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यजुर्वेद अध्याय - 18

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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 17
    ऋषिः - देवा ऋषयः देवता - मित्रश्वर्य्यसहित आत्मा देवता छन्दः - स्वराट् शक्वरी स्वरः - धैवतः
    2

    मि॒त्रश्च॑ म॒ऽइन्द्र॑श्च मे॒ वरु॑णश्च म॒ऽइन्द्र॑श्च मे धा॒ता च॑ म॒ऽइन्द्र॑श्च मे॒ त्वष्टा॑ च म॒ऽइन्द्र॑श्च मे म॒रुत॑श्च म॒ऽइन्द्र॑श्च मे विश्वे॑ च मे दे॒वाऽइन्द्र॑श्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥१७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मि॒त्रः। च॒। मे॒। इन्द्रः॑। च॒। मे॒। वरु॑णः। च॒। मे। इन्द्रः॑। च॒। मे॒। धा॒ता। च॒। मे॒। इन्द्रः॑। च॒। मे॒। त्वष्टा॑। च॒। मे॒। इन्द्रः॑। च॒। मे॒। म॒रुतः। च॒। मे॒। इन्द्रः॑। च॒। मे॒। विश्वेः॑। च॒। मे॒। दे॒वाः। इन्द्रः॑। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥१७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मित्रश्च मऽइन्द्रश्च मे वरुणश्च मऽइन्द्रश्च मे धाता च मऽइन्द्रश्च मे त्वष्टा च मऽइन्द्रश्च मे मरुतश्च मऽइन्द्रश्च मे विश्वे च मे देवाऽइन्द्रश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मित्रः। च। मे। इन्द्रः। च। मे। वरुणः। च। मे। इन्द्रः। च। मे। धाता। च। मे। इन्द्रः। च। मे। त्वष्टा। च। मे। इन्द्रः। च। मे। मरुतः। च। मे। इन्द्रः। च। मे। विश्वेः। च। मे। देवाः। इन्द्रः। च। मे। यज्ञेन। कल्पन्ताम्॥१७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 17
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    मे मित्रश्च म इन्द्रश्च मे वरुणश्च म इन्द्रश्च मे धाता च म इन्द्रश्च मे त्वष्टा च म इन्द्रश्च मे मरुतश्च म इन्द्रश्च मे विश्वे च देवा म इन्द्रश्च यज्ञेन कल्पन्ताम्॥१७॥

    पदार्थः

    (मित्रः) प्राणः (च) समानः (मे) (इन्द्रः) विद्युत् (च) तेजः (मे) (वरुणः) उदानः। प्राणोदानौ मित्रावरुणौ॥ (शत॰१.८.३.१२) (च) व्यानः (मे) (इन्द्रः) सूर्य्यः (च) धृतिः (मे) (धाता) धर्त्ता (च) धैर्य्यम् (मे) (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यप्रापकः (च) न्यायः (मे) (त्वष्टा) विच्छेदकोऽग्निः (च) पुरुषार्थः (मे) (इन्द्रः) शत्रुविदारको राजा (च) शिल्पम् (मे) (मरुतः) ब्रह्माण्डस्था अन्ये वायवः (च) शारीरा धातवः (मे) (इन्द्रः) सर्वाभिव्यापिका तडित् (च) एतत्प्रयोगः (मे) (विश्वे) सर्वे (च) सर्वस्वम् (मे) (देवाः) दिव्यगुणाः पृथिव्यादयः (इन्द्रः) परमैश्वर्यप्रदाता (च) एतदुपयोगः (मे) (यज्ञेन) वायुविद्याविधानेन (कल्पन्ताम्)॥१७॥

