (मे) माझी (नवदश) एकोणीस (च) आणि दोन संख्या मिळून (मे) माझी (एकविशति) एकवीस संख्या बनते. (च) आणि दोन संख्या मिळून (मे) माझी (एकविंशति) एकवीस संख्या बनते (च) नंतर (मे) माझी (एकविंशति) एकवीस संख्या (च) आणि दोन मिळून (मे) माझी (त्रयोविंशति) तेवीस ही (च) दोन संख्येशी मिळून (मे) माझी (पञ्चविंशति:) पंचवीस संख्या बनते. (च) यानंतर (मे) माझी (पञ्चविंशति:) पंचवीस ही संख्या (च) आणि दोन संख्या मिळून (मे) माझी (सप्तविंशति:) सत्तावीस ही संख्या बनते. (च) यानंतर (मे) माझी (सप्तविंशति:) ही सत्तावीस ही संख्या (च) आणि दोन मिळून (मे) माझी (नवविंशति:) एकोणतीस ही संख्या तयार होते. (च) नंतर (मे) माझी (नवविंशति:) एकोणतीस ही संख्या (च) आणि दोन ही संख्या मिळून (एकत्रिंशत्) एकवीस संख्या बंनते (च) यानंतर (मे) माझी (एकत्रिंशत्) एकतीस ही संख्या (च) आणि दोन ही संख्या मिळून (त्रयत्रिंशत्) तेहेतीस ही संख्या बनते (च) आणि याचप्रमाणे पुढे देखील संख्या (कल्यन्ताम्) होत जावीत (वा तयार होतात) हा गणिताचा हा प्रकार योगपक्षाप्रमाणे म्हणजे जोड वा बेरीजचा आहे. ॥24॥^आता या मंत्राचा दुसरा पक्ष वा अर्थ^(हा अर्थ वियोग म्हणजे वजाबाकी या रुपातील असून मंत्रातील सर्वात मोठी जी संख्या म्हणजे तेहतीस (33) या संख्येतून क्रमश: मागे जात व दोन ही संख्या वजा करीत गेल्यामुळे हा दुसरा अर्थ निघत आहे) (‘यज्ञ’ शब्द ‘यज्’ धातूपासून निर्मित असून त्याचे तीन अर्थ आहेत- देव पूजा, संगतिकरण आणि दान. या मंत्रामधे ‘यज्ञेन’ या शब्दाचा अर्थ ‘दानेन’ असा होत असून याचा ध्वनित अर्थ असा- योग म्हणजे बेरीज, त्याचा विरुद्ध अर्थ-वजाबाकी, म्हणजे दान, मूळमधून कमी करणे, घटविणे) (यज्ञेन) योग म्हणजे बेरीज याच्याविरूद्ध दान रुप जो वियोग म्हणजे - वजाबाकी, त्या नियमा (च) मूळ संख्येतून दोन कमी करत गेल्याने (मे) माझी (कल्पन्ताम्) सर्व संख्या निर्मित होत जाव्यात. (वा होतात) (मे) माझ्या (त्रयत्रिंशत्) तेहतीस या संख्येतून (च) दोन संख्येचे दान केल्यामुळे (वजा केल्यामुळे) (मे) माझी (एकत्रिंशत्) एकवीस संख्या तयार होते (च) पुन्हा (मे) माझ्या (एकत्रिंशत्) एकवीस या संख्येतून (च) दोन संख्या वजा जाता (मे) माझी (नवविंशति:) एकोणतीस संख्या तयार होते. (च) पुन्हा (मे) माझ्या नवविंशति:) एकोणतीस संख्येतून (च) दोन वजा जाता (मे) माझी (सप्तविंशति) सत्तावीस संख्या बनते. अशाप्रकारे तयार होणार्‍या सर्व संख्या माझ्यासाठी लाभकारी व्हाव्यात. (वर दर्शविलेल्या पद्धतीने) सर्व संख्यांविषयी जाणावे. हा अर्थ विभाग म्हणजे वजाबाकी या दुसर्‍या अर्थाचा बोध करून देत आहे. ॥^आता मंत्राचा तिसरा अर्थ - ^(हा तिसरा अर्थ गुणाकर नियमाने निघत आहे) (मे) माझी (एका) एक संख्या (च) आणि (मे) माझी (तिस्र:) तीन संख्या (च) यांच्या गुणाकाराने (तीन संख्या तयार होते) (मे) माझी (तिस्र:) तीन संख्या (च) आणि (मे) माझी (पञ्च) पाच संख्या (च) यांचा गुणाकार केल्याने (15 संख्या तयार होते) (मे) माझी (पञ्च) पाच (च) आणि (मे) माझी (सप्त) सात ही संख्या (च) गुणाकाराने (35 पस्तीस होते) (मे) माझी (सप्त) सात संख्या (च) आणि (मे) माझी (नव) नऊ ही संख्या (च) गुणाकारामुळे (त्रेसष्ठ 63 संख्या तयार होते) (मे) माझी (नव) नऊ संख्या (च) आणि (मे) माझी (एकादश) अकरा संख्या (च) गुणाकारामुळे (नव्याण्व व 99 संख्या बनते) अशा प्रकारे अन्य संख्या (यज्ञेन) वर वर्णिलेल्या योग्य म्हणजे गुणाकारामुळे (कल्पन्ताम्) माझ्यासाठी समर्थ वा वाभकारी व्हाव्यात. गणिताच्या गुणाकार या नियमाने मंत्राचा हा तिसरा पक्ष वा अर्थ प्रगट होत आहे. ॥24॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात ‘यज्ञेन’ या शब्दाने जोडणे घटविणे योग आणि वियोग (बेरीज व वजाबाकी) हे अर्थ गृहीत होतात, कारण ‘यज्ञ’ शब्दाची मूळ धातू ‘यज्) आहे या धातूचा संगतीकरण अर्थ ही आहे. म्हणून ऐका संख्येचा दुसर्‍या संख्येशी योग करणे म्हणजे ‘येज्’ धातूच्या दान या अर्थाशी योग’ शब्दाचा संबंध जाणणे आवश्यक आहे एखाद्या संख्येचा दान करणे म्हणजे व्यय करणे, काढून टाकणे वा कमी करणे (म्हणजे वजाबाकी करणे) याच प्रकारे गुणन, भाग (गुणाकार, भागाकार) वर्ग, वर्गमूळ, घन, घनफळ, भागजाति (फळ), प्रभागजाति (फळ) आदी जे गणिताचे भेद वा प्रकार आहेत, ते योग वा अंतर (बेरीज आणि वजाबाकी) यामुळेच तयार होतात. कारण की एखाद्या संख्येला दुसर्‍या संख्येशी एकवार मिळविले, तर त्याला ‘योग’ म्हणजे बेरीज म्हणतात. उदाहरणार्थ – २+४ =६ अर्थात २ संख्येत एकवार ४ मिसळल्यास ६ संख्या बनते अशाप्रकारे त्या संख्येत अनेकवार ती संख्या मिसळत गेल्यास त्यास गुणन वा गुणाकार म्हणतात. जसे २ गुणिले ४ =८ म्हणजे २ या संख्येला ४ वेळा वेगळे वेगळे जोडले, अथवा २ चे ४ संख्येशी गुणन केल्यास ८ संख्या बनते. यातप्रमाणे ४ संख्येला चौपट केले, तर चारचा वर्ग १६ होतो. याचप्रमाणे अंतर केल्यास भागाकार, वर्गमूळ, घनफळ आदी संख्या निष्पन्न होतात. याचाच अर्थ असा की एका संख्येला दुसर्‍या संख्येशी जोडत, अथवा दुसर्‍या नियमाप्रमाणे घटवील, वजा करीत योग आणि वियोग पद्धतीने बुद्धिमान लोकांसाठी कल्पनेने व्यक्त, अव्यक्त, अंकगणित, बीजगणित आदी समस्त गणितक्रिया, उत्पन्न होते. याच कारणामुळे या मंत्रात दोन या संख्येच्या योगाद्वारे (बेरीज) उत्तरोतर संख्या कशी तयार होते अथवा दोन संख्येच्या वियोग म्हणजे वाजा बाकी नियमाने संख्या कशी तयार होते वा होऊन शकते, हे वर दर्शविले आहे. तसेच गणिताच्या गुणाकार या नियमांचेही काही प्रकार दाखविले आहे. यांवरून (विद्वानांनी) गणित विद्येचा पुढील विस्तार) जाणून घ्यावा. ॥24॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May my One and my Three, and my Three and my Five, and my Five and my Seven, and my Seven and my Nine, and my Nine and my Eleven, and my Eleven and my Thirteen, and my Thirteen and my Fifteen, and my Fifteen and my Seventeen, and my Seventeen and my Nineteen, and my Nineteen and my Twenty One, and my Twenty One and my Twenty Three, and my Twenty Three and my Twenty Five, and my Twenty Five and my Twenty Seven, and my Twenty Seven and my Twenty Nine, and my Twenty Nine and my Thirty One, and my Thirty One and my Thirty Three etcetera increase or decrease by addition or subtraction.

