यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 37
ऋषिः - देवा ऋषयः
देवता - सम्राड् राजा देवता
छन्दः - आर्षी पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
2
दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्रस॑वेऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। सर॑स्वत्यै वा॒चो य॒न्तुर्य॒न्त्रेणा॒ग्नेः साम्रा॑ज्येना॒भिषि॑ञ्चामि॥३७॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒वे इति॑ प्र॒ऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। सर॑स्वत्यै। वा॒चः। य॒न्तुः। य॒न्त्रेण॑ अग्नेः॑। साम्रा॑ज्ये॒नेति॒ साम्ऽरा॑ज्येन। अ॒भिषि॑ञ्चामीत्य॒भिऽसि॑ञ्चामि ॥३७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवस्य त्वा सवितुः प्रसवे श्विनोर्बाहुभ्याम्पूष्णो हस्ताभ्याम् । सरस्वत्यै वाचो यन्तुर्यन्त्रेणाग्नेः साम्राज्येनाभिषिञ्चामि ॥
स्वर रहित पद पाठ
देवस्य। त्वा। सवितुः। प्रसवे इति प्रऽसवे। अश्विनोः। बाहुभ्यामिति बाहुऽभ्याम्। पूष्णः। हस्ताभ्याम्। सरस्वत्यै। वाचः। यन्तुः। यन्त्रेण अग्नेः। साम्राज्येनेति साम्ऽराज्येन। अभिषिञ्चामीत्यभिऽसिञ्चामि॥३७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः कीदृशं राजानं मन्येरन्नित्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे विद्वन् राजन्! यथाऽहं त्वा सवितुर्देवस्य प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्। सरस्वत्यै वाचो यन्तुरग्नेर्यन्त्रेण साम्राज्येनाभिषिञ्चामि तथा भवान् सुखेन मामभिषिञ्चतु॥३७॥
पदार्थः
(देवस्य) स्वप्रकाशस्येश्वरस्य (त्वा) त्वाम् (सवितुः) सकलैश्वर्यप्रापकस्य (प्रसवे) प्रसवे जगति (अश्विनोः) सूर्याचन्द्रमसोः प्रतापशीतलत्वाभ्यामिव (बाहुभ्याम्) भुजाभ्याम् (पूष्णः) प्राणस्य धारणाकर्षणाभ्यामिव (हस्ताभ्याम्) कराभ्याम् (सरस्वत्यै) सरो विज्ञानं विद्यते यस्यास्तस्याः। अत्र षष्ठ्यर्ये चतुर्थी (वाचः) वाण्याः (यन्तुः) नियन्तुः (यन्त्रेण) कलाकौशलतयोत्पादितेन (अग्नेः) विद्युदादेः (साम्राज्येन) यः भूमेर्मध्ये सम्यक् राजते स सम्राट् तस्य भावेन सार्वभौमत्वेन (अभिषिञ्चामि)॥३७॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः सर्वविद्याविद्भिर्भूत्वा त्वा सूर्यादिगुणकर्मसदृशस्वभावो राजा मन्तव्यः॥३७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य कैसे को राजा मानें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे विद्वन् राजन्! जैसे मैं (त्वा) आप को (सवितुः) सकल ऐश्वर्य की प्राप्ति करानेहारा जो (देवस्य) आप ही प्रकाश को प्राप्त परमेश्वर उसके (प्रसवे) उत्पन्न किये हुए जगत् में (अश्विनोः) सूर्य और चन्द्रमा के प्रताप और शीतलपन के समान (बाहुभ्याम्) भुजाओं से (पूष्णः) पुष्टि करने वाले प्राण के धारण और खींचने के समान (हस्ताभ्याम्) हाथों से (सरस्वत्यै) विज्ञान वाली (वाचः) वाणी के (यन्तुः) नियम करने वाले (अग्नेः) बिजुली आदि अग्नि की (यन्त्रेण) कारीगरी से उत्पन्न किये हुए (साम्राज्येन) सब भूमि के राजपन से (अभिषिञ्चामि) अभिषेक करता हूं, वैसे आप सुख से मेरा अभिषेक करें॥३७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि समस्त विद्या के जाननेहारे होके सूर्य आदि के गुण-कर्म सदृश स्वभाव वाले पुरुष को राजा मानें॥३७॥
