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यजुर्वेद अध्याय - 18

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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 6
    ऋषिः - देवा ऋषयः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - भुरिगतिशक्वरी स्वरः - पञ्चमः
    6

    ऋ॒तं च॑ मे॒ऽमृतं॑ च मेऽय॒क्ष्मं च॒ मेऽना॑मयच्च मे जी॒वातु॑श्च मे दीर्घायु॒त्वं च॑ मेऽनमि॒त्रं च॒ मेऽभ॑यं च मे सु॒खं च॑ मे॒ शय॑नं च मे सू॒षाश्च॑ मे सु॒दिनं॑ च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒तम्। च॒। मे॒। अ॒मृत॑म्। च॒। मे॒। अ॒य॒क्ष्मम्। च॒। मे॒। अना॑मयत्। च॒। मे॒। जी॒वातुः॑। च॒। मे॒। दी॒र्घा॒यु॒त्वमिति॑ दीर्घायु॒ऽत्वम्। च॒। मे॒। अ॒न॒मि॒त्रम्। च॒। मे॒। अभ॑यम्। च॒। मे॒। सु॒खमिति॑ सु॒ऽखम्। च॒। मे॒। शय॑नम्। च॒। सू॒षा इति॑ सुऽउ॒षाः। च॒। मे॒। सु॒दिन॒मिति॑ सु॒ऽदिन॑म्। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋतञ्च मे मृतञ्च मे यक्ष्मञ्च मे नामयच्च मे जीवातुश्च मे दीर्घायुत्वञ्च मे नमित्रञ्च मे भयञ्च मे सुखञ्च मे शयनञ्च मे सुषाश्च मे सुदिनठञ्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ऋतम्। च। मे। अमृतम्। च। मे। अयक्ष्मम्। च। मे। अनामयत्। च। मे। जीवातुः। च। मे। दीर्घायुत्वमिति दीर्घायुऽत्वम्। च। मे। अनमित्रम्। च। मे। अभयम्। च। मे। सुखमिति सुऽखम्। च। मे। शयनम्। च। सूषा इति सुऽउषाः। च। मे। सुदिनमिति सुऽदिनम्। च। मे। यज्ञेन। कल्पन्ताम्॥६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    मे ऋतं च मेऽमृतं च मेऽयक्ष्मं च मेऽनामयच्च मे जीवातुश्च मे दीर्घायुत्वं च मेऽनमित्रं च मेऽभयं च मे सुखं च मे शयनं च मे सूषाश्च मे सुदिनं च यज्ञेन कल्पन्ताम्॥६॥

    पदार्थः

    (ऋतम्) यथार्थविज्ञानम् (च) एतत्साधकम् (मे) (अमृतम्) स्वस्वरूपं मुक्तिसुखं यज्ञशिष्टमन्नं वा (च) पेयम् (मे) (अयक्ष्मम्) यक्ष्मादिरोगरहितं शरीरादिकम् (च) एतत्साधकं कर्म (मे) (अनामयत्) रोगादिरहितम् (च) एतत्साधकमौषधम् (मे) (जीवातुः) येन जीवन्ति यज्जीवयति वा (च) पथ्यादिकम् (मे) (दीर्घायुत्वम्) चिरायुषो भावः (च) ब्रह्मचर्यजितेन्द्रियत्वादिकम् (मे) (अनमित्रम्) अविद्यमानशत्रुः (च) पक्षपातरहितं कर्म (मे) (अभयम्) भयराहित्यम् (च) शौर्यम् (मे) (सुखम्) परमानन्दः प्रसन्नता (च) एतत्साधकं कर्म (मे) (शयनम्) (च) एतत्साधनम् (मे) (सूषाः) शोभना उषा यस्मिन् स कालः (च) एतत्सम्बन्धि कर्म (मे) (सुदिनम्) शोभनम् च तद्दिनं च तत् (च) एतदुपयोगि कर्म (मे) (यज्ञेन) सत्यभाषणादिव्यवहारेण (कल्पन्ताम्) समर्था भवन्तु॥६॥