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    Meaning

    By yajna, the process of addition and collection, may the numbers increase and be good and auspicious for me and for all: One is mine and unity is mine. (And one and one becomes two, and one plus two becomes three. In this way, in this progression) three is mine, and three is mine, and five is mine, and five is mine, and seven is mine, and seven is mine, and nine is mine, and nine is mine, and eleven is mine, and eleven is mine, and thirteen is mine, and thirteen is mine, ‘ and fifteen is mine, and fifteen is mine, and seventeen is mine, and seventeen is mine, and nineteen is mine and nineteen is mine, and twenty one is mine, and twenty one is mine, and twenty three is mine, and twenty three is mine, and twenty five is mine, and twenty five is mine, and twenty seven is mine, and twenty seven is mine, and twenty nine is mine, and twenty nine is mine, and thirty one is mine, and thirty one is mine, and thirty three is mine, and so on the numbers may increase and be good and auspicious for me and for all by the process of yajna in progression till infinity. Also: By implication, by the same process of yajna which also means ‘dana’, giving away, we have the progression in the reverse direction by subtraction. The meaning of the mantra then would be: Thirty-three is mine, give away two and thirty one is mine, thirty-one is mine, minus two, twenty nine is mine and so on. In the same way, by implication, we can work out the process of multiplication, and division and the process of squaring and cubing and square-root, etc. Further, we can move from arithmetic to algebra and other branches of mathematics.

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    Translation

    May my one (feminine) and my three (feminine), and my three and my five, and my five and my seven, and my seven and my nine, and my nine and my eleven, and my eleven and my thirteen, and my thirteen and my fifteen, and my fifteen and my seventeen, and my seventeen and my nineteen, and my nineteen and my twenty-one, and my twenty-one and my twentythree, and my twenty-three and my twenty-five, and my tewenty-five and my twenty-seven, and my twenty-seven and my twenty-nine, and my twenty-nine and my thirty-one, and my thirty-one and my thirty-three be secured by means of sacrifice. (1)

    Notes