    भावार्थः

    मनुष्याः प्राणविद्युद्विद्यां विज्ञायैतयोः सर्वत्राभिव्याप्तिं च ज्ञात्वा दीर्घजीवनं सम्पादयेयुः॥१७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    (मे) मेरा (मित्रः) प्राण अर्थात् हृदय में रहने वाला पवन (च) और समान नाभिस्थ पवन (मे) मेरा (इन्द्रः) बिजुलीरूप अग्नि (च) और तेज (मे) मेरा (वरुणः) उदान अर्थात् कण्ठ मे रहने वाला पवन (च) और समस्त शरीर में विचरने हारा पवन (मे) मेरा (इन्द्रः) सूर्य (च) और धारणाकर्षण (मे) मेरा (धाता) धारण करनेहारा (च) और धीरज (मे) मेरा (इन्द्रः) परम ऐश्वर्य का प्राप्त कराने वाला (च) और न्याययुक्त पुरुषार्थ (मे) मेरा (त्वष्टा) पदार्थों को छिन्न-भिन्न करने वाला अग्नि (च) और शिल्प अर्थात् कारीगरी (मे) मेरा (इन्द्रः) शत्रुओं को विदीर्ण करनेहारा राजा (च) तथा कारीगरी (मे) मेरे (मरुतः) इस ब्रह्माण्ड में रहने वाले अन्य पवन (च) और शरीर के धातु (मे) मेरी (इन्द्रः) सर्वत्र व्यापक बिजुली (च) और उसका काम (मे) मेरे (विश्वे) समस्त पदार्थ (च) और सर्वस्व (देवाः) उत्तम गुणयुक्त पृथिवी आदि (मे) मेरे लिये (इन्द्रः) परम ऐश्वर्य का दाता (च) और उसका उपयोग ये सब (यज्ञेन) पवन की विद्या के विधान करने से (कल्पन्ताम्) समर्थ होवें॥१७॥

    भावार्थ

    मनुष्य प्राण और बिजुली की विद्या को जान और इनकी सब जगह सब ओर से व्याप्ति को जानकर अपने बहुत [दीर्घ] जीवन को सिद्ध करें॥१७॥

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    विषय

    यज्ञ से अग्नि आदि दिव्य तत्व और उनके ज्ञाता विद्वानों की प्राप्ति, यज्ञ से न्यायाधीश आदि पदाधिकारियों की प्राप्ति । यज्ञ से पृथिवी, अन्तरिक्ष सूर्य, नक्षत्र, काल आदि पदार्थों के ज्ञान और उनके ज्ञाताओं की प्राप्ति ।

    भावार्थ

    ( मित्र: च ) मित्र न्यायाधीश और प्राण ( इन्द्रः च ) उसके ऊपर अधिष्ठित राजा, सभापति, विद्युत्, ( वरुणः च) दुष्टों का वारण करने 'वाला अधिकारी 'वरुण', (इन्द्रः च ) उस पर भी अधिष्ठित शत्रुनाशक इन्द्र, ( धाता च ) राष्ट्र का पोषक 'धाता' और न्याय, ( इन्द्रः च ) उस पर भी शासक ऐश्वर्यवान् अन्नपति इन्द्र, ( त्वष्टा च ) शिल्पों का कर्त्ता पुरुष 'त्वष्टा' और ( इन्द्रः च ) उसका अधिपति, व्यवहारकुशल 'इन्द्र', शत्रुघाती, ( मरुतः च) वायु के समान वेगवान् वीर योद्धा ( इन्द्रः च ) इन्द्र, सेनापति, (विश्वे च देवाः) और समस्त विद्वान् पुरुष और ( इन्द्रः च ) उनका स्वामी इन्द्र ये सब ही अधिकारीगण और शासक अधिपति ( मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ) मेरे राष्ट्र में परस्पर सुसंगति, सुव्यवस्था से हों ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मित्रैश्वर्यसहित आत्मा । स्वराट् शक्वरी । धैवतः ।

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    विषय

    मित्र + इन्द्र [ लक्ष्य संख्या - २ ]

    पदार्थ

    १. (मित्रः च मे) = मुझमें स्नेह की भावना हो। प्रेम के मैं पास होऊँ। २. (वरुणः च मे) = मैं द्वेष का निवारण करनेवाला बनूँ। द्वेष से सदा दूर रहूँ। ३. (धाता च मे) = मैं सदा धारण करनेवाला बनूँ। मेरे कर्म धारणात्मक हों । ४. (त्वष्टा च मे) = मैं देवशिल्पी बनूँ। निर्माणात्मक कार्यों में लगा रहकर मैं अपने अन्दर दिव्य गुणों का निर्माण करूँ। ५. इन दिव्य गुणों के निर्माण के लिए (मरुतः च मे) = ये मरुतू मेरे हों। मरुतः प्राणाः प्राणों की साधना करनेवाला मैं बनूँ। ६. इस प्राण-साधना से (विश्वे च देवाः मे) = सब देव मेरे हों। प्राण-साधना से इन्द्रियों के दोष दूर होकर दिव्यता का सञ्चार होता है। मेरी ये सब बातें (यज्ञेन) = प्रभु- सम्पर्क से (कल्पन्ताम्) = सम्पन्न हों।