    भावार्थः

    ये मनुष्याः सत्यभाषणादीनि कर्माणि कुर्वन्ति, ते सर्वदा सुखिनो भवन्ति॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    (मे) मेरा (ऋतम्) यथार्थ विज्ञान (च) और उसकी सिद्धि करने वाला पदार्थ (मे) मेरा (अमृतम्) आत्मस्वरूप वा यज्ञ से बचा हुआ अन्न (च) तथा पीने योग्य रस (मे) मेरा (अयक्ष्मम्) यक्ष्मा आदि रोगों से रहित शरीर आदि (च) और रोगविनाशक कर्म (मे) मेरा (अनामयत्) रोग आदि रहित आयु (च) और इसकी सिद्धि करने वाली ओषधियां (मे) मेरा (जीवातुः) जिससे जीते हैं वा जो जिलाता है, वह व्यवहार (च) और पथ्य भोजन (मे) मेरा (दीर्घायुत्वम्) अधिक आयु का होना (च) ब्रह्मचर्य और इन्द्रियों को अपने वश में रखना आदि कर्म (मे) मेरा (अनमित्रम्) मित्र (च) और पक्षपात को छोड़ के काम (मे) मेरा (अभयम्) न डरपना (च) और शूरपन (मे) मेरा (सुखम्) अति उत्तम आनन्द (च) और इसको सिद्ध करने वाला (मे) मेरा (शयनम्) सो जाना (च) और उस काम की सिद्धि करने वाला पदार्थ (मे) मेरा (सूषाः) वह समय कि जिसमें अच्छी प्रातःकाल की वेला हो (च) और उक्त काम का सम्बन्ध करने वाली क्रिया तथा (मे) मेरा (सुदिनम्) सुदिन (च) और उपयोगी कर्म ये सब (यज्ञेन) सत्य वचन बोलने आदि व्यवहारों से (कल्पन्ताम्) समर्थित होवें॥६॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य सत्यभाषण आदि कामों को करते हैं, वे सदा सुखी होते हैं॥६॥

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    विषय

    यज्ञ से ज्ञान, अमृत, आरोग्य, दीर्घायु, अभय, मित्रयोग, सुखी जीवन, शुभ दिनों की प्राप्ति ।

    भावार्थ

    ( ऋतं च ) ऋत, यज्ञ, सत्य विज्ञान, वेदशास्त्र, ( अमृतं च) मोक्ष और पूर्णायु (अयक्ष्मं च ), यक्ष्मा, तपेदिक आदि रोगों से रहित स्वस्थता, ( अनामयत् च ) रोगों का अभाव, ( जीवातुः च ) जीवनप्रद अन्न, औषधि पथ्य आदि, ( दीर्घायुत्वं च ) दीर्घं आयु, ( अन मित्रं च ) शत्रु का न होना, ( अभयं च ) अभय, निर्भयता, ( सुखं च ) सुख, ( शयनं च ) सुखपूर्वक निद्रा, ( सुषा च ) उत्तम उषाकाल, (सुदिनं च ) उत्तम दिन, ये सब (मे) मेरे ( यज्ञेन कल्पन्ताम ) यज्ञ, राष्ट्रपालन, सुकृत, धर्माचरण और ईश्वरोपासना से प्राप्त हों ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भुरिगतिशक्वरी । पंचमः |