विषय
साम्राज्य से राजा का अभिषेक ।
भावार्थ
हे राजन् ! ( सवितुः देवस्य ) सर्वोत्पादक परमेश्वर के ( प्रसवे ) शासन और ऐश्वर्य में और ( अश्विनोः बाहुभ्याम् ) सूर्य, चन्द्रमा दोनों के प्रताप, शीतलता और प्रचण्डता, सौम्य और उग्र रूप ( बाहुभ्याम् ) शक्तियों से, (पूष्णः ) पुष्टिकारक अन्न या पृथिवी के ( हस्ताभ्याम् ) वशीकरण और आकर्षण करने वाले सामथ्यों से (सरस्वत्यै चाचः ) सरस्वती, ज्ञानरूप बाणी या विद्वत्सभा के उपदेश या व्यवस्था बल से ( यन्तुः ) नियन्ता ( अग्नेः ) शत्रुसंतापक सेनापति या राजा के ( यन्त्रेण ) नियामक बल से और ( साम्राज्येन ) साम्राज्य के अधिकार से तुझे (अभिषिंचामि ) अभिषिक्त करता हूँ, सर्व प्रेरक पद देता हूँ । राजा सूर्य के समान प्रचण्ड, चन्द्र के समान शीतल, निग्रह और अनुग्रह के सामर्थ्य वाला हो । वह पूषा अर्थात् अन्न या पृथिवी के समान दानशील सरस्वती, वेदवाणी या व्यवस्था सभावत् आज्ञा देने का अधिकारी और नियामक सम्राट हो ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सम्राड् राजा । आर्षी पंक्तिः । पंचमः ॥
विषय
साम्राज्याभिषेक
पदार्थ
१. (देवस्य सवितुः) = सब-कुछ देनेवाले दिव्य गुणों के पुञ्ज प्रभु के इस (प्रसवे) = उत्पन्न जगत् में अथवा प्रभु की प्रेरणा में (त्वा) = तुझे (अभिषिञ्चामि) = अभिषिक्त करता हूँ। तेरा राज्याभिषेक करता हूँ, अथवा गतमन्त्र में वर्णित आप्यायनकारी रस से तुझे सिक्त करता हूँ और निम्न बातों से तुझे युक्त करता हूँ-२. (अश्विनोर्बाहुभ्याम्) = प्राणापान के प्रयत्न से तू सदा प्रयत्नशील होता है, तेरे प्राणापान तुझे क्रियामय जीवनवाला बनाते हैं, अथवा (अश्विनोः) = सूर्य-चन्द्रमा के (बाहुभ्याम्) = प्रयत्नों से। सूर्य और चन्द्रमा की भाँति तू सदा क्रियाशील होता है। (स्वस्ति पन्थामनु चरेम सूर्याचन्द्रमसाविव) = वेद का यही तो उपदेश है कि हम सूर्य और चन्द्रमा की भाँति नियमित गति से कल्याण के मार्ग का आक्रमण करें । ३. (पूष्णो हस्ताभ्याम्) = पूषा के हाथों से। 'पूषा' पोषण की देवता है, हाथों का काम ग्रहण करना है। तू सदा पोषण के लिए ही उस उस वस्तु का ग्रहण करता है। तेरे आहार का मापक 'पोषण' होता है न कि 'स्वाद'। ४. (सरस्वत्यै = [सरस्वत्याः] वाच:) = सरस्वती की वाणी से, तेरी वाणी 'विद्या की अधिदेवता' की वाणी होती है। तू वाणी से विद्या का ग्रहण करनेवाला व ज्ञान का प्रसार करनेवाला बनता है। ५. (यन्तुः यन्त्रेणा) = नियन्ता के नियन्त्रण से । तू बुद्धिरूप सारथि से मनरूप लगाम द्वारा इन्द्रियाश्वों का नियन्त्रण करनेवाला बनता है । ६. और अन्त