    In this verse the offerings are made with uneven numbers.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ গণিতবিদ্যায়া মূলমুপদিশ্যতে ॥
    এখন গণিতবিদ্যার মূলের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ– (য়জ্ঞেন) সঙ্গতিকরণ অর্থাৎ যোগকরণের দ্বারা (মে) আমার (একা) এক সংখ্যা (চ) আরও দুই (মে) আমার (ত্রিস্রঃ) তিন সংখ্যা (চ) পুনঃ (মে) আমার (তিস্রঃ) তিন (চ) আরও দুই (মে) আমার (পঞ্চ) পাঁচ (চ) পুনঃ (মে) আমার (পঞ্চ) পাঁচ (চ) আরও দুই (মে) আমার (সপ্ত) সাত (চ) পুনঃ (মে) আমার (সপ্ত) সাত (চ) আরও দুই (মে) আমার (নব) নয় (চ) পুনঃ (মে) আমার (নব) নয় (চ) আরও দুই (মে) আমার (একাদশ) একাদশ (চ) পুনঃ (মে) আমার (একাদশ) একাদশ (চ) আরও দুই (মে) আমার (ত্রয়োদশ) ত্রয়োদশ (চ) পুনঃ (মে) আমার (ত্রয়োদশ) ত্রয়োদশ (চ) আরও দুই (মে) আমার (পঞ্চদশ) পঞ্চদশ (চ) পুনঃ (মে) আমার (পঞ্চদশ) পঞ্চদশ (চ) আরও দুই (মে) আমার (সপ্তদশ) সপ্তদশ (চ) পুনঃ (মে) আমার (সপ্তদশ) সপ্তদশ (চ) আরও দুই (মে) আমার (নবদশ) ঊনিশ (চ) পুনঃ (মে) আমার (নবদশ) ঊনিশ (চ) আরও দুই (মে) আমার (একবিংশতিঃ) একুশ (চ) পুনঃ (মে) আমার (একবিংশতিঃ) একুশ (চ) আরও দুই (মে) আমার (ত্রয়োবিংশতিঃ) তেইশ (চ) পুনঃ (মে) আমার (ত্রয়োবিংশতিঃ) তেইশ (চ) আরও দুই (মে) আমার (পঞ্চবিংশতিঃ) পঁচিশ (চ) পুনঃ (মে) আমার (পঞ্চবিংশতিঃ) পঁচিশ (চ) আরও দুই (মে) আমার (সপ্তবিংশতিঃ) সাতাইশ (চ) পুনঃ (মে) আমার (সপ্তবিংশতিঃ) সাতাইশ (চ) আরও দুই (মে) আমার (নববিংশতিঃ) ঊনত্রিশ (চ) পুনঃ (মে) আমার (নববিংশতিঃ) ঊনত্রিশ (চ) আরও দুই (মে) আমার (একত্রিংশৎ) একত্রিশ (চ) পুনঃ (মে) আমার (একত্রিংশৎ) একত্রিশ (চ) আরও দুই (মে) আমার (ত্রয়স্ত্রিংশৎ) তেত্রিশ (চ) এবং আরও এই রকম সংখ্যা (কল্পন্তাম্) সমর্থ হউক । ইহা একটা যোগপক্ষ ॥
    এখন দ্বিতীয় পক্ষঃ–(য়জ্ঞেন) যোগ হইতে বিপরীত দানরূপ বিয়োগমার্গ হইতে বিপরীত সংগৃহীত (চ) এবং সংখ্যা দুইয়ের বিয়োগ অর্থাৎ পার্থক্যপূর্বক (যেমন) (মে) আমার (কল্পন্তাম্) সমর্থ হউক সেইরূপ (মে) আমার (ত্রয়স্ত্রিংশৎ) তেত্রিশ সংখ্যা (চ) দুই দেওয়া অর্থাৎ বিয়োগের ফলে (মে) আমার (একস্ত্রিংশৎ) একত্রিশ (চ) আবার (মে) আমার একস্ত্রিংশৎ) একত্রিশ (চ) দুইয়ের বিয়োগের ফলে (মে) আমার (নববিংশতিঃ) উনত্রিশ (চ) আবার (মে) আমার (নববিংশতিঃ) ঊনত্রিশ (চ) দুইয়ের বিয়োগের ফলে (মে) আমার (সপ্তবিংশতিঃ) সাতাইশ সমর্থ হউক, এইরকম সর্ব সংখ্যা সম্পর্কে জানা দরকার ॥ ইহা বিয়োগের ফলে দ্বিতীয় পক্ষ ।
