यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 57
ऋषिः - गालव ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृदार्षी गायत्री
स्वरः - षड्जः
3
इ॒ष्टोऽअ॒ग्निराहु॑तः पिपर्त्तु नऽइ॒ष्टꣳ ह॒विः। स्व॒गेदं दे॒वेभ्यो॒ नमः॑॥५७॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ष्टः। अ॒ग्निः। आहु॑त॒ इत्याहु॑तः। पि॒प॒र्त्तु॒। नः॒। इ॒ष्टम्। ह॒विः। स्व॒गेति॑ स्व॒ऽगा। इ॒दम्। दे॒वेभ्यः॑। नमः॑ ॥५७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इष्टोऽअग्निराहुतः पिपर्तु न इष्टँ हविः । स्वगेदन्देवेभ्यो नमः ॥
स्वर रहित पद पाठ
इष्टः। अग्निः। आहुत इत्याहुतः। पिपर्त्तु। नः। इष्टम्। हविः। स्वगेति स्वऽगा। इदम्। देवेभ्यः। नमः॥५७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हविराहुत इष्टोऽग्निर्न इष्टं पिपर्त्तु नः पिपर्त्तु वा इदं स्वगा नमो देवेभ्योऽस्तु॥५७॥
पदार्थः
(इष्टः) सत्कृत आहुतिभिर्वर्धितो वा (अग्निः) सभाद्यध्यक्षो विद्वान् पावको वा (आहुतः) समन्तात् तर्पितो हुतो वा (पिपर्त्तु) पालयतु पूरयतु वा (नः) अस्मानस्माकं वा (इष्टम्) सुखं तत्साधनं वा (हविः) हविषा। संस्कृतद्रव्येण विभिक्तिव्यत्ययः (स्वगा) यत्स्वान् गच्छति प्राप्नोति तत् स्वगा। अत्र विभक्तेः सुपां सुलुग्॰ [अष्टा॰७.१.३९] इत्याकारदेशः (इदम्) (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (नमः) अन्नं सत्कारो वा॥५७॥
भावार्थः
मनुष्यैरग्नौ यत् सुसंस्कृतं द्रव्यं हूयते यदिह बह्वन्नकारि जायतेऽतस्तेन विद्वदादीनां सत्कारः कर्त्तव्यः॥५७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
(हविः) संस्कार किये पदार्थों से (आहुतः) अच्छे प्रकार तृप्त वा हवन किया (इष्टः) सत्कार किया वा आहुतियों से बढ़ाया हुआ (अग्निः) यह सभा आदि का अध्यक्ष विद्वान् वा अग्नि (नः) हमारे (इष्टम्) सुख वा सुख के साधनों को (पिपर्त्तु) पूरा करे वा हमारी रक्षा करे (इदम्) यह (स्वगा) अपने को प्राप्त होने वाला (नमः) अन्न वा सत्कार (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये हो॥५७॥
भावार्थ
मनुष्य अग्नि में अच्छे संस्कार से बनाये हुए जिस पदार्थ का होम करते हैं, सो इस संसार में बहुत अन्न का उत्पन्न करने वाला होता है, इस कारण उससे विद्वान् आदि सत्पुरुषों का सत्कार करना चाहिये॥५७॥
विषय
अग्रणी नायक का प्रजापालन का कर्त्तव्य और उसका आदर।
भावार्थ
( आहुतः ) आहुत द्वारा बढ़ाये गये ( अग्नि: ) अग्नि के समान तेजस्वी, सत्कार प्राप्त विद्वान्, अग्रणी राजा ( इष्टः ) आदर सत्कार प्राप्त करके (नः) हमें (पिपत्त' ) पालन करें और ( इष्टम् ) हमें यथेष्ट ( हविः ) अन्नादि पदार्थों से ( पिपर्त्तु ) पूर्ण करे । ( देवेभ्यः विजिगीष और ज्ञानप्रद, द्रष्टा, विद्वान् पुरुषों के निमित्त ( इदम् ) यह ( नमः ) अन्न आदि सत्कार ( स्वगा ) अपने हितैषी को प्राप्त हों, वह अनायास बिना मांगे आप से आप उन्हें प्राप्त हों ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गालव ऋषिः । अग्निर्देवता । निचृदार्षी गायत्री । षड्जः ॥
विषय
हम यज्ञशील बनें
पदार्थ
१. गालव प्रार्थना कहता है कि हमसे (अग्निः इष्टः) = यह अग्नि सदा किया जाए [यज्=संगतिकरण] । हम अग्नि को उत्तम घृत-हवि आदि पदार्थों से प्रीणित करनेवाले हों । २. (आहुतः) = हमारे द्वारा घृत-हवि आदि को प्राप्त कराया हुआ यह अग्नि (नः) = हमारा (पिपर्त्तु) = पालन व पूरण करनेवाला हो। यह आहुत अग्नि [क] वायुमण्डल की शुद्धि का साधन बनता है। [ख] यह रोगकृमियों का संहार करता है और इस प्रकार हमारे स्वास्थ्य का पालन करता है। [ग] यह अग्नि हमें सौमनस्य को देनेवाला होता है [घ] और वृष्टि के द्वारा उत्तम अन्न देकर हमारी आवश्यकताओं का पूरण करता है, अतः ३. हमारे अन्दर यज्ञ की वृत्ति बनी ही रहे और (नः) = हमें (हविः) = [ हु दानादनयोः] यज्ञों में धन का विनियोग करके यज्ञशेष को खाने की वृत्ति ही (इष्टम्) = प्रिय हो। हम सदा यज्ञशेष खानेवाले ही बनें। ५. इस प्रकार (इदं स्वगा) = यह हमारा जीवन (स्व) = आत्मा की ओर (गा) = जानेवाला है। हम भौतिकता की वृत्तिवाले न बन जाएँ। हम अपने जीवन में यज्ञिय वृत्ति को अपनाकर प्रभु की ओर चलें और (देवेभ्यः) = दिव्य गुणों के धारण के लिए (नमः) = सदा नम्रता का धारण करनेवाले हों, देवों के प्रति नतमस्तक हों।
भावार्थ
भावार्थ- हम यज्ञशील बनकर 'स्व-गा' आत्मा की ओर चलनेवाले बनें। इस आत्मा की ओर चलते हुए हम उसी के छोटे रूप बनें। 'गा' और 'लव' बनें। गालव बनकर हम दिव्य गुणों के धारण के लिए नम्र बनें। नम्रता ही दिव्य गुणों की जननी है। इन दिव्य गुणों को पैदा करके ही हम महादेव को पाएँगे।
मराठी (2)
भावार्थ
माणसे अग्नीमध्ये ज्या उत्तम पदार्थांचा होम करतात. त्यामुळे जगात पुष्कळ अन्न उत्पन्न होते म्हणून अन्न इत्यादींनी विद्वान सत्पुरुषांचा सत्कार केला पाहिजे.