में (अग्नेः साम्राज्येन) = अग्नि के साम्राज्य से आगे बढ़नेवाले, उन्नति करनेवाले पुरुष के साम्राज्य से पूर्ण इन्द्रिय-विजय से, तू जितेन्द्रिय बनता है। वस्तुतः इस जितेन्द्रियता में ही सारी उन्नतियों का रहस्य निहित है। इसी से आगे बढ़ता तू है और अपना सम्राट् बनकर प्रजाओं का भी सम्राट् बन पाता है। ('जितेन्द्रियो हि शक्नोति वशे स्थापपितुं प्रजाः'), = जितेन्द्रिय पुरुष ही सब प्रजाओं को वश में स्थापित करता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम अपने जीवन में प्रभु प्रेरणा में चलें [प्रसवें], प्राणापान के प्रयत्न से आवश्यक सामग्री का अर्जन करें, पोषण के लिए ही वस्तुओं का ग्रहण करें। हमारी वाणी विद्या के लिए हो। इन्द्रियादि के हम नियन्ता बनें और यह नियन्त्रित्व, जितेन्द्रियता, आधिपत्य, साम्राज्य हमें अग्नि बनाये, हमारी उन्नति का कारण हो ।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी सर्व विद्या जाणाव्या व सूर्याप्रमाणे तेजस्वी गुण, कर्म, स्वभाव असणाऱ्या पुरुषाला राजा बनवावे.
विषय
लोकांनी कोणाला आपला राजा मानावे (राजा कसा असावा) याविषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (एक नागरिक वा प्रजाजन म्हणत आहे) हे विद्यावान राजा, मी (त्वा) आपलणाला (सवितु:) समग्र ऐश्वर्य प्राप्त करून देणार्या (देवस्य) स्वप्रकाशस्वरूप परमेश्वराने (प्रसवे) उत्पन्न केलेल्या या जगामधे (सर्व अधिकार देत आहे आपणास राजा वा नेता म्हणून स्वीकारीत आहे) आपण (अश्विनो:) सूर्याप्रमाणे प्रतापी आणि चंद्राप्रमाणे शीतल सुखकारी (आहात) आपण (बाहुभ्याम्) दोन्ही भुजांद्वारा (पूष्ण:) सर्व प्रजाजनांचे पोषण करणारे असून प्राण्यांप्रमाणे धारण व आकर्षणाची शक्ती आपणात आहे. (हस्ताभ्याम्) हाताद्वारे रक्षण करणारे आहात. (सरस्वत्यै) आणि विज्ञानमय (वाच:) वाणीचे (यन्तु:) नियमन करणारे आहात. (अग्ने:) अग्नीच्या विद्युत आदी शक्तीद्वारे (यन्त्रेण) जे यांत्रिक उत्पादन केले जाते, त्यांच्यामुळे (साम्राज्ये) सर्व भूमीचा राजा होण्यासाठी मी (एक प्रजाजन) आपणास (अभिषिञ्चामि) अभिषिक्त करीत आहे अर्थात आपणास राज्यशासन करण्याचे सर्व अधिकार देत आहे. माझ्याप्रमाणे आपणही मला (व सर्व प्रजाजनांना) सुखाने अभिषिक्त करा (सर्वांना सुखी व निर्भय करा) ॥37॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा आहे. (प्रजेसाठी) मनुष्यांसाठी हे हितकर आहे की त्यानी समस्त विद्यांचे ज्ञान मिळविलेल्या, सूर्य आदी पदार्थांच्या गुण-कर्माप्रमाणे स्वभाव असलेल्या व्यक्तीला आपला राजा म्हणून मान्यता द्यावी ॥37॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O King, I besprinkle thee with the arms (forces) of the suns warmth and the moons coolness, with the hands (powers) of attraction and retention of breath, with vedic speech, with the discipline of an administrator, and a rulers sole dominion.