    भावार्थ

    भावार्थ- मेरे जीवन का लक्ष्य 'स्नेह, द्वेष निवारण, धारण, निर्माण तथा प्राण-साधना द्वारा दैवी सम्पत्ति का अर्जन' हो, परन्तु यह सब होगा तो तभी जब कि (इन्द्रः च मे) = मुझ में इन्द्रत्व होगा, अर्थात् मैं जितेन्द्रिय बनूँगा ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसांनी प्राण व विद्युत विद्या यांची सर्वत्र व्याप्ती जाणावी व दीर्घजीवी बनावे.

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    विषय

    पुन्हा तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (मे) माझा (मित्र:) प्राण म्हणजे हृदयात असणारा वायू (च) आणि समान नामक नाभीत राहणारा वायू, तसेच (मे) माझा (इन्द्र:) विद्युतरुप अग्नी (च) आणि त्याचा तेज (पचनविद्येमुळे माझ्यासाठी शक्तीदायी होवो) (मे) माझा (वरूण:) उदान म्हणजे कंठस्थ वायू (च) आणि समस्त शरीरात विचरण करणारा (व्यान) नामक वायू, तसेच (मे) माझा (इन्द्र:) सूर्य (च) आणि त्याची धारण-आकर्षण शक्ती (माझ्यासाठी सुखकर व्हावी/असावी) (मे) माझा (धाता) धारण करणारा (च) आणि माझे धैर्यगुण, तसेच (मे) मला (इन्द्र:) परम ऐश्वर्य प्राप्त करून देणारा (परमेश्वर) अथवा माझी संकल्पशक्ती) (च) आणि त्यानुसार माझा न्याय्य पुरुषार्थ (माझ्यासाठी हितकर होवो) (मे) माझा (त्वष्टा) पदार्थांना (छिन्न-भिन्न करणारा अग्नी (च) आणि त्याविषयीचे शिल्प म्हणजे यंत्र, तंत्रविद्या, तसेच (मे) माझा (मरूत:) या ब्रह्मांडात सर्वत्र राहणारा वायू (च) आणि शरीरातील धातू (माझ्यासाठी हितकर होवो) (मे) माझा (इन्द्र:) सर्वत्र व्यापक विद्युत (च) आणि त्यापासून मिळणारे फायदे, तसेच (मे) माझे (विश्वे) समस्त पदार्थ (च) आणि माझे सर्वस्व, (हितकारी व्हावेत) (मे) माझे (देवा:) उत्तम दिव्य गुणांनी युक्त पृथ्वी आदी (ग्रह, उपग्रह) (मे) माझी (इन्द्र:) परमऐश्वर्यदाता (च) आणि त्या ऐश्वर्याचा उपयोग, वरील हे सर्व (यज्ञेन) पवनविद्येचा उपयोग केल्यामुळे (माझ्यासाठी (कल्पन्ताम्) सुखदायी व हितकर व्हावेत ॥17॥

    भावार्थ

    भावार्थ - मनुष्यांनी प्राणविद्या आणि विद्युतविद्येचे ज्ञान संपादित करावे. त्या विद्यांची व्याप्ती सर्वत्र आहे, हे जाणून घेऊन त्या विद्येद्वारे आपले जीवन सुखी करावे ॥17॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May my breath residing in the heart and breath in the navel, my electrical fire and lustre, my breath in the throat and breath pervading the entire body, my sun and power of retention and attraction, my soul and patience, my bestower of supreme prosperity and just enterprise, my fire the Consumer of substances and artisanship, my ruler the extinguisher of foes, and craftsmanship, my airs and bodily humours, my ubiquitous lightning and its performances, my all belongings and riches, my beautiful forces of nature, my giver of glory and its use, prosper through the knowledge of the science of air.