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    विषय

    ऋत + सुदिन

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र की समाप्ति 'सुकृतम्' पर थी। 'सुकृतम्' की ही व्याख्या प्रस्तुत मन्त्र में 'ऋत' शब्द से हुई है। (ऋतं च मे) = मेरे जीवन में 'ऋत' हो । ऋत वही है जो ठीक = right है। ठीक वही है जो ठीक स्थान व समय के अनुकूल है। इस ऋत के पालन से ही (अमृतं च मे) = मुझे अमृत की प्राप्ति हो । स्वाभाविक मृत्यु को छोड़कर जो रोगरूप मृत्यु हैं, उनसे मैं बचा रहूँ। मैं केवल 'जरा मृत्युवाला होऊँ। पूर्ण आयुष्य में होनेवाली जीर्णता से ही मेरा यह शरीर जाए । २. (अयक्ष्मं च मे) = ऋत के पालन से मुझमें धातुक्षयजनित रोग उत्पन्न न हों। (अनामयत् च मे) = सामान्य व्याधियों से राहित्य भी मुझे प्राप्त हो। ३. (जीवातुः च मे) = [येन जीवयति] जिससे दीर्घ जीवन प्राप्त होता है वह पथ्य भोजन मुझे प्राप्त हो । (दीर्घायुत्वं च मे) = उस पथ्य भोजन के सेवन से मैं दीर्घ जीवन को प्राप्त करूँ। ४. इस दीर्घ जीवन के लिए ही (अनमित्रं च मे) = मेरी किसी से शत्रुता न हो और (अभयं च मे) = मैं अभय को प्राप्त होऊँ। मन में होनेवाली शत्रुता व भय की भावना शरीर पर भी घातक प्रभाव उत्पन्न करती है । ५. (सुखं च मे) मैं शत्रुओं से भयरहित होकर सुखी जीवनवाला होऊँ। (शयनं च मे) = मैं सुख की नींद सो सकूँ। ६. रात्रि में सुखपूर्वक सोने के बाद मैं प्रातः तरोताजा होकर उठूं और (सूषाः च मे) = मेरा प्रातःकाल बड़ा उत्तम हो। मैं अपने प्रातः कृत्यों को उत्तमता से सम्पादित कर सकूँ, तथा (सुदिनं च मे) = मेरा सारा दिन यज्ञदानाध्ययनादि युक्त होकर सुन्दरता से बीते । ऋत से प्रारम्भ होकर सुदिन तक मेरा सब कुछ (यज्ञेन) = उस प्रभु के सम्पर्क से (कल्पन्ताम्) = सम्पन्न हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- मैं ऋत के द्वारा अमृतत्व - अयक्ष्मत्व व अनामयत्व को सिद्ध करूँ। मेरा जीवन पथ्य- सेवन से दीर्घायु तक चले । शत्रुता व भय से रहित होकर मैं सुखी बनूँ एवं सुख की नींद सो सकूँ। मेरा प्रातः काल उत्तम हो तथा सारा दिन सुन्दरता से व्यतीत हो ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जी माणसे सत्य भाषण इत्यादी कर्म करतात ती नेहमी सुखी होतात.

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    विषय

    पुढील मंत्रात तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (उपासक मनात इच्छा करीत आहे अथवा परमेश्वराची प्रार्थना करीत आहे (हे परमेश्वरा,) (मे) माझे (ऋतम्) यथार्थ ज्ञान (च) आणि त्याची पूर्तता वा प्राप्ती करण्यासाठी आवश्यक ते पदार्थ तसेच (मे) माझे (अमृतम्) आत्मस्वरूप अथवा यज्ञानंतर अविशिष्ट राहिलेले अन्न (सत्यभाषण व सत्याचरण याद्वारे समर्थ व्हावे) (मे) माझे (अयक्ष्यम्) यक्ष्मा आदी रोगांपासून मुक्त असणारे शरीर (च) आणि रोगमुक्तसाठी मी करीत असलेले कर्म वा उपाय तसेच (मे) माझे (अनामयत्) नीरोग शरीर व दीर्घायुष्य (च) आणि ते प्राप्त करण्यासाठी उपयोगात येणार्‍या औषधी (सत्य व्यवहाराद्वारे समर्थ व्हाव्यात) (मे) माझे (जिवातु:) त्यामुळे सर्व जगतात वा जो सर्वांना जगवितो तो सत्यव्यवहार (च) आणि पथ्यकर जेवण तसेच (मे) माझे वा मी (दीर्घायुत्वम्) दीर्घायुषी (व्हावे) (च) आणि माझे ब्रह्मचर्य, इंद्रियसंयम आदी विषयीचे आचरण (मे) माझे (अनमित्रम्) मित्र (च) आणि पक्षपात सोडून केलेले उत्तमकर्म तसेच (मे) माझी (अभयम्) निर्भयवृत्ती (च) आणि शूरत्व (सत्याचरणाद्वारे वृद्धिंगत व्हावे) (मे) माझे (सुखम्) निर्भेळ आनंद (च) आणि या आनंदवृत्तीला जपणारे माझे आचरण तसेच (मे) माझे (शयनम्) शयन (च) आणि सुखपूर्ण शयन संपन्न करणारे पदार्थ (माझ्यासाठी समर्थ व्हावेत) (मे) माझी (सूषा:) सकाळ वा उष:काळ (च) आणि त्याकाळी संपन्न होणार्‍या उत्तम क्रिया (व्यायाम, प्रात:भ्रमण, प्राणायाम आदी क्रिया) (तसेच) मे) माझे सुदिन (च) या शुभदिनी होणारे सर्व कर्म (यूज्ञेम) सत्यवचन आदी व्यवहाराने (कल्पन्ताम्) परिपूर्ण असावेत (वा माझ्यासाठी सामर्थ्यकारी व्हावेत) ॥6॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जे लोक सत्यभाषण आदी कर्म आचरतात, ते अवश्य सुखी होतात. ॥6॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May my knowledge and its contributory cause, my immortality and juice worth drinking, my freedom from consumption and acts that remove sickness, my age free from disease and medicines that contribute to it, my life-strength and abstemiousness, my longevity and celibacy, my freedom from enemies and love for justice, my freedom from fear and valour, my happiness and its cause, my sleep and its contributory cause, my fair dawn a. id its cause, my fair day and useful deeds prosper through truthfulness.