Meaning
In this socio-political yajna of the land in Lord Savita’s creation, I in-vest you with the power and presidency of Agni, the Ruler, and consecrate you with the arms of Ashvinis (the heat and passion of the sun and the peace and cool of the moon) and the hands of Pusha (power of the nation’s sustenance with the positive and negative current’s of the systemic circuit). I vest in you the constitution of the sovereign nation and sanctify you with the voice of the people in the service of Sarasvati, the wisdom and culture of humanity.
Translation
At the impulsion of the creator Lord, with arms of the healers and with hands of the nourisher, with the auspicious utterances from the sacred texts and with the rituals prescribed under law, I crown you with the empire of the adorable Lord. (1)
Notes
Prasave,प्रेरणे, at the impulsion of; being urged by. Aśvinor bāhubhyām pūṣṇo hastabhyām, (in compari son I am a very weak person, so) with the arms of mighty Aśvins and with the hands of powerful Püsan, I sprinkle you etc. Sarasvatyai vacho, सरस्वत्याः वाचा, with the auspicious utterances of the sacred texts. Yantuh yantrena, प्रजापतेः नियमेन, with the ritual pre scribed under law.
बंगाली (1)
विषय
পুনর্মনুষ্যাঃ কীদৃশং রাজানং মন্যেরন্নিত্যুপদিশ্যতে ॥
পুনঃ মনুষ্য কাহাকে রাজা মানিবে এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে বিদ্বন্ রাজন্! যেমন আমি (ত্বা) আপনাকে (সবিতুঃ) সকল ঐশ্বর্য্যের প্রাপ্তিকারী যিনি (দেবস্য) আপনিই প্রকাশ প্রাপ্ত পরমেশ্বর তাহার (প্রসবে) উৎপন্ন করা জগতে (অশ্বিনোঃ) সূর্য্য ও চন্দ্রের প্রতাপ ও শীতলতার সমান (বাহুভ্যাম্) বাহু দ্বারা (পূষ্ণঃ) পুষ্টিকারী প্রাণের ধারণ এবং আকর্ষণের সমান (হস্তাভ্যাম্) হস্তদ্বারা (সরস্বত্যৈ) বিজ্ঞানযুক্তা (বাচঃ) বাণীর (য়ন্তুঃ) নিয়মকারী (অগ্নেঃ) বিদ্যুতাদি অগ্নির (য়ন্ত্রেণ) কারীগরী দ্বারা উৎপন্ন (সাম্রাজ্যেন) সব ভূমির রাজত্ব দ্বারা (অভিষিঞ্চামি) অভিষেক করি সেইরূপ আপনি সুখপূর্বক আমার অভিষেক করুন ॥ ৩৭ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । মনুষ্যদিগের উচিত যে, সমস্ত বিদ্যার জ্ঞাতা হইয়া সূর্য্যাদির গুণ-কর্ম সদৃশ স্বভাব যুক্ত পুরুষকে রাজা মানিবে ॥ ৩৭ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
দে॒বস্য॑ ত্বা সবি॒তুঃ প্রস॑বে᳕ऽশ্বিনো॑র্বা॒হুভ্যাং॑ পূ॒ষ্ণো হস্তা॑ভ্যাম্ ।
সর॑স্বত্যৈ বা॒চো য়॒ন্তুর্য়॒ন্ত্রেণা॒গ্নেঃ সাম্রা॑জ্যেনা॒ভিষি॑ঞ্চামি ॥ ৩৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
দেবস্য ত্বেত্যস্য দেবা ঋষয়ঃ । সম্রাড্ রাজা দেবতা । আর্ষী পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
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