    এখন তৃতীয়ঃ–(মে) আমার (একা) এক সংখ্যা (চ) এবং (মে) আমার (তিস্রঃ) তিন সংখ্যা (চ) পরস্পর গুণী (মে) আমার (তিস্রঃ) তিন সংখ্যা (চ) এবং (মে) আমার (পঞ্চ) পাঁচ সংখ্যা (চ) পরস্পর গুণিত, (মে) আমার (পঞ্চ) পাঁচ সংখ্যা (চ) এবং (মে) আমার (সপ্ত) সাত সংখ্যা (চ) পরস্পর গুণিত, (মে) আমার (সপ্ত) সাত সংখ্যা (চ) এবং (মে) আমার (নব) নয় সংখ্যা (চ) পরস্পর গুণিত, (মে) আমার (নব) নয় সংখ্যা (চ) এবং (মে) আমার (একাদশ) একাদশ সংখ্যা (চ) পরস্পর গুণিত, এইরকম অন্য সংখ্যা (য়জ্ঞেন) উক্ত বার বার যোগ অর্থাৎ গুণন দ্বারা (কল্পন্তাম্) সমর্থ হউক ॥ ইহা গুণন বিষয় দ্বারা তৃতীয় পক্ষ ॥ ২৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে (য়জ্ঞেন) এই পদ দ্বারা যোগ, বিয়োগ করা হইয়া থাকে, কেননা যাহা ‘যজ্’ ধাতুর সঙ্গতিকরণ অর্থ তাহার সহিত সঙ্গ করিয়া দেওয়া অর্থাৎ কোন সংখ্যাকে কোন সংখ্যা দ্বারা যোগ করিয়া দেওয়া বা ‘যজ্’ ধাতুর যে দান অর্থ তাহা দ্বারা এমন সম্ভাবনা করা উচিত যে, কোন সংখ্যার দান অর্থাৎ ব্যয় করা, বাহির করা ইহাই পার্থক্য । এই রকম গুণন, ভাগ, বর্গ, বর্গমূল, ঘন, ঘনমূল, ভাগজাতি, প্রভাগজাতি আদি যা গণিতে প্রকার ভেদ সেগুলি যোগ ও বিয়োগের দ্বারাই উৎপন্ন হইয়া থাকে । কেননা কোন সংখ্যাকে কোন সংখ্যার সহিত একবার মিলিয়ে দিলে তাহাকে যোগ বলা হয় । যেমন ২+৪=৬ অর্থাৎ ২-এর সঙ্গে ৪ যোগ করিলে ৬ হয় । এইরূপ যদি অনেক বার সংখ্যায় সংখ্যা যোগ দেওয়া হয় তাহা হইলে তাহাকে গুণন বলা হয় । যেমন ২৪=৮ অর্থাৎ ২কে ৪ বার আলাদা আলাদা ভাবে যোগ করিলে বা ২কে ৪ দিয়া গুণ করিলে ৮ হয় । এইরকমই ৪কে ৪ গুণ করিয়া দিলে ৪-র বর্গ ১৬ হইল, এইভাবে পার্থক্য দ্বারা ভাগ, বর্গমূল, ঘনমূলাদি নিষ্পন্ন হয় । অর্থাৎ কোন সংখ্যাকে যোগ দিলে বা কোন প্রকারান্তরে বিয়োগ করিলে, এই যোগ বা বিয়োগ দ্বারা বুদ্ধিমান্কে যথামতি কল্পনা দ্বারা ব্যক্ত অব্যক্ত অঙ্কগণিত ও বীজগণিতাদি সমস্ত গণিতক্রিয়া উৎপন্ন হয়, এই কারণে এই মন্ত্রে দুইয়ের যোগ দ্বারা উত্তরোত্তর সংখ্যা বা দুইয়ের বিয়োগের পূর্ব পূর্ব সংখ্যা ভাল প্রকার দেখাইয়া দেওয়া হইয়াছে । সেইরূপ গুণনেরও কিছু প্রকার দেখানো হইয়াছে, ইহা জানা উচিত ॥ ২৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    একা॑ চ মে তি॒স্রশ্চ॑ মে তি॒স্রশ্চ॑ মে॒ পঞ্চ॑ চ মে॒ পঞ্চ॑ চ মে স॒প্ত চ॑ মে স॒প্ত চ॑ মে॒ নব॑ চ মে॒ নব॑ চ ম॒ऽএকা॑দশ চ ম॒ऽএকা॑দশ চ মে॒ ত্রয়ো॑দশ চ মে॒ ত্রয়ো॑দশ চ মে॒ পঞ্চ॑দশ চ মে॒ পঞ্চ॑দশ॒ চ মে স॒প্তদ॑শ চ মে স॒প্তদ॑শ চ মে॒ নব॑দশ চ মে॒ নব॑দশ চ মऽএক॑বিꣳশতিশ্চ ম॒ऽএক॑বিꣳশতিশ্চ মে॒ ত্রয়ো॑বিꣳশতিশ্চ মে ত্রয়ো॑বিꣳশতিশ্চ মে॒ পঞ্চ॑বিꣳশতিশ্চ মে॒ পঞ্চ॑বিꣳশতিশ্চ মে স॒প্তবি॑ꣳশতিশ্চ মে স॒প্তবি॑ꣳশতিশ্চ মে॒ নব॑বিꣳশতিশ্চ মে॒ নব॑বিꣳশতিশ্চ ম॒ऽএক॑ত্রিꣳশচ্চ ম॒ऽএক॑ত্রিꣳশচ্চ মে॒ ত্রয়॑স্ত্রিꣳশচ্চ মে য়॒জ্ঞেন॑ কল্পন্তাম্ ॥ ২৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    একা চেত্যস্য দেবা ঋষয়ঃ । বিষমাঙ্কগণিতবিদ্যাবিদাত্মা দেবতা ।
    পূর্বার্দ্ধস্য সংকৃতিশ্ছন্দঃ ।
    একবিꣳশতিশ্চেত্যুত্তরস্য বিরাট্ সংকৃতিশ্ছন্দঃ । গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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