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    Meaning

    Mitra, my pranic energy of breath and energy of the system, and Indra, my lustre and electric energy; and Varuna, pranic energy of the throat and blood circulation, and Indra, solar energy of sustenance; and Dhata, my controller and ordainer, and Indra, giver of prosperity; and Tvashta, catalytic energy of my system, and my endeavour, and Indra, the breaker of my negative forces and giver of scientific energy; and the Maruts, cosmic wind and body vitality, and Indra, universal energy and its scientific use; and all the powers of nature such as earth and great powers of humanity, and Indra, lord giver of all glory and success; may all these powers grow strong and auspicious for me and for all by yajna, joint action in the service of nature and by the Grace of God.

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    Translation

    May my friendly Lord (Mitra) and my resplendent Lord (Indra), my venerable Lord (Varuna) and my resplendent, my sustainer Lord (Dhatr) and my resplendent, my supreme Mechanic (Tvastr) and my resplendent, my cloud-bearing winds (Maruts) and my resplendent, my all the bounties of Nature (Visvedevah) and my resplendent Lord be secured by means of sacrifice. (1)

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–(মে) আমার (মিত্রঃ) প্রাণ অর্থাৎ হৃদয়ে বাসকারী পবন (চ) এবং সমান নাভিস্থ পবন (মে) আমার (ইন্দ্রঃ) বিদ্যুৎ রূপ অগ্নি (চ) এবং তেজ (মে) আমার (বরুণঃ) উদান অর্থাৎ কণ্ঠে নিবাসকারী পবন (চ) এবং সমস্ত শরীরে বিচরণকারী পবন (মে) আমার (ইন্দ্রঃ) সূর্য্য (চ) এবং ধারণাকর্ষণ (মে) আমার (ধাতা) ধারণকারী (চ) এবং ধৈর্য্য (মে) আমার (ইন্দ্রঃ) পরম ঐশ্বর্য্য প্রাপ্ত করান যিনি (চ) এবং ন্যায়যুক্ত পুরুষকার (মে) আমার (ত্বষ্টা) পদার্থসকলের ছিন্ন ভিন্ন কারী অগ্নি (চ) এবং শিল্প অর্থাৎ কারীগরী (মে) আমার (ইন্দ্রঃ) শত্রুদের বিদীর্ণকারী রাজা (চ) তথা কারীগরী (মে) আমার (মরুতঃ) এই ব্রহ্মাণ্ডে নিবাসকারী পবন (চ) এবং শরীরের ধাতু (মে) আমার (ইন্দ্রঃ) সর্বত্র ব্যাপক বিদ্যুৎ (চ) এবং তাহার কর্ম (মে) আমার (বিশ্বে) সমস্তপদার্থ (চ) এবং সর্বস্ব (দেবাঃ) উত্তম গুণযুক্ত পৃথিবী আদি (মে) আমার জন্য (ইন্দ্রঃ) পরম ঐশ্বর্য্যের দাতা (চ) এবং তাহার উপযোগ এই সমস্ত (য়জ্ঞেন) পবনের বিদ্যার বিধান করিতে (কল্পন্তাম্) সমর্থ হউক্ ॥ ১৭ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–মনুষ্য প্রাণ ও বিদ্যুৎ-র বিদ্যাকে জানো এবং ইহার সব জায়গায় সব দিক ব্যাপ্তিকে জানিয়া স্বীয় দীর্ঘ জীবন সিদ্ধ কর ॥ ১৭ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    মি॒ত্রশ্চ॑ ম॒ऽইন্দ্র॑শ্চ মে॒ বর॑ুণশ্চ ম॒ऽইন্দ্র॑শ্চ মে ধা॒তা চ॑ ম॒ऽইন্দ্র॑শ্চ মে॒ ত্বষ্টা॑ চ ম॒ऽইন্দ্র॑শ্চ মে ম॒রুত॑শ্চ ম॒ऽইন্দ্র॑শ্চ মে বিশ্বে॑ চ মে দে॒বাऽইন্দ্র॑শ্চ মে য়॒জ্ঞেন॑ কল্পন্তাম্ ॥ ১৭ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    মিত্রশ্চেত্যস্য দেবা ঋষয়ঃ । মিত্রৈশ্বর্য়্যসহিত আত্মা দেবতা । স্বরাট্ শক্বরী ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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