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    Meaning

    My knowledge and practice of truth and Dharma, my immortal spirit and meditation, my freedom from illness and exercise, my freedom from suffering and my medication, my vitality and tonics, my longevity and yoga, my freedom from enmity and love for all, my freedom from fear and self-confidence, my joy and means of comfort, my sleep and freedom from tension, my beautiful dawn and early prayers, my happy day and good fortune, may all these grow, be firm and favourable for all and for me by yajna, corporate action and the Grace of God.

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    Translation

    May my righteous actions and my immortality, my freedom from consumption and mу diseaseless health, my cure and my longevity, my foelessness and my freedom from fear, my happiness and my restful sleep, my good dawns and my good days be secured by means of sacrifice. (1)

    Notes

    Sūṣaḥ, good mornings. Sudinam, good day.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–(মে) আমার (ঋতম্) যথার্থ বিজ্ঞান (চ) এবং তাহার সিদ্ধিকারী পদার্থ (মে) আমার (অমৃতম্) আত্মস্বরূপ বা যজ্ঞ হইতে অবশিষ্ট অন্ন (চ) তথা পানীয় রস (মে) আমার (অয়ক্ষ্মম্) যক্ষ্মাদি রোগরহিত শরীরাদি (চ) এবং রোগবিনাশক কর্ম (মে) আমার (অনাময়ৎ) রোগাদি রহিত আয়ু (চ) এবং ইহার সিদ্ধিকারী ওষধিসমূহ (মে) আমার (জীবাতুঃ) যদ্দ্বারা বাঁচিয়া আছি বা যাহা বাঁচায় সেই ব্যবহার (চ) এবং পথ্য ভোজন (মে) আমার (দীর্ঘায়ুত্বম্) অধিক আয়ুর হওয়া (চ) ব্রহ্মচর্য্য ও ইন্দ্রিয়গুলিকে নিজের বশে রাখা আদি কর্ম (মে) আমার (অনমিত্রম্) মিত্র (চ) এবং পক্ষপাত ত্যাগ করিয়া কর্ম (মে) আমার (অভয়ম্) ভয় রহিত হওয়া (চ) এবং শৌর্য্য (মে) আমার (সুখম্) অতি উত্তম আনন্দ (চ) এবং ইহাকে সিদ্ধকারী (মে) আমার (শয়নম্) শয়ন (চ) এবং সেই কর্মের সিদ্ধিকারক পদার্থ (মে) আমার (সূষাঃ) সেই সময় যাহাতে উত্তম প্রাতঃকালের বেলা হয় (চ) এবং উক্ত কর্ম সম্পর্কীয় ক্রিয়া তথা (মে) আমার (সুদিনম্) সুদিন (চ) এবং উপযোগী কর্ম এই সব (য়জ্ঞেন) সত্য বচন বলা ইত্যাদি ব্যবহার দ্বারা (কল্পন্তাম্) সমর্থিত হউক ॥ ৬ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ– যে সব মনুষ্য সত্যভাষণাদি কর্ম করে তাহারা সুখী হয় ॥ ৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ঋ॒তং চ॑ মে॒ऽমৃতং॑ চ মেऽয়॒ক্ষ্মং চ॒ মেऽনা॑ময়চ্চ মে জী॒বাতু॑শ্চ মে দীর্ঘায়ু॒ত্বং চ॑ মেऽনমি॒ত্রং চ॒ মেऽভ॑য়ং চ মে সু॒খং চ॑ মে॒ শয়॑নং চ মে সূ॒ষাশ্চ॑ মে সু॒দিনং॑ চ মে য়॒জ্ঞেন॑ কল্পন্তাম্ ॥ ৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ঋতং চেত্যস্য দেবা ঋষয়ঃ । প্রজাপতির্দেবতা । ভুরিগতিশক্বরী ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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