विषय
पुढील मंत्रातही तोच विषय -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (या मंत्रात ‘अग्नि‘ शब्दाचा सदंर्भ भौतिक अग्नी आणि सभापती राजा, या दोन्हीकडे आहे. त्यामुळे काही शब्दांचे दोन अर्थ वा पक्ष आहेत) (हवि:) संस्कारित शुद्ध पदार्थांच्या (आहुत:) चांगल्या पद्धतीने आहुत्या देऊन (इष्ट:) प्रज्वलित केलेला (हा (अग्नि:) भौतिक यज्ञाग्नी (न:) आमच्या (इष्टम्) सुखाची आणि सुखप्राप्तीच्या साधनांची (पितर्तु) पूर्तता करतो (दुसरा अर्थ-हा सभाध्यक्ष विद्वान आमच्या इच्छित कामना पूर्ण करो) (इदम्) हा (आम्ही करीत असलेल्या अन्नादीचा दान व (स्वगा) आम्हांस प्राप्त होणारे (नम:) अन्न (देवेभ्य:) विद्वानांसाठी असावे. (तसेच आम्ही करीत असलेल्या सत्काराचा विद्वानांनी स्वीकार करावा.) ॥57॥
भावार्थ
भावार्थ - जे यज्ञकर्मीजन शुद्ध सुसंस्कारित पदार्थांद्वारे यज्ञ करतात, त्यानी केलेले ते यज्ञ रुप सत्कृत्यामुळे जगात भरपूर अन्न-धान्य उगवते. त्यामुळे इतर लोकांनी त्या याज्ञिक विद्वानांचा, सत्पुरुषांचा सत्कार अवश्य करावा ॥57॥
इंग्लिश (3)
Meaning
May fire developed through Homa with oblations and purified substances, enhance our happiness. May this food acquired by us be offered to the sages.
Meaning
May Agni, invoked and fed with love and fragrant materials, protect and promote us with the desired comfort and joy. And may this food and homage which comes to its own reach the noblest powers of nature and humanity.
Translation
May the fire, produced at the sacrifice and offered oblations, grant desired provisions to us. May this be our spontaneous homage to the enlightened опеѕ. (1)
Notes
Svaga,स्वयं गमनशीलं , moving by itself; spontaneous. Havih, offering; homage; oblation.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–(হবিঃ) সংস্কার কৃত পদার্থসমূহের দ্বারা (আহুতঃ) উত্তম প্রকার তৃপ্ত বা হবনী কৃত (ইষ্টঃ) সৎকার কৃত বা আহুতিসমূহ দ্বারা বৃদ্ধি প্রাপ্ত (অগ্নিঃ) এই সভাদির অধ্যক্ষ বিদ্বান্ বা অগ্নি (নঃ) আমাদের (ইষ্টম্) সুখ বা সুখের সাধনগুলিকে (পিপর্ত্তু) পূর্ণ করুক বা আমাদের রক্ষা করুক (ইদম্) এই (স্বগা) স্বয়ংকে প্রাপ্ত হইবার (নমঃ) অন্ন বা সৎকার (দেবেভ্যঃ) বিদ্বান্দিগের জন্য হউক ॥ ৫৭ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–মনুষ্য অগ্নিতে উত্তম সংস্কার পূর্বক নির্মিত যে পদার্থের হোম করে উহা এই সংসারে বহু অন্ন উৎপন্নকারী হইয়া থাকে এই কারণে তাহা দ্বারা বিদ্বানাদি সব পুরুষদিগের সৎকার করা উচিত ॥ ৫৭ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ই॒ষ্টোऽঅ॒গ্নিরাহু॑তঃ পিপর্ত্তু নऽই॒ষ্টꣳ হ॒বিঃ ।
স্ব॒গেদং দে॒বেভ্যো॒ নমঃ॑ ॥ ৫৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ইষ্ট ইত্যস্য গালব ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃদার্ষী গায়ত্রী ছন্দঃ ।
ষড্জঃ স্বরঃ ॥
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